भाई को पड़ा देख विभीषण मोह और शोक से पीड़ित हो अपना वध करने के लिए छुरी को उठाता है कि इसी बीच उसे मूच्र्छा आ जाती है। सचेत हो पुनः आत्मघात करने के लिए तैयार होता है। तब श्रीराम रथ से उतरकर बड़ी कठिनाई से उसे पकड़ रखते हैं। वह बार-बार मूच्र्छित हो जाता है और होश में आने पर घोर विलाप करता है- ‘‘हे भाई! हे शूरवीर! हे आश्रितजनवत्सल! तुम इस पाप पूर्ण दशा को कैसे प्राप्त हो गये? ओह! तुम्हारे ही इस चक्र ने तुम्हारे वक्षस्थल को कैसे विदीर्ण कर डाला? हे कृपासागर! मुझसे वार्तालाप करो, मुझे छोड़कर कहाँ चले गये…..?’’ रामचन्द्र जैसे-तैसे उसे सान्त्वना देते हैं कि इसी बीच रावण की १८ हजार रानियाँ वहाँ एकत्रित हो जिस तरह करुण व्रंदन करती हैं कि वह लेखनी से नहीं लिखा जा सकता है। रत्नों की चूड़ियाँ तोड़-तोड़कर फैक देती हैं और अपने वक्षस्थल को कूटते हुए बार-बार मूच्र्छा को प्राप्त हो जाती हैं। लक्ष्मण और विभीषण सहित श्री रामचन्द्र मंदोदरी आदि सभी को सान्त्वना देते हुए लंकेश्वर का विधिवत् दाह-संस्कार करते हैं। पुनः पद्म नामक महासरोवर में स्नान करके तीर पर बैठ जाते हैं और कुंभकर्ण आदि को छोड़ देने का आदेश देते हैं। भामंडल आदि मंत्रणा करते हैं- ‘‘विभीषण का भी इस समय विश्वास नहीं करना चाहिए।’’ ‘‘कुंभकर्ण, इन्द्रजीत आदि भी पिता की चिता जलती देख कुछ उपद्रव कर सकते हैं।’’ अतः ये लोग सावधान हो पास में ही बैठ जाते हैं। रामचन्द्र के आदेश के अनुसार बेड़ियों से सहित कुंभकर्ण, इंद्रजित और मेघवाहन लाये जाते हैं। आपस में दुःख वार्ता के अनंतर श्रीराम उनसे राज्य को संभालने के लिए अनुरोध करते हैं किन्तु वे कहते हैं- ‘‘अब हम लोग पाणिपात्र में ही आहार ग्रहण करेंगे ऐसी प्रतिज्ञा कर ली है।’’ उस समय रामचन्द्र आदि उन्हें भोगों में लगाने के लिए सब कुछ उपाय करते हैं किन्तु सफल नहीं हो पाते हैं। उसी दिन अंतिम प्रहर में श्री अनंतवीर्य महामुनि अपने छप्पन हजार आकाशगामी मुनियों के साथ वहाँ आकर कुसुमायुध उद्यान में ठहर जाते हैं। दो सौ योजन तक पृथ्वी उपद्रव रहित हो जाती है और वहाँ पर रहने वाले सभी जीव परस्पर में निर्वैर हो जाते हैं। आचार्य कहते हैं कि- ‘‘यदि यह संघ प्रातःकाल में आ जाता तो रावण और लक्ष्मण की परस्पर में परम प्रीति हो जाती।’’ रात्रि में अनंतवीर्य सूरि को केवलज्ञान प्रगट हो जाता है और देवों के आगमन का दुंदुभ वाद्य आदि का मधुर शब्द होने लगता है। इन्द्रजित, कुम्भकर्ण और मेघवाहन आदि विद्याधर वहाँ पहुँच कर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर महामुुनि बन जाते हैं। शशिकान्ता आर्यिका से संबोधन को प्राप्त हुई मंदोदरी आदि ४८ हजार स्त्रियाँ संयम धारण कर आर्यिका हो जाती हैं। अनंतर राम-लक्ष्मण महावैभव के साथ लंका नगरी में प्रवेश करते हैं। सीता से मिलने के लिए उत्कंठित हुए प्रमदवन की तरफ चलते हैं। पतिदेव को आते हुए