कर्म उसे कहते हैं, जो आत्मा का असली स्वभाव प्रगट नहीं होने दे। जैसे-बहुत सी धूल, मिट्टी उड़कर सूरज की रोशनी को ढक लेती है वैसे ही बहुत से पुद्गल परमाणु (छोटे—छोटे टुकड़े) जो इस आकाश में सब जगह भरे हैं, आत्मा में क्रोधादि कषाय उत्पन्न होने से आत्मा के प्रदेशों के साथ मिलकर आत्मा के स्वरूप को ढक देते हैं। कषाय के सम्बन्ध से उनमें सुख-दु:ख वगैरह देने की शक्ति भी उत्पन्न हो जाती है इसलिए इन्हें ही कर्म कहते हैं।
राग-द्वेषादिक परिणामों के निमित्त से कार्माण वर्गणा रूप जो पुद्गल जीव के साथ सम्बन्ध को प्राप्त है, उन्हें कर्म कहते हैं।
जिसके द्वारा आत्मा परतन्त्र किया जावे, उसे कर्म कहते हैं। जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादिकाल से है और इन दोनों का सम्बन्ध स्वत:सिद्ध है। कर्म के परमाणु और आत्मा के प्रदेश दूध और पानी की तरह एकमेक हो रहे हैं।
आत्मा में एकत्र योग-कषाय तथा योग्य पुद्गलों का जो भी परिणाम होता है, वह कर्म है। मन, वचन और काय का योग कर्म है।
आत्मा द्वारा प्राप्य होने से क्रिया को कर्म कहते हैं, उस क्रिया के निमित्त से परिणाम विशेष को प्राप्त होने वाले पुद्गल को कर्म कहते हैं।
जैनधर्म-दर्शन-संस्कृति के कर्मवाद को जैनेतर दार्शनिकों ने भी स्वीकारा है। न्याय-वैशेषिक कर्म को ‘अदृश्य’ कहते हैं और मीमांसक ‘अपूर्व’। सांख्य-योग दर्शन कर्म को ‘आशय’ मानते हैं और वैदिक दर्शन इसे ‘अविद्या’ संज्ञा देते हैं। बौद्ध विद्वान कर्म को ‘वासना’ कहते हैं और पाश्चात्य दार्शनिक कर्म को सौभाग्य-दुर्भाग्य मानते हैं। जैन चिन्तकों के सदृश जैनेतर भी ‘जो जस करई सो तस फल चाखा’ स्वीकारते हैं। ‘As you sow, so shall you reap’‘‘जैसा बोओ वैसा काटो’’ ऐसा कहते हैं, यह सर्वसाधारण की समझ है। जैन कर्मवाद पुनर्जन्म के सिद्धान्त को सहज स्वीकृति देता है और ईश्वर को विश्व का स्रष्टा-संरक्षक-संहारक स्वीकारना अमान्य करता है। सृष्टि के समस्त जीवात्माओं के सुख-दुख का आधार कर्म है। जीवात्मा कर्मरूपी काँवट को अतीत से आज तक ढो रहा है। कर्म-फल भोगे बिना कोई भी विश्व का व्यक्ति बचा नहीं है। आदर्श अर्हंत और सफल सिद्ध तो क्रमश: चार-आठ कर्म नष्ट करके ही हुए हैं। कर्म के क्षय के लिए संवर और निर्जरा चाहिए, न कि आस्रव व बन्ध।
संस्कृत भाषा में एक धातु या क्रिया है विद् ज्ञाने। इससे ‘वेत्ता’-जानने वाला, ज्ञान वाला बना है और वह ‘वेद’ भी बना, जिसका अर्थ सच्चा और वास्तविक ज्ञान है। वेद भारतीय आर्यों के सर्वप्रधान व सर्वमान्य धर्म ग्रंथ हैं तथा श्रुति आम्नाय से सम्बन्धित हैं। वेदन (अनुभव) शब्द पुल्लिंग है और वेदना स्त्रीिंलग है। यह पीड़ा या हार्दिक व्यथा वेदना की प्रतीक है। वेदन-संवेदन में सुख-दुख का अनुभव करना है। संवेदना मन में होने वाला बोध या अनुभव है। किसी को कष्ट में देखकर मन में होने वाला दुख सहानुभूति है। विद् वेदमूलक, ज्ञानसदृश संवेदन से संवेदित तुल्य वेदनीय शब्द बना है। वेदनीय का आशय और अर्थ उस अनुभवनीय ज्ञान से है जो सुख-दुख मूलक है, हर्ष-विषाद और उत्थान-पतन का भी सूचक है।
कर्म की मूल प्रकृतियाँ आठ हैं और उनके अपने ठाठ हैं जो उत्तर प्रकृतियों के भेद से १४८ हैं। ज्ञानावरण (५), दर्शनावरण (९) वेदनीय (२), मोहनीय (२८), आयु (४) नाम (९३), गोत्र (२) और अन्तराय (५)। इनमें वेदनीय कर्म का स्थान तीसरा है पर धर्मग्रंथों में घातिया-अघातिया कर्म की दृष्टि से भी वर्णन उपलब्ध है। विचार के इस धरातल में मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्म घातिया हैं। घातिया इसलिए कि ये जीव के ज्ञान-दर्शनादि अनुजीवी गुणों का घात करते हैं अतएव इनकी घातिया संज्ञा ही है। वेदनीय, आयु या आयुष्य, नाम और गोत्र ये चार कर्म अघातिया हैं। कारण ये जीव के ज्ञान-दर्शनादिक अनुजीवी गुणों का घात या विनाश नहीं करते हैं। इनकी स्थिति धर्म ग्रंथों में नाममात्र, जली रस्सी में ऐंठ सी है। विचार के इस बिन्दु से वेदनीय कर्म का स्थान पाँचवा भी है।
