-दोहा-
पुद्गल के संबंध् से, हीन स्वयं स्वाध्ीन।
नमूँ नमूँ सब सि( को, तिन पद भक्ति अध्ीन।।1।।
चाल-हे दीन…………….
जय जय अनंत सि( वंृद मुक्ति के कंता।
जय जय अनंत भव्यवृंद सि(ि करंता।
जय जय त्रिलोक अग्रभाग ऊध्र्व राजते।
जय नाथ! आप में हि आप नित्य राजते।।2।।
ज्ञानावरण के पाँच भेद को विनाशिया।
नव भेद दर्शनावरण को सर्व नाशिया।।
दो वेदनीय आठ बीस मोहनी हने।
चउ आयु नामकर्म सब तिरानवे हने।।3।।
दो गोत्रा अंतराय पाँच सर्व नाशिया।
सब इक सौ अड़तालीस कर्म प्रकृति नाशिया।।
ये आठ कर्मनाश मुख्य आठ गुण लिये।
पिफर भी अनंतानंत सुगुणवंृद भर लिये।।4।।
इन ढाई द्वीप मध्य से ही मुक्ति पद मिले।
अन्यत्रा तीन लोक में ना पूर्ण सुख खिले।।
सब ही मनुष्य मुक्त होते कर्मभूमि से।
अन्यत्रा से भी मुक्त हों उपसर्ग निमित्त से।।5।।
पर्वत नदी समुद्र गुपफा कंदराओं से।
वन भोगभूमि कर्मभू और वेदिकाओं से।।
जो मुक्त हुए हो रहे औ होयंेगे आगे।
उन सर्व सि( को नमूँ मैं शीश झुका के।।6।।
नर लोक पैंतालीस लाख योजनों कहा।
उतना प्रमाण सि( लोक का भी है रहा।।
अणुमात्रा भी जगह न जहाँ मुक्त ना हुए।
अतएव सि(लोक सि(गण से भर रहे।।7।।
उत्कृष्ट सवा पंाच सौ ध्नु का प्रमाण है।
जघन्य साढ़े तीन हाथ का ही मान है।।
मध्यम अनेक भेद से अवगाहना कही।
उन सर्व सि( को नमँू वे सौख्य की मही।।8।।
निज आत्मजन्य निराबाध् सौख्य भोगते।
निज ज्ञान से ही लोकालोक को विलोकते।।
निज में सदैव तृप्त सदाकाल रहेंगे।
आगे कभी भी वे न पुनर्जन्म लहेंगे।।9।।
उन सर्व सि( की मैं सदा वंदना करूँ।
सर्वार्थसि( हेतु सदा प्रार्थना करूँ।।
तुम नाममात्रा भी निमित्त सर्व सि(में।
अतएव नमँू बारबार सर्व सि( मैं।।10।।
-दोहा-
भूत भविष्यत संप्रती, तीन काल के सि(।
उनका वंदन नित करूँ, लहूं ‘ज्ञानमति’ नि(।।11।।