केवलज्ञानप्राप्त्यर्थं या बुद्धिर्गरीयसी।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै ज्ञानमत्यै नमो नम:।।१।। (स्वोपज्ञ)
सिद्धान्तचिन्तामणिनाम भाष्यं, या सुष्ठु अनुवादकलाबलेन।
प्राकाशयत् तां गणिनीसुशिष्यां प्रज्ञासुश्रमणीं आर्यान्नमामि।।२।। (स्वोपज्ञ
केवलज्ञान प्राप्ति हेतु जो श्रेष्ठ मतिश्रुतज्ञान है उसे नमस्कार हो, नमस्कार हो। (द्वितीय अर्थ में) केवल ज्ञान प्राप्ति हेतु जो श्रेष्ठशास्त्र ज्ञान से गौरव को प्राप्त हैं उन परम पूज्य गणिनी प्रमुख आर्यिकारत्न ज्ञानमती माताजी को पुनः-पुनः नमस्कार।।१।।
उपर्युक्त गणिनी माँ के द्वारा षट्खण्डागम पर संस्कृत भाषा में रचित अतिश्रेष्ठ ‘सिद्धान्त चिन्तामणि’ नामक टीका को जिन्होंने श्रेष्ठ अनुवाद के कौशल से प्रकाशित किया, सुगम किया, उन योग्य, गणिनी-शिष्या प्रज्ञाश्रमणी परम पूज्य आर्यिका चन्दनामती माताजी को नमन करता हूँ।।२।।
जैन सिद्धान्त के नाम से विख्यात छः खण्डों— जीवस्थान, क्षुद्रकबन्ध, बन्धस्वामित्व, वेदनाखण्ड, वर्गणाखण्ड और महाबन्ध में ग्रन्थित, आचार्य धरसेन के शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलि आचार्य द्वारा प्रणीत ‘षट्खण्डागम’ नामक प्रसिद्ध आद्यरचित ग्रन्थ है। गौतम गणधर के माध्यम से इसका सीधा सम्बन्ध भगवान् महावीर की दिव्यध्वनि से है।
द्वादशांग के अन्तर्गत अन्तिम ‘दृष्टिवाद’ नामक अंग में द्वितीय पूर्व अग्रायणीय पूर्व है। (पूर्वगत भेद में)। उसके पंचम वस्तु अधिकार ‘चयनलब्धि’ के २० प्राभृतों में चतुर्थ कर्मप्रकृति प्राभृत नाम के अधिकार में से इस महाग्रन्थराज षट्खण्डागम का अवतरण हुआ है।
कुछ विषय अन्य अधिकारों में से निर्गत है। प्रस्तुत सिद्धान्त ग्रन्थ की महत्ता इस बात से प्रकट है कि इसकी आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य शामकुंड, आचार्य तुम्बुलूर, आचार्य समन्तभद्र और वप्पदेवाचार्य ने विशालरूप से टीकायें कीं, जो अप्राप्य हैं ये टीकायें लगभग २५०००० (दो लाख पचास हजार) श्लोकों में लिखी गर्इं। ये वर्तमान में अप्राप्य हैं।
चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर जी महाराज की प्रेरणा से षट्खण्डागम का, वर्तमान में प्राप्य आचार्य वीरसेन स्वामी कृत धवला टीका (साठ हजार श्लोक प्रमाण) सहित प्रकाशन हुआ। यह हमारे असीम सातिशय पुण्य का उदय है। धवला टीका मूलग्रन्थ के प्रथम पाँच खण्डों के ६८३० कुल सूत्रों पर प्राकृत-संस्कृत मिश्रित मुक्ताहार के समान टीका है। सर्वदृष्ट्या प्रशंसनीय यह टीका १६ भागों में प्रकाशित रूप में हिन्दी अनुवाद सहित उपलब्ध है।
आचार्य वीरसेन स्वामी और धवला टीका की पूज्यनीय ज्ञानमती माताजी ने निम्न श्लोक में भूरि-भूरि उपकार स्मृति और प्रशंसा की है।,