जो आत्मा को सुख-दुख देने में निमित्त हो उसे वेदनीय कर्म कहते हैं। इस कर्म के उदय से संसारी जीवों को ऐसी चीजों का मिलाप होता है जिसके कारण वे सुख-दुख दोनों का अनुभव करते हैं। जैसे शहद लिपटी तलवार की धार चाटने से सुख-दुख दोनों ही होते हैं अर्थात् शहद मीठा लगता है और इससे सुख होता है परन्तु तलवार की धार चाटने से जीभ कट जाती है अतएव दुख होता है। दूसरा उदाहरण लीजिए कि प्रकाशचन्द्र ने लड्डू खाया तो अच्छा लगा, सुख हुआ, पर असावधान होकर चलने से पैर में काँटा लग गया तो रोना आया, दुख हुआ। दोनों ही दशाओं में प्रकाशचन्द्र के वेदनीय कर्म का उदय समझना चाहिए। दूसरे शब्दों में वेदनीय कर्म सुख-दुख दोनों देता है। सुख और दुख दोनों का ही वेदन वेदनीय कर्म संसार के प्रत्येक जीवात्मा को प्रतिक्षण कराता ही रहता है। वेदन या वेदना लिये वेदनीय कर्म जीवमात्र के लिये जीवन संज्ञा लिये है यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
(१) सातावेदनीय और (२) असातावेदनीय।
दोनों की परिभाषाएँ, उनके नाम और गुण की दृष्टि से संक्षेप में यों होंगी-जिस वेदनीय कर्म के उदय से शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, धार्मिक, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय अनेक प्रकार की अनुकूल परिस्थितियाँ मिलें, भोगोपभोग की आवश्यक पर्याप्त सुख साधन सामग्री मिले, वह सातावेदनीय है। इसका सीधा सम्बन्ध पुण्य कार्य फल से है। किसी के पास सुन्दर स्त्री हो, आज्ञाकारी पुत्र हो, सभ्य शिक्षित पुत्री-बहू हो, आजीविका की सुख-सुविधा हो, अल्प श्रम में अधिक अर्थ—द्रव्य—धन की प्राप्ति हो, बढ़िया बंगला-कार-टी. वी.-रेफ्रिजजरेटर-कूलर आदि आरामदायक विलासिता की सामग्री हो, देश और समाज में सम्मान हो तो कहा जा सकेगा कि उसे सातावेदनीय कर्म का उदय है।
जिस कर्म के उदय से दुखदायक वस्तुयें और व्यक्ति मिलें, जीवन की परिस्थितियाँ प्रतिकूल हों, वह असातावेदनीय कर्म है। इसका सीधा सम्बन्ध पाप कार्य—फल से है। किसी की स्त्री कर्कशा हो, पुत्र अहम्भावी हो, आजीविका का ठिकाना नहीं हो, आर्थिक स्थिति नगण्य हो, पुत्र आलसी हो, पुत्री विधवा हो जावे, बहू गरीब घर समझकर पीहर में जाकर रहने लगे तो कहा जा सकेगा कि इसके असातावेदनीय कर्म का उदय है, पूर्वोपार्जित कर्मों का विपाक या परिणाम है अतएव आरामदायक-विलासिता-आवश्यकताओं की पूर्ति तो दूर रही, अनिवार्य आवश्यकतायें भी अधूरी रह जा रही हैं।
पंडितप्रवर द्यानतराय ने अपनी ‘सिद्ध पूजा’ में वेदनीय के विषय में सर्वसाधारण की भाषा शैली में पुण्यवान और पापी के माध्यम से काफी सुस्पष्ट प्रेरणादायक लिखा है, जिसे संक्षेप में यों कहा जा सकेगा-
वेदनीय कर्म शहद मिश्रित तलवार की धार सदृश है।
वेदनीय कर्म साता (सुख) और असाता (दुख) देता है।।
वेदनीय कर्म के आधारभूत जो पुण्यवान और पापी मनुष्य हैं, उनकी परिस्थितियाँ प्रतिक्षण-प्रतिपल अपनी कहानी कहती हैं। पुण्यवान महल में सोता है और पापी राह में पड़ा रोता है। पुण्यवान इच्छित भोजन पाता है और पापी माँगने पर एक टुकड़ा भी नहीं पाता। पुण्यवान जरी-जवाहर से वस्त्र-बदन की शोभा बढ़ाता है और पापी फटे पुराने कपड़े भी नहीं पहन पाता है। पुण्यवान स्वर्ण के थाल-कटोरी में भोजन करता है और पापी के कर या घर में चीनी का प्याला भी नहीं मिलता है। पुण्यवान हाथी पर चढ़ कर चलते हैं और पापी नंगे पैर नीचे चलते हैं। पुण्यवान के सिर पर छत्र लगते हैं और पापी के सिर पर बोझ लदते हैं। पुण्यवान की आज्ञा सभी मानते हैं और पापी की तो कोई प्रार्थना भी नहीं सुनता। पुण्यवान द्रव्य-सम्पत्ति पाता है और पापी की धन से कभी भेंट ही नहीं होती है। पुण्यवान को सभी देखने आते हैं और पापी को लोग कभी भी मुँह नहीं लगाते हैं। पुण्यवान को कभी भी रोग नहीं सताता है और पापी व्याधि-विपत्ति से बिलबिलाता है। पुण्यवान शील-रूपवान रमणी पाता है और पापी वैâसी स्त्री भी नहीं पाता है। पुण्यवान के पुत्र काफी कमाई करते हैं, पापी के पुत्र पैसे-पैसे के लिए तरसते हैं। पुण्यवान को गिरी हुई वस्तु मिल जाती है और पापी के हाथ आई वस्तु भी गिर जाती है। पुण्यवान छह ऋतुओं के सुख भोगता है और पापी प्रत्येक ऋतु में प्रत्येक दिन दुख भोगता है।
पुण्य और पाप वेदनीय वृक्ष की दो शाखाएँ हैं। जिन सिद्ध भगवान ने दोनों शाखाओं और उनके जनक वेदनीय वृक्ष को भी ध्यान की अग्नि से जला दिया, वे सिद्ध भगवान निराबाध सुख के पूर्ण धनी हैं।
वेदनीय कर्म भी इहलोक-परलोक में सर्वत्र तब तक बना रहता है, जब तक १४ वाँ गुणस्थान जीवात्मा प्राप्त नहीं कर लेता है। वेदनीय कर्म के आगे जो मोहनीय कर्म है, मोहराज है, उसके दो भेद हैं-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय तथा चारित्रमोहनीय के दो भेद हैं-कषाय वेदनीय और अकषाय वेदनीय। थोड़ा इस दृष्टि से भी वेदनीय कर्म समझ लें।
