-शार्दूलविक्रीडित-
सूक्ष्मत्वादणुदर्शिनोऽवधिदृश: पश्यन्ति नो यान्परे यत्संविन्महिमस्थितं त्रिभुवनं १स्वच्छं भमेकं यथा।
सिद्धान्नामहमप्रमेयमहसां तेषां लघुर्मानषो मूढात्मा किमु वच्मि तत्र यदि वा भक्त्या महत्या वश:।।१।।
अर्थ —परमाणुपर्यन्त सूक्ष्मपदार्थों को देखने वाले भी अवधिज्ञानी पुरुष अत्यंत सूक्ष्म जिन सिद्धों को नहीं देख सकते हैं तथा जिनके ज्ञान की महिमा में ये तीनों लोक निर्मल नक्षत्र के समान स्थित मालूम पड़ते हैं और जो अपरिमित तेज के धारी हैं उन सिद्धों की स्तुति को मैं अत्यन्त छोटा मनुष्य तथा अज्ञानी किस प्रकार कर सकता हूँ ? अर्थात् मैं उनकी स्तुति करने में समर्थ नहीं हूँ, तो भी प्रबल भक्ति से प्रेरित हुवा मैं उनकी स्तुति करता हूँ ।
भावार्थ — जो पदार्थ स्थूल तथा छोटा और परिमित होवे तथा उसका वर्णन करने वाला योग्य होवे तो उसका वर्णन किया जा सकता है किन्तु सिद्ध तो अत्यंत सूक्ष्म हैं जिनको परमाणुपर्यंत पदार्थों को प्रत्यक्ष करने वाला अवधिज्ञानी भी नहीं देख सकता है तथा अत्यंत महान हैं क्योंकि यह असंख्यातप्रदेशी भी लोक उनके ज्ञान में एक नक्षत्र के समान झलकता है अर्थात् उनके ज्ञान के कोने में यह तीन लोक समा रहा है और वे अपरिमित तेज के धारी हैं इसलिये अपरिमित भी हैं और मैं अत्यंत छोटा तथा अज्ञानी मनुष्य हूँ फिर मैं किस प्रकार उनकी स्तुति करने के लिये समर्थ हो सकता हूँ ? तो भी मुझे उनकी भक्ति प्रेरणा करती है इसलिये कुछ उनकी स्तुति को करता हूँ।।१।।
निश्शेषामरशेखराश्रितमणींश्रेण्यर्चिताङ्घ्रिद्वया देवास्तेऽपि जिना यदुन्नतपदप्राप्त्यै यतन्ते तराम्।
सर्वेषामुपरि प्रवृद्धपरमज्ञानादिभि: क्षायिवैâर्युक्ता न व्यभिचारिभि: प्रतिदिनं सिद्धान्नमामो वयम्।।२।।
अर्थ —समस्त प्रकार के देवों के मुकुटों में लगी हुई जो मणि, उनसे जिनके चरणों के युग्म पूजित हैं, ऐसे उत्कृष्ट देव तीर्थंकर भी जिस उच्चपद सिद्धपद की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करते हैं ऐसे समस्त लोक के शिखर पर विराजमान तथा कलंक रहित अत्यंत विस्तीर्णज्ञान आदि क्षायिक गुणों के धारी सिद्धों को प्रतिदिन हम नमस्कार करते हैं।।२।।
भावार्थ — समस्त देव आकर तीर्थंकर भगवान की सेवा-पूजा आदि करते हैं इसलिये यद्यपि संसार में तीर्थंकर भी एक प्रधान पद है तो भी वे तीर्थंकर सदा उस सिद्धपद की प्राप्ति के लिये प्रयत्न करते रहते हैं तथा जो सिद्ध तीन लोक के शिखर पर विराजमान हैं, निर्दोष-विस्तीर्ण-क्षायिकज्ञान आदि गुणों के धारी हैं, ऐसे सिद्धों को सदा हम नमस्कार करते हैं।।२।।
ये लोकाग्रविलम्बिनस्तदधिकं धर्मास्तिकायं विना नो याता: सहजस्थिरामललसद्दृग्बोधसन्मूर्तय:।
संप्राप्ता: कृतकृत्यतामसदृशा: सिद्धा जगन्मङ्गलं नित्यानन्दसुधारसस्य च सदा पात्राणि ते पान्तु व:।।३।।
अर्थ — जो सिद्धभगवान लोक के अग्रभाग में विराजमान हैं तथा जो धर्मास्तिकाय की सहायता से लोक के अग्रभाग में गये हैं और जिनका स्वरूप स्वाभाविक तथा निश्चल जो निर्मलज्ञान और दर्शन, उससे शोभायमान है और जो कृतकृत्य हैं और जिनकी उपमा को कोई भी धारण नहीं कर सकता और जो समस्त जगत का मंगल करने वाले हैं तथा जो अविनाशी आनन्दरूपी अमृत के पात्र हैं ऐसे सिद्ध भगवान आपकी रक्षा करें अर्थात् ऐसे सिद्धभगवान के लिये मेरा सदा नमस्कार है।।३।।
ये जित्वा निजकर्मकर्कशरिपून् प्राप्ता: पदं शाश्वतं येषां जन्मजरामृतिप्रभृतिभि: सीमापि नोल्लंघ्यते।
येष्वैश्वर्यमचिन्त्यमेकमसमज्ञानादिसंयोजितं ते सन्तु त्रिजगच्छिखाग्रमणय: सिद्धा मम श्रेयसे।।४।।
अर्थ — जो सिद्ध भगवान अपने समस्त कठोर कर्मरूपी बैरियों को जीतकर अविनाशी सिद्धपद को प्राप्त हुवे हैं और जन्म-जरा-मरण आदिक अठारह दोष जिनके पास भी नहीं फटकने पाते तथा जो अनन्तज्ञानादि कर किये हुवे अचिंत्य ऐश्वर्य के धारी हैं वे तीन जगत के शिखामणि सिद्ध भगवान मेरे कल्याण के लिये हों अर्थात् ऐसे सिद्धों को मैं नमस्कार करता हूँ।।४।।
सिद्धो बोधमिति स बोध उदितो ज्ञेयप्रमाणो भवेद् ज्ञेयं लोकमलोकमेव च वदत्यात्मेति सर्वस्थित:।
मूषायां मदनोज्भिते हि जठरे यादृङ् न भस्तादृश: प्राक्कायात्किमपि प्रहीण इति वा सिद्ध: सदानन्दति।।५।।
अर्थ — निष्कलंक वह शुद्धात्मा तो ज्ञान प्रमाण कहा गया है और वह ज्ञान ज्ञेय (पदार्थ) प्रमाण है तथा वे ज्ञेय लोकालोक प्रमाण हैं इसलिये इस युक्ति से तो आत्मा समस्त जगह पर मौजूद है अर्थात् व्यापक है किन्तु मनुष्याकार एक मोम की पुतली बनाकर तथा उसके ऊपर मिट्टी का लेप चढ़ाकर और उस पुतली को तपाकर मोम निकल जाने के पीछे जो उस मूषा में पुरुषाकार आकाश रह जाता है उसी प्रकार सिद्धावस्था के प्रथम शरीर से कुछ कमती आत्मप्रदेशों के आकाशस्वरूप भी वह शुद्धात्मा है अर्थात् अव्यापक भी है इसलिये व्यापकत्व-अव्यापकत्व, ऐसे दोनों धर्मोकर संयुक्त सिद्धपरमेष्ठी सदा जयवंत हैं।