वीरसेनमुनीन्द्रस्योपकारो केन वण्र्यते।
धवलाटीकया येन भव्यान्तः धवलीकृतः।। सिद्धान्त चिन्तामणि मंगलाचरण-८।।
भाषाज्ञानियों के अतिरिक्त सामान्य जनों के लिए यह क्लिष्ट, गंभीर और दुरूह है। आर्यिका ज्ञानमती माताजी षट्खण्डागम और धवला टीका की तलस्पर्शी ज्ञाता हैं।
उनकी सिद्धान्त चिन्तामणि टीका, आचार्य वीरसेन स्वामी के धवलागत विषयों को सरल करके वर्तमान के सामान्य स्वाध्यायियों, साधुवर्ग तथा विद्वानों, दोनों के लिए उपयोगी विषयों को हृदयंगम कराने के निमित्त पौष्टिक पाथेय की भाँति है। ‘सिद्धान्त चिन्तामणि’ के अवतरण में मूल कारण निमित्त प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती माताजी हैं जैसा कि टीकाकार ने स्वयं मंगलाचरण में व्यक्त किया है, दृष्टव्य है—
ज्ञानवृद्धिं क्रियान्नित्यमार्यिका चन्दनामतिः।
यस्याः प्रार्थनयेदानीं, टीका प्रारभ्यते मया।।५।।
जिनकी प्रार्थना पर मैंने यह (टीका) व्याख्या प्रारम्भ की है, वे आर्यिका चन्दनामती नित्य ही ज्ञान की वृद्धि करें। सिद्धान्त चिन्तामणि का स्वरूप (संक्षेप में) स्वयं टीकाकार द्वारा ग्रन्थ की प्रारम्भिक भूमिका में प्रतिज्ञा वाक्य द्वारा प्रकट किया गया है जिसका हिन्दी अनुवाद प्रज्ञाश्रमणी माताजी ने निम्न प्रकार किया है—
‘‘इस धवला टीका के आधार से ही स्वयं विशेष जानने की इच्छा से अनेक प्रकरणों को वहाँ से ज्यों के त्यों उद्धृत करके, किन्हीं प्राकृत पंक्तियों की संस्कृत छाया करके, कुछ विषयों को संक्षिप्त करके, किन्हीं प्रसंगोपात्त विषयों को सरल करने के लिए अन्य ग्रन्थों के विशेष उद्धरणों को भी संग्रहीत करके मेरे द्वारा यह ‘‘सिद्धान्त चिन्तामणि’’ नाम की टीका लिखी जा रही है।।’’ (भाग-१ पृष्ठ-१०)
सिद्धान्त चिन्तामणि टीका सर्वदृष्ट्या अति प्रशंसनीय है। लगभग १५ वर्षों की लेखन तपस्या से प्रसूत इस महान ग्रन्थ में आप प्राचीन टीकाकारों आचार्य जयसेन स्वामी, ब्रह्मदेव सूरि आदि की व्याख्या, भाष्य, तात्पर्यवृत्ति आदि सभी स्वरूपों के दर्शन करने का सुखद संयोग प्राप्त करेंगे।
उपर्युक्त से ज्ञातव्य है कि यह ‘‘सिद्धान्त चिन्तामणि’’ अति महान ग्रन्थ है तथा जन-जन तक इसके व्याख्यानामृत को पहुँचाने तथा हृदयंगम कराने के लिए इसके हिन्दी भाषानुवाद की महती आवश्यकता थी। इसका अनुभव करके प्रज्ञाश्रमणी माताजी ने इस क्लिष्ट, दुरूह एवं अति विस्तृत, श्रमसाध्य कार्य करने का बीड़ा उठाया। बड़ी माताजी का आशीर्वाद और ज्ञान प्रसार-लक्ष्य इसका संबल रहा।
पूज्य चन्दनामती जी को इसकी टीका अनुवाद से आत्मिक लाभ हुआ जिसे उन्होंने निम्न वाक्य में प्रकट किया है— ‘‘इसकी टीका करने में मुझे जो ज्ञानामृत का रसास्वादन प्राप्त हुआ है वह लेखनी में निबद्ध नहीं किया जा सकता।’’ (प्रथम भाग, प्रस्तावना पृ. ४१) पुनश्च उनकी पुण्य भावना निम्न पंक्तियों में दृष्टव्य है—