धर्म के आचार्यों ने चारित्र मोहनीय का लक्षण यह लिखा कि जिस कर्म के उदय या निमित्त से आत्मा के चारित्र गुण का घात होता है, उसे चारित्र मोहनीय कहते हैं। जो मोहनीय कर्म जीवात्मा को मदिरा सदृश मोहित करता है, उस मोहनीय कर्म के उदय या निमित्त से चारित्रगुण का घात होना सहज स्वाभाविक है। चारित्र मोहनीय के उल्लिखित दो भेदों में वेदनीय जुड़ा है अतएव वेदनीय की वेदना भी मोहनीय के समकक्ष ही समझनी चाहिए। वेदनीय कर्म भी मोहनीय कर्म की जड़ें सींचता है।
कषायवेदनीय का लक्षण यह है कि जो आत्मा के ज्ञानादिक-शुद्ध या शुभ भाव व धर्म क्षेत्र और उत्तम क्षमादि धर्म को कृष् (कम) या नष्ट करता है वह कषाय वेदनीय है। कषाय वेदनीय के चार प्रकार ये बतलाये हैं-अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन। इन चार भेदों को क्रोध-मान-माया-लोभ से गुणा करें यानी अनन्तानुबन्धी क्रोध-मान-माया-लोभ, अप्रत्याख्यान क्रोध-मान-माया-लोभ, प्रत्याख्यान क्रोध-मान-माया-लोभ और संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभ, तो कषाय वेदनीय के सोलह भेद हो गए।
जो कषाय आत्मा के सम्यक्त्व या सम्यक्त्वाचरण का घात करे वह अनन्तानुबन्धी है। यह अनन्तकाल तक अनन्त संसार का कारण है। जिस कषाय के उदय से परिणाम देशचारित्र (श्रावक के चारित्र) धारण करने योग्य नहीं होते हैं उसे अप्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं। सही अर्थों में श्रद्धा-विवेक-क्रियावान अणुव्रती श्रावक बनने के लिए इस कषाय से मुक्ति अत्यन्त आवश्यक है। जिस कषाय के उदय से जीव के परिणाम सकल चारित्र या महाव्रत-मुनिव्रत धारण करने के योग्य नहीं होते हैं, उसे प्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं। यदि सही अर्थों में महाव्रती, मुनि श्रमण, ऋषि, यति, अनगार बनना है तो इस कषाय को हटाना हमारा सर्वप्रथम कर्त्तव्य है। जो कषाय भाव आत्मा के यथाख्यातचारित्र में बाधक है, जो संयम के साथ जगमगाए पर प्रमादादि दोषों द्वारा िंकचित् डगमगाए, आत्मिक वैभव के परिणाम जलावे, उसे संज्वलन कषाय कहते हैं इसे ईषत् कषाय भी कह सकते हैं। अनन्तानुबन्धी पत्थर पर उत्कीर्ण रेखा है तो अप्रत्याख्यान खेत में हल द्वारा खींची रेखा है और प्रत्याख्यान पगडंडी पर गाड़ी के चाक की रेखा है तो संज्वलन पानी में खींची क्षणिक रेखा है।
अकषायवेदनीय के हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री, पुरुष, नपुंसक ये नौ भेद हैं जो अपनी संज्ञानुसार सर्वसाधारण भी समझ सकते हैं।
सिद्धान्तचक्रवर्ती नेमिचन्द्राचार्य ने गोम्मटसार कर्मकाण्ड में वेदनीय की परिभाषा इस प्रकार दी है-जो सुख-दुख का वेदन करावे या अनुभव करावे वह वेदनीय कर्म है। इसका स्वभाव शहद लपेटी तलवार की धार के समान है जिसको कि पहले चखने से कुछ सुख होता है परन्तु पीछे से जीभ के दो टुकड़े होने पर अत्यन्त दु:ख होता है। इस तरह साता और असाता वेदनीय से सुख-दु:ख उत्पन्न होते हैंं, यही बात आचार्य उमास्वामी ने बहुत पहले अपने मोक्षशास्त्र के आठवें अध्याय के ‘सदसद्वेद्ये’ सूत्र के माध्यम से कही है। यानी सद्वेद्य और असद्वेद्य ये दो वेदनीय कर्म के भेद हैं। सद्वेद्य वह है जिसके उदय से देव-मनुष्य आदि गतियों में शारीरिक तथा मानसिक सुख की प्राप्ति हो। असद्वेद्य वह है जिसके उदय से नरक-तिर्यञ्च गतियों में तरह-तरह की व्यथा और वेदना प्राप्त हो। दूसरों को दु:ख देने, दु:खी करने से असातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है। पाँच पाप और चार कषाय करने से जीवात्मा स्वयं दुखी होता है और अन्य जनों को भी दुखी करता है। पुण्यवर्धक देवपूजा, गुरु उपासना, शास्त्र स्वाध्याय, संयम, तप और दान से जीवात्मा स्वयं सुखी होता है और अन्य जनों को भी सुखी करता है।
साता वेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम, शुभ गोत्र ये पुण्य प्रकृतियाँ हैं। सातावेदनीय से भिन्न असातावेदनीय है अतएव असातावेदनीय, अशुभ आयु, अशुभ नाम और अशुभगोत्र ये पाप प्रकृतियाँ हैं। इस दिशा में स्मरणीय यह भी है कि घातिया कर्मों की सभी प्रकृतियाँ पापरूप हैं पर अघातिया कर्मों के पुण्य और पाप दोनों रूप वाली प्रकृतियाँ हैं।