भावार्थ — सिद्धों का ज्ञान लोकालोक के पदार्थों का प्रकाश करने वाला है तथा वह ज्ञान आत्मास्वरूप ही है इसलिये इस ज्ञान गुण की अपेक्षा से सिद्धों की आत्मा व्यापक है किन्तु सिद्धों की आत्मा के प्रदेश चरम शरीर से कुछ कमी रहते हैं इसलिये प्रदेशों की अपेक्षा से वह आत्मा चरम शरीर में कुछ कमी भी है अत: व्यापक नहीं भी है।।५।।
दृग्बोधौपरमौ तदावृतिहते: सौख्यं च मोहक्षयात् वीर्यं विघ्नविघाततो प्रतिहतं मूर्तिर्न नामक्षते:।
आयुर्नाशवशान्न जन्ममरणे गोत्रे न गोत्रं विना सिद्धानां न च वेदनीयविरहाद्दु:खं सुखं चाक्षजम्।।६।।
अर्थ — ज्ञानावरणीय तथा दर्शनावरणीय के नाश हो जाने से तो सिद्धों के अनन्तज्ञान तथा अनन्तदर्शन हैं और मोहनीय कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने के कारण उनको अनन्त सुख की प्राप्ति हुई है और वीर्यान्तरायकर्म के नाश हो जाने के कारण उनको अनन्तवीर्य की प्राप्ति हुई है तथा नामकर्म के अभाव से उनकी कोई मूर्ति नहीं है और आयुकर्म के नाश हो जाने के कारण न उनके जन्म है न मरण है तथा गोत्रकर्म का नाश हो गया है इसलिये उनको कोई गोत्र भी नहीं है और वेदनीयकर्म के नाश हो जाने के कारण सिद्धों के इन्द्रियजन्य सुख-दुख भी नहीं है।
भावार्थ — जब तक आत्मा के साथ ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण का संबंध रहता है तब तक अनन्तज्ञान तथा अनन्तदर्शन की प्राप्ति नहीं होती किन्तु सिद्धों के सम्यग्ज्ञान तथा सम्यग्दर्शन के स्वरूप को सर्वथा ढकने वाले ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण दोनों नष्ट हो गये हैं इसलिये वे अनन्तज्ञान तथा अनन्तदर्शन के धारी हैं उसी प्रकार जब तक मोहनीय तथा अंतराय कर्म का संबंध आत्मा के साथ रहता है तब तक तो अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्य की उत्पत्ति नहीं होती किन्तु सिद्धों के इन दोनों मोहनीय तथा अंतराय कर्म का भी अभाव है इसलिये वे अनन्त सुख तथा अनन्त वीर्यकर सहित हैं तथा नामकर्म के उदय से आकार बनता है किन्तु सिद्धों के नाम कर्म का अभाव है इसलिये उनकी कोई मूर्ति आकार भी नहीं है तथा आयुकर्म के नाश से जन्म तथा मरण होता है किन्तु सिद्धों के आयुकर्म का अभाव है इसलिये वे जन्म-मरण कर रहित हैं और गोत्रकर्म की कृपा से उच्चगोत्री तथा नीचगोत्री समझे जाते हैं उनके गोत्रकर्म का सर्वथा नाश हो गया है इसलिये उनका कोई गोत्र भी नहीं है और साता तथा असाता वेदनीयकर्म के उदय से इन्द्रियजन्य सुख तथा दु:ख होता है किन्तु सिद्धों के समस्त प्रकार के वेदनीय कर्म का नाश हो गया है इसलिये वे इन्द्रियजन्य सुख और दु:ख से रहित हैं।।६।।
यैर्दु:खानि समाप्नुवन्ति विधिवज्जानन्ति पश्यन्ति नो वीर्यं नैव निजं भजन्त्यसुभृतो नित्यं स्थिता: संसृतौ।
कर्माणि प्रहतानि तानि महता योगेन यैस्ते सदा सिद्धा नित्यचतुष्टयामृतसरिन्नाथा भवेयुर्न किम्।।७।।
अर्थ — संसार में जिन कर्मों की कृपा से संसारी जीव नाना प्रकार के दु:खों को सहन करते हैं तथा वास्तविक रीति से पदार्थों के स्वरूप को न तो जानते हैं और न देखते ही हैं तथा जिन कर्मों की कृपा से जीव सामर्थ्य को भी नहीं प्राप्त करते हैं उन कर्मों को जिन्होंने दुर्घर्षध्यान से जड़ से नष्ट कर दिया है वे सिद्ध भगवान क्या अनन्त विज्ञान आदि अनन्त चतुष्टय- रूपी अमृत नदी के स्वामी (समुद्र) अर्थात् अनन्तचतुष्टय के धारी नहीं हैं ? अवश्य ही हैं।
भावार्थ — जिन सिद्ध भगवान ने अनन्त दर्शन आदि समस्त गुणों के रोकने वाले कर्मों का नाश किया है वे सिद्ध भगवान अनन्तचतुष्टय के धारी हैं।।७।।
एकाक्षाद्बहुकर्मसंवृतमतेर्द्व्यक्षादिजीवा: सुखज्ञानाधिक्ययुता भवन्ति किमपि क्लेशोपशान्तेरिह।
यै: सिद्धास्तु समस्तकर्मविषमध्वान्तप्रबन्धच्युता: सद्वोधा: सुखिनश्च ते कथमहो न स्युस्त्रिलोकाधिपा:।।८।।
अर्थ— बहुत कर्मों से छिपा हुवा है ज्ञान जिनका, ऐसे एकेन्द्री जीवों की अपेक्षा अब कुछ एक दु:खों की शान्ति से दो इन्द्री आदिक जीव सुखी तथा अधिक ज्ञानवान हैं तो जो समस्त कर्मरूपी भयंकर अंधकार के संबंध से रहित हैं और जो तीनों लोकों के स्वामी हैं ऐसे सिद्ध भगवान क्यों नहीं सबकी अपेक्षा अधिक श्रेष्ठज्ञान के धारी तथा अधिक सुखी होंगे?
