लोक में एक शास्त्र या संपूर्ण शास्त्र को अच्छी तरह से जान लेने पर मनुष्य को बहुत ही संतोष सुख-आनंद उत्पन्न होता है। पुन: सम्पूर्ण लोकालोक को जानने वालों को कितना सुख होगा इसका अनुमान करना भी अशक्य है। जिन्हें वह ज्ञान और सुख प्राप्त हुआ है वे ही उस आनंद का अनुभव कर सकते हैं। अन्य जन नहीं कर सकते। त्रिलोकसार में कहा है कि—
चक्किकुरुफणिसुरिदे सहमिन्दे जं सुहं तिकालभवं।
तत्तो अणंतगुणिदं सिद्धाणं खणसुहं होदि।।५६०।।
अर्थ—चक्रवर्ती के सुख से भोगभूमियों का सुख अनंतगुणा है, भोग- भूमियों से धरणेन्द्र का सुख अनंतगुणा है, उससे देवेन्द्र का सुख अनंतगुणा है, उससे अहमिन्द्रों का सुख अनंतगुणा है। इन सभी के Dानंतानंत गुणित अतीत, अनागत और वर्तमान काल संबंधी सम्पूर्ण सुखों को एकत्रित करिये उसकी अपेक्षा भी अनंतगुणा अधिक सुख सिद्धों को एक क्षण मात्र में उत्पन्न होता है यह तो केवल उदाहरण मात्र है, संसारी सभी जीवों का सुख आकुलता सहित है और सिद्धों का सुख निराकुल है इसलिये सिद्धों का सुख वचन के अगोचर है।
संसार में कोई-कोई भव्य जीव सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्ररूप रत्नत्रय के बल से कर्मों का नाश करके स्वयं ही अपने स्वरूप को प्राप्त कर लेते हैं। उसी का नाम सिद्धावस्था है ‘‘सिद्धि: स्वात्मोपलब्धि:’’ के अनुसार अपने आत्मा के स्वरूप को प्राप्त कर लेना ही सिद्धि है ऐसे सिद्ध परमेष्ठी अनंतानंत प्रमाण है। वर्तमान में भी विदेह आदि से कितने ही भव्य जो रत्नत्रयरूप पुरुषार्थ के बल से अपने अनंत गुणों को और शाश्वत सौख्य, पूर्ण ज्ञान को प्रकट करेंगे। उन अतीतानागत वर्तमानकालीन सम्पूर्ण सिद्धों को सिद्धभक्तिपूर्वक मेरा मन वचन काय से बारम्बार नमस्कार होवे।
सिद्धांस्त्रैलोक्यमूर्धस्थान्, अकृतानि कृतानि च।
जिनचैत्यानि लोकेऽस्मिन् वंदे सर्वाणि सिद्धये।।