सीता का जन्म— मिथिलापुरी में राजा जनक राज्य करते थे। उनकी रानी विदेहा पातिव्रत्य आदि गुणों से परिपूर्ण परमसुन्दरी थी। एक समय वह गर्भवती हुई। पुन: नव महीने बाद उसने पुत्र और पुत्री ऐसे युगल संतान को जन्म दिया। पुत्र के जन्म लेते ही उसके पूर्वभव के वैरी महाकाल नामक असुरकुमार देव ने उस बालक का अपहरण कर लिया। वह उसे मारना चाहता था किन्तु उसके हृदय में कुछ दया आ गई जिससे उसने उस बालक के कान में कुण्डल पहनाकर उसे पर्णलघ्वी विद्या के बल से आकाश से नीचे छोड़ दिया। इधर चन्द्रगति विद्याधर रात्रि के समय अपने उद्यान में स्थित था सो उसने आकाश से गिरते हुए एक बालक को देखा और बीच में अधर ही झेल लिया। उस बालक को ले जाकर अपनी रानी पुष्पवती को दे दिया। रानी के कोई पुत्र नहीं था अत: वह इस पुत्र को पाकर बहुत ही प्रसन्न हुई। वहाँ पर उसका जन्म महोत्सव मनाया गया। इधर रानी विदेहा पुत्र के अपहरण से बहुत ही दु:खी हुई किन्तु राजा जनक आदि परिजनों के समझाने पर शांत हो पुत्री का लालन-पालन करने लगी। इस कन्या का नाम सीता रक्खा गया। धीरे-धीरे वह किशोरावस्था को प्राप्त हुई। सीता जनक के अंत:पुर में सात सौ कन्याओं के मध्य में स्थित हो अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं से सबके मन को प्रसन्न करती थी। क्रम से वृद्धि को प्राप्त होते-होते यह सीता विवाह के योग्य हो गई।
सीता स्वयंवर— एक समय राजा जनक की राजधानी पर म्लेच्छों ने हमला कर दिया। सहायता के लिये राजा ने अपने मित्र अयोध्या के राजा दशरथ को सूचना भेजी। राजा दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण मिथिलापुरी आ गये और शत्रुसेना को नष्ट कर राजा जनक और उनके भाई कनक दोनों का राज्य निष्वंटक कर दिया। इस उपकार से प्रसन्न होकर राजा जनक ने मंत्रियों से परामर्श कर राम को सीता देने का निश्चय किया। राम-लक्ष्मण विजय दुन्दुभि के साथ अपने अयोध्या नगर को वापस आ गये। जब नारद ने सुना कि राजा जनक ने अपनी परमसुन्दरी सीता पुत्री राम के लिए देना निश्चिय किया है तब वह सीता के सौन्दर्य को देखने के लिए उसके महल में आ गये। सीता अकस्मात् नारद के प्रतिबिम्ब को दर्पण में देखकर एकदम व्याकुल हो गई और हाय मात:! यह कौन है? ऐसा कहकर वह वहाँ से अन्दर भागी। तब द्वार की रक्षक स्त्रियों ने नारद को रोक दिया। नारद अपमानित होकर वहाँ से चला आया और सीता से बदला चुकाने को सोचने लगा। उसने उसका एक सुन्दर चित्र बनाकर विजयार्ध पर्वत पर रथनूपुर के उद्यान में रख दिया। उसे देखकर भामण्डल मोहित हो गया। तब नारद ने उसे सीता का पूरा पता बता दिया। राजा चंद्रगति को जब मालूम हुआ कि भामण्डल जनक की पुत्री सीता को चाहता है तब उसने युक्ति से जनक को वहीं बुला लिया और अपने पुत्र के लिए सीता की याचना की। जनक ने सारी बात बताते हुए स्पष्ट कह दिया कि मैंने सीता कन्या को राम के लिये देना निश्चित कर लिया है और राम की बहुत प्रशंसा की।