‘‘अपने गुरु की छत्रछाया में पावन तीर्थ हस्तिनापुर की धरती पर बैठकर भगवान शान्तिनाथ और (गुरु) गणिनी प्रमुख ज्ञानमती माताजी से इस शुभाशीर्वाद की याचना करती हूँ कि षट्खण्डागम की द्वितीय आदि पुस्तकों की संस्कृत टीका का हिन्दी अनुवाद भी मैं शीघ्र कर सवूँâ तथा मेरा यह अल्पज्ञान पूर्ण श्रुतज्ञान और परम्परया केवलज्ञान प्राप्ति में निमित्त बने, यही पुनः-पुनः याचना करते हुए गुरु चरणों की शाश्वत छाया प्राप्ति की इच्छुक हूँ।।
’’ बड़े हर्ष का विषय है कि विपुल सैद्धान्तिक ज्ञानधारी इन माताजी ने भगीरथ प्रयत्न करके अब तक १२ पुस्तकों की टीका पूर्ण कर ली है। वे स्तुति और धन्यवाद की पात्र हैं। सिद्धान्त चिन्तामणि के संस्कृत भाषामय अभिप्राय को पाठकों के गले उतारने की क्षमता का प्रकाशन पूज्यनीय चन्दनामती माताजी के वैरागी जीवन की उपलब्धि ही होगी तथा उनकी योग्य यशोगाथा यावच्चन्द्रदिवाकरौ शाश्वत रहेगी।
सद्धान्त चिन्तामणि की प्रथम पुस्तक में सत्प्ररूपणा विषयक १७७ सूत्र हैं जिनकी रचना आ० पुष्पदन्त ने की है तथा परम पूज्यनीय गणिनी प्रमुख माता जी ने धवला को सरलीकृत कर सभी सूत्रों की संस्कृत में टीका की है। दूसरी पुस्तक में सूत्र न होकर धवलाकार आचार्य वीरसेन स्वामी कृत २० प्ररूपणाओं के आलापरूप में अधिकार निरूपित है उस पर पूज्यनीय ज्ञानमती जी ने टीका की है। दोनों भाग सत्प्ररूपणा के अन्तर्गत हैं।
प्रथम पुस्तक विवेच्य है तो दूसरी पुस्तक विवेचन या वर्गीकृत स्पष्टीकरण है। प्रथम पुस्तक में गुणस्थान मार्गणास्थानों का द्वितीय व तृतीय महाधिकारों में विस्तृत निरूपण है। प्रथम महाधिकार में मंगलाचरण (णमोकार), श्रुतविस्तार, ग्रन्थकर्ता आदि अपेक्षणीय विषयों का वर्णन है। द्वितीय पुस्तक में बीस प्ररूपणाओं का व्याख्यान हैं। प्ररूपणायें २० हैं जो निम्न गाथा से स्पष्ट हैं—
गुण जीवा पज्जत्ती, पाणा सण्णा य मग्गणाओ य।
उरायोगो वि य कमसो, वीसं तु परूवणा भणिदा।।पृ. ३।।
अर्थात् गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, १४ मार्गणा और उपयोग इस प्रकार क्रमशः २० प्ररूपणा हैं। सत्प्ररूपणा की इस पुस्तक में आचार्य पुष्पदन्त कृत सूत्र नहीं है अपितु आचार्य वीरसेन कृत २० प्ररूपणाओं के आलाप तथा उनके कोष्ठक (संदृष्टि) हैं। पूज्य प्रज्ञाश्रमणी माताजी ने उनका श्रेष्ठ हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया है।
दोनों ही पुस्तकों के अनुवाद में अर्थ विचलन बिल्कुल भी नहीं है। ‘सिद्धान्त चिन्तामणि’ के हार्द को प्रकट करने में अनुवाद का कौशल स्पष्टरीत्या परिलक्षित होता है। पू० माताजी चारों अनुयोगों की विशद ज्ञाता हैं। वे सूक्ष्म से सूक्ष्म, कठिन से कठिन प्रस्तुत ग्रन्थगत द्रव्यानुयोग व करणानुयोग की गुत्थियों को सुलझाने में सिद्ध हस्त हैं।
