-मंगलाचरण-
अनादि निधन णमोकार महामंत्र एवं चत्तारि मंगल पाठ
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।।
चत्तारि मंगलं-अरिहंत मंगलं, सिद्ध मंगलं, साहु मंगलं, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं।
चत्तारि लोगुत्तमा-अरिहंत लोगुत्तमा, सिद्ध लोगुत्तमा, साहु लोगुत्तमा, केवलिपण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमा।
चत्तारि सरणं पव्वज्जामि-अरिहंत सरणं पव्वज्जामि, सिद्ध सरणं पव्वज्जामि, साहु सरणं पव्वज्जामि, केवलि पण्णत्तो धम्मो सरणं पव्वज्जामि।
श्री ऋषभदेव, श्री अजितनाथ, श्री संभवनाथ, श्री अभिनंदननाथ, श्री सुमतिनाथ, श्री पद्मप्रभनाथ, श्री सुपार्श्वनाथ, श्री चंद्रप्रभनाथ, श्री पुष्पदंतनाथ, श्री शीतलनाथ, श्री श्रेयांसनाथ, श्री वासुपूज्यनाथ, श्री विमलनाथ, श्री अनंतनाथ, श्री धर्मनाथ, श्रीशांतिनाथ, श्री कुंथुनाथ, श्री अरनाथ, श्री मल्लिनाथ, श्री मुनिसुव्रतनाथ, श्री नमिनाथ, श्री नेमिनाथ, श्री पार्श्वनाथ, श्री महावीर स्वामी। ये वर्तमानकालीन चौबीस तीर्थंकरों के नाम हैं।
श्री गौतम स्वामी उवाच-
धम्मो मंगलमुक्किट्ठं, अिंहसा संजमो तवो।
देवा वि तस्स पणमंति, जस्स धम्मे सया मणो।।
नम: ऋषभदेवाय, धर्मतीर्थप्रवर्तिने।
जीयात् भुवि सार्वभौम-शासनं जिनशासनम्।।१।।
धर्म मंगल स्वरूप है, वह अिंहसा संयम और तप है। जिसके मन में धर्म है देव भी उसे नमस्कार करते हैं।
प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव-तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव इस शाश्वत जन्मभूमि में-अयोध्या में युग की आदि में जैन परम्परा में प्रथम तीर्थंकर हुये हैं।
गर्भ कल्याणक-महाराजा नाभिराय की महारानी मरुदेवी के गर्भ में आने के छह माह पहले से ही माता के आंगन में साढ़े सात करोड़ प्रमाण प्रतिदिन रत्नों की वर्षा का होना। सौधर्मेन्द्र के द्वारा असंख्यातों देव-देवी परिवारों के साथ नगरी की तीन प्रदक्षिणा देना आदि।
जन्म कल्याणक-चैत्र कृ. नवमी को बालक का जन्म होते ही स्वर्गों में देवों के यहाँ बिना बजाये बाजों की ध्वनि होना आदि।
इंद्र की आज्ञा से प्रसूतिगृह से शची इंद्राणी द्वारा जन्मजात बालक को लेकर ऐरावत हाथी पर बैठकर यहाँ से लगभग २० करोड़ मील दूर पर स्थित सुमेरु पर्वत पर ले जाकर पांडुक शिला पर १००८ आदि हजारों-लाखों घड़ों से जन्मजात तीर्थंकर शिशु का जन्माभिषेक महोत्सव, इंद्र द्वारा बालक का ‘श्री ऋषभदेव’ नामकरण, पुन: लाकर अयोध्या में भी जन्मोत्सव मनाकर माता-पिता को सौंप देना आदि।
विवाह महोत्सव-जब तीर्थंकर युवावस्था को प्राप्त हुये, महाराजा नाभिराय ने सौधर्मेन्द्र से परामर्श कर यशस्वती और सुनंदा इन दो कन्याओं से श्री ऋषभदेव का विवाह महोत्सव संपन्न किया। क्रम-क्रम से महारानी यशस्वती ने भरत, बाहुबली, ऋषभसेन आदि १०१ पुत्रों को एवं ब्राह्मी पुत्री को जन्म दिया। तथा सुनंदा रानी ने बाहुबली पुत्र एवं सुंदरी नाम से प्रसिद्ध पुत्री को जन्म दिया।