भावार्थ — जैसा—जैसा ज्ञान अधिक—अधिक बढ़ता जाता है वैसा—वैसा सुख भी अधिक बढ़ता चला जाता है। एकेन्द्री से दो इन्द्री का ज्ञान कुछ अधिक है इसलिये वह एकेन्द्री की अपेक्षा अधिक सुखी हैं इसी रीति से दो इन्द्री से ते इन्द्री तथा ते इन्द्री से चौ इन्द्री, चौ इन्द्री से पंचेन्द्री अधिक ज्ञानी तथा सुखी हैं तो सिद्धों के समस्त ज्ञानावरणादि कर्मों का नाश हो गया है इसलिये वे तो सर्वजीवों से अधिक ज्ञानी तथा सुखी हैं ही।।८।।
य: केनाप्यतिगाढगाढमभितो दु:खप्रदै: प्रग्रहै: बद्धोऽन्यश्च नरो रुषा घनतरैरापादमामस्तकम्।
एकस्मिन् शिथिलेऽपि तत्र मनुते सौख्यं स सिद्धा: पुन: किं न स्यु: सुखिन: सदा विरहिता बाह्यान्तरैर्बन्धनै:।।९।।
अर्थ — कोई मनुष्य किसी मनुष्य को, क्रोध से अत्यन्त दु:ख देने वाले तथा कठिन बन्धनों से पैर से लगाकर मस्तक पर्यन्त चारों ओर से बांधै, उस बन्धन की यदि एक भी रस्सी ढीली हो जावे तो वह बंधा हुवा भी जीव सुख मानता है फिर जो समस्त बाह्य तथा अभ्यन्तर परिग्रह के बन्धन से रहित हैं ऐसे सिद्धभगवान क्यों नहीं सुखी होंगे ? अर्थात् अवश्य ही होंगे।
भावार्थ — आचार्यवर , सिद्धों में सुख की अधिकता का वर्णन करते हैं कि जो पुरुष पैर से लेकर शिरपर्यन्त कठिन बन्धनों से बंधा हुवा है यदि उस बन्धन की एक भी लड़ी ढीली हो जावे तो पैर से शिर तक बंधा हुआ भी वह जीव अपने को सुखी मानता है तब जो सिद्धभगवान् समस्त प्रकार के बाह्य तथा अभ्यन्तर कर्मों के बन्धनों से रहित हैं वे क्यों नहीं सुखी होंगे ? अर्थात् समस्त बन्धनों से रहित होने के कारण वे अनन्त सुख के भण्डार अवश्य ही हैं इसमें किसी प्रकार का संशय नहीं ।।९।।
सर्वज्ञ: कुरुते परं तनुभृत: प्राचुर्यत: कर्मणां रेणूनां गणनं किलाधिवसतामेकं प्रदेशं घनम्।
इत्याशास्वखिलासु बद्धमहसो दु:खं न कस्माद्भवेन्मुक्त्या यस्य तु सर्वत: किमिति नो जायेत सौख्यं परम्।।१०।।
अर्थ — आत्मा के एक भी प्रदेश में सघन रीति से व्याप्त इतने अधिक परमाणु हैं कि उनकी गिनती सर्वज्ञ को छोड़कर दूसरा कोई नहीं कर सकता इस रीति से प्रत्येक आत्मा के प्रदेश पर अनन्तानन्त परमाणु के चिपटने के कारण जिस आत्मा का तेज चारों ओर से रुक गया है अर्थात् न जो आत्मा भलीभांति पदार्थों को जान ही सकता है और न देख ही सकता है ऐसे उस आत्मा को क्यों नहीं दु:ख होगा? अवश्य ही होगा किन्तु जिसने समस्त कर्मों को जड़ से उड़ा दिया है अर्थात् जिसकी आत्मा के प्रदेशों के साथ किसी भी कर्म का बन्धन नहीं है ऐसे सिद्ध भगवान को तो अनन्तसुख क्यों नहीं होगा ? अवश्य ही होगा।।१०।।
सिद्ध ही अत्यन्त तृप्त हैं इस बात को आचार्य बतलाते हैं-
येषां कर्मनिदानजन्यविविधक्षुत्तृण्मुखा व्याधयस्तेषामन्नजलादिकौषधगणस्तच्छान्तये युज्यते।
सिद्धानान्तु न कर्म तत्कृतरुजो नात: किमन्नादिभिर्नित्यात्मोत्थसुखामृताम्बुधिगतास्तृप्तास्त एव ध्रुवम्।।११।।
अर्थ — जिन जीवों के कर्म के उदय से उत्पन्न हुवे क्षुधा-तृषा आदिक रोग हैं उन जीवों को उन रोगों की शान्ति के लिये अन्न-जल आदि का आश्रय करना पड़ता है किन्तु सिद्ध भगवान के तो कर्म ही नहीं हैं तथा कर्मों के अभाव से उनको अन्न-जल आदि का आश्रय भी नहीं करना पड़ता इसलिये निश्चय से अविनाशी और आत्मा से ही उत्पन्न हुवे ऐसे सुखरूपी अमृत समुद्र में मग्न सिद्ध ही अत्यन्त तृप्त हैं, ऐसा समझना चाहिये।
भावार्थ — संसारी जीवों को कर्म के उदय से नाना प्रकार के क्षुधा-तृषा आदि रोगों का सामना करना पड़ता है तथा क्षुधा- तृषा आदि के होने से उनको उनकी शान्ति के लिये अन्न-जल आदि का आश्रय करना पड़ता है तथा उस अन्न-जल से ही वे अपने को तृप्त मानते हैं किन्तु वास्तव में उससे तृप्ति नहीं हो सकती क्योंकि फिर वेदना के होने पर फिर उनको पीड़ा होगी तथा फिर भी उनको जल आदि का आश्रय करना पड़ेगा किन्तु जिन्होंने समस्त कर्मों का नाश कर दिया है इसलिये जिनको अन्न आदि की भी आवश्यकता नहीं है वे ही तृप्त हैं और वे सिद्ध ही हैं इसलिये समस्त जीवों की अपेक्षा सिद्ध ही अत्यंत तृप्त हैं।।११।।