उनमें लेखन, टीकाकरण, कवित्व, वाग्मित्व आदि मनीषा के सभी गुण हैं। ‘सिद्धान्त चिन्तामणि’ रूप सोने में यह टीकानुवाद सुगन्ध की भाँति ग्रन्थ की श्री वृद्धि करने में अनिवार्य रूप से सदैव उपयोगी रहेगा। यह ज्ञातव्य है कि कुशल टीकाकार एवं देशभाषामय अनुवाद के अभाव में मूलग्रन्थ के ज्ञान लाभ से पाठक वंचित रह जाते हैं।
गुरुमाता एवं शिष्या माता दोनों का ही लोक पर महान उपकार है। प्रस्तुत टीका के स्वरूपावबोध के लिए इसकी भाषा, शैली और अन्य विशेषताओं पर प्रकाश डालना समीचीन होगा।
इस महनीय टीका की भाषा खड़ी बोली हिन्दी है। सरल शब्दों में सिद्धान्त चिन्तामणि के हार्द को स्पष्ट करने का सर्वत्र प्रयास दृष्टिगत होता है। यतः षट्खण्डागम और संस्कृत टीका जैन सिद्धान्त का मंजर ही है, उसमें तत्सम्बन्धी जैन पारिभाषिक एवं अन्य की शब्दावली अनिवार्य रूप से प्रयुक्त है, अतः पू० चंदनामती जी को उन शब्दों तथा उनके स्वरूप प्रकाशक शब्दों का प्रयोग अपेक्षित रूप में करना आवश्यक था।
इसी हेतु उन शब्दों की अर्थ गाम्भीर्य सहित छटा के दर्शन भी होते हैं। टीकाकार का प्रयास आम बोलचाल की एवं जनोपयोगी भाषा के प्रयोग का रहा है। शब्द चयन मूल संस्कृत टीकाकार के आशय के अनुरूप है, विषय विवेचन एवं स्पष्टीकरण सुन्दर है। संस्कृतनिष्ठ क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग करते हुए भी माताजी ने पाठक को विषय वस्तु को समझाने का प्रयास किया है।
सिद्धान्तचिन्तामणि भाग १ व २ में १४ गुणस्थान यथा—मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, मिश्र, अविरत- सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसांपराय, उपशान्तमोह, क्षीणमोह, सयोगकेवली, अयोगकेवली विवेचित हैं। प्ररूपणाओं में १४ मार्गणास्थान निम्न प्रकार हैं, अनुवाद की महत्ता के परिज्ञान के लिए यहाँ हम लिख रहे हैं— गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी, आहारक।
अन्य प्ररूपणायें जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, उपयोग हैं इनका विवेचन अपेक्षाकृत सरल है, किन्तु उपर्युक्त गुणस्थान एवं मार्गणास्थान का वर्णन करने के लिए शब्द गाम्भीर्य आवश्यक है। प्रज्ञाश्रमणी माताजी भाषा, साहित्य, दर्शन, व्याकरण, सिद्धान्त आदि की तलस्पर्शी विद्या, अपनी गुरु बड़ी माताजी से ग्रहण करके परिपक्व एवं प्रौढ़शब्दावली में भी रचना करने में सिद्धहस्त हैं। यह ज्ञातव्य है कि ‘‘सिद्धान्तचिन्तामणि’’ टीका का रसास्वादन करना रथ्यापुरुष के समान अनिपुण पाठक के वश की बात नहीं है।