आचार्यप्रवर उमास्वामी ने ‘मोक्षशास्त्र’ के छठे अध्याय में असातावेदनीय कर्म के आगमन के द्वारा अथवा आस्रव का वर्णन इस प्रकार किया है-‘दुखशोकतापाक्रन्दनवधपरिदेवनान्यात्मपरोभयस्थान्यसद्वेद्यस्य’। सूत्र का सरल संक्षिप्त अर्थ यह है कि निज और पर दोनों के विषय में स्थित दु:ख-शोक, ताप-आक्रन्दन, वध-परिदेवन ये असातावेदनीय के आगमन द्वार हैं। दुख से आशय पीड़ारूप परिणाम विशेष का है। शोक से अभिप्राय अपने उपकारक पदार्थ अथवा व्यक्ति का विछोह—वियोग होने पर विकलता का है। ताप का तात्पर्य संसार में अपनी निन्दा होने पर, पश्चात्ताप के साथ अश्रुपात करते हुए रुदन करना है। यह अपना जी हल्का करने के लिए भी हो सकता है और अन्यजनों से सहानुभूति पाने के लिए भी हो सकता है। परिदेवन से अभिप्राय संक्लेश परिणामों का सहारा लेकर इस प्रकार रुदन करने का है कि दर्शक—श्रोता के हृदय में दयार्द्र परिणाम हो जाएँ। मन और मति से जितने भी प्रकार के दुख सम्भव हैं उन सभी का समावेश पूर्वोक्त छह प्रकारों में समझना चाहिए। इन्हें करेंगे तो असातावेदनीय कर्म में अभिवृद्धि होगी, अतएव इनसे बचकर रहें।
सातावेदनीय कर्म के आगमन द्वार अथवा आस्रव ये हैं-
‘भूतव्रत्यनुकम्पादानसरागसंयमादियोग: क्षान्ति: शौचमिति सद्वेद्यस्य’ अर्थात् भूतव्रत्यनुकम्पा, दान, सरागसंयमादि योग, क्षान्ति और शौच तथा अर्हद्भक्ति सातावेदनीय कर्म के आगमन द्वार हैं।
भूतव्रत्यनुकम्पा से अभिप्राय संसार के सभी प्राणियों और विशेषतया व्रताचारियों के प्रति दयामयी भावना-कृपा करने का है। दान से आशय निज और पर के उपकार के लिए वस्तु या द्रव्य को देना है। सरागसंयमादि योग से तात्पर्य पाँच इन्द्रियों और छठे मन को विषय वासनाओं से रोकने का है तथा छह काय के जीवों की िंहसा नहीं करके संयम को स्वीकारने का है साथ ही राग सहित संयम को स्वीकारना है। ‘संयम के बिना जीव की एक घड़ी भी नहीं बीते’, विचारने का है। यहाँ सूत्र में उल्लिखित आदि शब्द से संयमासंयम (श्रावक के व्रत संयम—कुछ असंयम), अकामनिर्जरा, बालतप (मिथ्यादर्शन सहित तपस्या) का भी ग्रहण किया जाता है। व्रत को विधिवत् पालन करना सरागसंयमादि योग है।
क्षान्ति से आशय क्रोध, मान, माया और लोभ कषाय का अभाव करने का है। जहाँ कषाय का अभाव है वहाँ शान्ति है। कषाय के सद्भाव में शान्ति आकाशकुसुम है। लोभ का त्याग करना शौच है। मनुस्मृति में ‘योऽर्थशुचि: स शुचि:’ लिखा है। जो अर्थ (द्रव्य/धन) की दृष्टि से पवित्र है वही वस्तुत: पवित्र है। सूत्र में उल्लिखित इति शब्द से तात्पर्य अर्हद्भक्ति और मुनिवरों की वैयावृत्ति करने का है। सभी प्राणियों के प्रति सरल और वात्सल्यमूलक व्यवहार का है।
वेदनीय कर्म के आगमन द्वारों के विषय में, गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) के यशस्वी प्रणेता आचार्य नेमिचन्द्र ने वेदनीय के आस्रव या प्रत्यय बतलाने के लिए निम्नलिखित गाथा कही है-
भूदाणुकंप—वद—जोग जुजिदो—खंति—दाण—गुरुभत्तो।
बंधदि भूयो सादं विवरीयो बंधदे इदरं।।
गाथा का संक्षिप्त सरल अर्थ यह है कि सब प्राणियों पर दया करना, अिंहसा, सत्यादि व्रत स्वीकारना और समाधि परिणाम रूप योग से जो व्यक्ति सहित हो तथा क्रोध के त्याग रूप क्षमा को, मान के त्याग रूप मार्दव को, माया के त्याग रूप आर्जव को और लोभ के त्याग रूप शौच धर्म को अंगीकार किए हो, जो आहार—औषधि—शास्त्र—अभयदान देता हो, अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी की गुरुभक्ति में जुटा हो, ऐसा जीवात्मा बहुभाग में बहुधा प्रचुर अनुभाग के साथ सातावेदनीय कर्म को बाँधता है। इसके विपरीत अदया, असत्य जैसे अनेक अवगुणों का धारक जीवात्मा तीव्र स्थिति अनुभाग सहित असातावेदनीय कर्म का बन्ध करता है। सातावेदनीय के बन्ध की प्रचुरता न बताने का कारण यह है कि स्थिति बंध की अधिकता विशुद्ध परिणामों से नहीं होती।
कर्मकाण्ड के अध्ययन-अनुभव-अभ्यास करने पर लगता है कि आचार्यश्री ने अनेकश: अपने ग्रंथ की संज्ञा सार्थक की और अपनी विलक्षण बुद्धि का चमत्कार दिखाया है।
एक प्रश्न यह है कि अन्तराय कर्म को, जो घातिया कर्म है, अघातिया कर्मों के बाद क्यों कहा ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आचार्यश्री ने १७वीं गाथा लिखी जिसका सरल संक्षिप्त अर्थ यह है कि यद्यपि अन्तराय कर्म घातिया है तथापि अघातिया कर्मों की तरह समस्तपने से जीव के गुणों को घातने में समर्थ नहीं है। नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मों के निमित्त से ही अन्तराय कर्म अपना कार्य करता है अतएव उसे अघातिया कर्मों के अन्त में कहा है।
एक प्रश्न यह भी है कि वेदनीय कर्म अघातिया कर्म है, उसको घातिया कर्मों के मध्य कहने का क्या अभिप्राय