सिद्धज्योतिरतीवनिर्मलवरं ज्ञानैकमूर्तिस्फुरद्वर्तिर्दीपमिवोपसेव्य लभते योगी स्थिरं तत्पदम्।
सद्बुध्याथ विकल्पजालरहितस्तद्रूपतामाप तं स्तादृग्जायत एव देवविनुतस्त्रैलोक्यचूडामणि:।।१२।।
अर्थ — जिस प्रकार बत्ती स्फुरायमानदीपक के संग से दीपपने को प्राप्त हो जाती है उसी प्रकार अत्यंत निर्मल जो ज्ञान, उस ज्ञानस्वरूप स्फुरायमान है मूर्ति जिसकी, ऐसी सिद्ध ज्योति की आराधना करने से मुनिगण भी उस स्थिर सिद्धपद को प्राप्त हो जाते हैं अथवा समस्त प्रकार के विकल्पों से रहित जो योगीश्वर श्रेष्ठ बुद्धि से उन सिद्धों को प्राप्त होकर उनके स्वरूप का ध्यान करता है वह भी समस्त देवों में वंदनीय तथा तीन लोक का चूड़ामणि उन सिद्धों के समान ही हो जाता है।।१२।।
-शार्दूलविक्रीडित-
यत्सूक्ष्मंच महच्च शून्यमपि यन्भो शून्यमुत्पद्यते नश्यत्येवच नित्यमेव च तथा नास्त्येव चास्त्येव यत्।
एकं यद्यदनेकमेव तदपि प्राप्तं प्रतीतिं दृढां सिद्धज्योतिरमूर्ति चित्सुखमयं केनापि तल्लभ्यते।।१३।।
अर्थ — जो सिद्धज्योति सूक्ष्म भी है और महान भी है, शून्य भी है तथा शून्य नहीं है, विनाशीक भी है और नित्य भी है और है भी है नहीं भी है तथा एक भी है अनेक भी है, इस प्रकार अनेक धर्म को लिये हुये है तो भी स्याद्वाद से जिसकी प्रतीति दृढ़ है ऐसी अमूर्तीक तथा ज्ञान सुखस्वरूप सिद्धों की ज्योति (तेज) को संसार में कोई एक मनुष्य ही प्राप्त कर सकता है सब नहीं।
भावार्थ —सिद्धों की ज्योति सूक्ष्म तो इसलिये है कि वह अमूर्त है इसलिये कोई भी इन्द्रिय उसका प्रत्यक्ष नहीं कर सकती, तथा महान इसलिये है कि समस्त लोकालोक के जानने वाले केवली भगवान उसको प्रत्यक्ष देखते हैं तथा पुद्गलादि परद्रव्य और उनके स्पर्श, रस आदिगुणों से रहित होने के कारण तो शून्य है किन्तु सदा अपने केवलज्ञान आदि गुणों से विराजमान है इसलिये शून्य भी नहीं है तथा यद्यपि पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से अगुरूलघु गुण के द्वारा प्रतिक्षण वह विनाशीक भी है तो भी द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा उसमें नाश तथा उत्पाद धर्म नहीं हैं इसलिये वह नित्य भी है तथा परद्रव्य- परक्षेत्र-परकाल-परभाव की अपेक्षा से उसका अभाव है तो भी स्वद्रव्य-स्वकाल-स्वभाव की अपेक्षा वह मौजूद ही है और अपने स्वरूप को छोड़कर पररूप को प्राप्त नहीं होती इसलिये यद्यपि वह एकरूप है तो भी ज्ञान से अनेक पदार्थों को प्रत्यक्ष करती है इसलिये अनेकरूप भी है इस प्रकार वह सिद्धज्योति अनेक धर्मस्वरूप होने पर भी स्याद्वाद से उसकी प्रतीति दृढ़ है अर्थात् स्याद्वादसिद्धान्त के आश्रय से उसमें किसी प्रकार का दोष नहीं आता तथा अमूर्तीक है और ज्ञानमय तथा सुखमय है और कोई एक ही मनुष्य उसको प्राप्त कर सकता है, हर एक मनुष्य नहीं।।१३।।
स्याच्छब्दामृतगर्भितागममहारत्नाकरस्नानतो धौता यस्य मति: स एव मनुते तत्त्वं विमुक्तात्मन:।
तत्तस्यैव तदेव याति सुमते: साक्षादुपादेयतां भेदेन स्वकृतेन तेन च विना स्वं रूपमेकं परम्।।१४।।
अर्थ —जिस पुरुष की बुद्धि स्याद्धादरूपीजल से भरे हुवे विस्तीर्ण सागर में स्नान करने से निर्मल्ा हो गई (धुल गई) है अर्थात् जो स्याद्वाद का जानकार है, वही मनुष्य सिद्धों के स्वरूप को जानता है तथा वही बुद्धिमान उन सिद्धों के स्वरूप को साक्षात् रीति से प्राप्त होता है अथवा अपने से किया हुवा जो भेद, उसके दूर हो जाने पर अपना जो स्वरूप है, वही सिद्धों का स्वरूप है अर्थात् जब तक आत्मा में मेरा-तेरा भेद रहता है, तब तक तो आत्मा मलिन ही है किन्तु जिस समय यह भेदबुद्धि नष्ट हो जाती है, उस समय मलिनता रहित होने के कारण अपनी आत्मा का स्वरूप ही सिद्धस्वरूप है इसलिये भव्यजीवों को चाहिये कि वे स्याद्वाद के स्वरूप को भलीभांति पहिचान कर सिद्धों के स्वरूप को पहिचानें।।१४।।