प्रौढ़स्वाध्यायी इसका अधिकारी है सामान्य स्वाध्यायी भी कुछ अवगम कर सकता है। अतः पूज्य चंदनामती माताजी की प्रौढ़ एवं सरलता मिश्रित भी टीका के अध्ययन हेतु आगम ज्ञान अपेक्षित है। भाषा की दृष्टि से मााताजी की लेखनी सर्वत्र सुषमा बिखेरती हुई नजर आती है।
प्रस्तुत टीका की शैली सरस, मधुर एवं प्रवाहपूर्ण है। द्रव्यानुयोग एवं करणानुयोग के रसास्वादन पिपासुओं के लिए रसपूर्ण फल रसबेरी के समान मिश्रित आनन्द की प्रदायक है। मधुर स्वाद हेतु गन्ने में स्थित विभिन्न पर्व या पोरों से निःसृत मीठे रस की भाँति धर्मसाहित्य के मधुर रस से संतुष्ट करने वाली है।
यह रस गाढ़, गरिष्ठता के साथ तरलता गुण के कारण पच्यमान है। धीरता-गंभीरता को अपने अन्तर में समेटे हुए होने पर भी माता के कर-पल्लवों द्वारा पुत्र को प्रदत्त कोमल एवं बलप्रदायक पाथेय के समान है। किसी भी रचना की बड़ी विशेषता है प्रवाहपूर्ण शैली। इस टीकानुवाद में मन्थर गति से जीवन प्रदान करती हुई सरिता का कल-कल प्रवाह नजर आता है। सरलता सहजता का प्रयास व क्लिष्ट सैद्धान्तिक विषयों का अर्थावबोध इसमें दृष्टिगोचर होता है।
अनेक हिन्दी टीकाकारों और अनुवाद कत्र्ताओं ने अन्य अपेक्षित कार्य किया है। किन्तु माताजी के इस हिन्दी भाष्य में लोकसम्मत प्रमुख टीकाकारों का समन्वित रूप देखा जा सकता है। गोम्मटसार की प्रसिद्ध, पं. टोडरमलकृत सम्यग्ज्ञान चन्द्रिका का, पं. लालाराम शास्त्री की सरल पौराणिक टीका में, पं. फूलचन्द शास्त्री कृत धवला के हिन्दी अनुवाद, पं. सुमेरचन्द्र दिवाकर कृत महाबंध के भाषानुवाद और पं. पन्नालाल साहित्याचार्य कृत संशुद्ध टीकाओं के मिले-जुले स्वरूप समन्वित यह टीका प्रतीत होती है। यह हर दृष्टि से प्रशंसनीय है।
मुझे ऐसा भी अनुभव होता है कि ग्रन्थकत्र्री माताजी के सानिध्य में लगभग ३० वर्ष तक साधना एवं उनके सानिध्य का यह फल रहा है कि उनके ज्ञान से लाभान्वित होकर, उनके ज्ञान की गरिष्ठता का स्पर्श पाकर, पारस मणि और लौह के संस्पर्श से संभवित स्वर्ण के समान दीप्ति धारणकर चन्दनामती माताजी ने इस ‘‘सिद्धान्त चिन्तामणि’’ की अपेक्षित श्रेष्ठ शैली में टीका की है।
‘‘अनुसारं वादः, अनुवादः’’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार तो यह सटीक ही बैठता है। यदि प्रज्ञाश्रमणी जी के ज्ञानात्मक आयाम पर दृष्टिपात किया जाय तो ज्ञात होता है कि वे तो पूज्यनीय गणिनीप्रमुख माताजी की छाया के समान अनुसारिणी और उनके अनुसार ही मन-वचन-काय की प्रवृत्ति करती हैं।
अतः स्वाभाविक ही उनके इस दिव्य अनुवाद में अनुसारता तो परिपूर्णरूप से है। संक्षेप में यह कथन संगत है कि इस श्रेष्ठ शैली के अनुवाद में प्रज्ञाश्रमणी माता का गहन स्वाध्याय, काव्यकौशल, दक्षता, अनुभव, तपोबल गुरुभक्ति, देव-शास्त्र की प्रगाढ़श्रद्धा, संघ सानिध्य से प्राप्त प्रकृष्ट ज्ञान शास्त्री, पी. एच. डी (मानद) पद का गौरव प्रतिविम्बित होता है।
