-गीता छन्द-
श्री सि( परमेष्ठी अनन्तानन्त त्रौकालिक कहे।
त्रिभुवन शिखर पर राजते, वह सासते स्थिर रहें।।
वे कर्म आठों नाश कर, गुण आठ ध्र कृतकृत्य हैं।
कर जोड़ भक्ती से नमूं, उनकों नमें नित भव्य हैं।।1।।
-दोहा-
‘सि(’ मात्रा दो शब्द के उच्चारण से जान।
सर्व कार्य की सि( हो क्रमशः पद निर्वाण।।2।।
-रोला छन्द-
मोह कर्म को नाश, ‘‘समकित शु(’’ लह्यो है।
लोक शिखर अध्विास, शाश्वत काल कियो है।।
मन वच तन से नित्य, वंदूं शीश नमाके।
भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।3।।
ज्ञानावरण विघात, ‘‘ज्ञान अनन्त’’ लिया है।
लोकालोक समस्त, युगपत जान लिया है।।
मन वच तन से नित्य, वंदूं शीश नमाके।
भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।4।।
दर्शन के आवर्ण, नवविध् सर्व विनाशे।
इक क्षण में सब विश्व, देखें निजगुण भासें।।
‘‘दर्शनगुण’’ आनन्त्य, वंदूं शीश नमाके।
भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।5।।
अंतराय को चूर, ‘‘शक्ति अनन्ती’’ पायी।
करो विघ्न घन दूर, मैं पूजूँ हरसायी।।
मन वच तन से नित्य, वंदूं शीश नमाके।
भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।6।।
नाम कर्म को नाश, देहादिक से छूटें।
‘‘गुण सूक्ष्मत्व’’ विकास, निज आतम सुख लूटें।।
मन वच तन से नित्य, वंदूं शीश नमाके।
भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।7।।
आयू कर्म विनाश, पूर्ण स्वतन्त्रा भये हैं।
‘‘गुण अवगाहन’’ पाय, जग से मुक्त भये हैं।।
मन वच तन से नित्य, वंदूं शीश नमाके।
भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।8।।
गोत्रा कर्म कर दूर, ‘‘अगुरुलघूगुण’’ पायो।
गणध्र मुनिगण इन्द्र, तुमको शीश नमायो।।
मन वच तन से नित्य, वंदूं शीश नमाके।
भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।9।।
किया वेदनी घात, निज में तृप्त हुए हैं।
‘‘अव्याबाध्’’ अनन्त, सुख में लीन हुए हैं।।
मन वच तन से नित्य, वंदूं शीश नमाके।
भव भव भ्रमण विनाश, बसूँ मोक्षपुर जाके।।10।।
अष्टकरम कर चूर, आठ प्रमुख गुण पायो।
अष्टम पृथ्वी शीश, जाकर थिरता पायो।।
भूत भविष्यत काल, वर्तमान के सि।
‘‘पूर्ण ज्ञानमती’’ हेतु, वंदूं विश्व प्रसि।।11।।
आचार्य परमेष्ठी स्तोत्रा
-गीता छंद-
जो स्वयं ‘‘पंचाचार’’ पालें, अन्य से पलवावते।
छत्तीस गुण धरें सदा, निज आत्मा को ध्यावते।।
ऐसे परम आचार्यवर, भवसिंध्ु से भवि तारते।
इस हेतु उनकी वंदना, हितु हम हृदय में धरते।।1।।
-दोहा-
आठ भेद संयुत ध्रे, ‘‘ज्ञानाचार’’ महान्।
उन आचार्य प्रधन को, वंदूँ श्र(ा ठान।।2।।
आठ अंग युत मोक्ष का, मूल ‘‘दर्शनाचार’’।
इस गुणयुत आचार्य को, नमूँ भक्ति उरधर।।3।।
तेरह भेद समेत है, शुभ ‘‘चारित्राचार’’।
इस गुण भूषित सूरि को, प्रणमूँ बारंबार।।4।।
बारह विध् तप को तपें, आतमशु(ी हेतु।
‘‘तप आचारी’’ सूरि को, वंदूं भक्ति समेत।।5।।
पांच भेद संयुत कहा, ‘‘वीर्याचार’’ विशेष।
इस गुण को जो धरते, वंदूं उन्हें हमेश।।6।।
-अडिल्ल छंद-
क्रोध् निमित्त मिलें, पिफर भी समता गहें।
अंतरंग में ‘‘क्षमा’’ धर, सब कुछ सहें।।
ऐसे गुरु आचार्य, नमूं मन लायके।