दृष्टिस्तत्त्वविद: करोत्यविरतं शुद्धात्मरूपे स्थिता शुद्धं तत्पदमेकमुल्वणमतेरन्यत्र चान्यादृशम्।
स्वर्णात्तन्मयमेव वस्तु घटितं लोहाच्च मुक्त्यर्थिना मुक्त्वा मोहविजृम्भितं ननु पथा शुद्धेन संचर्यताम्।।१५।।
अर्थ —जिस समय सोने से बना हुआ पात्र सुवर्णस्वरूप ही होता है तथा लोह से बना हुवा पात्र लोहस्वरूप ही होता है उसी प्रकार शुद्ध आत्मास्वरूप में, निश्चल रीति से ठहरी हुई तत्वज्ञानी पुरुष की दृष्टि तो निर्मल देदीप्यमान जो एक अविनाशी मोक्ष पद, उसको प्राप्त कराती है और तत्वज्ञानरहित पुरुष की दृष्टि शुद्धात्मस्वरूप से अतिरिक्त स्थान में ठहरने के कारण मोक्ष से भिन्न जो नरक-तिर्यंच-निगोद आदि स्थान, उन स्थानों को प्राप्त करती है इसलिये आचार्य उपदेश देते हैं कि मोक्ष के अभिलाषी मनुष्यों को मोह के उत्पन्न करने वाले मार्ग को छोड़कर निश्चय से शुद्धमार्ग से ही गमन करना चाहिये।।१५।।
निर्दोषश्रुतचक्षुषा षडपि हि द्रव्याणि दृष्ट्वा सुधीरादत्ते विशदं स्वमन्यमिलितं स्वर्णं यथा धावक:।
य: कश्चित् किल निश्चिनोति रहित: शास्त्रेण तत्त्वं परं सोऽन्धोरूपनिरूपणं हि कुरुते प्राप्तो मन: शून्यताम्।।१६।।
अर्थ —जिस प्रकार सुनार अन्य धातुओं से मिले हुवे भी सुवर्ण को नेत्रों से जुदा कर लेता है उसी प्रकार विद्वान पुरुष निष्कलंकशास्त्ररुपीनेत्र से छहों द्रव्यों को भलीभांति देखकर अन्य द्रव्यों से मिले हुवे भी अपने निर्मल आत्मस्वरूप को जुदाकर ग्रहण करते हैं किन्तु जो मनुष्य शास्त्र के बिना देखे ही उत्कृष्टतत्त्व का निश्चय करते हैं वे मनरहित तथा अंधे होकर रूप को देखना चाहते हैं, ऐसा मालूम होता है।
भावार्थ —जब तक छद्मस्थ अवस्था रहती है, तब तक बिना शास्त्र के सुने तथा देखे कदापि निर्मल स्वरूप को ग्रहण नहीं कर सकते इसलिये आत्मा के निर्मल स्वरूप को देखने के अभिलाषी मनुष्यों को अवश्य शास्त्र को देखना तथा सुनना चाहिये किन्तु जो अज्ञानी पुरुष बिना शास्त्र के सुने-देखे ही स्वरूप को देखना चाहता है वह मनुष्य जिस प्रकार मनरहित तथा अंधा मनुष्य रूप को नहीं देख सकता, उसी प्रकार कदापि उत्कृष्ट स्वरूप को नहीं देख सकता है।१६।।
यो हेयेतरबोधसंभृतमतिर्मुञ्चन् स हेयं परं तत्त्वं स्वीकुरुते तदेव कथितं सिद्धत्वबीजं जिनै:।
नान्यो भ्रान्तिगत: स्वतोऽथ परतो हेये परेर्थेऽस्य तद्दुष्पापं शुचि वर्त्म येन परमं तद्धाम संप्राप्यते।।१७।।
अर्थ —जिस मनुष्य को यह वस्तु त्यागने योग्य है तथा यह वस्तु ग्रहण करने योग्य है इस प्रकार का ज्ञान है, वह मनुष्य त्यागने योग्य जो वस्तु है, उसको छोड़कर ग्राह्यस्वरूप को ग्रहण करता है और वह ग्राह्यस्वरूप का स्वीकार ही सिद्धपने का कारण है ऐसा श्री जिनेन्द्र देव ने कहा है तथा जो मनुष्य त्यागने योग्य अपने से भिन्न पदार्थों में अपने आप तथा पर के उपदेश से भ्रान्त (भ्रमसहित) है उस अज्ञानी को अत्यंत निर्मल मार्ग की प्राप्ति नहीं हो सकती और जब निर्मल मार्ग की ही प्राप्ति नहीं हुई तो वह उत्कृष्ट मोक्ष स्थान भी उसको प्राप्त नहीं हो सकता।
भावार्थ — जिस मनुष्य को हेयोपादेय का ज्ञान है वही पुरुष अपने से भिन्न त्यागने योग्य वस्तुओं को त्याग कर तथा निज ज्ञानानन्दरूप को ग्रहण कर क्रम से मोक्ष को प्राप्त हो जाता है किन्तु जिस पुरुष को हेयोपादेय का ज्ञान नहीं है इसलिये जो अपने से भिन्न सर्वथा त्यागने योग्य वस्तुओं को भी अपनी वस्तु मानता है वह कदापि मुक्ति को प्राप्त नहीं हो सकता और उसको मुक्ति का मार्ग ही नहीं सूझ सकता है इसलिये मोक्षाभिलाषी पुरुषों को चाहिये कि वे सर्वथा छोड़ने योग्य वस्तुओं को छोड़कर अपने ज्ञानानंदस्वरूप को ही ग्रहण करें।।१७।।
साङ्गोपाङ्गमपि श्रुतं बहुतरं सिद्धत्वनिष्पत्तये येऽन्यार्थं परिकल्पयन्ति खलु ते निर्वाणमार्गच्युता:।
मार्गं चिन्तयतोऽन्वयेन तमतिक्रम्यापरेण स्फुटं निश्शेषश्रुतमेति तत्र विपुले साक्षाद्विचारे सति।।१८।।