नम्न बिंदुओं में ज्ञातव्य हैं।
सद्धान् सिद्ध्यर्थमानम्य, सर्वांस्त्रैलोक्यमूध्र्वगान्।
इष्टः सर्वक्रियान्तेऽसौ, शान्तीशो हृदि धार्यते।।१।।
विशेषार्थ— समस्त क्रियाओं के अन्त’ से यहाँ अभिप्राय यह है कि साधु और श्रावकों को प्रत्येक नैमित्तिक क्रियाओं में शान्तिभक्ति करना आवश्यक होता है। श्रावकजन दैनिक पूजा के अन्त में प्रतिदिन शान्तिपाठ करते हैं और बृहत् पूजा विधानों के अन्त में भी शान्तिभक्ति पढ़कर शान्तिपाठ करने की विधि है।
इसी प्रकार मुनि-आर्यिका आदि के लिए नित्य ही ‘‘अभिषेक वंदना क्रिया’’ में सिद्ध, चैत्य, पंचगुरुभक्ति के बाद शान्तिभक्ति पढ़ने का विधान है तथा बृहत्सामायिक विधि से सामायिक करने पर उसमें शान्तिभक्ति करनी होती है। इसके अतिरिक्त अष्टमी क्रिया, नन्दीश्वर क्रिया, वर्षायोग प्रतिष्ठापन-निष्ठापन क्रिया, पाक्षिक-चातुर्मासिक-सांवत्सरिक आदि प्रतिक्रमणों को करने में, साधु-सल्लेखना, पञ्चकल्याणक आदि क्रियाओं के अन्त में शान्तिभक्ति आवश्यक रूप से पढ़ी जाती है।
यह शान्तिभक्ति भक्तों के मन में शान्ति प्रदान करे इसी अभिप्राय से चरणानुयोग ग्रन्थों में आचार्यों ने प्रत्येक क्रिया के अन्त में शान्तिभक्ति करने का विधान किया है। वही भाव दर्शाने के लिए पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी ने प्रथम मंगलाचरण श्लोक में श्री शान्तिनाथ भगवान् को नमन करते हुए स्पष्ट किया है कि ‘‘जो समस्त क्रियाओं के अन्त में इष्टरूप से स्वीकार किये गये हैं ऐसे शान्तिनाथ भगवान् मेरे हृदय में विराजमान होवें। यह भावना आत्मशान्ति की प्रतीक है।’’ (खंड १ भाग १ श्लोक नं. १)
५. प्रस्तुत हिन्दी टीका श्रद्धा, भक्ति, विनय आदि गुणों को प्रकट किये हुए हैं। अन्य भी अनेकों विशेषताओं को गर्भित किए हुए परिष्कृत, प्राञ्चल, शुद्ध भाषा एवं शैली की श्रेष्ठता को प्राप्त यह २ भागों में सत्प्ररूप्रणा का हिन्दी अनुवाद, सिद्धान्त चिन्तामणि संस्कृत टीका के परम पूज्य चारित्र चन्द्रिका, ज्ञानवारिधि गणिनीप्रमुख आर्यिका ज्ञानमती माता के महान ग्रन्थरूप महल पर कलश के समान शोभायमान है।
विस्तार के भय से चाहते हुए भी मैं कतिपय स्थलों को उद्धृत नहीं कर रहा हूँ। मैं परम पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री को नमन करते हुए जिनेन्द्र प्रभु से मंगल कामना करता हूँ कि प्रज्ञाश्रमणी माता चन्दनामती जी पूर्ण स्वस्थ एवं वृद्धिरूप रत्नत्रय की साधनारत रहकर ‘सिद्धान्त चिन्तामणि’ के अवशिष्ट भागों की हिन्दी टीका को भी पूर्णकर अपने लक्ष्य में सफल हों। टीका भी यावच्चन्द्र दिवाकरौ जगत् को प्रकाशित करती रहे। नारी जाति के ललाम के टीका के समान यह टीका यशस्वी रहे। (इत्यलम्)