प्रभु द्वारा विद्या-शिक्षा-प्रभु ऋषभदेव ने कुमारावस्था में सर्वप्रथम दोनों पुत्रियों को अपनी गोद में दायीं-बायीं तरफ बैठाकर ब्राह्मी को अ, आ, इ, ई आदि लिपि विद्या एवं सुंदरी को १,२,३,४ आदि अंक लिखाकर विद्याओं को जन्म दिया। पुन: भरत आदि सभी पुत्रों को भी संपूर्ण विद्याओं में एवं संपूर्ण कलाओं में निष्णात किया।
षट्क्रियाओं का उपदेश-उस समय जब भोगभूमि समाप्त हो रही थी कल्पवृक्षों ने भोजन, वस्त्र आदि देना बंद कर दिया, तब प्रजा के सभी लोग व्याकुल हुए प्रभु की शरण में आये।प्रभु ने उसी क्षण इंद्र का स्मरण किया। इंद्र ने आकर प्रभु की आज्ञा प्राप्त कर जंबूद्वीप के इस भरतक्षेत्र के आर्यखंड में कौशल, कुरुजांगल आदि ५२ देशों की एवं अयोध्या, हस्तिनापुर आदि की विशेष रचनाएँ कर दी। पुनश्च-भगवान ने अपने दिव्य अवधिज्ञान से विदेहक्षेत्रों में शाश्वत कर्मभूमि की व्यवस्था को जानकर यहाँ भी प्रजा के लिए असि, मषि, कृषि, शिल्प, विद्या और वाणिज्य ऐसी षट्क्रियाओं का उपदेश देकर जीने की कला, असि-शस्त्र धारणकर प्रजा की रक्षा करना आदि क्रियाएँ सिखाकर प्रसन्न किया।
विश्व के प्रथम राजा प्रभु ऋषभदेव-अनंतर सौधर्मेन्द्र ने आकर महाराजा नाभिराय से परामर्श कर असंख्यात देव परिवार के साथ मिलकर प्रभु ऋषभदेव का राज्याभिषेक करके विश्व के प्रथम राजा के पद पर प्रतिष्ठित किया। तभी-प्रभु ने अनेक मंडलीक आदि राजा बनाकर राजनीति का विस्तृत उपदेश दिया।
दीक्षा कल्याणक-किसी समय भगवान विरक्त हुये तभी-
अयोध्या का राज्य भरत को देकर, अन्य बाहुबली आदि सभी पुत्रों को पोदनपुर आदि यथायोग्य देशों के राज्य को सौंपकर दीक्षा के लिये तत्पर हुये। देवों द्वारा लाई गई पालकी में बैठकर अयोध्या से ही कुछ दूर पुरिमतालपुर के उद्यान में पहुँचे। जहाँ केशलोच करके संपूर्ण वस्त्र, आभरण का त्याग किया-‘प्रकृष्टो वा कृतस्त्याग: प्रयागस्तेन कीर्तित:, तभी उस स्थान का ‘प्रयाग’ यह नाम प्रसिद्ध हो गया।
छह मास का योग पूर्ण कर जब भगवान आहारचर्या को निकले, तब प्रभु के छह माह उनतीस दिन निकल जाने के बाद हस्तिनापुर के युवराज श्रेयांस को आठ भव पूर्व का जातिस्मरण हो जाने से आहार विधि में नवधा भक्ति करके पड़गाहन कर प्रभु को इक्षुरस का आहार दिया, तभी पंचाश्चर्यों की वृष्टि हुई थी।
केवलज्ञान कल्याणक-भगवान ऋषभदेव एक हजार वर्ष के तपश्चरण के बाद प्रयाग्ा में वटवृक्ष के नीचे ध्यान में लीन थे। फाल्गुन कृष्णा एकादशी को भगवान को दिव्य केवलज्ञान प्राप्त हो गया। स्वर्गों में देवों के यहाँ बिना बजाये बाजे बजने लगे आदि चिह्नों से इन्द्रों ने प्रभु को केवलज्ञान हुआ जानकर कुबेर को आज्ञा दी। तत्क्षण ही आकाश में अधर १२ योजन का दिव्य समवसरण बन गया और कमलासन पर भगवान अधर विराजमान हो गयें। असंख्य देव परिवारों ने आकर केवलज्ञान कल्याणक महोत्सव मनाया।
प्रथम गणधर-उसी समय परिमतालपुर के राजा प्रभु के तृतीय पुत्र ऋषभसेन ने आकर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर प्रथम गणधर पद प्राप्त किया।