देख उनके स्वागत के लिए आकुल हुई सीता उठकर आगे कदम बढ़ाती हैं, रामचन्द्र निकट आकर हाथ जोड़े हुए विनय से नम्र सीता का अपनी भुजाओं से आलिंगन कर लेते हैं। उस समय उनके सुख का अनुभव वे ही कर रहे हैं। शील शिरोमणि दम्पत्ति के समागम को देखकर आकाश से देवतागण पुष्पांजलि छोड़ते हैं। सर्वत्र सब तरफ से जय-जयकार की ध्वनि गूंज उठती है- ‘‘अहो! धन्य है सीता का धैर्य, धन्य है इसका शीलव्रत और धन्य है इसका शुद्ध आचरण।’’ लक्ष्मण भी विनय से सीता के चरणयुगल को नमस्कार करते हैं और भामंडल भी भ्रातृ प्रेम से निकट आ जाते हैं सीता के नेत्रों में वात्सल्य के अश्रु आ जाते हैं। सुग्रीव, हनुमान आदि विद्याधर सीता देवी को सिर झुकाकर अभिवादन करते हैं अन्य सभी विद्याधर अपना-अपना परिचय देते हुए अभिवादन करते हैं। अनन्तर रामचन्द्र सीता का हाथ पकड़कर अपने साथ ऐरावत हाथी पर बिठाकर वहाँ से चलकर रावण के भवन में प्रवेश करते हैं। श्री शांतिनाथ जिनालय में पहुँचकर भावविभोर हो स्तुति पाठ पढ़ते हुए वंदना करते हैं। अनंतर विभीषण के अनुरोध से उनके महल में प्रवेश करके पद्मप्रभ जिनालय में पहुँचकर श्री पद्मप्रभजिनेन्द्र की वंदना करते हैं। पुनः विभीषण की प्रार्थना से स्नान आदि से निवृत्त होकर सभी लोग वहीं पर भोजन करते हैं। तत्पश्चात् विभीषण, सुग्रीव आदि विद्याधर श्रीराम-लक्ष्मण के बलदेव-नारायण पद प्राप्ति के लिए राज्याभिषेक की तैयारी प्रारंभ कर देते हैं और पास आकर प्रार्थना करते हैं- ‘‘हे देव! अब आप हम लोगों के द्वारा किये जाने वाले राज्याभिषेक को स्वीकार करके हम लोगों को सनाथ कीजिए।’’ तब श्रीराम कहते हैं- ‘‘पिता दशरथ की आज्ञा से अयोध्या में भरत का राज्याभिषेक किया गया था अतः वे ही तुम्हारे और हम दोनों के स्वामी हैं।’’ विभीषण आदि कहते हैं- ‘‘स्वामिन् ! जैसा आप कह रहे हैं यद्यपि वैसा ही है तथापि महापुरुषों से मान्य इस मंगलमय अभिषेक में क्या दोष है?’’ ‘‘ओम्’’ स्वीकृति प्राप्त कर सभी विद्याधर इन दोनों का बलदेव और अर्धचक्री के पद के उचित महावैभवशाली राज्याभिषेक करके इनके ललाट पर उत्तम मुकुट बाँध देते हैं। अनंतर वनवास के समय श्रीराम और लक्ष्मण ने जिन-जिन कन्याओं को विवाहा था, पत्र देकर भामंडल, हनुमान आदि को भेजकर उन सबको वहीं बुला लेते हैं। वहाँ लंका नगरी में सबके द्वारा स्तुति प्रशंसा को प्राप्त करते हुए और दिव्य अनुपम भोगों को भोगते हुए इन राम-लक्ष्मण का समय सुख से व्यतीत हो रहा है।
१५ – श्रीरामचंद्र का अयोध्या वापस आना
