सकल सिद्ध परमात्मा, निकल अमल चिद्रूप।
नमूं नमूं नित भक्ति से, सिद्धचक्र शिव भूप।।१।।
जै सिद्धचक्र मध्यलोक से भये सभी।
जै सिद्धचक्र तीनकाल के कहे सभी।।
जै जै त्रिलोक अग्रभाग पे विराजते।
जै जै अनादि औ अनंत सिद्ध सासते।।२।।
जो जम्बूद्वीप से अनंत सिद्ध हुए हैं।
क्षारोदधी से भी अनंत सिद्ध हुए हैं।।
जो धातकी सुद्वीप से भी सिद्ध अनंता।
कालोदधि से पुष्करार्ध से भी अनंता।।३।।
इन ढाई द्वीप से हुए जो भूतकाल में।
जो हो रहे हैं और होंगे भाविकाल में।।
इस विध अनंतानंत जीव सिद्ध हुए है।
जो भव्य को समस्त सिद्धि अर्थ हुए हैं।।४।।
जो घात मोहनीय को सम्यक्त्व लहे हैं।
ज्ञानावरण को घात पूर्ण ज्ञान लहे हैं।।
कर दर्शनावरण विनाश सर्व दर्शिता।
त्रैलोक्य औ अलोक एक साथ झलकता।।५।।
होते कभी न श्रांत चूँकि वीर्य अनंता।
ये सिद्ध सभी अंतराय कर्म के हंता।।
आयू कर्म को नाश गुण अवगाहना धरें।।
जो सर्व सिद्धि के लिए अवगाहना करें।।६।।
अवकाश दान में समर्थ सिद्ध कहाये।
अतएव एक में अनंतानंत समाये।।
फिर भी निजी अस्तित्व लिये सिद्ध सभी है।
पर के स्वरूप में विलीन हो न कभी हैं।।७।।
कर नाम कर्म नाश वे सूक्ष्मत्व गुण धरें।
अर गोत्र कर्म नाश अगुरुलघू गुण वरें।।
वे वेदनी विनाश पूर्ण सौख्य भरे हैं।
निर्बाध अव्याबाध नित्यानंद धरे हैं।।८।।
वे आठ कर्म नाश आठ गुण को धारते।
फिर भी अनंत गुण समुद्र नाम धारते।।
चैतन्य चमत्कार चिदानंद स्वरूपी।
चिंतामणी चिन्मात्र चैत्य रूप अरूपी।।९।।
सौ इंद्र वंद्य हैं त्रिलोक शिखामणी हैं।
सम्पूर्ण विश्व के अपूर्व विभामणी हैं।।
वे जन्म मृत्यु शून्य शुद्ध बुद्ध कहाते।
निर्मुक्त निरंजन सु निराकार कहाते।।१०।।
जो सिद्धचक्र की सदा आराधना करें।
संसार चक्र नाश वे शिव साधना करें।।
मैं भी अनंत चक्र भ्रमण से उदास हू।
हो ‘ज्ञानमती’ पूर्ण नाथ आप पास हू।।११।।
अचिन्त्य महिमा के धनी, परमानंद स्वरूप।
नमूं नमूं नित भक्ति से, मिल शांति सुखरूप।।१२।।