निष्कर्म जीव सब कर्मरहित, वे सिद्ध अष्ट गुण से युत हैं।
अन्तिम शरीर से विंचित् कम, उत्पाद और व्यय संयुत हैं।।
स्वाभाविक ऊध्र्वगमन करके, वे नित्य निरंजन परमात्मा।
लोकाग्र शिखर पर स्थित हैं, अनुपम गुणशाली शुद्धात्मा।।१४।।
जो ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों से रहित हैं, सम्यक्त्व आदि आठ गुणों से सहित हैं और अंतिम शरीर से कुछ कम आकार वाले हैं, वे सिद्ध आत्मा हैं। ये ऊध्र्वगमन स्वभाव के कारण लोक के अग्रभाग में स्थित हैं, नित्य हैं तथा उत्पाद, व्यय से संयुक्त हैं। अपनी शुद्ध आत्मा के ज्ञान के बल से जिन्होंने ज्ञानावरण आदि समस्त मूलकर्म प्रकृतियों को और उत्तर प्रकृतियों को जड़मूल से नष्ट कर दिया है, ऐसे सिद्ध परमात्मा द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म से सर्वथा रहित हो चुके हैं।
इनके सम्यक्त्व, ज्ञान, दर्शन, वीर्य, सूक्ष्म, अवगाहन, अगुरुलघु और अव्याबाध गुण प्रगट हो चुके हैं। आठ कर्मों के अभाव से ही ये आठ गुण माने गये हैं। वैसे तो सिद्धों के अनंत गुण कहे गये हैं।
सम्यक्त्व –केवलज्ञान आदि गुणों का आश्रयभूत निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, इस प्रकार की रुचि रूप जो निश्चय सम्यक्त्व है, जिसको कि पहले तपश्चरण अवस्था में (मुनि वेष में) भाषित किया था उसके फलस्वरूप समस्त जीव-अजीव आदि तत्त्वों के विषय में विपरीत अभिप्रायरहित परिणामरूप परम क्षायिक नाम का ‘सम्यक्त्व’ गुण सिद्धों में होता है।
ज्ञान – पहले छद्मस्थ अवस्था में भावना किए हुए निर्विकार स्वानुभवरूप ज्ञान के फलस्वरूप एक ही समय में लोक तथा अलोक के सम्पूर्ण पदार्थों के विशेषों को जानने वाला ‘केवलज्ञान’ गुण होता है।
दर्शन –समस्त विकल्पों से रहित अपनी शुद्ध आत्मा की सत्ता का अवलोकन रूप जो दर्शन पहले भावित किया था, उसी दर्शन के फलस्वरूप एक काल में लोक-अलोक के सम्पूर्ण पदार्थों के सामान्य को ग्रहण कराने वाला ‘केवलदर्शन’ गुण है।
वीर्य – आत्मध्यान से विचलित करने वाले किसी अति घोर परिषह तथा उपसर्ग आदि के आ जाने पर जो पहले अपने निरंजन परमात्मा के ध्यान में धैर्य का अवलम्बन किया उसी के फलरूप अनन्त पदार्थों के जानने में खेद के अभावरूप अनंतवीर्य गुण होता है अर्थात् इस गुण से अनंत पदार्थों को जानते समय उन्हें थकान नहीं होती है।
सूक्ष्म – सूक्ष्म अतीन्द्रिय केवलज्ञान का विषय होने के कारण सिद्धों के स्वरूप को ‘सूक्ष्मत्व’ कहते हैं अर्थात् इस गुण से सिद्धों का स्वरूप इन्द्रियों से नहीं जाना जाता है।
अवगाहन – एक दीपक के प्रकाश में जैसे अनेक दीपों का प्रकाश समा जाता है उसी तरह एक सिद्ध के क्षेत्र में संकर तथा व्यतिकर दोष से रहित जो अनंत सिद्धों को अवकाश देने की सामथ्र्य है वह ‘अवगाहन’ गुण है। इस गुण से एक सिद्ध के स्थान पर अनंतानंत सिद्ध विराजे हुए हैं।
अगुरुलघु – यदि सिद्धस्वरूप सर्वथा गुरु (भारी) हो तो लोहे के गोले के समान वह नीचे पड़ा रहेगा और यदि सर्वथा लघु (हल्का) हो तो वायु से प्रेरित आक की रुई की तरह वह इधर-उधर घूमता रहेगा किन्तु सिद्धों का स्वरूप ऐसा नहीं है। इस कारण उनके ‘अगुरुलघु’ गुण कहा जाता है।
अव्याबाध – स्वाभाविक शुद्ध आत्मस्वरूप के अनुभव से उत्पन्न तथा राग आदि विभावों से रहित ऐसे सुखरूपी अमृत का जो एकदेश अनुभव पहले किया था उसी के फलस्वरूप ‘अव्याबाध’ रूप अनन्तसुख गुण सिद्धों में होता है। इस प्रकार ये सम्यक्त्व आदि आठ गुण मध्यम रुचि वाले शिष्यों के लिए कहे गये हैं।