रत्नत्राय निध् ि लहूं, कृपा तुम पायके।।7।।
‘‘मार्दव’’ गुण को लहें, मान शठ मार के।
भवि जन शरणा गहें, जगत से हार के।।
ऐसे गुरु आचार्य, नमूं मन लायके।
रत्नत्राय निध् िलहूं, कृपा तुम पायके।।8।।
माया दुर्गतिसखी, त्याग ‘‘आर्जव’’ गहें।
मन वचतन को सरल करें, शिवसुख लहें।।
ऐसे गुरु आचार्य, नमूं मन लायके।
रत्नत्राय निध् िलहूं, कृपा तुम पायके।।9।।
अप्रिय कटुक कठोर, असत्य निवारते।
दशविध् पालें ‘‘सत्य’’, परमसुख पावते।।
ऐसे गुरु आचार्य, नमूं मन लायके।
रत्नत्राय निध् िलहूं, कृपा तुम पायके।।10।।
लोभ पाप का मूल, दूर से छोड़ते।
‘‘परम शौच’’ ध्र शिव से, नाता जोड़ते।।
ऐसे गुरु आचार्य, नमूं मन लायके।
रत्नत्राय निध् िलहूं, कृपा तुम पायके।।11।।
जीव दया ध्र इन्द्रिय, का निग्रह करें।
द्वादशविध् ‘‘संयम’’ ध्र, वे भवदध् ितरें।।
ऐसे गुरु आचार्य, नमूं मन लायके।
रत्नत्राय निध् िलहूं, कृपा तुम पायके।।12।।
पर से इच्छा रोकें, ‘‘उत्तम तप’’ करें।
निज आत्मा को निर्मल, कर शिवतिय वरें।।
ऐसे गुरु आचार्य, नमूं मन लायके।
रत्नत्राय निध् िलहूं, कृपा तुम पायके।।13।।
‘‘उत्तम त्याग’’ करें, रत्नत्राय दान दें।
भव्यों को चउविध् दें, दान उबारते।।
ऐसे गुरु आचार्य, नमूं मन लायके।
रत्नत्राय निध् िलहूं, कृपा तुम पायके।।14।।
किंचित् भी नहिं मम, यह ‘‘आकिंचन्य’’ है।
इस गुण से त्रिभुवनपति, होते ध्न्य हैं।।
ऐसे गुरु आचार्य, नमूं मन लायके।
रत्नत्राय निध् िलहूं, कृपा तुम पायके।।15।।
ब्रह्मरूप निज आतम, में चर्या करें।
त्रिभुवन पूजित ‘‘ब्रह्मचर्य’’, गुण को ध्रं।।
ऐसे गुरु आचार्य, नमूं मन लायके।
रत्नत्राय निध् िलहूं, कृपा तुम पायके।।16।।
-नरेंद्र छंद-
चतुराहार त्याग करके मुनि, बहु उपवास करे हैं।
बेलादिक से छह महिना तक, जल भी नहीं ग्रहें हैं।।
‘‘अनशन तप’’ से भूषित वे गुरु, कर्मेंध्न को दहते।
उनकी भक्ती संस्तुति करके, अतुल शक्ति हम चहते।।17।।
बत्तिस ग्रास पूर्ण भोजन में, एक ग्रास कम करते।
एक ग्रास लें एक सिक्थ1 लें, जो भी हो कम करते।।
‘‘अवमौदर्य’’ करें जो सूरी, सभी प्रमाद नशावें।
उनकी भक्ती संस्तुति करके, हम आलस्य भगावें।।18।।
चर्या समय वस्तु या घर का, नियम अटपटा करते।
यदि नहिं मिल रहें उपवासी, रंच खेद नहिं करते।।
‘‘वृत्तपरीसख्ंया’’ इस तप को, करके कर्म प्रजालें।
उनकी भक्ती संस्तुति करके, हम निज ज्योति जगालें।।19।।
दूध् दही घी नमक मध्ुर रस, सब त्यागें या कुछ को।
‘‘रसपरित्याग’’ करन से प्रगटें, रस )(ी भी उनको।।
पिफर भी निज आतम अनुभव रस,अमृत स्वाद चखे हैं।
उनकी भक्ती संस्तुति करके, हम निज आत्म लखे हैं।।20।।
आर्त रौद्र दुध्र्यान छोड़कर, ध्र्मध्यान करते हैं।
अतः शु( एकांत जगह, स्थान शयन करते हैं।।
इस ‘‘विविक्त शयनासन तप’’ से, सब विकल्प परिहारें।
उनकी भक्ती संस्तुति करके, निर्विकल्प पद धरें।।21।।
नानाविध् से आसन करते, तन में क्लेश बढ़े हैं।
आतापन आदिक तप तपते, निश्चल होय खडे़ हैं।।
सुखियापन तज ‘‘कायक्लेश तप’’, करके कर्म झड़ावें।
उनकी संस्तुति भक्ती करके, हम निज शक्ति बढ़ावें।।22।।
अतिक्रम व्यतिक्रम अतीचार, औ अनाचार व्रत में हों।
