श्रीरामचन्द्र से आज्ञा लेकर दिशाओं की ओर दृष्टि डालते हुए महापराक्रमी लक्ष्मण अवेâले ही उस दण्डक वन के समीप घूम रहे हैं। उसी समय वे विनयी पवन के द्वारा लाई गई दिव्य सुगंधि सूंघते हैं। उसे सूँघते ही वे विचार करने लगते हैं कि यह मनोहर गंध किसकी है? आश्चर्य को प्राप्त हुए लक्ष्मण अन्य कार्य छोड़कर जिस मार्ग से गंध आ रही थी उसी ओर चल पड़ते हैं। वहाँ जाकर वे वृक्षों से आच्छादित एक दुर्गम स्थान देखते हैं। उस दुर्गम स्थान में एक बाँसों का स्तम्भ दिखाई पड़ता है। उसके निकट पहुँचते ही उसके अग्र भाग में समस्त वन में प्रकाश की किरणें बिखेरता हुआ एक खड्ग दिखाई देता है। आश्चर्यचकित हुए लक्ष्मण निःशंक हो वह खड्ग हाथ में ले लेते हैं और तीक्ष्णता की परख के लिए उसी बाँस के बीड़े को काट डालते हैं। खड्गधारी लक्ष्मण को देख वहाँ पर सभी देवता ‘आप हमारे स्वामी हैं’ ऐसा कहकर नमस्कार के साथ उनकी पूजा करते हैं।
इधर रामचन्द्र कुछ आकुलित हो नेत्र सजल कर जटायु से कहते हैं- ‘‘हे भद्र जटायु! लक्ष्मण आज बड़ी देर कर रहा है, वह कहाँ चला गया है? तू शीघ्र ही आकाश में उड़कर देख।’’ इतना सुनते ही जटायु उड़ना चाहता है कि सीता बोलती है- ‘‘हे देव! वह देखो सामने लक्ष्मण आ रहे हैं। वे गन्ध से लिप्त माला और आभूषणों से सुसज्जित हैं तथा हाथ में महा दैदीप्यमान खड्ग भी धारण कर रहे हैं।’’ लक्ष्मण को वैसा देख रामचन्द्र हर्ष को रोकने में असमर्थ हो उसी क्षण उठकर लक्ष्मण का गाढ़ आलिंगन कर लेते हैं। लक्ष्मण भी खड्ग संबंधी सर्व वृत्तांत बतला देते हैं। इस तरह राम, लक्ष्मण और सीता हर्षोल्लास के वातावरण में नाना प्रकार की सुखद कथाएं करते हुए सुखपूर्वक बैठे हुए हैं- इसी बीच चन्द्रनखा प्रतिदिन के सदृश आज भी वहाँ आती है और बाँस के बीड़े को कटा हुआ देख सोचने लगती है- ओहो! पुत्र ने यह अच्छा नहीं किया जिस पर बैठकर नियम का अनुष्ठान करके खड्गरत्न को सिद्ध किया था उसी को उसने काट डाला। अथवा अन्य किसी ने कुछ मेरे पुत्र का अमंगल तो नहीं कर दिया है? आशंका से भरी चंद्रनखा इधर-उधर देखने लगती है कि अकस्मात् कुण्डलों से युक्त निष्प्रभ शिर एक तरफ दिखाई पड़ता है उधर दौड़ती है कि पास ही ठूंठ के बीच पड़ा हुआ पुत्र का धड़ भी दिखाई पड़ता है। उसी क्षण मूर्च्छित हो धड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़ती है पुनः कुछ देर के बाद स्वयं ही होश में आती है। कारण कि उस दिन वह अकेली ही वहाँ आई थी। उठते ही वह हा-हाकार करते हुए पुत्र के शिर को अपनी गोद में लेकर बड़े जोरों से करुण व्रंदन करने लगती है- ‘‘हाय दैव! तूने यह क्या किया? मेरा पुत्र बारह वर्ष और चार दिन तक यहाँ रहा, यहाँ इसके आगे तीन दिन तूने सहन नहीं किये। हे निष्ठुर दैव! मैंने तेरा क्या अपकार किया था जिसमें तूने मेरे पुत्र को निधि दिखाकर पुनः उसे ही सहसा नष्ट कर दिया। हे वत्स! तू कहाँ चला गया? सूर्यहास खड्ग सिद्ध होने पर यदि तू जीवित रहता तो शायद चन्द्रहास को भी फीका कर देता। ओह!……..