—गणिनी ज्ञानमती
—नरेन्द्र छंद—
जय जय सिद्ध अनंतानंते, जय जय श्री भगवंता।
जय जय परमानंद सुधारस, आस्वादी शिवकंता।।
श्री तीर्थंकर छ्यालिस गुणधर, सिद्ध हुये सुख पाये।
तीर्थंकर बिन हुए अनंते, भव्य सिद्ध पद पाये।।१।।
कोई अंतकृत केवलि होकर, सिद्ध हुए गुण गायें।
बिना अंतकृत केवलि भी तो, अगणित जन शिव पाये।।
जल से भी हुये सिद्ध अनंते, सो वैâसे यह सुनिये।
कोई देव या खेचर मुनि को, जल में डालें सुनिये।।२।।
सत्रह लाख सु बानवे सहस्र, नब्बे अकृत्रिम नदियां।
जंबूद्वीप में कृत्रिम कूप, जलधि सरवर बहुनदियां।।
द्वीप धातकी पुष्करार्ध में, नदी कुंड ह्रद आदी।
लवणोदधि कालोदधि सागर, ये जल भरे अनादी।।३।।
तत्क्षण केवलज्ञानी होकर, शिव पाते ये जल से।
नमूँ नमूँ मैं सिद्ध अनंतानंत भाव उज्ज्वल से।।
थल में सिद्ध अनंतानंते, भूमि तथा पर्वत से।
सब सिद्धों का वंदन करते, मिले सिद्धगति सुख से।।४।।
जंबूद्वीप में तीन सौ ग्यारह, पर्वत मेरू आदी।
चौंतिस कर्मभूमि छह भोग, भूमि जंबूतरु द्व्यादी।।
इक सौ सत्तर म्लेच्छ खंड अरु, चौंतिस आरज खंड हैं।
इनसे मुक्त जो स्थल सिद्धा, नमत पाप शत खंड हैं।।५।।
गगन पथों में अधर रहें भी, अगणित मुनि शिव पाते।
ये भी सब उपसर्ग सिद्ध हो, गणधर गुरु इन ध्याते।।
ऊर्ध्वलोक से एक लाख, योजन तक अधर कहीं से।
मध्यलोक से अधोलोक से, बिल सुरंग जलधी से।।६।।
इन सबसे उपसर्ग सहन कर, बिन उपसर्ग शिव जाते।
सुषमसुषम आदिक छह कालों, से भी मुक्ती पाते।।
प्रथम द्वितीय रु तृतिय व पंचम, छठे काल से भी हों।
उपसर्गों से सिद्ध हुये ये, चौथे में द्वय विध हों।।७।।
तृतिय अंत में सिद्ध हुए, श्रीवृषभ आदि भगवंता।
पंचमकाल के आरंभ में, गौतम आदिक शिवकंता।
शाश्वत इक सौ साठ कर्मभू, काल वहाँ चौथा ही।
पाँच भरत पण ऐरावत में, काल परावृत छह ही।।८।।
नाना भेद कहे सिद्धों के, भूत सुनैगमनय से।
वहाँ न किंचित भेदभाव है, सबके गुण इक जैसे।।
ढाईद्वीप में अणूमात्र भी, जगह नहीं है ऐसी।
मुक्त नहीं हैं हुये जहाँ से, सिद्धशिला भी वैसी।।९।।
धन्य घड़ी यह धन्य दिवस यह, धन्य भाग्य है मेरा।
सब सिद्धों के गुण गाने का, मिला प्रभात सबेरा।।
नमूँ नमूँ मैं सिद्ध अनंते, हृदय कमल में ध्याऊँ।
नितप्रति वंदन गुण कीर्तन कर, जिनगुण संपति पाऊँ।।१०।।
—दोहा—
चिदानंद चिद्रूप को, नमूँ नमूँ शिर टेक।
मांगू केवल ‘‘ज्ञानमति’’, यही याचना एक।।११।।