अर्थ —अंग तथा उपांग सहित जितना भर शास्त्र है, वह समस्त सिद्धपने की प्राप्ति के लिये ही है किन्तु जो अज्ञानी मनुष्य उसको अन्य प्रयोजन के लिये कल्पना करते हैं वे निश्चय से मोक्षमार्ग से भ्रष्ट हैं अर्थात् सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक् चारित्ररूप मोक्षमार्ग का उनको अंशमात्र भी ज्ञान नहीं है क्योंकि विचारशील होने पर परंपरा से आये हुवे द्रव्यश्रुत को छोड़कर यदि वह भावश्रुत से भी मार्ग का चिंतवन करे, तो भी उनको स्फुटरीति से समस्त शास्त्र की प्राप्ति होती है।
भावार्थ — चाहे द्रव्यश्रुत हो चाहे भावश्रुत हो, समस्त ही शास्त्रों से सिद्धपने की प्राप्ति होती है किन्तु जो पुरुष शास्त्र को अन्य प्रयोजन की सिद्धि के लिये मानते हैं, वे अज्ञानी ही हैं, ऐसा समझना चाहिये।।१८।।
निश्शेषश्रुतसम्पद: शमनिधेराराधनाया: फलं प्राप्तानां विषये सदैव सुखिनामल्पैव मुक्तात्मनाम्।
उक्ता भक्तिवशान्मयाप्यविदुषा या सापि गी: साम्प्रतं नि:श्रोणीर्भवितादनन्तसुखतद्धामारुरुक्षोर्मम।।१९।।
अर्थ — जिन्होंने आराधना के फल को प्राप्त कर लिया है तथा जो सदाकाल सुखी हैं ऐसे सिद्धों के विषयों में जो मुझ अपंडित ने भक्ति के वश में थोड़ी सी वाणी कही है अर्थात् जो कुछ भक्तिपूर्वक उनकी थोड़ी सी स्तुति की है, वह थोड़ी सी ही वाणी (स्तुति) समस्त शास्त्ररूपी संपदा के धारी तथा शमी मुझ अनन्त सुखमय मोक्षरूपी महल पर चढ़ने की इच्छा करने वाले के लिये नि:श्रेणी (सीढ़ी) के समान है।।१९।।
विश्वं पश्यति वेत्ति शर्म लभते स्वोत्पन्नमात्यन्तिकं नाशोत्पत्तियुतं तथाप्यविचलं मुक्त्यर्थिनां मानसे।
एकीभूतमिदं वसत्यविरतं संसार भारोज्झितं शान्तं जीवधनं द्वितीयरहितं मुक्तात्मरूपं मह:।।२०।।
अर्थ — यद्यपि जो सिद्धस्वरूप तेज समस्तलोक को देखता है तथा समस्त लोक को जानता है और सबसे अंत में होने वाले आत्मीक सुख को प्राप्त है और उत्पाद-व्यय तथा ध्रौव्य कर सहित है तो भी मोक्षाभिलाषी मनुष्यों के मन में वह संसार में भारस्वरूप जो जन्म-मरणादि उनकर रहित शान्त तथा ज्ञानस्वरूप और अपने से भिन्न वस्तुओं के संबंध से सहित सदा एकरूप ही विराजमान है।।२०।।
त्यक्त्वा न्यासनयप्रमाणविवृती: सर्वं पुन: कारकं संबन्धं च तथा त्वमित्यहमितिप्रायान् विकल्पानपि।
सर्वोपाधिविवर्जितात्मनि परं शुद्धैकबोधात्मनि स्थित्वा सिद्धिमुपाश्रितो विजयते सिद्ध: समृद्धो गुणै:।।२१।।
भावार्थ — नाम-स्थापना आदि निक्षेपों को छोड़कर तथा नैगम आदि नय को त्याग कर और प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाण के व्यापार को छोड़कर और कर्ता-कर्म-करण आदि कारकों को छोड़कर तथा समस्त संबंधों को और तू-मैं इत्यादि समस्त विकल्पों को छोड़कर जो सिद्ध भगवान समस्त प्रकार की कर्म आदि उपाधियों से रहित होकर तथा शुद्ध और ज्ञानानन्द स्वरूप आत्मा में लीन होकर मोक्ष को प्राप्त हुवे हैं वे समस्त अनन्त विज्ञान आदि गुणों से सदा वृद्धि को प्राप्त, सिद्ध भगवान सदा इस लोक में विशेषरीति से जयवंत हैं अर्थात् ऐसे सिद्ध भगवान को मैं हाथ जोड़कर विशिष्ट रीति से नमस्कार करता हूँ ।।२१।।
तैरेव प्रतिपद्यतेऽत्र रमणीस्वर्णादिवस्तु प्रियं तत्सिद्धैकमह: सदन्तरदृशा मन्दैर्न यैर्दृश्यते।
ये तत्तत्त्वरसप्रभिन्नहृदया स्तेषामशेषं पुन: साम्राज्यं तृणवद्वपुश्च परवद्भोगाश्च रोगा इव।।२२।।
अर्थ — जिन मनुष्यों ने अंतरंग दृष्टि से उस अलौकिक सिद्धस्वरूप तेज को नहीं देखा है उन्हीं मूर्ख मनुष्यों को स्त्री-सुवर्ण आदिक पदार्थ प्रिय मालूम पड़ते हैं किन्तु जिन भव्यजीवों का हृदय उन सिद्धों के स्वरूपरूपी रस से भिद गया है वे भव्यजीव समस्त साम्राज्य को तृण के समान जानते हैं तथा शरीर को पर (बैरी) समझते हैं और उनको भोग रोग के समान मालूम होते हैं।