चन्द्रहास खड्ग मेरे भाई के पास है सो जान पड़ता है कि वह अपने विरोधी सूर्यहास को सहन नहीं कर सका। अरे! नियम का पालन करते हुए इस भयंकर वन में तूने किसी का कुछ भी नहीं बिगाड़ा है पुनः किस दुष्ट ने तुझे मारने को हाथ उठाया है? अच्छा मैं देखती हू वह अविचारी पापी कैसे जीवित रह सकेगा?’’ इस प्रकार पुत्र के शिर को गोद में लिए बहुत देर तक वह रोती रही। वह बार-बार पुत्र का मुख चूमती है। कुछ क्षण बाद वह शोक छोड़कर उठ पड़ती है। क्रोध के आवेश में यत्र-तत्र भ्रमण करती हुई शत्रु को खोजने लगती है। कुछ दूर पर उसकी नजर इन तीनों पर पड़ती है।……राम, लक्ष्मण के रूप को देखकर वह एक क्षण के लिए स्तब्ध रह जाती है।….उसका शोक क्रोध एक तरफ रह जाता है उसी क्षण उसके मन में अनुराग रस उत्पन्न हो जाता है।
वह कन्या का रूप बनाकर उसके निकट ही में स्थित पून्नाग वृक्ष के नीचे बैठकर रोने लगती है। रुदन की आवाज सुनकर सीता का हृदय दया से आद्र्र हो उठता है। वह उठकर उसके पास जाकर उसके मस्तक पर हाथ फैरते हुए सान्त्वना देती हैै- ‘‘हे कन्ये! डरो मत, आओ मेरे साथ चलो।’’ पुनः उसका हाथ पकड़कर सीता अपने स्थान पर ले आती है और समझाने लगती है। तदनन्तर राम ने पूछा- ‘‘हे कन्ये! जंगली जानवरों से भरे हुए इस निर्जन वन में तू अकेली कौन है? कहाँ से आई है?’’ उसने कहा- ‘‘हे पुरुषोत्तम! मूच्र्छा आने पर मेरी माँ मर गई उसके शोक से मेरे पिता का प्राणांत हो गया। मैं पूर्वोपार्जित कर्म के उदय से परम वैराग्य को प्राप्त हुई इस वन में प्रविष्ट हुई हूँ।’’ कुछ मेरे पुण्य से ‘‘हे सुन्दर! आप लोग मुझे यहाँ मिले हैं सो जब तक मैं प्राण नहीं छोड़ती हूँ तब तक आप ही मुझे स्वीकार करो।’’ राम-लक्ष्मण उसके लज्जाशून्य वचन सुनकर परस्पर में एक-दूसरे को देखते हुए चुप रह जाते हैंं। कुछ क्षण प्रतीक्षा कर निराश हो दीर्घ निःश्वास छोड़कर वह बोलती है- ‘‘अच्छा, अब मैं जाती हूँ।’’ तब राम ने उत्तर दिया- ‘‘जैसी तुम्हारी इच्छा।’’ उसके चले जाने के बाद ये तीनों जन आश्चर्यचकित हो हँसने लगते हैं। शोक से व्याकुल चन्द्रनखा पति खरदूषण के पास पहुचकर पुत्र मरण की सारी घटना सुना देती है और यह भी बता देती है कि वहाँ पर दो पुत्र एक महिला ऐसे तीन जने बैठे हुए हैंं उन्होंने ही मेरे पुत्र को मार कर खड्ग छीन लिया है और जब मैं पुत्र के मस्तक को गोद में रखे विलाप कर रही थी तब वे आकर मेरा शील भंग करना चाहते थे किन्तु मैं जैसे-तैसे अपने शील की रक्षा कर यहाँ आई हूँ। उसी क्षण खरदूषण विद्या से वहाँ जाकर पुत्र के शिर को देखकर शोक से आक्रांत हो उठता है। वह सोचता है- ‘‘अहो! मैं रावण का बहनोई हू, इतना प्रतापशाली हूँ। मेरे पुत्र शंबुक ने सबके मना करने पर सूर्यहास खड्ग के लिए बारह वर्ष तक यहाँ घोर तपश्चर्या की। खड्गरत्न सिद्ध हो गया, वह सात दिन के भीतर-भीतर ग्रहण करने योग्य रहता है अन्यथा सिद्ध करने वाले को ही मार देता है। मेरे पुत्र शंबुक ने क्यों प्रमाद किया? आज चार दिन हो गये थे उसने उसे ग्रहण कर अपना मनोरथ पूर्ण क्यों नहीं किया। हाय!