तब राजा चन्द्रगति ने कहा— ‘‘हे राजन्! सुनो, हमारे यहाँ एक वङ्काावर्त नाम का धनुष है और दूसरा सागरावर्त। देवगण इन दोनों की रक्षा करते हैं। यदि राम वङ्कावर्त धनुष को चढ़ाने में समर्थ हैं तब तो वे अधिक शक्तिमान हैं ऐसा मैं समझूँगा और तभी वे सीता को प्राप्त कर सवेंâगे अन्यथा हम लोग सीता को जबरदस्ती लाकर भामण्डल के लिए दे देंगे।’’ राजा जनक ने विद्याधरों की यह शर्त स्वीकार कर ली। ये लोग दोनों धनुष लेकर यहाँ मिथिला नगरी आ गये। सीता के स्वयंवर की घोषणा हुई। राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न भी वहाँ आ गये। उस स्वयंवर में कोई भी राजपुत्र उस धनुष के निकट भी आने में समर्थ नहीं हो सका, किन्तु महापुरुष राम ने उस वङ्कावर्त धनुष को चढ़ाकर सीता की वरमाला प्राप्त कर ली। लक्ष्मण ने सागरावर्त धनुष चढ़ाकर चन्द्रवर्धन विद्याधर की अठारह कन्यायें प्राप्त कर लीं तथा जनक के भाई राजा कनक ने अपनी पुत्री लोकसुन्दरी दशरथ के पुत्र भरत के लिये समर्पित की। वहाँ मिथिलानगरी में इन दशरथ के पुत्रों के विवाह सम्पन्न हुए।अनंतर राम, लक्ष्मण, भरत आदि अपनी-अपनी रानियों के साथ अयोध्या नगरी वापस आ गये। कुछ दिनों बाद भामण्डल को जातिस्मरण होने से यह मालूम हो गया कि सीता मेरी सगी बहन है तब उसे पश्चात्ताप हुआ पुन: वह अयोध्या में आकर बहन से मिलकर बहुत ही प्रसन्न हुआ।
राम का वनवास— एक समय राजा दशरथ विरक्त हो दीक्षा लेना चाहते थे। तब अपने बड़े पुत्र रामचन्द्र के राज्याभिषेक की तैयारी कराने लगे। इसी बीच रानी कैकेयी ने आकर अपना धरोहर ‘वर’ माँगा। राजा ने देने की स्वीकृति दे दी।
तब केकेयी ने कहा— ‘‘हे नाथ! मेरे पुत्र भरत के लिये राज्य प्रदान कीजिये।’’ राजा दशरथ ने उसकी बात मान ली और राम को बुलाकर सारी स्थिति से अवगत करा दिया। राम ने पिता को सान्त्वना देकर भरत को भी समझाया तथा सोचने लगे— ‘‘सूर्य के समान जब तक मैं इस अयोध्या के समीप भी रहूँगा, तब तक भरत की आज्ञा नहीं चल सकेगी।’’ यद्यपि भरत पिता के साथ दीक्षा लेना चाहता था किन्तु लाचारी में उसे राज्य सँभालना पड़ा। पिता दशरथ दिगम्बर दीक्षा लेकर आत्म-साधना में निरत हो गए। श्री रामचन्द्र, लक्ष्मण और सीता के साथ अयोध्या से निकल पड़े। भरत, माता वैकेयी और सारी प्रजा के अनुनय, विनय को न गिनकर श्रीराम आगे चले गये। ये तीनों बहुत काल तक पैदल ही पृथ्वी पर वन-वन में विचरण करते हुए अनेक सुख-दु:ख मिश्रित प्रसंगों में भी सदा प्रसन्न रहते थे। इस वनवास के प्रसंग में रामचंद्र ने पता नहीं कितनों का उपकार किया था। एक समय रामचन्द्र ने वन में चारणऋद्धि मुनियों को आहारदान दिया था। उस समय एक गृद्ध (गीध) पक्षी वहाँ मुनियों को देखकर जातिस्मरण को प्राप्त हो गया। अत: वह मुनियों के चरणोदक में गिर पड़ा और उसे पीने लगा। तब उसका सारा शरीर सुन्दर वर्ण का हो गया। आहार के बाद मुनि ने उसे उपदेश देकर सम्यक्त्व और अणुव्रत ग्रहण करा दिये तब सीता ने उसे अपने पास ही रख लिया और उसको ‘जटायु’ इस नाम से पुकारने लगीं। सीता हरण— रावण की बहन चन्द्रनखा का पुत्र शंबूक वंशस्थल पर्वत पर बाँस की झाड़ी में बैठकर सूर्यखड्ग सिद्ध कर रहा था। उसकी माता प्रतिदिन विद्या के बल से वहाँ आकर उसे भोजन दे जाया करती थी। बारह वर्ष के बाद वह खड्ग सिद्ध हो गया और वह बाँस के ऊपर लटक रहा था। शंबूक ने उसे लेने में प्रमाद