श्रीरामचन्द्र अपने सिंहासन पर विराजमान हैं। सखियों सहित सीता वहाँ आकर विनय पूर्वक नमस्कार कर यथोचित आसन पर बैठ जाती हैं पुनः निवेदन करती हैं- ‘‘हे नाथ! रात्रि के पिछले प्रहर में आज मैंने दो स्वप्न देखे हैं सो उनका फल आपके श्रीमुख से सुनना चाहती हूँ।’’ ‘‘कहिए प्रिये! वो स्वप्न कौन-कौन से हैं?’’ ऐसा राम पूछते हैं। ‘‘प्रथम ही मैंने दो अष्टापद अपने मुख में प्रविष्ट होते देखे हैं। हे नाथ! पुनः मैंने देखा है कि मैं पुष्पक विमान के शिखर से नीचे गिर पड़ी हूँ।’’ तब राम कहते हैं- ‘‘हे प्रिये! अष्टापद युगल को देखने से तुम शीघ्र ही युगल पुत्र को प्राप्त करोगी…..।’’ पुनः राम किंचित् विराम लेते हैं कि सीता संदिग्ध हो पूछती हैं- ‘‘स्वामिन् ! द्वितीय स्वप्न का फल…..।’’ ‘‘सुन्दरि! यद्यपि पुष्पक विमान से गिरना अच्छा नहीं है फिर भी चिंता की बात नहीं है क्योंकि शांति कर्म तथा दान करने से पाप ग्रह शांति को प्राप्त हो जाते हैं।’’ सीता हर्ष एवं विषाद को धारण करती हुई वहाँ से आ जाती हैं और धर्मकार्य में तत्पर हो जाती हैं। इधर बसंत ऋतु सर्वत्र अपना प्रभाव फैला रही है। कुछ समय बाद सीता को गर्भ के भार से भ्रांत देख रामचन्द्र पूछते हैं- ‘‘हे कांते! तुम्हें क्या अच्छा लगता है? सो कहो मैं अभी तुम्हारी इच्छा पूरी करूँगा। तुम ऐसी म्लानमुख क्यों हो रही हो?’’ सीता कहती है- ‘‘हे नाथ! मैं पृथ्वीतल पर स्थित अनेक चैत्यालयों के दर्शन करना चाहती हूँ। पंच वर्णमय रत्नों की प्रतिमाओं की वंदना करके रत्न और सुवर्णमयी पुष्पों से उनकी पूजा करना चाहती हूँ। हे देव! इसके सिवाय और मेरी कुछ भी इच्छा नहीं है।’’ इतना सुनते ही रामचन्द्र हर्षितमना द्वारपालिनी को आदेश दे देते हैं- ‘‘हे कल्याणि! अविलम्ब ही अयोध्या के जिन मंदिरों को एवं निर्वाण क्षेत्रों के जिन मंदिरों को नाना उपकरणों से विभूषित करो और उत्तम पूजन सामग्री तैयार कराओ।’’ पुनः श्रीराम सीता के साथ उत्तम हाथी पर सवार हो समस्त परिजनों को साथ लेकर बड़े वैभव के साथ उद्यान में जाते हैं। वहाँ पर सरोवर में चिरकाल तक क्रीड़ा कर अपने हाथों से सुन्दर फूल तोड़कर और दिव्य सामग्री लेकर सीता के साथ मिलकर जिनेन्द्रदेव के बिम्बों की महापूजा करते हैं। आठ हजार रानियों से घिरे राम सर्वत्र पुण्य तीर्थों की वंदना कराते हुए और सीता के साथ जिन पूजा को करते हुए सीता का दोहला पूर्ण करते हैं। कुछ दिन बाद सीता की दार्इं आँख फड़कने से वह चिंतातुर हो उठती हैं। तब गुणमाला आदि रानियाँ उसे शांति विधान आदि कार्यों के लिए प्रेरणा देती है । सीता कोषाध्यक्ष को बुलाकर कहती हैं- ‘‘हे भद्र! आज से प्रत्येक जिनालय में महामहिम पूजन शुरू करा दो और किमिच्छक दान देना प्रारंभ कर दो।’’ ‘‘जो आज्ञा महारानी जी’’ ऐसा कहकर वह भद्रकलश कोषाध्यक्ष दूध, दही आदि से श्री जिनदेव का महाभिषेक प्रारंभ करा देता है और दान देना भी शुरू कर देता है। इधर सीता दान आदि क्रियाओं में आसक्त हैं। उधर द्वारपाल से आज्ञा लेकर अयोध्या के कुछ प्रमुख लोग राज-दरबार में आते हैं। यद्यपि ये लोग रामचन्द्र के तेज के सामने कुछ भी कहने में असमर्थ हो जाते हैं फिर भी बार-बार राम द्वारा सान्त्वना दी जाने पर जैसे-तैसे एक विजय नामक मुखिया हाथ जोड़कर निवेदन करता है- ‘‘हे नाथ! हे पुरुषोत्तम! मेरी कहने की इच्छा व शक्ति न होते हुए भी मैं लाचार हो निवेदन कर रहा हॅूं। हे राम! इस समय समस्त प्रजा मर्यादा से रहित हो रही है। तरुण पुरुष किसी की स्त्री का हरण कर लेते हैं पुनः उसके पति उसे वापस लाकर घर में रख लेते हैं और आपका उदाहरण सामने रखते हैं। स्वामिन् ! जिधर देखो उधर एक ही चर्चा सुनने में आती है कि सर्वशास्त्रज्ञ महाविद्वान् महाराजा श्री रामचन्द्र रावण के द्वारा हरी गई सीता को वापस कैसे ले आये? हे देव! यदि आपके राज्य में यह एक दोष न होता तो यह राज्य इन्द्र के साम्राज्य को भी निलंबित कर देता।’’ इतना सुनते ही राम अवाक् रह जाते हैं- ‘ओह! यह दारुण संकट कैसा?……’’ रामचन्द्र प्रजा को सान्त्वना देकर विदा करते हैं और आप स्वयं लक्ष्मण आदि प्रधान पुरुषों को बुला लेते हैं और कहते हैं- ‘‘भाई! सीता के प्रति जनता अपवाद की चर्चा कर रही है। ओह!……एक ओर लोक निंदा और दूसरी ओर निकाचित स्नेह। भाई! मैं इस समय गहरे संकट में आ फैसा हूँ।’’ लक्ष्मण इतना सुनते ही क्रोध से तमतमा उठते हैं- ‘‘अरे! महासती सीता के बारे में कौन अपनी जिह्वा खोल सकता है? मैं उसकी जिह्वा के सौ-सौ टुकड़े कर दूँगा। सीता के प्रति द्वेष करने वालों को मैं आज ही यमराज के मुख में पहुँचा दूँगा।’’ रामचन्द्र कहते हैं- ‘‘हे सौम्य! शांत होओ और मेरी बात सुनो! मैं सीता के स्नेह में अपने उज्ज्वल रघुवंश को मलिन नहीं कर सकता हूँ। अतः सीता का त्याग करना ही श्रेयस्कर है।’’ ‘‘हे राम! लोकापवाद के भय से आप पवित्र शीलशिरोमणि सीता को न छोड़िये।’’ ‘‘लक्ष्मण! मैंने जो निर्णय ले लिया वही होगा।’’ ‘‘भाई! आप यह क्या कह रहे हो?’’ इसी बीच राम कृतांतवक्त्र सेनापति को बुलाकर आदेश दे देते हैं- ‘‘सेनापते! तुम शीघ्र ही निर्वाण क्षेत्र की वंदना के बहाने सीता को कहीं घोर महाअटवी में छोड़कर आ जाओ।’’ ‘जो आज्ञा स्वामिन्!’’ इतना कहकर सेनापति चल देता है। अनेक रानियों और सखियों की प्रार्थना को ठुकरा कर सीता यही कहती है- ‘‘बहनों! पतिदेव की यही आज्ञा है कि मैं अकेली ही तीर्थवंदना के लिए जाऊँ अतः तुम सब क्षमा करो और वापस जाओ।’’ सिद्धों को नमस्कार कर सीता रथ में बैठ जाती हैं और रथ दु्रतगति से चल पड़ता है। मार्ग में कुछ क्षेत्रों की वंदना कराकर सेनापति निर्जन वन में रथ लेकर पहुँचता है और वहाँ पर उतर कर आँखों से अविरल अश्रु धारा की वर्षा करते हुए कहता है- ‘‘हे स्वामिनि! चूँकि आप रावण द्वारा हरी गई थीं इस कारण लोग आपका अवर्णवाद कर रहे हैं। यह बात रामचन्द्र को विदित हो चुकी है अतः अपकीर्ति के डर से उन्होंने दोहलापूर्ति के बहाने तुम्हें यहाँ निर्जन वन में छोड़ आने को मुझे आदेश दिया है। इतना सुनते ही सीता अकस्मात् शोक से मूच्र्छित हो जाती है। होश आने पर कहती है- ‘‘हे सेनापते! तुम मुझे कुछ पूछने के लिए एक बार श्री राम का दर्शन करा दो।’’ ‘‘हे देवि! मुझे बस इतनी ही आज्ञा है। अब मैं कुछ भी करने में असमर्थ हूँ। हाय! इस किंकरता को धिक्कार हो! सौ-सौ बार धिक्कार हो जो कि मुझे आज यह अधर्म कार्य करने का अवसर आया है।’’ पुनः रोते हुए टूटे-फूटे अक्षरों में सीता कहती है- ‘‘हे सेनापते! तुम जाकर श्रीराम से मेरा एक समाचार अवश्य कह देना कि जैसे आपने लोकापवाद के डर से मुझे छोड़ दिया है वैसे ही सम्यग्दर्शनरूपी रत्न को, जैन धर्म को न छोड़ देना।’’ इधर सेनापति नमस्कार कर चला जाता है। उधर सीता करुण व्रंदन करते हुए विलाप करती है- ‘‘हे देव! आपने मुझे धोखा क्यों दिया? अरे दुर्दैव! तुझे मेरी दशा पर दया नहीं आई? ओह! मैंने पूर्वजन्म में क्या पाप किया था? क्या किसी मुनि को झूठा दोष लगाया था?…..हाय मातः! यह क्या हुआ? मैं कहाँ जाऊँ? क्या करूँ? किसकी शरण लूँ? हे नाथ! आप कैसे निष्ठुर हो गये? ऐसा ही करना था तो आपने युद्ध में असंख्य प्राणियों का संहार कर मेरी रक्षा क्यों की थी?…..अरे भक्त लक्ष्मण! हे मात अपराजिते! हे भाई भामंडल! हे पुत्र हनुमान! तुम सब आज ऐसे कैसे हो गये हो? ओह! विधाता तू कितना निष्ठुर है……?’’ उधर कृतांतवक्त्र के समाचार से रामचन्द्र एक बार आहत हो उठते हैं, मूच्र्छित हो जाते हैं पुनः सचेत हो कुछ संतोष को धारण करते हुए अपने राज कार्य में लग जाते हैं। अकस्मात् राजा वङ्काजंघ के कुछ लोग सीता के सामने आकर पूछते हैं- ‘‘हे देवि! आप कौन हो? और यहाँ ऐसी अवस्था में क्यों बैठी हो?’’ उन्हें देखते ही सीता घबराकर उन्हें अपने आभूषण देने लगती है। इसी बीच राजा वङ्काजंघ आ जाते हैं और पूछते हैं- ‘‘हे भगिनि! तुम कौन हो? किस निर्दयी ने तुम्हें यह वन दिखाया है? डरो मत, कहो, कहो। मैं तुम्हारा भाई हूँ।’’ सीता अश्रु रोककर कहती है- ‘‘हे भाई! मैं राजा जनक की पुत्री, भामंडल की बहन, राजा दशरथ की पुत्रवधू और श्रीरामचन्द्र की रानी सीता हूँ।’’ पुनः धीरे-धीरे वह दशरथ की दीक्षा से लेकर अपने दोहदपूर्ति तक सारे समाचार सुना देती है। राजा वङ्काजंघ कहते हैं- ‘‘बहन! संसार में कर्मों की ऐसी ही विचित्र गति है अतः धैर्य धारण करो और मेरे साथ चलो, तुम मेरी धर्म बहन हो।’’ ‘‘हाँ! तुम मेरे भाई हो, सच में तुम पूर्वभव में मेरे भाई रहे होंगे अन्यथा इस निर्जन वन में मेरे सहायक कैसे बनते?’’ वङ्काजंघ सीता को साथ लेकर पुण्डरीकपुर में आ जाते हैं। कुछ ही दिनों में श्रावणमास की पूर्णिमा के दिन सीता युगल पुत्रों को जन्म देती है। उनके नाम अनंगलवण और मदनाँकुश रखे जाते हैं। वे बालक दूज के चन्द्रमा की तरह कला, गुण और शरीर से बढ़ते हुए सीता के शोक को भुला देते हैं। एक समय ‘सिद्धार्थ’ नामक क्षुल्लक राजा वङ्काजंघ के यहाँ आते हैं। वे इन दोनों बालकों को समस्त शास्त्र और शस्त्र कला में निष्णात कर देते हैं। वे क्षुल्लक प्रतिदिन तीनों कालों में मेरुपर्वत की वंदना करते रहते हैं। दोनों भाई लवण और अंकुश सूर्य के तेज और प्रताप को भी लल्जित करते हुए यौवन अवस्था में प्रवेश करते हैं। एक बार पृथिवीपुर के राजा पृथु के दरबार में दूत प्रवेश करता है और आज्ञा पाकर निवेदन करता है- ‘‘महाराज’’! राजा वङ्काजंघ ने सीता के पुत्र लवण को अपनी पुत्री शशिचूला देना निश्चित किया है अब वे अंकुश के लिए आपकी पुत्री कनकमाला को चाहते हैं, क्योंकि वे दोनों का विवाह एक साथ……।’’ बीच में ही बात काटकर राजा पृथु कहते हैं- ‘‘अरे दूत! चुप रह। वर के नव गुण कहे हैं-कुल, शील, धन, रूप, समानता, बल, अवस्था, देश और विद्या। इनमें से सर्वप्रथम कुल गुण ही प्रधान है और जिसमें वह नहीं है उसे अपनी कन्या देना भला कैसे संभव है?’’ दूत वापस जाकर राजा वङ्काजंघ को सर्व समाचार दे देता है। राजा वङ्काजंघ पृथिवीपुर पर चढ़ाई करके उसे घेर लेते हैं। समाचार विदित होते ही लव-कुश भी आ जाते हैं और युद्ध में ललकार कर कहते हैं- ‘‘अरे पृथु! ठहर, क्यों भागता है? आज हम दोनों तुझे युद्ध में ही अपने कुल का परिचय करायेंगे।’’ पृथु वापस मुड़कर क्षमा याचना करते हुए उन दोनों की प्रशंसा करते हैं और सम्मान के साथ नगर में प्रवेश कराते हैं। अनंतर राजा पृथु की पुत्री और तमाम सेना प्राप्त कर ये वीर अन्य तमाम देशों को जीतने के लिए निकल पड़ते हैं। कुछ दिनों बाद दिग्विजय करके आते हुए वीर पुत्रों को देखकर वीरसू माता सीता हर्ष से पूâल जाती हैं। इधर वङ्काजंघ भी अपनी पुत्रियों का विवाह वीर लवण के साथ सम्पन्न कर देते हैं।