है ? क्या यह साहूकार को चोरों के मध्य स्थान देना नहीं है ? प्रस्तुत प्रश्न का उत्तर आचार्यश्री ने अपने ग्रंथ की १९वीं गाथा के माध्यम से सुस्पष्टतया दिया है।
वेदनीय कर्म (मोहनीय कर्म के भेद जो राग द्वेष रूप हैं, उनके उदय के बल से ही) घातिया कर्मों की तरह जीवों के अनुजीवी गुणों का घात करता है अर्थात् इन्द्रियों के रूपादि विषयों में से किसी में रति (प्रीति) और किसी में अरति (द्वेष) का निमित्त पाकर सुख तथा दुखस्वरूप साता और असाता का अनुभव कराकर जीव को अपने ज्ञानादि गुणों में उपयोग नहीं करने देता है बल्कि परस्वरूप में लीन करता है। इस कारण अर्थात् घाितया कर्मों की तरह होने से घातिया कर्मों के मध्य में तथा मोहनीय कर्म के पहले इस वेदनीय कर्म का पाठक्रम रखा गया। भावार्थ तो यह है कि जब तक राग—द्वेष रहते हैं तब तक ही यह जीव किसी को बुरा और किसी को भला समझता है। कारण, एक ही वस्तु किसी को प्रिय और किसी को अप्रिय लगती है। जैसे कटुक रस वाला नीम का पत्ता ऊँट को प्रिय लगता है और मिष्ठान्नप्रिय मनुष्य को अप्रिय लगता है। इससे यह सत्य ज्ञात होता है कि वस्तु तो जैसी है वैसी ही है अर्थात् वस्तु किसी के लिए भली हो और किसी के लिए बुरी हो, ऐसा नहीं है। वस्तु सभी के लिए समान है पर उसके उपभोग के प्रति जिसका जैसा मनोभाव होता है वस्तु भी उसे वैसी प्रिय-अप्रिय लगने लगती है अर्थात् मोहनीय कर्मरूप राग-द्वेष के निमित्त से वेदनीय का उदय होने पर ही इन्द्रियों से उत्पन्न सुख और दुख का अनुभव होता है। चूंकि मोहनीय कर्म के बिना वेदनीय कर्म वैसे ही कुछ भी नहीं कर पाता है जैसे निर्बल सैनिक राजा की आज्ञा के बिना कुछ भी नहीं कर पाता है, अतएव विचार के इस बिन्दु से ही घातिया कर्मों के बीच में अघातिया वेदनीय कर्म को स्थान देना पड़ा अर्थात् दर्शनावरणीय और मोहनीय के बीच सुरक्षित रूप से रखना पड़ा।
विश्व छह द्रव्यों का समूह है। छह द्रव्यों में केवल जीव और पुद्गल में ही वैभाविक शक्ति है, परस्पर ध्यानाकर्षण की क्षमता है, परस्पर प्रभावित होकर जीव और पुद्गल प्रकृत से विकृत होते हैं और तदनुरूप आचरण या व्यवहार करने लगते हैं। जीव और पुद्गल के विकृत परिणमन का परिणाम विश्व दृष्टिगोचर हो रहा है। विश्व में एक मानव की दृष्टि से पुरुष और स्त्री दोनों पृथक् रूप में हैं पर जब वे दम्पत्ति बनकर जीवन व्यतीत करने हेतु सामाजिक और धार्मिक संस्कारों में बँधते हैं, परस्पर सम्बद्ध होते हैं, शारीरिक-मानसिक-धार्मिक-आर्थिक विचार-विनिमय व्यवहार करते हैं तो वे जन्म-जन्म के फेरे लगाने जैसे काम करने लगते हैं। सन्तति (पुत्र—पुत्री) के रूप में वे धर्म व समाज के सम्मुख प्रमाणपत्र भी प्रस्तुत करने लगते हैं और उनके लिए तन-मन-धन देकर अपना पितृत्व-मातृत्व सफल समझने लगते हैं। विवाह के बन्धन में पँâसकर अपनी स्वतन्त्रता की इतिश्री करके परतन्त्रता को जीवनपर्यन्त स्वीकारते हैं। वेदनीय के फलस्वरूप सुख-दु:ख भोगते हैं। विषम वेदना सहन करते हुए भी, वेदना के प्रतिकार हेतु विरोधी उपाय-बचाव नहीं करते हैं। इस प्रकार अपनी प्रवृत्ति से स्त्री-पुरुष और जीव-पुद्गल अनादिकाल से उल्टी गंगा बहाने में अपना अहोभाग्य मान रहे हैं।
जीवात्मा में राग-द्वेष भाव उत्पन्न होना उसका विकृत परिणमन है और पुद्गल में कर्म स्कन्धादि रूप परिणमन होना उसका विकृत परिणमन है। जीव की विकृत परिणति पुद्गल कर्म की उदयावली से उद्भूत होती है और पुद्गल की विकृत परिणति जीवात्मा के विकृत क्रियाकलापों के कारण होती है। जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादिकाल से आज तक चला आ रहा है। जीव की चतुर्गति रूप संसार पर्याय शुद्ध जीव की पर्याय नहीं है। जीव और पुद्गल के संयोग से निर्मित संयोगी पर्याय के कारण जीव की संसारी पर्याय अशुद्ध पर्याय कहलाती है और पर द्रव्य संयोग से रहित होने के कारण सिद्ध परमेष्ठी की पर्याय शुद्ध—पर्याय कही जाती है। जब तक आत्मा और शरीर का संयोग है तब तक रोटी, कपड़ा, मकान, संस्थान चाहिए। जहाँ आत्मा ने कर्मरूपी भवन ही ध्यानरूपी अग्नि से जला दिया वहाँ शुद्धात्मा के लिए रोटी, कपड़ा, मकान, संस्थान का प्रश्न ही नहीं रहा। इस विषय में मननीय सत्य तथ्य यह भी है कि अनादिकाल से साथ रहने पर भी कभी जीव पुद्गल नहीं हुआ और कभी पुद्गल जीव नहीं हुआ।
कहा भी है-
जिस्म का रूह से रिश्ता भी अजब रिश्ता है।
उम्र भर साथ रहे फिर भी तार्रूफ न हुआ।।