भरत राजा का आगमन-अयोध्या में राजा भरत को एक साथ तीन समाचार प्राप्त हुये। प्रभु को केवलज्ञान की प्राप्ति, आयुधशाला में चक्ररत्न, महल में पुत्ररत्न प्राप्ति। राजा भरत प्रथम प्रयाग में आकर प्रभु के समवसरण में मुख्य श्रोता हुये। ब्राह्मी-सुन्दरी आदि आर्यिका दीक्षा लेकर, ब्राह्मी माता सभी आर्यिकाओं में ‘गणिनी पद’ को प्राप्त हुईं।
ऋषभदेव शासन जयंती पर्व-फाल्गुन कृ. ११ को प्रभु की दिव्यध्वनि खिरी थी अत: वह ‘श्री ऋषभदेव शासन जयंती पर्व’ प्रसिद्ध हो गया।
धर्म में सार में सार-धर्म के दो भेदों में श्रावक धर्म और मुनिधर्म हैं।
श्रावक के लिये सम्यग्दर्शन धारण कर मद्य, मांस, मधु का त्याग एवं सप्तव्यसन का त्याग-जुआ खेलना, मांस खाना, मंदिरा पीना, वेश्यागमन, शिकार, चोरी और परस्त्री सेवन, इनका त्याग करना यह संक्षेप में श्रावक धर्म हैं। एवं पाँच अणुव्रत, ११ प्रतिमा आदि श्रावक धर्म हैं। मुनियों के धर्म में ५ महाव्रत-िंहसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँचों का पूर्णरूपेण त्याग कर नग्न दिगम्बर मुनि बनना। इनके पास मयूर पंख की पिच्छी, काठ का कमंडलु एवं शास्त्र ये ही रहते हैं। ये मुनि और आर्यिका दो भेद के रूप में होते हैं।प्रभु पौष शु. १५ को योग निरोध कर पद्मासन से विराजमान थे। समवसरण विघटित हो गया था। चक्रवर्ती भरत आदि ने १४ दिन तक अखंड पूजा की थी।
मोक्ष कल्याणक-प्रभु को कैलाश पर्वत से माघ कृ. चतुर्दशी के दिन मोक्ष प्राप्त हुआ है। इंद्रों ने निर्वाण कल्याणक महोत्सव मनाया था।
यावन्ति जिन चैत्यानि, विद्यन्ते भुवनत्रये।
तावन्ति सततं भक्त्या, त्रि:परीत्य नमाम्यहम्।।
‘‘लोगो अकिट्टिमो खलु अणाइणिहणो सहावणिव्वत्तो।’’
यह लोक अकृत्रिम अनादि निधन है। स्वभाव से बना हुआ है। जैन ग्रंथों के अनुसार कोई ईश्वर न सृष्टि के कर्ता हैं और न हमारे, आपके आदि के कर्ता हैं। सृष्टि अनादि है, संसारी प्राणी अनादि हैं। चारों गतियों में-नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति में सभी संसारी प्राणी अनंतानंत ही इसमें भ्रमण कर रहे हैं। कोई भव्यप्राणी मनुष्य पर्याय प्राप्त कर संयम धारण कर मुनि, आर्यिका आदि बनकर या श्रावक धर्म का पाँच अणुव्रत आदि का पालन करते हुये देव, शास्त्र, गुरुओं की भक्ति करते हुये मोक्षमार्ग में चलकर परंपरा से संसार से छूटकर मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
लोक के तीन भाग-अधोलोक, मध्यलोक, ऊर्ध्वलोक के भेद से यह लोक तीन भागों में विभक्त है। बीच में त्रसनाड़ी है उसी में सारी रचना है।
अधोलोक-अधोलोक में नीचे निगोद व (७) सात नरक हैं। पुन: दो भागों में देवों के महल हैं। जिनमें भवनवासी देवों के सात करोड़ बहत्तर लाख जिनमंदिर हैं तथा व्यंतरदेवों के असंख्यातों महलों में एक-एक ऐसे असंख्यात जिनमंदिर हैं।
मध्यलोक-बीच में असंख्यातों द्वीप, समुद्र हैं। प्रथम द्वीप का नाम जंबूद्वीप हैं। इसमें भरत आदि ७ क्षेत्र हैं। भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक््â, हैरण्यवत और ऐरावत। इसमें विदेहक्षेत्र में ३२ भेद है।। वहाँ शाश्वत कर्मभूमि हैं। भरत और ऐरावत में एक आर्यखंड और पाँच म्लेच्छ खंड ऐसे छह खंड हैं। इनमें आर्यखंड में छह काल परिवर्तन होता है। जिसके नाम हैं-