माता कौशल्या सुमित्रा के साथ अपने सतखण्डे महल की छत पर खड़ी हैं और पताका के शिखर पर बैठे हुए कौवे से कहती है- ‘‘रे रे वायस! उड़ जा, उड़ जा, यदि मेरा पुत्र राम घर आ जायेगा तो मैं तुझे खीर का खोजन देऊँगी।’’ पागल सदृश हुई कौशल्या को जब कौवे की तरफ से कोई उत्तर नहीं मिलता है तब वह नेत्रों से अश्रु वर्षाते हुए विलाप करने लगती है- ‘‘हाय पुत्र! तू कहाँ चला गया? ओह!….बेटा! तू कब आयेगा? मुझ मंदभागिनी को छोड़कर कहाँ चला गया?…..’’ इतना कहते-कहते दोनों माताएं मुक्त कंठ से रोने लगती हैं। इसी बीच क्षुल्लक के वेष में अवद्वार नाम के नारद को आते देख उनको आसन देती हैं। बगल में वीणा दबाए नारद माता को रोते देख आश्चर्यचकित हो पूछते हैं- ‘‘मातः! दशरथ की पट्टरानी, श्रीराम की सावित्री माँ! तुम्हारे नेत्रों में ये अश्रु कैसे? क्यों?…..कहो, कहो, जल्दी कहो किसने तुम्हें पीड़ा पहुँचाई है?’’ कौशल्या कहती है- ‘‘देवर्षि! आप बहुत दिन बाद आये हैं अतः आपको कुछ मालूम नहीं है कि यहाँ क्या-क्या घटनाएं घट चुकी हैं?’’ ‘‘मातः! मैं धातकीखंड में श्री तीर्थंकर भगवान की वंदना करने गया था उधर ही लगभग २३ वर्ष तक समय निकल गया। अकस्मात् आज मुझे अयोध्या की स्मृति हो आई कि जिससे मैं आकाश मार्ग से आ रहा हूँ।’’ कुछ शांत चित्त हो अपराजिता ‘सर्वभूतिहित’ मुनि का आगमन, पति का दीक्षा ग्रहण, राम का वनवास, सीताहरण और लक्ष्मण पर शक्ति प्रहार के बाद विशल्या का भेजना यहाँ तक का सब समाचार सुना कर पुनः रोने लगती है और कहती है- ‘‘हे नारद! आगे क्या हुआ? सो मुझे कुछ भी विदित नहीं है मेरा पुत्र सुख में है या दुःख में कौन जाने?….. इतना कहकर पुनः विलाप करती है- ‘‘हे पुत्र! तू किस दशा मे है? मुझे खबर दे। हे पतिव्रते सीते! बेटी! तेरा संकट से छुटकारा हुआ या नहीं? तू दुष्ट रावण द्वारा कैसे हरी गई? समुद्र के मध्य भयंकर दुःख को कैसे झेला होगा?’’ यह सब सुनते हुए नारद उद्विग्नमना हो वीणा को एक तरफ देते हैं और मस्तक पर हाथ धर कर बैठ जाते हैं। पुनः कुछ क्षण विचार कर कहते हैं- ‘‘हे कौशल्ये! हे शुभे! अब तुम शोक छोड़ो। मैं शीघ्र ही तुम्हारे पुत्रों का समाचार लाता हूँ। हे देवि! इतना कार्य तो मैं ही कर सकता हूँ। शेष कार्य में आपका पुत्र ही समर्थ है।’’ इतना कहकर नारद बगल में वीणा दबाकर आकाश मार्ग से उड़ गये।…..वे नारद लंका नगरी में पहुँच कर पद्म सरोवर के तट पर क्रीड़ा करते हुए अंगद के साथियों से पता लगाकर श्रीराम की सभा में पहुँचे। नमस्कार करके आसन पर बिठाकर उनका कुशल समाचार पूछने के बाद रामचन्द्र पूछते हैं- ‘‘हे देवर्षि! इस समय आप कहाँ से आ रहे हैं?’’ ‘‘मैं दुःख के सागर में डूबी हुई आपकी माता के पास से आपको उनका समाचार बताने के लिए आ रहा हू। हे देव! आपके बिना आपकी माता बालक से बिछुड़ी हुई सिंहनी के समान व्याकुल हो रही हैं। तुम जैसे सुपुत्र के रहते हुए वह पुत्रवत्सला माता रो-रो कर महल में छोटा-मोटा सरोवर बना रही हैं। ओह!…..श्रीराम! उठो, जल्दी चलो, माता के दर्शन करो, क्यों बैठे हो?’’ इतना सुनते ही रामचन्द्र विह्वल हो उठते हैं। उनकी आँखें सजल हो जाती हैं। लक्ष्मण भी रो पड़ते हैं। तब विद्याधर लोग उन्हें सान्त्वना देने लगते हैं। रामचन्द्र कहते हैं- ‘‘अहो ऋषे! इस समय आपने हमारा बहुत बड़ा उपकार किया है। कुछ अशुभोदय से हम लोग माताओं को बिल्कुल ही भूल गये थे। अहो! आपने स्मरण दिला दिया, सो इससे प्रिय और क्या हो सकता है? जो माता की विनय में तत्पर रहते हैं वास्तव में वे ही सत्पुत्र कहलाते हैं।’’ इतना कहकर श्रीरामचन्द्र नारद की पूजा करते हैं पुनः विभीषण भामण्डल, सुग्रीव आदि को बुलाकर कहते हैं- ‘‘हे विभीषण! इन्द्रध्वज सरीखे इस भवन में मुझे रहते हुए लगभग छह वर्ष का लम्बा समय व्यतीत हो गया। यद्यपि माता के दर्शनों की लालसा हृदय में विद्यमान थी फिर भी आज मैं उनके दर्शन करके ही शांति का अनुभव करूँगा तथा दूसरी माता के समान अयोध्या के दर्शन की भी उत्कंठा हो रही है।’’ विभीषण ने समझ लिया कि अब इन्हें यहाँ रोकना शक्य नहीं है तब वे कहते हैं- ‘‘हे नाथ! यद्यपि आपका वियोग हम लोगों को सहना ही होगा, फिर भी आप कम से कम भी सोलह दिन की अवधि मुझे और दीजिए। हे देव! मैं अभी-अभी अयोध्या के लिए दूत को भेज रहा हूँ।’’ जब राम असमर्थता व्यक्त करने लगते हैं तब विभीषण अपने मस्तक को उनके चरणों में रख देते हैं और जब राम उनकी बात मानकर ‘तथास्तु’ कह देते हैं तभी वे मस्तक ऊपर उठाते हैं। पुनः विभीषण, सुग्रीव आदि मंत्रणा करके माता के पास समाचार भिजवा देते हैं और अयोध्या नगरी को इतनी अच्छी सजाते हैं कि वह एक नवीन ही रूप धारण कर लेती है। रत्नों के बने हुए तोरणद्वार, पताकायें, मंगल कलश आदि से वह नगरी अनुपम शोभा को प्राप्त हो जाती है। विभीषण को लंका का राज्य सौंप कर और सुग्रीव आदि को यथायोग्य राज्य देकर श्रीराम सीता सहित पुष्पक विमान में आरूढ़ हो अयोध्या की तरफ प्रस्थान कर देते हैं। लक्ष्मण, भामंडल आदि अपने-अपने परिवार सहित अपने-अपने वाहनों पर आरूढ़ होकर चल पड़ते हैं। मार्ग में सीता को परिचित स्थानों की स्मृति दिलाते हुए रामचन्द्र अयोध्या के निकट पहुँच जाते हैं। इधर से राजा भरत हाथी पर सवार हो भाइयों के स्वागत हेतु नगरी के बाहर आ जाते हैं। भरत को आता देख श्रीराम अपने विमान को पृथ्वी पर उतार लेते हैं उस समय भरत हाथी से उतरकर स्नेह से पूरित हो सैकड़ों अघ्र्यों से उनकी पूजा करते हैं और कर-कमल जोड़कर नमस्कार करते हैं। राम उन्हें अपनी भुजाओं में भर लेते हैं। उस समय ‘भ्रातृ-मिलन’ अपने आप में एक ही उदाहरण रह जाता है चूँकि उसके लिए अन्य उदाहरण और कोई भी नहीं हो सकता है। पुनः राम लक्ष्मण और भरत को पुष्पक विमान में बिठाकर नगरी में प्रवेश करते हैंं। वहाँ के लोग कृतकृत्य हो राम की आरती कर रहे हैं, पुष्पवृष्टि कर रहे हैं और जय-जयकारों की ध्वनि से पृथ्वीतल एवं आकाशमंडल को एक कर रहे हैं। सभी लोग आपस में एक-दूसरे का परिचय करा रहे हैं। ये लोग सर्व प्रथम राजभवन में पहुँचते हैं। माताएं महल की छत से उतर कर नीचे आ जाती हैं। कौशल्या, सुमित्रा, वैकेयी और सुप्रभा मंगलाचार में कुशल चारों माताएं राम-लक्ष्मण के समीप आती हैं। दोनों भाई विमान से उतरकर माता