जैसे कर्म के आगमन द्वार हैं वैसे कर्म के निर्गमन द्वार भी हैं। मन—वचन—काय के योग से जैसे कर्म आते हैं वैसे संवर और निर्जरा के सहयोग से कर्म जाते भी हैं। जब तक कर्मबन्ध है तब तक मोक्ष नहीं है। जहाँ कर्मबन्ध रूपी रज्जु जली कि मुक्तिश्री मिली। राग-द्वेष पर विजय मिलते ही मुक्तिश्री ने वरमाला डाली। आस्रव का निरोध करना संवर है। आत्मा में जिन कारणों से कर्मों का आगमन होता था उन कारणों को दूर करना ताकि अन्य कर्मों के आगमन से मुक्ति मिले। कर्मों के आगमन को रोकने के लिए एक ओर पुद्गलमय कर्म आस्रव रोकना और दूसरी ओर पुद्गल कर्मास्रव के कारणभूत भावों का अभाव करने के लिए सक्षम/सक्रिय होना। आत्मा की सुरक्षा और विकास के लिए दुष्कर्मों से बचने का सुदृढ़ संकल्प करना अर्थात् मन, वचन, काय को वश में रखना, भूख-प्यास, शीत-उष्ण, दंशमशक, नग्नता-अरति, स्त्री-चर्या-निषद्या-शय्या, आक्रोध-वध-याचना, अलाभ-रोग तृण-स्पर्श-मल परीषहजय करना, सत्कार-पुरस्कार, प्रज्ञा-अज्ञान-अदर्शन जैसी स्थितियों में ज्ञानानन्दमयी मनोभाव सुस्थिर रखना बुद्धिमानी है। एक वाक्य में शरीर से आत्मा की, सृष्टि से मोक्ष की दिशा में चलने के लिए उतना परिश्रम करना कि जितना भी शक्य और सम्भव हो। वस्तुस्थिति-देशकाल-स्वशक्ति को दृष्टि में रखते हुए मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को छोड़ना और अपनी आत्मा को सम्यग्दर्शन—ज्ञान—चारित्र से जोड़ना ही उचित है। इस दिशा में सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातचारित्र की सम्यक््â दिशा में बढ़ना। कर्म आगमन का द्वार बन्द कर, बाहरी सुरक्षा से सुखद सांस लेने का उपक्रम संवर है।
बाहर के कर्म आगमन द्वार बन्द कर निश्चिन्त होकर, खर्राटे भरने लगना नितान्त अनुचित है। जब तक भीतरी कर्म नष्ट नहीं होते हैं तब तक मोक्ष सुदूर है, वहाँ संसार ही है अतएव भीतरी कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट करने के लिए ज्ञानरूपी दीपक जलाना चाहिए और उसमें तपस्या रूपी तेल भरना चाहिए तथा अन्तरंग में स्थित कर्मों की खोज—शोध करके उन्हें ध्यानपूर्वक निकालना चाहिए। आत्मिक जीवनज्योति जागृत करने की सफलता तब ही है जब सभी कर्म क्षय हो जाएँ तभी शिवथल या सिद्धशिला की प्राप्ति होगी, अन्यथा नहीं।
चूँकि कर्मों का क्षय तप द्वारा ही सम्भव है अतएव छह बाह्य और छह आभ्यन्तर तप अपनाना चाहिए। बाह्य तप की अपेक्षा अन्तरंग तप पर विशेष ध्यान देना चाहिए। कारण कि अन्तरंग के कर्म खोजकर निकालना है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार विनय जहाँ रखें, वहाँ वैयावृत्य के दश प्रकारों को भी नहीं भूलें। स्वाध्याय, जिसे धर्मज्ञ आचार्यों ने परम-चरम तप कहा, उसकी सर्वतोमुखी अभिवृद्धि करने के लिए वाचना, पृच्छना, आम्नाय भी दृष्टि पथ में रखना चाहिए। व्युत्सर्ग तप बढ़ाने के लिए, बाहरी-भीतरी चौबीस प्रकार के परिग्रह का त्याग कर, सही अर्थों में क्षीणमोह, वीतराग निर्ग्रंथ बनने का प्रयत्न होना चाहिए। ध्यान की दिशा में आर्त्त और रौद्रध्यान का पूर्णतया परित्याग करके, धर्मध्यान—शुक्लध्यान को ही अंगीकार करना चाहिए। पुलाक, वकुश, कुशील, निर्ग्रंथ से आगे स्नातक बनने के लिए प्राण-प्रण से प्रयत्न करना चाहिए। एक बार अर्हंत बने कि सिद्ध बनने के लिए शत—प्रतिशत सम्भावनाएँ सुनिश्चित हुईं।
संक्षेप में, कर्मों के आस्रव को संवर और निर्जरा द्वारा रोकना चाहिए और अपनी आत्मा में अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त बल, अनन्त सुख प्रकट करना चाहिए। हम चेतन होकर जड़ कर्मों से पराजय स्वीकार करें, उनके दास बनें, इससे तो हमारी ज्ञान चेतना पर बहुत बड़ा लांछन लगता है, पुरुषत्व पर बट्टा लगता है। एक वेदनीय क्या, आठों कर्मों की जीतने की क्षमता हममें है, यह बात अर्हंतों ने बार-बार दुहराई है इसलिए अपनी शक्ति पहचान कर हम आगे बढ़ें।
आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार कर्मकाण्ड में वेदनीय के भंगों के विषय में लिखा है कि वेदनीय की गति सभी गुणस्थानों में है। साता और असाता इन दोनों में से एक ही का बन्ध अथवा उदय योग्यस्थान में होता है और सत्व दो-दो का ही सयोगी पर्यन्त है। अयोगी के अन्त समय में जिसका उदय उसी का सत्व होता है इसलिए वेदनीय कर्म के गुणस्थानों की अपेक्षा से भंग इस प्रकार कहे हैं कि प्रमत्त गुणस्थान पर्यन्त चार भंग हैं, सयोगी जिनपर्यन्त दो भंग होते हैं और अयोगी गुणस्थान में चार भंग हैं।
