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सिद्ध पूजा
July 26, 2020
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jambudweep
सिद्ध पूजा
ऊध्र्वाधोरयुतं सबिन्दु सपरं ब्रह्म-स्वरावेष्टितं,
वर्गापूरित-दिग्गताम्बुज-दलं तत्संधि-तत्त्वान्वितं।
अंत: पत्र-तटेष्वनाहत-युतं ह्रींकार-संवेष्टितं।
देवं ध्यायति य: स मुक्तिसुभगो वैरीभ-कण्ठी-रव:।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपते! सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपते! सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपते! सिद्धपरमेष्ठिन्! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
निरस्त-कर्म-सम्बधं सूक्ष्मं नित्यं निरामयम्।
वन्देऽहं परमात्मानममूत्र्तमनुपद्रवम्।।१।।
सिद्धौ निवासमनुगं परमात्म-गम्यं हान्यादि भावरहितं भव-वीत-कायम्।
रेवापगा – वर – सरो – यमुनोद्भवानां नीरैर्यजे कलशगैर् – वरसिद्ध – चक्रम्।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।।१।।
आनंद-कन्द-जनकं घन-कर्म-मुत्तं सम्यक्त्व-शर्म-गरिमं जननार्तिवीतम्।
सौरभ्य-वासित-भुवं हरि-चंदनानां गन्धैर्यजे परिमलैर्वर-सिद्ध-चक्रम्।।२।।
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।।२।।
सर्वावगाहन-गुणं सुसमाधि-निष्ठं सिद्धं स्वरूप-निपुणं कमलं विशालम्।
सौगन्ध्य-शालि-वनशालि-वराक्षतानां पुंजैर्यजे-शशिनिभैर्वरसिद्धचक्रम्।।३।।
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।।३।।
नित्यं स्वदेह-परिमाणमनादिसंज्ञं द्रव्यानपेक्षममृतं मरणाद्यतीतम्।
मन्दार-कुन्द-कमलादि-वनस्पतीनां पुष्पैर्यजे शुभतमैर्वरसिद्धचक्रम्।।४।।
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने कामवाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।।४।।
ऊर्ध्व-स्वभाव-गमनं सुमनो-व्यपेतं ब्रह्मादि-बीज-सहितं गगनावभासम्।
क्षीरान्न-साज्य-वटकै: रसपूर्णगभै- र्नित्यं यजे चरुवरैर्वरसिद्धचक्रम्।।५।।
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।।५।।
आतज्र्-शोक-भयरोग-मद-प्रशान्तं निद्र्वन्द्व-भाव-धरणं महिमा-निवेशम्।
कर्पूर-वर्ति-बहुभि: कनकावदातै- र्दीपैर्यजे रुचिवरैर्वरसिद्धचक्रम्।।६।।
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।।६।।
पश्यन्समस्त-भुवनं युगपन्नितान्तं् त्रैकाल्य-वस्तु-विषये निविड-प्रदीपम्।
सद्द्रव्यगन्ध-घनसार-विमिश्रितानां, धूपैर्यजे परिमलैर्वर-सिद्धचक्रम्।।७।।
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अष्टकर्मविध्वंसनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।।७।।
सिद्धासुरादिपति – यक्ष – नरेन्द्रचकै ध्र्येयं शिवं सकल-भव्य-जनै: सुवन्द्यम्।
नारिङ्ग – पूग – कदली – फलनारिकेलै: सोऽहं यजे वरफलैर्वरसिद्धचक्रम्।।८।।
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।।८।।
गन्धाढ्यं सुपयो मधुव्रत-गणै: सङ्गं वरं चन्दनं, पुष्पौघं विमलं सदक्षत-चयं रम्यं चरुं दीपकम्।
धूपं गन्धयुतं ददामि विविधं, श्रेष्ठं फलं लब्धये, सिद्धानां युगपत्क्रमाय विमलं, सेनोत्तरं वाञ्छितम्।।९।।
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।।९।।
ज्ञानोपयोगविमलं विशदात्मरूपं सूक्ष्म-स्वभाव-परमं यदनन्तवीर्यम्।
कर्मौघ-कक्ष-दहनं सुख-शस्यबीजं वन्दे सदा निरुपमं वर-सिद्धचक्रम्।।१०।।
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।।१०।।
(पुष्पांजलिं क्षिपेत्)
जयमाला
विराग सनातन शांत निरंश, निरामय निर्भय निर्मल हंस।
सुधाम विबोध-निधान विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध-समूह।।१।।
विदूरित-संसृति-भाव निरंग, समामृत-पूरित देव विसंग।
अबंध कषाय-विहीन विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्ध-समूह।।२।।
निवारित-दुष्कृतकर्म-विपाश, सदामल-केवल-केलि-निवास।
भवोदधि-पारग शांत विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह।।३।।
अनंत-सुखामृत-सागर-धीर, कलंक-रजो-मल-भूरि-समीर।
विखण्डित-कामविराम-विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह।।४।।
विकार विवर्जित तर्जितशोक, विबोध-सुनेत्र-विलोकित-लोक।
विहार विराव विरंग विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह।।५।।
रजोमल-खेद-विमुक्त विगात्र, निरंतर नित्य सुखामृत-पात्र।
सुदर्शन राजित नाथ विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह।।६।।
नरामर-वंदित निर्मल-भाव, अनंत-मुनीश्वर पूज्य विहाव।
सदोदय विश्व महेश विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह।।७।।
विदंभ वितृष्ण विदोष विनिद्र, परापरशंकर सार वितंद्र।
विकोप विरूप विशंक विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह।।८।।
जरा-मरणोज्झित-वीत-विहार, विचिंतित निर्मल निरहंकार।
अचिन्त्य-चरित्र विदर्प विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह।।९।।
विवर्ण विगंध विमान विलोभ, विमाय विकाय विशब्द विशोभ।
अनाकुल केवल सर्व विमोह, प्रसीद विशुद्ध सुसिद्धसमूह।।१०।।
घत्ता
असम-समयसारं चारु-चैतन्य चिन्हं पर-परणति-मुत्तं, पद्मनंदीद्र-वन्द्यम्।
निखिल-गुण-निकेतं सिद्धचक्रं विशुद्धं स्मरति नमति यो वा स्तौति सोऽभ्येति मुक्तिम्।।१।।
ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिभ्य: पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
अडिल्ल छंद
अविनाशी अविकार परम-रस-धाम हो,
समाधान सर्वज्ञ सहज अभिराम हो,
शुद्धबुद्ध अविरुद्ध अनादि अनंत हो,
जगत-शिरोमणि सिद्ध सदा जयवंत हो।।१।।
ध्यान अग्निकर कर्म कलंक सबै दहे,
नित्य निरंजन देव स्वरूपी ह्वै रहे।
ज्ञायक के आकार ममत्व निवारकै।
सो परमातम सिद्ध नमूं सिर नायकै।।२।।
दोहा
अविचल ज्ञान प्रकाशते, गुण अनंत की खान।
ध्यान धरैं सो पाइए, परम सिद्ध भगवान।।३।।
अविनाशी आनंद मय, गुण पूरण भगवान।
शक्ति हिये परमात्मा, सकल पदारथ ज्ञान।।४।।
।।इत्याशीर्वाद:।।
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