सम्मत्तणाणदंसण वीरिय सुहुमं तहेव अवगहणं। अगुरुलहुमव्वावाहं अट्ठगुणा होंति सिद्धाणं।।
सिद्धों के आठ कर्मो के क्षय हो जाने से आठ गुण प्रगट हो जाते हैं। मोहनीय कर्म के क्षय से सम्यक्त्व, ज्ञानावरण के क्षय से केवलज्ञान, दर्शनावरण के क्षय से केवल दर्शन, अन्तरायकर्म के क्षय से अनन्तवीर्य, नामकर्म के अभाव से सूक्ष्मत्व, आयुकर्म के अभाव से अवगाहनत्व, गोत्रकर्म के अभाव से अगुरुलघु तथा वेदनीयकर्म के अभाव से अव्याबाध सुख, सिद्धों में ये आठ गुण होते हैं। वास्तव में मुख्यरूप से ये आठ गुण माने गये हैं, वैसे तो एक सिद्ध भगवान में अनन्तानन्त गुण विद्यमान हैं। सिद्ध के इन अनन्तगुणों को तराजू के एक पलड़े में रखिये एवं उनमें से एक ज्ञानगुण को निकालकर दूसरे पलड़े में रख दीजिए, तो वह ज्ञान गुण का पलड़ा भारी हो जायेगा क्योंकि ज्ञान गुण के बिना उन गुणों को अनुभव कराने वाला अथवा मूल्यावंâन करने वाला कोई भी नहीं है। इसी प्रकार से हमारी आत्मा भी अनन्त गुणों का पिंड है। उन शक्तिरूप गुणों को व्यक्त करने के लिए परमज्ञान स्वरूप और परमानन्द स्वरूप सिद्ध परमेष्ठी को मेरा मन, वचन, काय से नमस्कार होवे।