किया। सोचा, अभी ले लूँगा। इधर राम, लक्ष्मण, सीता उसी वन में जाकर ठहर गये। लक्ष्मण अकेले घूमते हुए वहाँ पहुँचे। उन्होंने वह खड्ग हाथ में ले लिया। तभी विद्या देवता ने आकर उन्हें प्रमाण किया। लक्ष्मण ने खड्ग की तीक्ष्णता परखने के लिए उसी बाँस के बीड़े को काट डाला। उसमें शंबूक बैठा था। उसका शिर धड़ से अलग हो गया। इधर लक्ष्मण को यह पता नहीं चला। वे अपने स्थान पर आकर भाई के पास बैठ गए। चन्द्रनखा ने आकर जब पुत्र का सिर देखा, वह र्मूच्छत हो गई। सचेत होकर विलाप करते हुए खूब रोई। अनंतर उसी वन में शत्रु को खोजते हुए घूमने लगी। उसने राम, लक्ष्मण को देखा तो इनके सौन्दर्य पर मोहित हो कन्या का रूप लेकर वहाँ आकर राम से अपने वरण के लिए प्रार्थना करने लगी। राम, लक्ष्मण ने उसकी ऐसी चेष्टा से उसके प्रति उपेक्षा कर दी। तब वह क्रोध से पागल जैसी हुई आकाशमार्ग से अपने स्थान पर जाकर अपने पति खरदूषण से बोली— हे नाथ! उस वन में मेरे पुत्र को मारकर खड्ग लेकर दो पुरुष बैठे हुए हैं जो कि मेरा शील भंग करना चाहते थे।’’ इत्यादि बात सुनकर खरदूषण अपनी सेना के साथ आकाशमार्ग से आकर युद्ध के लिये तैयार हो गया। इस युद्ध के प्रसंग मे लक्ष्मण खरदूषण की सेना के साथ युद्ध कर रहे थे। रामचंद्र, सीता सहित अपने स्थान पर बैठे थे। बहनोई की सहायता के लिए रावण अपने पुष्पक विमान में बैठकर वहाँ आ गया। दूर से उसने राम के साथ सीता को देखा। उसके ऊपर मोहित हुआ उसे हरण करने का उपाय सोचने लगा। उसने अवलोकिनी विद्या के द्वारा सीता का परिचय प्राप्त कर लिया। मायाचारी से सिंहनाद करके ‘‘राम!!राम!!’’ ऐसा उच्चारण किया।राम ने समझा, लक्ष्मण संकट में हैं, सीता को पुष्पमालाओं से ढककर जटायु पक्षी को उसकी रक्षा में नियुक्त कर लक्ष्मण के पास पहुँचे। इसी बीच रावण ने सीता का हरण कर लिया। जब जटायु ने रावण का सामना किया तब रावण ने उस बेचारे पक्षी को घायल कर वहीं डाल दिया और स्वयं सीता को पुष्पक विमान में बिठाकर आकाशमार्ग से लंका आ गया। मार्ग में सीता ने बहुत ही विलाप किया, तब एक विद्याधर ने उसको छुड़ाना चाहा। रावण ने उसकी भी विद्यायें नष्ट कर उसे भूमि पर गिरा दिया। इधर लक्ष्मण ने राम को देखते ही कहा— ‘‘भाई! आप यहाँ वैसे! जल्दी वापस जाइये।’’ रामचंद्र ने वापस आकर देखा, जटायु पड़ा सिसक रहा है। उसे महामंत्र सुनाया। वह मरकर स्वर्ग चला गया। पुन: वे सीता को न पाकर बहुत ही दु:खी हुए। खरदूषण के युद्ध में लक्ष्मण विजयी हुए। तब आकर राम से मिले और सीता को ढूँढ़ने लगे। सीता का अपहरण हुआ जानकर श्रीराम शोक में विह्वल हो गये। पुन: विद्याधरों की सहायता से रावण द्वारा सीता का अपहरण जानकर श्रीरामचंद्र ने हनुमान को सीता के पास भेजा। हनुमान ने वहाँ जाकर सीता को रामचंद्र का समाचार दिया। तब सीता ने ग्यारह उपवास के बाद पारणा की। अनंतर सुग्रीव आदि विद्याधरों की सहायता से राम, लक्ष्मण ने लंका को घेर लिया।