यह खड्गरत्न भी गया और मेरा पुत्ररत्न भी गया।’’ जैसे-तैसे शोक को संवृत कर वापस अपने स्थान पर आकर मंत्रणा करके सेना सहित उस दण्डक वन में आ जाते हैं और त्रिखंडाधिपति रावण को भी समाचार भेज दिया जाता है। क्योंकि जिसने खड्गरत्न प्राप्त किया है वह सुख से वश में नहीं किया जा सकेगा, यह अनुमान सहज ही ये लोग लगा लेते हैं। सीता युद्ध सूचक वादित्रों का भयंकर शब्द सुनकर काँप उठती हैं- ‘‘हे नाथ! यह क्या? यह क्या?’’ ऐसा कहते हुए पति से लिपट जाती है। ‘रामचन्द्र’ भी सीता को आश्वासन देते हुए सहसा यह अनुमान लगा लेते हैं कि या तो खड्गरत्न को प्राप्त करने के निमित्त से किसी का कोप है अथवा उस मायावी स्त्री के कथन से कुछ उपद्रव आया हुआ जान पड़ता है। तत्क्षण वे अपने धनुष को संभाल कर खड़े होते हैं। तब लक्ष्मण हाथ जोड़कर निवेदन करते हैं- ‘‘देव! मेरे रहते हुए आपका क्रोध करना शोभा नहीं देता है। आप राजपुत्री की रक्षा कीजिए, मैं शत्रु की ओर जाता हूँ। हाँ, यदि मुझ पर आपत्ति आयेगी तो मैं सिंहनाद करूँगा।’’ इतना कहकर लक्ष्मण चल पड़ते हैं। अकेले ही इतनी विशाल सेना के साथ जूझ पड़ते हैं। अगणित विद्याधर आकाश में ही घिरे हुए एक अकेले के साथ युद्ध कर रहे हैं। इधर रावण भी अपने पुष्पक विमान में बैठकर वहाँ आ जाता है। वहाँ ऊपर से ही वह रामचन्द्र के साथ बैठी हुई सीता को देखता है। वह सहसा उस पर आसक्त हो सारे क्रोध और शोक को भूलकर उसे हरण करने के प्रयत्न में अपना उपयोग लगाता है। पुनः वह अपनी अवलोकिनी विद्या के द्वारा यह जान लेता है कि ये अयोध्या के राजपुत्र राम हैं, यह इनकी पत्नी सीता है, और लक्ष्मण द्वारा सिंहनाद किये जाने पर रामचन्द्र उसकी सहायता के लिए युद्ध स्थल पर जा सकते हैं। बस! फिर क्या था, वह उसी क्षण सिंहनाद कर देता है। उस सिंहनाद के साथ हे राम! हे राम!! ऐसी ध्वनि सुनने में आती है। रामचन्द्र व्याकुल हो उठते हैं और सीता से कहते हैं- ‘‘हे प्रिये! तुम क्षण भर यहीं ठहरना, डरना नहीं!’’ और अत्यधिक मालाओं से उसे ढककर जटायु से बोलते हैं- ‘हे जटायु! यदि तुम मेरा किंचित् भी उपकार मानते हो तो मित्र की स्त्री की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करना।’ पक्षियों के करुण क्रन्दन को देखकर अपशकुन हो रहा जान कर भी रामचन्द्र मोह से भाई की रक्षा हेतु चल पड़ते हैं। इधर रावण शीघ्र पुष्पक विमान को उतार कर सीता को दोनों भुजाओं से उठाकर उसमें बिठाने लगता है कि अतीव क्रोध से भरकर जटायु पक्षी अपनी चोंच से उसे मारने लगता है। वह आकाश में अधर उड़कर रावण के वक्षस्थल को नोचने लगता है। रावण अपने कर प्रहार से उसे मारकर नीचे गिरा देता है और सीता को लेकर भाग जाता है। सीता अपना अपहरण हुआ जान शोक से व्याकुल हो अत्यन्त विलाप करने लगती है। रावण उसके अतीव विलाप को देख मन में विरक्त हो सोचने लगता है कि- ‘‘अहो! इसका तो रंचमात्र भी मेरे प्रति आदर नहीं है।…… क्या करूँ? हो सकता है मेरी सम्पदा देखकर कदाचित् यह प्रसन्न हो सकती है।