भावार्थ — जब तक मनुष्यों को वास्तविक पदार्थ दृष्टिगोचर नहीं होता, तब तक वे अवास्तविक पदार्थों को भी वास्तविक मानते हैं किन्तु जिस समय उनकी दृष्टि वास्तविक पदार्थों पर पड़ जाती है उस समय वे उस वास्तविक पदार्थ के सामने अवास्तविक पदार्थों को अंशमात्र भी वास्तविक नहीं समझते। मनुष्यों को ग्रहण करने योग्य वास्तविक पदार्थ सिद्धस्वरूप है और उससे भिन्न त्याग करने योग्य सब अवास्तविक है इसलिये जब तक मनुष्यों की दृष्टि उस सिद्धस्वरूप तेज पर नहीं पड़ती है तब तक वे मनुष्य अवास्तविक स्त्री-पुत्र-सुवर्ण-धन-धान्य आदि को ही वास्तविक प्रिय मानते हैं किन्तु जिस समय उनको सिद्धस्वरूप तेज का अनुभव हो जाता है उस समय वे सिद्धस्वरूप के सामने किसी भी साम्राज्य-शरीर-भोग आदि पदार्थों को उत्तम नहीं मानते और वास्तव में ये उत्तम पदार्थ भी नहीं, इसलिये भव्यजीवों को सिद्धस्वरूप तेज की ओर ही अपनी दृष्टि देनी चाहिये तथा उसी का अनुभव करना चाहिये।।२२।।
वन्द्यास्ते गुणिन स्तएव भुवने धन्यास्तएव ध्रुवं सिद्धानां स्मृतिगोचरं रुचिवशान्नामापि यैर्नीयते।
ये ध्यायन्ति पुन: प्रशस्तमनसस्तान् दुर्गभूभृद्दरीमध्यस्था: स्थिरनासिकाग्रिमदृशस्तेषां किमु ब्रूमहे।।२३।
अर्थ — जो मनुष्य प्रीतिपूर्वक सिद्धों के नाम का भी स्मरण करते हैं वे मनुष्य भी जब संसार में वेदने योग्य तथा गुणी और धन्य समझे जाते हैं तब जो मनुष्य पवित्रचित्त से किले-पर्वतों की गुफा के मध्य में बैठकर तथा नाक के अग्रभाग में दृष्टि लगाकर उन सिद्धों का ध्यान तथा उनके स्वरूप का मनन-चिंतवन करते हैं आचार्य कहते हैं उनकी हम क्या कहें ? अर्थात् वे उनसे भी अधिक धन्य हैं इसलिये भव्य जीवों को चाहिये कि वे उन सिद्धों के स्वरूप का भलीभांति ध्यान करें यदि ध्यान न हो सके तो उनके नाम को अवश्य ही स्मरण करें।।२३।।
य: सिद्धे परमात्मनि, प्रविततज्ञानैकमूर्तौ किल ज्ञानी निश्चयत: सएव सकल प्रज्ञावतामग्रणी।
तर्कव्याकरणादिशास्त्रसहितै: किं तत्र शून्यैर्यतो यद्योगं विदधाति वेध्यविषये तद्बाणमावर्ण्यते।।२४।।
अर्थ —विस्तीर्ण ज्ञान ही है एक स्वरूप जिनका, ऐसे सिद्धों में जो पुरुष ज्ञानी है अर्थात् सिद्धों के स्वरूप का जो भलीभांति जानने वाला है वास्तविक रीति से वही समस्त विद्वानों में मुख्य है ऐसा समझना चाहिये और यदि न्यायशास्त्र तथा व्याकरण आदि शास्त्रों के जानकार भी हुवे तथा हृदय ये शून्य ही रहे तो उनसे कोई प्रयोजन नहीं क्योंकि जो वेधनेयोग्य पदार्थ में निशान को करता है, वही बाण कहलाता है।
भावार्थ —जो बाण वेधने योग्य पदार्थ में निशान करता है वही जिस प्रकार बाण कहलाता है अन्य नहीं, उस्ाी प्रकार न्याय-व्याकरण आदि शास्त्रों को भलीभांति अध्ययन करके जो मनुष्य सिद्धों के स्वरूप का जानकार है वही वास्तविक रीति से विद्वानों में अग्रणी विद्वान है किन्तु न्याय-व्याकरण आदि शास्त्रों को भलीभांति पढ़कर जिसने सिद्धों के स्वरूप को नहीं पहिचाना, वह अंशमात्र भी विद्वान नहीं इसलिये भव्यजीवों को चाहिये कि वे न्याय-व्याकरण आदि शास्त्रों को भलीभांति जानकर सिद्धों के स्वरूप के ज्ञाता बनें।।२४।।
सिद्धात्मा परम: परं प्रविलसद्बोध: प्रबुद्धात्मना येनाज्ञायि स किं करोति बहुभि: शास्त्रैर्बहिर्वाचवैâ:।
यस्य प्रोद्गतरोचिरुज्ज्वलतनुर्भानु: करस्थो भवेत् ध्वान्तध्वंसविधौ स किं मृगयते रत्नप्रदीपादिकान्।।२५।।
अर्थ — प्रबुद्ध है आत्मा जिसकी, ऐसे जिस भव्य जीव ने देदीप्यमान ज्ञान का धारी तथा सर्वोत्कृष्ट ऐसे सिद्ध भगवान के स्वरूप को जान लिया है उस भव्यजीव को बाह्य शास्त्रों से क्या प्रयोजन है? अर्थात् कुछ भी प्रयोजन नहीं क्योंकि जिस मनुष्य के हाथ में जिसकी किरण उदित हो रही है ऐसा प्रकाशमान सूर्य मौजूद है, वह मनुष्य अंधकार के नाश करने के लिये क्या रत्न तथा प्रदीप आदि पदार्थों का अन्वेषण करता है ? कदापि नहीं ।
भावार्थ —रत्न तथा प्रदीप आदि पदार्थों की अपेक्षा अंधकार के नाश के लिये ही की जाती है यदि हाथ में स्थित प्रकाश- मान सूर्य से ही अंधकार का नाश हो गया तो फिर जिस प्रकार प्रदीप आदि की अपेक्षा नहीं करनी पड़ती उसी प्रकार न्याय- व्याकरण आदि शास्त्रों का अध्ययन सिद्धस्वरूप के जानने के लिये किया जाता है यदि उस सिद्धस्वरूप का ज्ञान पहिले से ही मौजूद है तो पुन: न्याय-व्याकरण आदि शास्त्रों का अध्ययन, बिना प्रयोजन का ही है, ऐसा समझना चाहिये।।२५।।