अंतरंग ‘‘तप प्रायश्चित’’ से, शोध्न सब व्रत के हों।।
गुरु के पास पाप शोध्न कर, आतम शु( करे हैं।
उनकी भक्ती संस्तुति करके, हम सब पाप हरें हैं।।23।।
दर्शन ज्ञान चरित तप का जो, नितप्रति ‘‘विनय’’ करें हैं।
नित पंचम उपचार विनय से, गुरु में राग ध्रें हैं।।
मोक्ष महल का द्वार खोलते, वे भविजन सुविध से।
उनकी भक्ती संस्तुति करके, निजपद पाऊँ तासे।।24।।
सूरि पाठक साध्ू गण की, सेवा आदि करें हैं।
सर्वशक्ति से संयतजन की, ‘‘वैयावृत्ति’’ करे हैं।।
तीर्थंकर समपुण्य प्रकृति भी, संपादन कर लेते।
उनकी भक्ती पूजा करके, भवजल को जल देते।।25।।
अर्हत् भाषित सूत्रा ग्रन्थ का, नित पठनादिक करते।
वाचन पृच्छन अनुप्रेक्षण, आम्नाय देशना करते।।
अंतस्तप ‘‘स्वाध्याय’’ पंच विध्, करें करावें रुचि से।
उनकी भक्ती संस्तुति करके, ज्ञान बढ़ावें मुद से।।26।।
अंतर बाहर उपाध् ित्यागकर, ‘‘तप व्युत्सर्ग’’ ध्रे हैं।
आतमलीन सहज वैरागी, मन का मैल हरे हैं।।
इन तपधरी संयत जन को, सुरपति शीश नमावें।
उनकी भक्ती संस्तुति करके, संयम निध् िहम पावें।।27।।
अशुभ ध्यान तज ध्र्म ‘‘ध्यान’’ ध्र, निज परिणाम संभारें।
शुक्ल ध्यान के हेतु निरंतर, ध्यानाभ्यास विचारें।।
चिच्चैतन्यसुधरस पीकर, अजरामर पद पावें।
उनकी भक्ती संस्तुति कर हम, सब दुध्र्यान नशावें।।28।।
-रोला छन्द-
जो इन्द्रिय के अवश, आवश्यक उन किरिया।
षट् भेदों में आदि, ‘‘समता’’ नामक चर्या।।
रागद्वेष में साम्य, सामायिक त्राय काले।
उनको शीश नवाय, मैं वंदूं त्राय काले।।29।।
तीर्थंकर चैबीस, उनकी नामादिक से।
करते स्तवन विनीत, ‘‘स्तव आवश्यक’’ ये।।
जो मुनि करें सदैव, अतिशय पुण्य कमावें।
उनको शीश नवाय, हम भी पाप नशावें।।30।।
अर्हत् सि( मुनीश, या उनकी हो प्रतिमा।
किन्हीं एक का नित्य, रुचिध्र ‘‘वंदन’’ करना।।
आवश्यक सुखकार, वंदन नित्य करें जो।
उनको शीश नवाय, पाऊँ लोक शिखर को।।31।।
व्रत में हों जो दोष, ‘‘प्रतिक्रमण’’ से शोध्ें।
दैनिक रात्रिक आदि, विध् िसे मल को धेते।।
भूतकाल के दोष, जो मुनि दूर करे हैं।
उनको शीश नवाय, हम निज दोष हरे हैं।।32।।
भाविदोष कर त्याग, ‘‘प्रत्याख्यान’’ ध्रें जो।
कर अहार तत्काल, चतुराहार तजे जो।।
अथवा बहुविध् वस्तु, या कुछ त्याग करें हैं।
उनको शीश नवाय, हम निज पाप हरें हैं।।33।।
तन से ममत निवार, ‘‘कायोत्सर्ग’’ करें जो।
क्षण मुहूर्त या वर्ष, तक भी ध्यान ध्रें जो।।
वे आचार्य सदैव, भविजन को सुखदाता।
उनको शीश नवाय, मैं पूजूँ नत माथा।।34।।
-सखी छंद-
त्रायगुप्ती में ‘‘मनगुप्ती’’, जो अध्कि कठिन से निभती।
मनरोध् करें शुभ माहीं, उन वंदूं शीश नमाईं।।35।।
बहि अंतर जल्प निवारें,अथवा नहिं अशुभ उचारें।
‘‘वचि गुप्ती’’ ध्र सूरीश्वर, मैं वंदूं ध्र्मरुचीध्र।।36।।
तन सुस्थिर ध्यान ध्रे जो,या अशुभ क्रिया न करें जो।
वे ‘‘कायगुप्ति’’ )षि पाले, उन वंदत हम भव टालें।।37।।
-शंभु छंद-
जो पंचाचार ध्र्म दशविध्, द्वादशविध् तप को नित करते।
षट् आवश्यक त्रायगुप्ति सहित,छत्तिस गुण को निज में ध्रते।।
वे स्वयं तरें तारें पर को, आचार्य परम गुरु माने हैं।
हम उनकी स्तुति कर करके, कैवल्य ‘ज्ञानमति’ चाहे हैं।।38।।