हाँ…..मैंने केवली भगवान् के पास यह व्रत लिया था कि जो स्त्री मुझे नहीं चाहेगी मैं बलात् उसका उपभोग नहीं करूँगा।’ अतः जैसे-तैसे इसे प्रसन्न करने का ही उपाय करना होगा।’’ ऐसा सोचकर वह अपनी गोद से उतार कर सीता को अपने पास में बिठा लेता है। अपने स्थान पर पहुँचकर अनुनय, विनय व भय दिखाने के बाद भी जब सीता को राम के स्मरण में रोती हुई ही देखता है तब वह उसे हजारों स्त्रियों की सुरक्षा में अपने प्रमद उद्यान में पहुँचा देता है। जब विभीषण आदि को पता चलता है वे सीता से सारा वृत्तांत समझते हैं पुनः रावण को समझाते हैं- ‘‘हे भाई! तुम यह विष की बेल ऐसी परस्त्री को क्यों ले आये हो? इसे आज ही इसके पति के पास पहुँचाओ अन्यथा यह प्राण त्याग कर देगी।’’ किन्तु रावण किसी की एक भी नहीं मानता है।
युद्ध के मैदान में रामचन्द्र को प्रविष्ट हुए देख लक्ष्मण बोल उठते हैं- ‘‘हाय देव! बड़े दुःख की बात है आप विघ्नों से व्याप्त इस वन में सीता को अकेली छोड़कर यहाँ किसलिए आ गये हो?’’ राम ने कहा-‘‘भाई! मैं तुम्हारा शब्द सुनकर ही यहाँ आया हूँ।’’ लक्ष्मण ने कहा-‘‘ आप शीघ्र ही चले जाइये, आपने अच्छा नहीं किया।’’ अच्छा, तुम परम उत्साह से शत्रुओं को सब प्रकार से जीतो। ऐसा कहकर शंकितचित्त हुए राम अपने स्थान पर पहुँचते हैं और वहाँ सीता को न देखकर- ‘‘हा सीते!’’ ऐसा कहकर र्मूिच्छत हो गिर जाते हैं। जब स्वयं सचेत होते हैं तब व्याकुलचित्त हुए इधर-उधर खोजने लगते हैं- ‘‘हे देवी! तुम कहाँ गई हो? आओ, आओ, हे प्रिये! यदि हँसी करने के लिए कहीं छिप गई हो तो जल्दी आ जाओ।’’ पुनः कुछ ही दूर पर जटायु को मरणासन्न देखकर उसे महामंत्र सुनाकर सन्यास ग्रहण कराते हैं। वह पक्षी मरकर देव पर्याय को प्राप्त हो जाता है। इधर रामचन्द्र सीता के अपहरण का अनुमान लगाकर और पक्षी के मरण को देखकर पुनः रुदन करते हुए र्मूिच्छत हो जाते हैं। पुनः सचेत हो विलाप करते हुए वृक्षों और पक्षियों से सीता के बारे में पूछते हुए हा-हाकार करते हैं और शोक के भार से पीड़ित हो पुनः-पुनः मूचर््िछत हो जाते हैं। उधर लक्ष्मण युद्ध में विजय प्राप्त कर अपने स्थान पर आते हैं और राम को एक तरफ धरती पर पड़े हुए देखकर घबड़ाते हुए बोलते हैं- ‘‘हे नाथ! उठो और कहो, सीता कहाँ गई हैं?’’