भयंकर युद्ध हुआ। अंत में रावण ने अपना चक्र लक्ष्मण पर चला दिया। वह चक्ररत्न लक्ष्मण की प्रदक्षिणा देकर उसके पास ठहर गया और लक्ष्मण ने उसी चक्र से रावण का वध कर दिया। इसके बाद राम सीता से मिले। तब देवों ने सीता के शील की प्रशंसा करते हुए उस पर पुष्पवृष्टि की। वहाँ का राज्य विभीषण को सौंपकर त्रिखण्ड के अधिपति राम-लक्ष्मण छह वर्ष तक वहीं रहे पुन: माता की याद कर अयोध्या आ गये। तब भरत ने दैगम्बरी दीक्षा ले ली। सीता की अग्नि परीक्षा— रामचन्द्र आठवें बलभद्र और लक्ष्मण आठवें नारायण प्रसिद्ध हुए। श्रीराम ने अपनी आठ हजार रानियों में सीता को पट्टरानी बनाया। एक बार सीता ने स्वप्न में देखा ‘‘मेरे मुख में दो अष्टापद प्रविष्ट हुए हैं और मैं पुष्पक विमान से गिर गई हूँ।’’ उसने इसका फल श्रीराम से पूछा। रामचंद्र ने कहा-‘‘तुम युगल पुत्रों को जन्म दोगी।’’ तथा दूसरे स्वप्न का फल अनिष्ट जानकर उसकी शांति के लिए जिनमंदिर में पूजन, अनुष्ठान कराया गया। एक समय राम की सभा में कुछ प्रमुख पुरुषों ने कहा कि— ‘‘प्रभो! इस समय प्रजा मर्यादा रहित होती जा रही है। दुष्ट लोग बलात् दूसरे की स्त्री का हरण कर लेते हैं। प्राय: लोग कह रहे हैं कि राजा दशरथ के पुत्र राम ज्ञानी होकर भी रावण के द्वारा हृत सीता को वापस ले आये हैं।’’ इस बात को सुनकर रामचंद्र एक क्षण विषाद को प्राप्त हुए पुन: प्रजा को आश्वासन देकर भेज दिया और स्वयं यह निर्णय लिया कि सीता को वन में भेज दिया जाए। लक्ष्मण के बहुत कुछ अनुनय-विनय करने पर भी रामचंद्र नहीं माने और कृतांतवक्त्र सेनापति को बुलाकर समझाकर उसके साथ सीता को तीर्थवंदना के बहाने घोर जंगल में छुड़वा दिया। वहाँ सेनापति से वन में छोड़ आने का समाचार सुनकर सीता बहुत ही दु:खी हुई फिर भी उसने कहा– ‘‘सेनापात! तुम जाकर श्री रामचंद्र से कहना कि जैसे लोकापवाद के डर से मुझे छोड़ दिया है ऐसे ही जिनधर्म को नहीं छोड़ देना।’’ और सेनापति को विदा कर दिया। उस समय सीता गर्भवती थीं और वन में घोर विलाप कर रही थीं। वहाँ जंगल में रुदन सुनकर पुण्डरीकपुर का राजा वङ्काजंघ उनके पास आया और सीता को अपनी बहन के समान समझकर बहुत सान्त्वना देकर पुण्डरीकपुर लिवा ले गया। वहाँ सीता ने युगल पुत्रों को जन्म दिया। जिनका नाम अनंगलवण और मदनांकुश रखा गया। इन पुत्रों को सिद्धार्थ नाम के क्षुल्लक ने पढ़ाया। एक बार नारद ने आकर इन दोनों के सामने राम का वैभव बताया तथा सीता के वन में छोड़ने की बात कही। तब ये दोनों बालक सीता के बहुत कुछ मना करने पर भी राम से युद्ध करने के लिए चल पड़े। वहाँ पर दोनों पक्ष में किसी की हार- जीत न देखकर नारद ने रामचंद्र से कहा कि— ‘‘ ये दोनों आपके पुत्र हैं, सीता से जन्मे हैं।’’ अनंतर पिता-पुत्र मिलन के बाद सुग्रीव, हनुमान आदि राम की आज्ञा लेकर सीता को अयोध्या ले आये। राम ने सीता की शुद्धि के लिए अग्नि परीक्षा लेना चाहा। तब विशाल अग्निकुण्ड निर्मित हुआ।