१. सुषमा सुषमा, २. सुषमा, ३ सुषमा दु:षमा ४. दु:षमा सुषमा, ५ दु:षमा ६ दु:षमा दु:षमा।
इसमें में तीन काल में भोगभूमि रहती हैं, दश प्रकार के कल्पवृक्षों से वस्त्र, आभरण, भोजन आदि प्राप्त हो जाते हैं। पुन: तीन काल में कर्मभूमि में व्यापार आदि क्रियायें रहती हैं। वर्तमान में यहाँ भरतक्षेत्र के आर्यखंड में दु:षमा नाम से पंचमकाल चल रहा है।
मध्यलोक में-प्रथम जंबूद्वीप, द्वितीय धातकीखंड द्वीप, तृतीय पुष्करार्ध-द्वीप है।
जंबूद्वीप गोल थाली के समान आकार वाला है। इसे घेरकर लवण समुद्र है। पुन: इसे घेरकर धातकीखंड द्वीप है। वह दो भागों में विभक्त है-पूर्व धातकीखंड एवं पश्चिम धातकी- खंड। पुन: इसे घेरकर कालोदधि समुद्र है। इसे घेरकर पुष्कररार्ध द्वीप है। इसके बीच में चूड़ी के समान आकार वाला मानुषोत्तर पर्वत है। यहीं तक मनुष्यों की सीमा है। अत: ढाईद्वीप तक मनुष्य होते हैं।
यहाँ तीन लोक में मध्यलोक में ढाईद्वीप तक ही अति संक्षिप्त रचना नाम मात्र में दिखायी गई है।
ऊर्ध्वलोक-इस मध्यलोक के ऊपर ऊर्ध्वलोक है। इसमें १६ स्वर्ग सौधर्म-ईशान आदि हैं। नवग्रैवेयक, नव अनुदिश एवं पाँच अनुत्तर हैं। इनमें देवगण ही रहते हैं। १६ स्वर्गों तक देव-देवियाँ हैं, आगे मात्र देवगण-अहमिन्द्र नाम से होते हैं।
सिद्धशिला-इसके ऊपर सिद्धशिला है। इस सिद्धशिला से कुछ ऊपर जाकर अनंतानंत सिद्ध भगवान विराजमान हैंं।
जो मनुष्य दिगम्बर मुद्रा धारण कर जैनमुनि बनकर तपश्चरण करके अपने सभी आठ प्रकार के कर्मों को नष्ट कर देते हैं-अपनी आत्मा से पृथक््â कर देते हैं वे ही सिद्ध कहलाते हैं। ये लोक के अंदर ही हैं, लोक के बाहर नहीं है।
हमें और आपको भी मनुष्य पर्याय से पुरुषार्थ करके एक दिन इस सिद्ध अवस्था को प्राप्त करके अनंतानंत काल तक वहीं निवास करना है। इसी भावना के साथ इन सभी अनंतों सिद्ध भगवन्तों को एवं अनंतानंत चौबीस तीर्थंकर भगवंतों को अनंत-अनंत बार नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु।
सिद्धशिला पर राजते, सिद्ध अनंतानंत।
नमूँ त्रिकालिक सिद्ध सब, पाऊँ सौख्य अनंत।।
तीनलोक के शाश्वत-अकृत्रिम जैन मन्दिर-अधोलोक के सात करोड़ बहत्तर लाख जिनमंदिर हैं। मध्यलोक के चार सौ अट्ठावन एवं ऊर्ध्वलोक के चौरासी लाख सत्तानवे हजार तेईस हैं। ये सब मिलकर आठ करोड़, छप्पन लाख, सत्तानवें हजार, चार सौ इक्यासी हैं। मध्यलोक के जिनमंदिर केवल तेरहद्वीप तक ही हैं।
इन सभी में १०८-१०८ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं। अत:-
अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं की संख्या-नव सौ पच्चीस करोड़, त्रेपन लाख, सत्ताईस हजार, नव सौ, अड़तालीस हैं। इनमें से अधोलोक और ऊर्ध्वलोक के जिनमंदिर भवनवासी देवों के भवनों के और स्वर्गों के कल्पवासी देवों के भवनों के हैं। अर्थात् इन देवों के महलों में बने हुए हैं।