आचार्य उमास्वामी ने ‘वेदनीये शेषा:’ सूत्र लिखकर स्वर्णोपदेश दिया कि क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल ये एकादश परीषह वेदनीय कर्म के उदय से होते हैं। इन्हीं आचार्यश्री ने ‘वेदनायाश्च’ सूत्र के माध्यम से समझाया कि योगजनित पीड़ा का निरन्तर चिन्तवन करना, यह वेदनाजन्य आर्तध्यान है। अर्थात् जैसे सुख भोगते हैं वैसे ही दुख भी भोगना चाहिए। सुख और दुख दोनों स्थितियों में समभाव रखेंगे तभी वीतरागता की प्राप्ति होगी। इन्हीं आचार्यश्री ने ‘एकादशजिने’ सूत्र लिखकर समझाया कि सयोगकेवली नामक तेरहवें गुणस्थान में रहने वाले जिनेन्द्र भगवान के ग्यारह परीषह होते हैं (जो ‘वेदनीय शेषा:’ के अन्तर्गत पूर्व में लिख दिए गए)। इस विषय में स्पष्टीकरण यह भी है कि जिनेन्द्र भगवान के वेदनीय कर्म का उदय होने से उसके उदय से होने वाले ग्यारह परीषह कहे गये हैं। यद्यपि मोहनीय कर्म का उदय नहीं होने से भगवान को क्षुधादिक की वेदना नहीं होती है। वेदनीय कर्म मोहनीय कर्म की संगति पाकर ही दुख का कारण बनता है स्वतन्त्र या पृथक् होकर नहीं—कारण, वह अपने आपमें निर्बल सैनिक है। तथापि इन परीषहों का कारण वेदनीय कर्म मौजूद है इसलिए उपचार से ग्यारह परीषह कहे गये हैं। वास्तव में तो जिनेन्द्रदेव के एक भी परीषह नहीं होता है।
नेमिचन्द्र आचार्य ने वेदनीय कर्म की परिभाषा समझाई कि जो उदय में आकर, देवादि गति में जीव को शारीरिक तथा मानसिक सुखों की प्राप्ति रूप साता का ‘वेदयति’ भोग करावे अथवा वेद्यते अनेन, जिसके द्वारा जीव उन सुखों को भोगे वह सातावेदनीय कर्म है व जिसके उदय का फल अनेक प्रकार के नरकादिक गतिजन्य दुखों का भोग-अनुभव कराता है, वह असातावेदनीय कर्म है। साता और असातावेदनीय कर्म का मूल स्रोत पुण्य-पाप है, उसके फल में आसक्ति रखना अनुचित है। हर्ष-विषाद करना निष्फल है। पंडितप्रवर दौलतराम जी ने छहढाला में इसी सत्य को यों समझाया है—
पुण्य पाप फल मांहि हरख विलखो मत भाई।
यह पुद्गल परजाय उपजि विनसै थिर थाई।।
(१) अष्ट कर्मों की शृंखला में वेदनीय कर्म तीसरा कर्म है।
(२) वेदनीय की उत्कृष्ट स्थिति तीस सागर है।
(३) वेदनीय की जघन्य स्थिति बारह मुहूर्त है।
(४) वेदनीय कर्म सुख-दुख के वेदन कराने में निमित्त है।
(५) वेदनीय का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत है।
(६) वेदनीय कर्म एक रथ चक्र सदृश है।
(७) वेदनीय सांसारिक जीवन का केन्द्रबिन्दु है।
(८) वेदनीय वेदनामय जीवन का प्रतीक है।
(९) वेदनीय का विनाश १४वें गुणस्थान के बाद है
(१०) वेदनीय का विनाश अनिश्चित सा होता है
(११) वेदनीय अघातिया कर्म है
(१२) वेदनीय अनुजीवी गुणों का घात नहीं करता है
(१३) वेदनीय जीवात्मा के अव्याबाध गुण के विकास में बाधक है
(१४) वेदनीय का आस्रव-बन्ध कभी भी, कहीं भी हो सकता है
(१५) वेदनीय कर्म की संवर-निर्जरा असाध्य न हो, कष्टसाध्य तो है ही
(१६) वेदनीय भी शेष कर्मों के सदृश जीवात्मा की मुक्ति में बाधक है।
वेदनीय कर्म ही क्या, सभी कार्यों को ‘प्रकृति’ कहा गया है। प्रकृति का अर्थ बतलाने के लिए गोम्मटसार (कर्मकाण्ड) में आचार्य नेमिचन्द्र ने निम्नलिखित गाथा लिखी है—
पयडी सील सहावो जीवंगाणं अणाइ संबंधो।
कणयो वले मलं वा ताणत्थित्तं सयं सिद्धं।।२।।
गाथा का सरल अर्थ यह है कि कारण के बिना जो सहज स्वभाव होता है, उसको प्रकृति, शील अथवा स्वभाव कहते हैं। जैसे कि आग का स्वभाव ऊपर को जाना है, पवन का तिरछा बहना है और जल का स्वभाव नीचे की ओर बहना है। प्रकृत में यह स्वभाव जीव और अंग (कर्म) का ही लेना चाहिए। इन दोनों में से जीव का विभावरूप स्वभाव रागादि रूप परिणमने का है और कर्म का स्वभाव रागद्वेष रूप परिणमावने का है। जीव और कर्म का सम्बन्ध अनादिकाल से है। जीव और कर्म का अस्तित्व भी स्वयं ही ईश्वरादि कर्त्ता के बिना ही स्वत:सिद्ध है। जिस प्रकार शराब और भांग का स्वभाव बावला/पागल कर देने का है और पीने वाले जीवात्मा का स्वभाव पागल हो जाने का है वैसे ही जीव का विभावरूप स्वभाव रागद्वेष पाप—कषाय रूप होने का हो रहा है और कर्म या अंग का स्वभाव जीव को राग—द्वेष पाप—कषाय रूप परिणमाने का अनादिकाल से हो रहा है। वर्तमान विश्व भी विविधताओं और विचित्रताओं का अद्भुत सम्मिश्रण है। भिन्न रंग, भिन्न रूप, भिन्न भाषा, भिन्न भोजन, भिन्न—व्यवहार, भिन्न धर्म, भिन्न संस्कृति, भिन्न साहित्य, भिन्न जीवन, भिन्न दर्शन, भिन्न शरीर, भिन्न माता—पिता, भिन्न देश-काल, भिन्न आचार-विचार, भिन्न आत्मा, भिन्न स्थिति। इस भिन्नता में अभिन्नता खोजना अतीव कष्टसाध्य कार्य है। सभी बाहरी भेदों की अपेक्षा भीतरी एकता अभेद-अखण्ड है। इसमें अणु भर भी सन्देह नहीं है। सबकी आत्मा एक जैसी है, सभी सुख चाहते हैं, सभी को अपने प्राण प्रिय हैं इसलिए विश्व के व्यक्ति युद्ध से अयुद्ध (शांति) की ओर चलकर ही ‘जियो और जीने दो’ या ‘परस्परोपग्रहो जीवानां’ सूत्र का संकेत बनकर ही विश्व की एक मानव संज्ञा सार्थक कर सकते हैं, अपने धर्म-कर्म सार्थक कर सकते हैं।