२१ – पिता – पुत्रों का मिलन
रत्नजटित सिंहासन पर लव-कुश विराजमान हैं। नारद प्रवेश करते हैं, देखते ही दोनों वीर उठकर खड़े होकर विनय सहित घुटने टेक कर उन्हें नमस्कार कर उच्च आसन प्रदान करते हैं। प्रसन्न मुद्रा में स्थित नारद कहते हैं- ‘‘राजा राम और लक्ष्मण का जैसा वैभव है सर्वथा वैसा ही वैभव आप दोनों को शीघ्र ही प्राप्त हो।’’ वे वीर पूछते हैं- ‘‘भगवन् ! ये राम-लक्ष्मण कौन हैं? वे किस कुल में उत्पन्न हुए हैं?’’ आश्चर्यमय मुद्रा को करते हुए कुछ क्षण स्तब्ध रहकर नारद कहते हैं- ‘‘अहो! मनुष्य भुजाओं से मेरु को उठा सकता है, समुद्र को तैर सकता है किन्तु इन दोनों के गुणों का वर्णन नहीं कर सकता है। यह सारा संसार अनंतकाल तक अनंत जिह्वाओं के द्वारा भी उनके गुणों को कहने में समर्थ नहीं है। फिर भी मैं उसका नाममात्र ही तुम्हें बता देता हूँ। सुनो, अयोध्या के इक्ष्वाकुवंश के चन्द्रमा दशरथ के पुत्र श्री राम और लक्ष्मण हैं।…दशरथ की दीक्षा के बाद भरत का राज्याभिषेक होता है और राम-लक्ष्मण, सीता वन को चले जाते हैं। वहाँ रावण सीता को हर ले जाता है पुनः रामचन्द्र, हनुमान, सुग्रीव आदि के साथ रावण को मार कर सीता वापस ले आते हैं। अयोध्या में आकर पुनः राज्य-संचालन करते हैं। श्रीराम के पास सुदर्शन चक्र है तथा और भी अनेक रत्न हैं जिन सबकी एक-एक हजार देव सदा रक्षा करते रहते हैं। उन्होंने प्रजा के हित के लिए सीता का परित्याग कर दिया है ऐसे राम को इस संसार में भला कौन नहीं जानता है?’’ यह सब सुनकर अंकुश पूछता है- ‘‘हे ऋषे! राम ने सीता किस कारण छोड़ी सो तो कहो, मैं जानना चाहता हूँ।’’ नारद एक क्षण आकुल हो उठते हैं पुनः अश्रुपूर्ण नेत्र होकर कहते हैं- ‘‘जो जिनवाणी के समान पवित्र हैं ऐसी सीता का पता नहीं किस जन्म के पाप का उदय हो आया कि जनता के मुख से उसका अपवाद सुन मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने गर्भवती अवस्था में ही उसे वन में भेज दिया। ओह!…पता नहीं आज वह जीवित है या नहीं?…..’’ इतना कहते हुए नारद का कंठ रुंध जाता है और वो आगे बोल नहीं पाते हैं। पुनः हँसते हुए अंकुश कहते हैं- ‘‘हे ब्रह्मचारिन् ! भयंकर वन में सीता को छोड़ते हुए राम ने कुल के अनुरूप कार्य नहीं किया। अहो! लोकापवाद के निराकरण के अनेक उपाय हो सकते हैं पुनः उन्होंने सीता को ऐसा कष्ट क्यों दिया?’’ लवण कुमार पूछते हैं- ‘‘हे मुने! कहो अयोध्या यहाँ से कितनी दूर है।’’ ‘‘अयोध्या यहाँ से ६० योजन दूर है।’’ ‘‘ठीक है, हम राम-लक्ष्मण को जीतने के लिए प्रस्थान करेंगे।’’ लव-कुश राजा वङ्काजंघ से कहकर सिंधु, कलिंग आदि देश में दूत भेजकर राजाओं को बुलाकर प्रस्थान की भेरी बजवा देते हैं। राम के प्रति चढ़ाई सुन सीता रोने लगती है। यह देख सद्धार्थ क्षुल्लक कहते हैं- ‘‘नारद ऋषे! आपने यह क्या किया? ओह! आपने कुटुम्ब में ही भेद डाल दिया।’’ नारद कहने लगे- ‘‘मैंने तो मात्र राम-लक्ष्मण की चर्चा की थी।….फिर भी डरो मत, कुछ भी बुरा नहीं होगा।’’ दोनों वीर माता को रोती हुई देखकर पूछते हैं- ‘‘हे अम्ब! क्यों रो रही हो? अविलम्ब कहो, किसने तुम्हें शोक उत्पन्न कराया है? कौन यमराज का ग्रास बनना चाहता है?’’ सीता धैर्य का अवलम्बन लेकर कहती है- ‘‘पुत्रों! आज मुझे तुम्हारे पिता का स्मरण हो आया है इसलिए अश्रु आ गये हैं।’’ आश्चर्य चकित हो दोनों बालक पूछते हैं- ‘‘मातः! हमारे पिता कौन हैं? और वे कहाँ हैं?’’ तब सीता सोचती है अब रहस्य छिपाने का समय नहीं है और वह स्पष्टतया कहती है- ‘‘प्यारे बेटे! ये राम ही तुम्हारे पिता हैं और वह सीता मैं ही हूँ। राजा वङ्काजंघ भामंडल के समान मेरा बंधु हुआ है और मेरे गर्भ से तुम दोनों वीर जन्मे हो। आज तुम्हारी रणभेरी सुन कर मैं घबरा रही हूँ। बेटे! क्या मैं पति की अमंगलवार्ता सुनूँगी? या तुम्हारी? या देवर की?…..’’ सर्व वृत्तांत सुनकर लव-कुश के हर्ष का पार नहीं रहता है। वे कहने लगते हैं- ‘‘अहो! तीन खण्ड के स्वामी बलभद्र श्रीरामचन्द्र के हम सुपुत्र हैं।’’ पुनः माता से कहते हैं- ‘‘मातः! मैं वन में छोड़ी गई हूँ’’ तुम ऐसा विषाद अब मत करो। तुम शीघ्र ही राम-लक्ष्मण का अहंकार खण्डित देखो।’’ सीता विह्वल हो कहती है- ‘‘प्यारे पुत्रों! पिता के साथ विरोध करना ठीक नहीं है अतः तुम दोनों बहुत ही विनय के साथ जाकर उनका दर्शन करो, यही बात न्यायसंगत है।’’ दोनों वीर कहते हैं- ‘‘हे मातः! आज वे हमारे शत्रुस्थान को प्राप्त हैं उन्होंने अकारण ही आपका तिरस्कार किया है अतः हम उनसे यह दीन वचन नहीं कह सकते हैं कि हम आपके पुत्र हैं। अब तो संग्राम में ही परिचय होगा। संग्राम में ही हम लोगों को मरण भी इष्ट है किन्तु माता के अपमान को सहन कर जीवित रहना हमें इष्ट नहीं है।’’ सीता और सिद्धार्थ उन पुत्रों को तरह-तरह से समझा रहे हैं किन्तु वे युद्ध के लिए कमर कस चुके हैं। सिद्धों की पूजा कर माता को सान्त्वना देते हुए नमस्कार करते हैं- ‘‘बेटे! जिनेन्द्रदेव सर्वथा तुम्हारी रक्षा करें और परस्पर में मंगलक्षेम होवे।’’ माता के शुभाशीष को प्राप्त कर वे प्रस्थान कर देते हैंं। इधर सिद्धार्थ और नारद शीघ्र ही भामण्डल को खबर भेज देते हैं। राजा जनक के साथ भामण्डल वहाँ आते हैं। वंâठ फाड़-फाड़कर रोती हुई सीता को सान्त्वना देकर विमान में बिठाकर युद्ध स्थल में आते हैं। आकाश मार्ग में विमान को ठहरा कर दोनों का संग्राम देख रहे हैं। हनुमान को भेद मालूम होते ही वह भी लव-कुश की सेना में आ जाता है। आपस में दिव्य शस्त्रों द्वारा घोर युद्ध चल रहा है। राम के साथ लवण कुमार और लक्ष्मण के साथ अंकुश भिड़े हुए हैं। एक दूसरे को ललकार रहे हैं। रामचन्द्र कभी पराजित होते हैं तो लज्जित हो जाते हैं, हँसकर पुनः शस्त्र प्रहार करते हैं। इधर लव-कुश जानते हैं कि ये मेरे पिता और चाचा हैं अतः संभव कर प्रहार करते हैं किन्तु राम-लक्ष्मण को विदित न होने से वे शत्रु मानकर ही प्रहार कर रहे हैं- राम-लक्ष्मण सोच रहे हैं- ‘‘क्या कारण है? कि जो मेरे अस्त्र-शस्त्र निष्फल ही होते जा रहे हैं और शरीर में भी शिथिलता आ रही है?’’ ‘‘क्या कहॅूं भाई? मेरी भी यही स्थिति है कुछ समझ में नहीं आता है कि क्या करना है?’’ पुनः कुछ सोचकर युद्ध का अंत करने के लिए लक्ष्मण चक्ररत्न का स्मरण करते हैं और उसे घुमाकर अंकुश के ऊपर छोड़ देते हैं। वह अंकुश के पास पहुँचकर निष्प्रभ हो जाता है पुनः वापस लक्ष्मण के हस्ततल में आ जाता है। कई बार चक्ररत्न का वार होने पर भी जब वह निष्फल हो जाता है तब इधर अंकुश कुमार अपने धनुष दण्ड को ऐसा घुमाते हैं कि वह चक्र की शंका उत्पन्न कर देता है। राम-लक्ष्मण कहने लगते हैं- ‘‘क्या बात है? केवली भगवान् के वचन असत्य हो जायेंगे क्या? जान पड़ता है कि ये दोनों दूसरे ही बलभद्र और नारायण उत्पन्न हुए हैं।’’ लक्ष्मण को लज्जित और निश्चेष्ट देख नारद की सम्मति से सिद्धार्थ क्षुल्लक वहाँ आकर कहते हैं- ‘‘हे देव! नारायण तो तुम्हीं हो, जिन शासन की कही बात अन्यथा कैसे हो सकती है? भाई! ये दोनों कुमार सीता के लव-कुश नाम के दो पुत्र हैं कि जिनके गर्भ में रहते हुए उसे वन में छोड़ दिया गया था।’’ इतना सुनते ही लक्ष्मण के हाथ से शस्त्र और कवच गिर जाते हैं और राम तो धड़ाम से पृथ्वी तल पर गिर मूचछत हो जाते हैं। शीतोपचार से सचेत होते ही राम-लक्ष्मण पुत्रों से मिलने के लिए आगे बढ़ते हैं। उधर लव-कुश भी रथ से उतर कर पिता के सम्मुख बढ़ते हैं। दोनों ही वीर पिता के चरणों में गिर नमस्कार करते हैं और श्रीराम अपनी भुजाओं से उन्हें उठाकर हृदय से लगा लेते हैं। तत्पश्चात् लक्ष्मण भी उनका आलिंगन