-शार्दूलविक्रीडित-
सर्वत्र च्युतकर्मबन्धनतया सर्वत्र सद्दर्शना: सर्वत्राखिलवस्तुजातविषयव्यासक्तबोधत्विष:।
सर्वत्रस्फुरदुन्नतोतसदानंदात्मका निश्चला: सर्वत्रैव निराकुला: शिवसुखं सिद्धा: प्रयच्छन्तु न:।।२६।।
अर्थ —जिन सिद्धों के समस्त आत्मप्रदेशों से कर्मबंध छूट गया है तथा जिनके समस्त आत्मप्रदेशों में समीचीन दर्शन मौजूद है अर्थात् जो सम्यग्दर्शन के धारी हैं और समस्त पदार्थों के समूह को जानने वाली सम्यग्ज्ञानरूपी किरण जिनके समस्त आत्मप्रदेशों में व्याप्त है तथा जिनके सर्वत्र सर्वोत्कृष्ट चिदानंदस्वरूप तेज स्फुरायमान है और जो निश्चल तथा निराकुल हैं ऐसे सिद्धभगवान हमारे लिये मोक्ष सुख को प्रदान करो।
भावार्थ —जो समस्तकर्मों कर रहित हैं तथा सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र के धारी हैं और निश्चल तथा समस्त प्रकार की आकुलता कर रहित हैं ऐसे सिद्ध भगवान हमारे लिये मोक्षरूपी सुख को प्रदान करो अर्थात् ऐसे सिद्धों के हम सेवक हैं।।२६।।
आत्मोत्तुङ्गगृहं प्रसिद्धवहिराद्यात्मप्रभेदक्षणं बह्वात्माध्यवसानसंगतलसत्सोपानशोभान्वितम्।
तत्रात्माविभुरात्मनात्मसुहृदो हस्तावलम्बी समारुह्यानन्दकलत्रसंगतभुवं सिद्ध: सदा मोदते।।२७।।
अर्थ —जहाँ पर बहिरात्मा तथा अंतरात्मा के भेद को वास्तविक रीति से देख सकते हैं और जो आत्मा का अध्यवसान (चिंतवन) रूप जो मनोहर सीढ़ी, उस कर शोभायमान है, ऐसा यह आत्मरूपी ऊँचा मकान है, उस पर चढ़कर आत्मारूपी मित्र का अवलम्बी अर्थात् अपने को स्वयं आप ही आधार तथा चिदानंदस्वरूप स्त्रीकर सहित प्रभु आत्मा जो सिद्ध है, सदा हर्ष संयुक्त निवास करता है।।२७।।
सैवैका सुगतिस्तदेव च सुखं ते एव दृग्बोधने सिद्धानामपरं यदस्ति सकलं तन्मे प्रियं नेतरत्।
इत्यालोच्य दृढं त एव च मया चित्ते धृता: सर्वदा तद्रूपं परमं प्रयातु मनसा हित्वाभयं भीषणम्।।२८।।
अर्थ —जो सिद्धों की गति है वही तो एक सुगति है तथा जो उनका सुख है वही वास्तविक सुख है और वे सिद्ध ही सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान हैं इसलिये ये तथा इनसे भिन्न और भी जो सिद्धों का स्वरूप है, वह समस्त मुझे प्रिय है किन्तु इनसे अतिरिक्त और मुझे कुछ भी प्रिय नहीं है ऐसा मन में दृढ़श्रद्धान करके मैंने सर्वकाल उन्हीं सिद्धों का ध्यान किया है इसलिये मन से समस्त भयंकर संसार का भय छूटकर मुझे उत्कृष्ट उन्हीं सिद्धों के स्वरूप की प्राप्ति हो, ऐसी आशा सहित हूँ।।२८।।
ते सिद्धा: परमेष्ठिनो न विषया वाचामतस्तान्प्रति प्रायो वच्मि यदेव तत्खलु नभस्यालेख्यमालिख्यते।
तन्नामापि मुदे स्मृतं तत इतो भक्त्याथ वाचालितास्तेषां स्तोत्रमिदं तथापि कृतवानम्भोजनन्दी मुनि:।।२९।।
अर्थ —इस अधिकार को समाप्त करते हुए आचार्य कहते हैं कि वे अलौकिक गुण के धारी भगवान सिद्ध परमेष्ठी वचन के तो विषय ही नहीं हैं इसलिये मैं जो अनेक गुणों का स्तवन अथवा उनके विषय में कुछ वर्णन करना चाहता हूँ वह आकाश में चित्रकारी करता हूँ ऐसा मालूम होता है (अर्थात् जिस प्रकार आकाश में चित्रकारी करना कठिन बात है उसी प्रकार सिद्धपरमेष्ठी के विषय में भक्तिपूर्वक वर्णन करना अत्यंत कठिन है) तो भी उन सिद्धों का स्मरण किया हुआ नाम भी हर्ष का करने वाला होता है इस कारण भक्ति से वाचालित होकर मुझ पद्मनन्दि नामक मुनि ने यह उन सिद्धों की स्तुति की है।
भावार्थ —सिद्ध परमेष्ठी दृष्टि के अगोचर अमूर्तीक पदार्थ हैं इसलिये जब वे दृष्टिगोचर हैं, देखने में ही नहीं आते हैं तो वे वचन के अगोचर भी हैं इसलिये उनकी स्तुति तथा उनके विषय में वर्णन करना भी अत्यंत कठिन है तो भी मेरी जो उन सिद्धों में भक्ति है उसने मुझे वाचालित किया है इसलिये मैंने यह कुछ उन सिद्धों की स्तुति की है।।२९।।
इस प्रकार पद्मनन्दी आचार्य विरचित इस पद्मनन्दिपञ्चिंवशतिका में
सिद्धस्तुतिरूप अधिकार समाप्त हुआ।