व्यंतर देवों के भवनों में तथा ज्योतिर्वासी देवों के भवनों के जिनमंदिर असंख्यात हैं। व्यंतर देव अधोलोक और मध्यलोक में हैं। ज्योतिर्वासी-सूर्य, चंद्रमा आदि मध्यलोक में ही हैं। ये असंख्यातों द्वीप-समुद्रों तक हैं।
कृत्रिम जिनमंदिर और जिनप्रतिमाएँ-अतीतकाल, वर्तमानकाल और भविष्यत्काल की अपेक्षा कृत्रिम जिनमंदिर और जिनप्रतिमाएँ जो कि देव या मनुष्यों के द्वारा निर्मापित हैं।ये मध्यलोक में ढाईद्वीप तक ही हैं। ये तीनों कालों के अनंतानंत हो जावेंगे।
यहाँ अयोध्या में निर्मित इस तीन लोक रचना में ७२७ जिनप्रतिमाएँ विराजमान हैं। अधोलोक में निगोद, नरक के बाद खरभाग-पंकभाग में देवों के भवनों में १४४ प्रतिमायें हैं। मध्यलोक में १४७ प्रतिमायें एवं ऊर्ध्वलोक में ४३६ प्रतिमायें हैं। इस प्रकार तीनलोक रचना में कुल मिलाकर-१४४±१४७±४३६·७२७ प्रतिमायें हैं।
चौबीसों तीर्थंकर भगवन्तों की चौबीस-चौबीस प्रतिमायें १००८ हैं। ४२ चौबीसी की ४र्२ े २४ ृ १००८ प्रतिमायें हैं।
यहाँ सन् २०२५ में हो रही पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में विधिनायक भगवान ऋषभदेव की प्रतिमा है।
इन सभी प्रतिमाओं को मेरा कोटि-कोटि नमन।
शाश्वत जन्मभूमि अयोध्या में इस बार चतुर्थकाल में पाँच तीर्थंकर जन्में हैं। (१) श्रीऋषभदेव, (२) श्रीअजितनाथ, (३) श्रीअभिनंदननाथ, (४) श्रीसुमतिनाथ, (५) श्रीअनंतनाथ। इनकी जन्मभूमियों में प्राचीन टोंको पर चरण बने हुए हैं। वहीं-वहीं पर जिनमंदिर बन गये हैं। उनमें भगवंतों की प्रतिमायें विराजमान हो चुकी हैं। भरत-बाहुबली टोंक पर भी मंदिर बनकर श्री भरत, बाहुबली स्वामी की प्रतिमा विराजमान हो चुकी हैं।
ऋषभदेव (बड़ी मूर्ति) मंदिर परिसर में विश्वशांति श्री ऋषभदेव मंदिर, तीन चौबीसी जिनमंदिर, ऋषभदेव समवसरण मंदिर हैं। तीस चौबीसी मंदिर एवं ऋषभदेव के सिद्धपद प्राप्त १०१ पुत्रों का मंदिर एवं चक्रवर्ती भरत सिद्ध परमेष्ठी का मंदिर बन चुका है। प्रतिमाएँ प्रतिष्ठित हो गई हैं। इसके साथ ही श्रीऋषभदेव का सर्वतोभद्र महल बन रहा है। अत्यंत सुन्दर ऋषभदेव द्वार बन गया है, और भी श्रीमुनिसुव्रतनाथ का मंदिर एवं श्री ऋषभदेव के पौत्र, भरत चक्रवर्ती के ९२३ पुत्रों का जोकि सिद्ध बन चके हैं, उनका मंदिर भी बन रहा है। अयोध्या की धरती पर आज पुन: चतुर्थकाल का दृश्य दिख रहा है। यह अयोध्या तीर्थ सदा जयवंत हो, यही मंगल भावना है।
ऋषभदेव से वीर तक, तीर्थंकर चौबीस।
नमूं अनंतों बार मैं, नमूँ नमूँ नत शीश।।१।।
पंच परमगुरु को नमूं, नित्य नमाकर माथ।
गौतम गणधर को नमूं, नमूं सरस्वती मात।।२।।
सदी बीसवीं के प्रथम, शांतिसागराचार्य।
वीरसागराचार्य गुरु, नमूँ भक्ति उर धार्य।।३।।
वीर अब्द पच्चीस सौ, इक्यावन जग धन्य।
फाल्गुन वदि एकादशी, तिथि अतिशायी वंद्य।।४।।
तीन लोक में जिनभवन, जिनप्रतिमा अतिशायि।
तीर्थंकर चौबीस को, नमूँ नमूँ शिरनाय।।५।।
तीर्थ अयोध्या जगत में, सार्वभौम जिनधर्म।
तब तक यह रचना रहे, देवे शिवपथ मर्म।।६।।
जिनप्रतिमा शाश्वत रहें, नमूँ नमूँ शिर टेक।
‘‘ज्ञानमती’’ कैवल्य हो, यही भावना एक।।७।।