करते हैं। भामण्डल भी उन्हें छाती से चिपकाकर मस्तक पर हाथ फिराते हैं। वहीं युद्ध स्थल में ही पिता-पुत्र के मिलन की प्रसन्नता में मंगलबाजों की ध्वनि होने लगती है। पिता-पुत्र का मिलन होते ही सीता संतुष्टचित्त हुई अपनी पुत्र-वधुओं के साथ पुण्डरीकपुर चली जाती है। रामचन्द्र दोनोें पुत्रों और भाई के साथ अपने पुष्पक विमान में बैठकर अयोध्या में प्रवेश करते हैं उस समय के दृश्य को देखने के लिए वहाँ की प्रजा, महिलाएं और बालक-बालिकाएं तो पागलवत् चेष्टा करते ही हैं आश्चर्य यह कि वृद्ध लोग भी धक्का-मुक्की को सहन करते हुए प्राणों की परवाह न करके उनके दर्शनों के लिए पागल हो जाते हैं। कोई महिला आँख का अंजन ललाट में लगाकर दौड़ आती है तो कोई दुपट्टी को पहन कर और लहँगा को ओढ़कर चल देती है। कोई अपने बच्चे को छोड़कर किसी अन्य के बालक को ही लेकर चल पड़ती है, तो कोई पति को आधा भोजन परोस कर ही भाग आती है। हल्ला-गुल्ला से उत्पन्न हुआ शब्द भूतल और आकाश मंडल को एक कर देता है। ‘‘अरे वृद्धे! हट, हट, मुझे भी देखने दे। तू यहाँ से चली जा अन्यथा गिरकर मर जायेगी।’’ ‘‘अरे, रे, रे! मातः! मैं गिर गई, कोई मुझे सहारा दे दो।’’ ‘‘सरको, सरको, जरा दूर हटो, मुझे भी देखने दो।’’ ‘‘हाँ, हाँ देखो, जो ये रामचन्द्र जी के अगल-बगल में बैठे हैं वे ही सीता के पुत्र लव-कुश हैं।’’ ‘‘बहन! कौन तो लव है और कौन कुश है? दोनों तो एक सरीखे हैं।’’ ‘‘बहन! देखो ना, इन दोनों का मुख कमल श्रीरामचन्द्र जैसा ही है।’’ ‘‘हाँ बहन देखो, इतना भयंकर युद्ध करने के बाद भी दोनों अक्षत शरीर हैं। बड़े पुण्यशाली हैं ये।’’ ‘‘ओहो! कितने सुन्दर हैं ये बालक।’’ ‘‘कहीं इन्हें नजर न लग जाये, अतः इनके ऊपर ये सरसों के दाने बिखेर दे।’’ ‘‘अरी माँ! तू यहाँ भीड़ में क्यों आ गई? क्या मरना है?’’ ‘‘अरी बेटी! मुझे भी जरा देख लेने दे।’’ ‘‘हाँ, हाँ ले आजा, मैंने तो दर्शन कर लिये।’’ ‘‘अरी सखी! मैं एक बार इन दोनों का चेहरा और देख लूँ।’’ ‘‘अरी पगली! तू तोे बहुत देर से देख रही है। अब दूसरों को भी दर्शन कर लेने दे।’’ रामचन्द्र-महल में पहुँचकर स्नान आदि से निवृत्त हो दोनों पुत्रों के साथ भोजन करते हैं। पुनः राजा वङ्काजंघ को बुलाकर सम्मानपूर्वक कहते हैं- ‘‘आप मेरे लिए भामण्डल के समान हैं। अहो! संकट में सती सीता के भाई बनकर आपने हमारा बहुत बड़ा उपकार किया है कि जिससे इन पुत्रों के मुख कमल को मैं देख सका हूँ।’’ अयोध्या में सर्वत्र खुशियाँ मनाई जा रही हैं। मंगलवाद्य, तोरण, बंदनवार और फूलों से अयोध्या एक अपूर्व ही शोभा को धारण कर रही है।