के चरणों में नमस्कार करते हैं। उस समय स्नेह से पूरित उन माताओं के स्तनों से दूध झरने लगता है। वे सैकड़ों आशीर्वाद देते हुए पुत्रों का आलिंगन करती हैं। उनकी आँखों से वात्सल्य के अश्रू बरसने लगते हैं। पुत्रों के मस्तक पर हाथ फैरते हुए उन माताओं को इतना सुख का अनुभव होता है कि वह अपने आप में नहीं समाता है। सीता को हृदय से लगाकर उसे सैकड़ों आशीर्वाद देते हुए माता कौशल्या एक अनिर्वचनीय आनन्द को प्राप्त हो जाती हैं।
१६ – भरत की जैनेश्वरी दीक्षा एवं श्रीराम का राज्याभिषेक
राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न माताओं और अपनी-अपनी स्त्रियों के मन को आह्लादित करते हुए धर्म चर्चा में तत्पर हैं। बलभद्र और नारायण के प्रभाव से जो वैभव प्रगट हुआ है उसका वर्णन कौन कर सकता है? अयोध्या नगरी में निवास करने वालों की संख्या कुछ अधिक सत्तर करोड़ है। राम की गोशाला में एक करोड़ से अधिक गायें कामधेनु के समान दूध देने वाली हैं। नंद्यावर्त नाम की उनकी सभा है और हल, मूसल, रत्न तथा सुदर्शन नाम का चक्ररत्न है। उस समय वहाँ पर जैसी सुवर्ण और रत्नों की राशि थी शायद वैसी तीन लोक में भी अन्यत्र उपलब्ध नहीं थी। रामचन्द्र ने हजारों चैत्यालय बनवाये और बड़े-बड़े महाविद्यालयों का निर्माण कराया जिनमें भव्यजीव नित्य ही पूजा-विधान महोत्सव किया करते हैं और विद्यालयों में बालक-बालिकाएं सर्वतोमुखी शिक्षा ग्रहण कर अपना बाल्य जीवन सफल बना रहे हैं। उस समय ऐसा प्रतीत होता है कि अयोध्या नगरी के सभी नर-नारी महान् पुण्य का संचय करने ही यहाँ आये हैं। किमिच्छकदान में जब किसी से कहा जाता है कि ‘जो चाहो-सो ले जावो’ तब वह यही कहता है कि मेरे यहाँ कोई स्थान खाली ही नहीं है। सर्वत्र सुर्वण और रत्नों के ढेर रखे हुए हैं। इतना सब कुछ होते हुए और डेढ़ सौ स्त्रियों के बीच में रहते हुए भी भरत सोच रहे हैं- श्रीमान् बलभद्र रामचन्द्र जी भी अब घर आ चुके हैं अब मुझे जैसे भी बने वैसे आत्महित के साधन में लगना है। वैकेयी भरत को विरक्तमना देख पुनः व्याकुल हो जाती है और राम से निवेदन करती है कि आप जैसे बने वैसे इन्हें रोको। रामचन्द्र भरत से कहते हैं- ‘‘बंधुवर! पिता ने जगत् का शासन करने के लिए आपका राज्याभिषेक किया था इसलिए हम लोगों के भी आप स्वामी हो। यह सुदर्शन चक्र, ये सब विद्याधर तुम्हारी आज्ञा में तत्पर हैं। मैं स्वयं तुम्हारे ऊपर छत्र लगाता हूँ, शत्रुघ्न चमर ढोरेगा और लक्ष्मण तेरा मंत्री रहेगा।’’ भरत हाथ जोड़कर कहते हैं- ‘‘हे देव! अब आप मुझे क्यों रोक रहे हो? मैं अब संसार के परिभ्रमण से पूर्णतया ऊब चुका हूँ। अब मुझे तपोवन में प्रवेश करने दीजिए।’’ तब पुनः रामचन्द्र कहते हैं- ‘‘यदि तुम मेरी बात नहीं मानोगे तो पुनः मैं पूर्ववत् वन में चला जाऊँगा।’’ अनेक वार्तालाप के अनन्तर रामचन्द्र के नेत्र में अश्रु आ जाते हैं। भरत सिंहासन से उठ खड़े हो जाते हैं और रोती हुई माता को समझा रहे हैं कि इसी बीच राम की आज्ञा से सीता, विशल्या आदि सभी स्त्रियाँ आ जाती हैं एवं भरत को घेरकर उनसे वन क्रीड़ा के लिए अनुरोध करती हैं- ‘‘हे देवर! हम लोगों पर प्रसन्नता कीजिए हम लोग आप के साथ वन क्रीड़ा करना चाहती हैं।’’ भरत दाक्षिण्यवश उन सबकी बात मान लेते हैं। वन में जाकर सरोवर में स्नान आदि करके कमल तोड़कर उनसे जिनेन्द्रदेव की पूजा करते हैंं। पुनः हजारों भावजों और डेढ़ सौ स्त्रियों के बीच भरत सुखपूर्वक बैठे हुए हैं। इसी बीच त्रिलोकमंडन नाम का महागजराज आलान बंधन को तोड़कर महा-उपद्रव करता हुआ उसी तरफ आ जाता है। श्रीरामचन्द्र आदि उसे रोकने के लिए तत्पर हो जाते हैं किन्तु वह भरत को देखते ही एकदम शांत हो विनय से पास में बैठ जाता है। उसे तत्काल जातिस्मरण हो जाने से वह शोक से आक्रान्त हो जाता है। भरत उस गजराज पर सवार हो सर्व-परिजन के साथ अपने महल में आते हैं। उधर सर्वत्र हाथी विषयक ही चर्चा चल पड़ती है। राजसभा में राजा रामचन्द्र के समीप महावत आदि प्रमुख जन आकर निवेदन करते हैं- ‘‘देव! आज चौथा दिन है, त्रिलोकमंडन हाथी ने एक ग्रास भी नहीं लिया है वह सूंड पटकता है और सूं-सूं कर रहा है। हम लोग अनुनय, विनय, सेवा, शुश्रूषा, औषधि आदि सभी उपाय करके हार चुके हैं। अब आपको निवेदन करना ही हमारा कर्तव्य शेष रहा है। अब आपको जो उचित जँचे सो कीजिए।’’ हाथी का ऐसा समाचार सुनकर राम-लक्ष्मण भी चिंतित हो जाते हैं- ‘‘अहो! क्यों तो वह बंधन तोड़कर बाहर आया? क्यों भरत को देखकर शांत हुआ? और क्यों पुनः भोजन पान छोड़ बैठा है? क्या कारण है?’’ सभा विसर्जित हो जाती है। उधर देशभूषण-कुलभूषण केवली विहार करते हुए वहाँ आ जाते हैं। देवों द्वारा निर्मित दिव्यगन्धकुटी में विराजमान भगवान का दर्शन करने के लिए सभी राजा-प्रजा वहाँ उपस्थित हो जाते हैं। श्रीराम भी दर्शन करके अपने कोठे मे बैठकर हाथी के भवांतर को कहने के लिए प्रार्थना करते हैं। भगवान् की दिव्य देशना खिरती है- ‘‘रामचन्द्र! भगवान् ऋषभदेव के समय दीक्षित हुए चार हजार राजाओं में सूर्योदय और चन्द्रोदय नाम के दो भाई भी दीक्षित हो गये थे। वे मरीचि के शिष्य पारिव्राजक हो गये थे। असंख्य भवो तक परिभ्रमण करते हुए पुनः सूर्योदय का जीव मृदुमति मुनि हो गया। एक समय गुणनिधि मुनि की पर्वत पर देवों ने पूजा की, अनन्तर वे आकाश से विहार कर गये तब मृदुमति मुनि वहाँ चर्या के लिए आये, उन्हें देखकर श्रावकों ने कहा, ‘‘आप की देव भी पूजा करते हैं अतः आप धन्य हैं।’’ इतना सुनकर मृदुमति ने सोचा, ‘‘यदि मैं कहूँगा कि मैं वह मुनि नहीं हूँ, तो ये लोग ऐसी पूजा नहीं करेंगे।’’ अतः मौन से रहकर उसने आत्म वंचना कर ली। समाधि से मरकर ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में दिव्य सुख भोग कर उस मायाचारी के पाप से यह त्रिलोकमंडन नाम का हाथी हो गया है और चन्द्रोदय का जीव कभी चक्रवर्ती का पुत्र अभिराम हुआ। पिता के अति आग्रह से दीक्षा न ले सका अतः वह घर में ही तीन हजार स्त्रियों के बीच रह कर पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए पक्ष, महीने आदि में पारणा करता था। इस तरह चौंसठ हजार वर्ष तक उसने असिधारा व्रत का पालन किया पश्चात् समाधि से मर कर ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में देव हुआ। वहाँ दोनों देव परस्पर में परम प्रीति को प्राप्त थे। आज वह चन्द्रोदय तो भरत है और यह सूर्योदय का जीव हाथी है। भरत को देखकर इसे जातिस्मरण हो जाने से यह शोक से आक्रांत हो रहा है। इतना सुनने के बाद हाथी ने भी सम्यग्दर्शन और अणुव्रत को ग्रहण कर लिया। भरत भी हाथ जोड़कर विनय करते हैं- ‘‘हे भगवन् ! अब मुझे संसार समुद्र से पार करने वाली जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान कीजिए।’’ इतना कहकर वे वस्त्राभूषणों का त्याग करके केशलोंच करके निर्ग्रन्थ दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। भरत के अनुराग से प्रेरित हो कुछ अधिक एक हजार राजा भी राज्यलक्ष्मी का परित्याग कर मुनि दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं। वैकेयी को शोक से विह्लल देख राम-लक्ष्मण बहुत समझाते हैं किन्तु वह निर्मल सम्यक्त्व को ग्रहण कर तीन सौ स्त्रियों के साथ पृथ्वीमती आर्यिका के पास आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर लेती हैं। अनन्तर राम-लक्ष्मण भरत के गुणों का स्मरण कर उद्विग्न हो उठते हैंं। इसी बीच राजा लोग अमात्य सहित आकर प्रार्थना करते हैं- ‘‘हे नाथ! हम विद्वान हों या मूर्ख। हम लोगों पर प्रसन्न होइये। हे पुरुषोत्तम! अब आप राज्याभिषेक की स्वीकृति दीजिए।’’ राम कहते हैं- ‘‘हे महानुभावों! जहाँ राजाओं का राजा लक्ष्मण मेरे चरणों का सेवक है वहाँ हमें राज्य की क्या आवश्यकता है? अतः आप लोग उन्हीं का राज्याभिषेक करो।’’ इतना सुनकर लोग लक्ष्मण के पास पहुँचते हैं तब लक्ष्मण स्वयं उठकर राम के पास आते हैं और राज्याभिषेक का कार्यक्रम शुरू हो जाता है। महान वैभव के साथ अनेक राजागण सुवर्ण कलशों से राम और लक्ष्मण का बलभद्र और नारायण के पद पर महाराज्याभिषेक करते हैं। पुनः सीता देवी और विशल्या का भी राज्याभिषेक सम्पन्न होता है। सीता को आठ हजार रानियों में पट्टमहिषी का पट्ट बाँधा जाता है और विशल्या को सत्रह हजार रानियों में पट्टरानी घोषित किया जाता है। उस समय श्री रामचन्द्र विभीषण, हनुमान, सुग्रीव आदि को यथायोग्य राज्य प्रदान करते हैं और शत्रुघ्न को उसी की इच्छानुसार मथुरा का राज्य दे देते हैं। उस रामराज्य में प्रजा स्वर्ग सुख का अनुभव कर रही है। उस नगरी में सब मिलाकर साढ़े चार करोड़ राजकुमार हैं जो अपनी कुमार क्रीड़ा से सबका मन हरण कर रहे हैं, सोलह हजार मुकुटबद्ध राजा श्रीराम और लक्ष्मण के चरणों की सेवा कर रहे हैं।