राम सहसा उठ बैठते हैं, लक्ष्मण का घाव रहित शरीर देखकर कुछ हर्षित हो उनका आलिंगन करते हैं, पुनः कहते हैं- ‘‘हे भद्र! मैं नहीं जानता कि देवी को किसी ने हर लिया या सिंह ने खा लिया है। मैंने इस वन में बहुत खोजा पर वह दिखी नहीं।’’ विषादयुक्त हो लक्ष्मण बोले- ‘‘हे देव! उद्वेग को छोड़ो, जान पड़ता है कि जानकी किसी दैत्य के द्वारा हरी गई है, सो वे कहीं भी क्यों न हों मैं अवश्य ही उनका पता लगाऊँगा।’’ इस प्रकार मधुर वचनों से सान्त्वना देकर लक्ष्मण ने अग्रज का मुख धुलाया। इसी बीच तुरही का उच्च शब्द सुनकर राम ने पूछा- ‘‘भाई! यह शब्द किसका है? क्या कुछ शत्रु शेष रह गये हैं?’’ ‘‘नहीं, यह शब्द शत्रु का न होकर मित्र का है। प्रभो! सुनिये, भयंकर युद्ध के मध्य एक राजा कुछ सेना लेकर आया और मुझसे कुछ प्रार्थना करने लगा, मैंने शीघ्र ही उसके मस्तक पर हाथ रखकर उसे आश्वासन देते हुए अपने पीछे खड़ा होने को कहा। पुनः वह प्रणाम कर बोला- ‘‘नाथ! आप मुझे इन दुष्टों को मारने का आदेश दीजिए। मेरी स्वीकृति मिलते ही उसने खरदूषण की सारी सेना में खलबली मचा दी। पुनः मैंने भी आपके प्रसाद से इसी सूर्यहास खड्ग से खरदूषण को मार गिराया और उसे उस खरदूषण के राज्य का स्वामी बना दिया।’’ इसी बीच चंद्रोदय विद्याधर का पुत्र विराधित अपनी सेना सहित वहाँ आकर विनय से रामचन्द्र को नमस्कार करके निवेदन करता है- ‘‘प्रभो! चिरकाल बाद आप जैसे महापुरुष हमें प्राप्त हुए हैं सो करने योग्य कार्य के विषय में मुझे आदेश दीजिए।’’ तब लक्ष्मण ने सारी घटना सुनाकर कहा- ‘‘सीता के बिना राम शोक के वशीभूत हो यदि प्राण छोड़ते हैं तो निश्चित ही मैं अग्नि में प्रवेश कर जाऊँगा। क्योंकि हे भद्र! तुम निश्चित समझो कि मेरे प्राण इन्हीं के प्राणों के साथ मजबूत बंधे हुए हैं।’’ विराधित ने मन में सोचा, ‘‘अहो! मैं अपने राज्य को प्राप्त करने हेतु इनकी शरण में आया, परन्तु देखो, सभी जीव कर्मों के आधीन हैं। इन पर तो इस समय महान् संकट आ पड़ा है।’’
पुनः बोला- ‘‘देव! मैं अवश्य ही सीता की खोज कराऊँगा।’’ ऐसा कहकर अपने आश्रित हुए तमाम विद्याधरों को उसने दशों दिशाओं में देखने के लिए भेजा। सभी घूम-घूम कर वापस आ गये। तब रामचन्द्र अत्यधिक दुःखी हो विलाप करने लगे। विराधित विद्याधर आदि ने उन्हें समझाते हुए निवेदन किया- ‘‘हे नाथ! आप जैसे महापुरुष को शोक करके शरीर का अनिष्ट करना उचित नहीं है, धैर्य धारण कीजिए और हमारी प्रार्थना स्वीकार कीजिए। खरदूषण के मरने से सुग्रीव, रावण आदि में भयंकर क्षोभ हुआ होगा सो अब आप सुरक्षित स्थान जो अलंकारपुर नगर है वह हम लोगो की वंश परंपरा से चला आया उत्तम और शत्रु के लिए दुर्गम स्थान है वहीं चलेें। वहीं पर रहकर सीता की खोज करायेंगें।’’ इतना सुन राम-लक्ष्मण रथ में बैठकर उनके साथ चल पड़े। वहाँ पहुँचकर विराधित तथा राम-लक्ष्मण खरदूषण के भवन में यथा योग्य निवास करने लगे। वहाँ पर सुन्दर जिन मंदिर में जिनेन्द्र देव की प्रतिमा का दर्शन कर रामचन्द्र कुछ धैर्य को प्राप्त होते थे। पुनः सीता के शोक में व्याकुल हो उठते थे।