सीता ने कहा—‘‘हे अग्निदेवता! यदि मैंने स्वप्न में भी परपुरुष को नहीं चाहा हो तो तू जल हो जा अन्यथा मुझे जला दे।’’ इतना कहकर वह अग्नि में कूद पड़ी। शील के प्रभाव से तत्क्षण ही अग्नि जल हो गई और देवों ने सीता को कमलासन पर बैठा दिया। तब रामचंद्र ने सीता से क्षमायाचना की और घर चलने के लिए कहा—सीता उस क्षण विरक्त हो बोलीं— ‘‘हे बलदेव! मैंने आपके प्रसाद से बहुत कुछ सुख भोगे हैं। फिर भी अब मैं सर्व दु:खों का क्षय करने की इच्छा से जैनेश्वरी दीक्षा धारण करूँगी।’’ ऐसा कहकर उसने अपने केश उखाड़कर रामचंद्र को दे दिये। रामचंद्र उसी क्षण मूर्छित हो गये। सीता की दीक्षा— इधर जब तक रामचंद्र सचेत हों तब तक सीता ने जाकर ‘पृथ्वीमती’ आर्यिका के पास आर्यिका दीक्षा ले ली। जब रामचंद्र होश में आये, सीता के वियोग से विक्षिप्त हो उन्हें लिवाने के लिए उद्यान में आये, वहाँ सर्वभूषण केवली के समवसरण में पहुँचकर दर्शन करके धर्मोपदेश सुना। अनंतर श्रीरामचंद्र, लक्ष्मण के साथ यथाक्रम से साधुओं को नमस्कार कर विनीतभाव से आर्यिका सीता के पास पहुँचे।
भक्ति से युक्त हो नमस्कार कर बोले—‘‘ हे भगवति! तुम धन्य हो, उत्तम शीलरूपी सुमेरु को धारण कर रही हो।’’ इत्यादि प्रशंसा कर पुन: कहने लगे— ‘‘हे सुनये! मेरे द्वारा जो भी अच्छा या बुरा कार्य हुआ है, वह सब आप क्षमा कीजिये।’’ इस प्रकार क्षमायाचना कर पुन: पुन: उनकी प्रशंसा करते हुए राम तथा लक्ष्मण लवण और अंकुश को साथ लेकर अपने स्थान पर वापस आ गये। सीता की कठोर तपश्चर्या— जस सीता का सौन्दर्य देवांगनाओं से भी बढ़कर था, वह तपश्चर्या से सूखकर ऐसी हो गई जैसे जली हुई माधवी की लता ही हो। जिसकी साड़ी पृथ्वी की धूलि से मलिन थी तथा स्नान के अभाव से पसीना से उत्पन्न मल में जिसका शरीर भी धूसरित हो रहा था, जो चार दिन, एक पक्ष तथा ऋतुकाल आदि के शास्त्रोक्त विधि से पारणा करती थी, शीलव्रत और मूलगुणों के पालन में तत्पर, रागद्वेष से रहित और अध्यात्म के चिन्तन में निरत रहती थी, अत्यन्त शांत थी। अपने मन को अपने अधीन कर रखा था, अन्य मनुष्यों के लिए दु:सह, अत्यन्त कठिन तप किया करती थी, उसके शरीर का माँस सूख गया था मात्र हाड़ और आँतों का पंजर ही दिख रहा था, उस समय वह आर्यिका लकड़ी आदि से बनी प्रतिमा के समान जान पड़ती थी, उसके कपोल भीतर घुस गये थे, ऐसी सीता आर्यिका चार हाथ आगे जमीन देखकर ईर्यापथ से चलती थी। शरीर की रक्षा के लिए कभी-कभी आगम के अनुसार निर्दोष आहार ग्रहण करती थी। तपश्चर्या से उसका रूप ऐसा बदल गया था कि विहार के समय उसे अपने और पराये लोग भी नहीं पहचान पाते थे। ऐसी उस सीता को देखकर लोग सदा उसी की कथा करते रहते थे। जो लोग उसे एक बार देखकर पुन: देखते थे वे उसे ‘‘यह वही है’’ इस प्रकार नहीं पहचान पाते थे। इस महासती आर्यिका सीता ने अपने शरीर को तपरूपी अग्नि से सुखा डाला था। इस प्रकार महाश्रमणी पद पर अधिष्ठित सीता ने बासठ वर्ष तक उत्कृष्ट तप किया, अनंतर सल्लेखना धारण कर ली। तेंतीस दिन के बाद इस उत्तम सल्लेखना के शरीर को छोड़कर अच्युत (१६वें) स्वर्ग में प्रतीन्द्र पद को प्राप्त कर लिया। सम्यग्दर्शन और संयम के माहात्म्य से स्त्रीलिंग से छूटकर देवेन्द्र की विभूति का वरण कर लिया। यह सीता का जीव अच्युत स्वर्ग के सुखों का अनुभव कर भविष्य में इसी भरतक्षेत्र में चक्ररथ नाम का चक्रवर्ती होगा। अनंतर तपोबल से अहमिन्द्र पद को प्राप्त करेगा। पुन: जब रावण तीर्थंकर होगा तब यह अहमिन्द्र उनका प्रथम गणधर होकर उसी भव से निर्वाण प्राप्त कर लेगा। ऐसी शील शिरोमणि महासती आर्यिका सीता को नमस्कार होवे।