विस्तार रुचि वाले शिष्यों के प्रति विशेष भेद नय के अवलम्बन से गतिरहितता, इन्द्रियरहितता, शरीररहितता, योगरहितता, वेदरहितता, कषायरहितता आदि विशेष गुण हैं और इसी प्रकार अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि सामान्य गुण हैं।
इस तरह जैनागम के अनुसार अनन्त गुण ज्ञातव्य हैं और संक्षेप रुचि वाले शिष्यों के लिए विवक्षित अभेद नय की अपेक्षा अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख तथा अनन्तवीर्य ये चार गुण अथवा अनन्तज्ञान, दर्शन और सुखरूप तीन गुण अथवा केवलज्ञान और केवलदर्शन ये दो गुण हैं तथा साक्षात् अभेद नय से एक शुद्ध चैतन्य गुण ही सिद्धों का है।
यहाँ तक सिद्धों के गुणों का वर्णन है। ये सिद्ध भगवान चरम-अन्तिम शरीर से कुछ न्यून आकार वाले हैं। वह जो किंचित् न्यूनता है, सो शरीर अंगोपांग नामकर्म से उत्पन्न नासिका आदि छिद्रों से अपूर्ण (खाली स्थान) होने से ही है। जिस समय सयोगकेवली गुणस्थान के अन्त समय में तीस प्रकृतियों के उदय का नाश हुआ है। उस समय उनके शरीरांगोपांग कर्म का भी नाश हो गया है अत: उसी समय किञ्चित् ऊनता हुई है, तब आत्मा के प्रदेश उसी छूटने वाले अन्तिम शरीर के आकार के रह गये हैं।
शंका – जैसे दीपक को ढकने वाले पात्र आदि के हटा लेने पर उस दीपक का प्रकाश पैल जाता है, उसी प्रकार देह का अभाव हो जाने पर सिद्धों की आत्मा भी फैलकर लोकप्रमाण हो जाना चाहिए ?
समाधान – जो यह दीपक के प्रकाश का फैलना है सो वह तो पहले से ही स्वभाव से दीपक में रहता है, पीछे उस दीपक के आवरण से संकुचित हो जाता है। वैसे ही जीव का लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशत्व स्वभाव तो है किन्तु प्रदेशों का लोकप्रमाण विस्तार (फैल जाना) स्वभाव नहीं है अर्थात् जीव स्वभाव से लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशी तो है किन्तु प्रदेशों का विस्तार होना यह जीव का स्वभाव नहीं है इसीलिए अन्तिम शरीर छूटने पर आत्मा के प्रदेशों का आकार जैसे का तैसा पुरुषाकार रह जाता है।
शंका – जीव के प्रदेश पहले लोक के बराबर पैले हुए, आवरण रहित रहते हैं पुन: जैसे प्रदीप के उपर आवरण होता है उसी तरह जीव प्रदेशों के भी आवरण हो जाता है ?
समाधान – ऐसा नहीं है, क्योंकि जीव के प्रदेश तो पहले अनादिकाल से सन्तान रूप से चले आ रहे शरीर के आवरण सहित ही (शरीर के आकार) रहते हैं अर्थात् जीव अनादिकाल से शरीररूपी पात्र में ही रहा है। कभी पहले शुद्ध शरीररहित रहा हो पुन: अशुद्ध शरीरधारी हुआ हो, ऐसा है ही नहीं।
इस कारण जीव के प्रदेशों का संहार (संकोच) और विस्तार (पैलना) शरीर नामक नामकर्म के आधीन ही है, यह प्रदेशों का संकोच-विस्तार जीव का स्वभाव नहीं है इसीलिए जीव के शरीर का अभाव होने पर प्रदेशों का विस्तार नहीं होता है। इस विषय में और भी उदाहरण हैं-जैसे किसी मनुष्य की मुट्ठी के भीतर चार हाथ लम्बा वस्त्र बंधा-भिंचा हुआ है।
अब यह वस्त्र मुट्ठी खोल देने पर पुरुष के प्रयोग के अभाव में संकोच तथा विस्तार नहीं करता है, जैसा उस पुरुष ने छोड़ा है वैसा ही रह जाता है अथवा गीली मिट्टी का बर्तन बनते समय तो संकोच तथा विस्तार को प्राप्त होता रहता है किन्तु जब वह सूख जाता है तब जल का अभाव होने से वह बर्तन संकोच व विस्तार को प्राप्त नहीं होता है।
इसी तरह मुक्त जीव भी जल के अभाव सदृश, शरीर के अभाव में संकोच विस्तार नहीं करता है। जब तक शरीर नामकर्म का उदय है तभी शरीर के बराबर प्रदेशों का संकोच-विस्तार किया करता है किन्तु सम्पूर्ण कर्मों के अभाव में अपने अन्तिम शरीर से विंचित् न्यून ही आत्मा के प्रदेशों का आकार रहता है इसलिए सिद्ध भगवान चरमदेह से किंचित् न्यून कहलाते हैं।