कभी जीवात्मा को जीवन यात्रा में यह मति भ्रम हो जाता है कि मैं अन्य जनों के लिए बहुत कुछ करता हूँ, मेरे ही कारण वे इतने सुखी-दुखी हैं, अर्थात् मैं उन्हें सुख-दुख देता रहा हूँ। यह भाव पिता-पुत्र, स्वामी-सेवक, पति-पत्नी, अधिकारी-अधीनस्थ में अहंभाव बढ़ाता है, अज्ञान का अन्धकार बढ़ाता है। आचार्यश्री कुन्दकुन्द ने इस दिशा में सूर्यसत्य यह कहा है कि सुख दुख भी निश्चय से अपने ही कर्मों के उदय से होते हैं।
जो अप्पणा दु मण्ण्दि दु:खिद सुहिदं करेमि सत्ते ति।
स मूढो अण्णाणी णाणी एत्तो दु विवरीदो।।
अर्थात् जो जीव अपने मन में ऐसा समझता है कि मैं इन जीवों को दु:खी या सुखी करता हूँ या कर सकता हूँ तो ऐसा विचार करने वाले जीव मूढ़ हैं, अज्ञानी हैं। ज्ञानी का विचार तो इसके विपरीत ही होता है अर्थात् वह अपने लिए अन्य का कर्त्ता नहीं मानता है। आगे उन्होंने कहा—अपने कर्मोदय के निमित्त से ही सब जीव सुखी या दुखी होते हैं, ऐसा प्रत्यक्ष देखने में आता है और तू उनको कर्म देता नहीं है तब तेरे द्वारा वे प्राणी कैसे सुखी-दुखी किए गये ? वे सब जीव तुझे कर्म देते नहीं हैं फिर उन्होंने तुझे कैसे सुखी-दुखी किया ? सभी अपने कर्मों के फल भोगते हैं। महाप्रभु आदिनाथ का जीवन कर्मफल चेतना का ज्वलन्त निदर्शन है। उनके गर्भ, जन्म, तप के समय स्वर्ग के देवता आए पर उनके आहार लाभ के प्रसंग में कोई सहायता नहीं कर सका, न चक्रवर्ती पुत्र, न अन्य अधीनस्थ।
‘‘मोहयति मोह्यतेऽनेनेति वा मोहनीयम्।’’ जो मोहित करता है या जिसके द्वारा मोहा जाता है वह मोहनीय कर्म है।
‘‘मोहनीयस्य का प्रकृति: ? मद्यपानवद्धेयोपादेयविचार-विकलता।’’ मोहनीय कर्म का क्या स्वभाव है ? मद्यपान के समान हेय-ज्ञान की रहितता अर्थात् अविवेक मोहनीय कर्म की प्रकृति कहलाती है।
‘‘मुह्ययते इति मोहनीयम्’’ जो मोहित करे सो मोहनीय कर्म, इसका अर्थ यह नहीं है कि जो मोहित करे अर्थात् शराब, धतूरा, स्त्री आदि मोहनीय कर्म हैं। यहाँ तो मोहनीय नामक द्रव्यकर्म की प्रमुखता अपेक्षित है। आठ द्रव्यकर्मों में मोहनीय कर्म ही संसार परिभ्रमण का मूल कारण है।
षट्खण्डागम की छठी पुस्तक में कहा है-
‘‘मोहनीयस्स कम्मस्स अट्ठावीस पयडीओ।’’ जं तं मोहणीयं कम्मं तं दुविहं दंसणमोहणीयं चारित्तमोहणीयं चेव।। मोहनीय कर्म के अट्ठाइस भेद हैं। दो भेद भी हैं—दर्शनमोहनीय व चारित्रमोहनीय।
गोम्मटसार कर्मकाण्ड जीव प्र. टीका में मोहनीय के चार भेद बताये हैं—दर्शनमोहनीय, चारित्रमोहनीय, कषाय वेदनीय, नोकषाय वेदनीय।
‘‘पज्जवट्ठियणए पुण अवलंविज्जमाणे मोहणीयस्स असंखेज्जलोगमेत्तीयो होंति, असंखेज्जलोगमेत्त-उदयट्ठा—णण्णहीणुववत्तीदो।’’ पर्यायार्थिक नय का अवलम्बन करने पर तो मोहनीय कर्म की असंख्यात लोकमात्र शक्तियाँ हैं क्योंकि, अन्यथा उसके असंख्यातलोक मात्र उदयस्थान बन नहीं सकते। अर्थात् मोहनीय कर्म के इस अपेक्षा से असंख्यात भेद भी हैं।
‘‘दर्शनमोहस्य तत्त्वार्थाश्रद्धानम्’’। तत्त्वार्थ का श्रद्धान न होने देना दर्शन, रुचि, प्रत्यय, श्रद्धा और स्पर्शन ये सब एकार्थवाचक हैं। आप्त या आत्मा में, आगम और पदार्थों में रुचि या श्रद्धान को दर्शन कहते हैं। उस दर्शन को जो मोहित करता है, विपरीत करता है, अविश्वास करता है अथवा अश्रद्धान करता है उसे दर्शनमोहनीय कर्म कहते हैं या जिस कर्म के उदय से अनाप्त में आप्तबुद्धि और अपदार्थ में पदार्थबुद्धि होती है अथवा आप्त, आगम और पदार्थों में श्रद्धान की अस्थिरता होती है; अथवा दोनों में भी अर्थात् आप्त-अनाप्त, आगम-अनागम में और पदार्थ-अपदार्थ में श्रद्धा होती है, वह दर्शनमोहनीय कर्म कहलाता है।
दर्शनमोहनीय के भेद—‘‘जं तं दंसणमोहणीयं कम्मं तं बंधादो एयविहं, तस्स सम्मत्तं पुण तिविहं सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं चेदि।’’
दर्शनमोहनीय बन्धकाल में एक प्रकार का होता है तथा सत्वावस्था में तीन प्रकार का होता है।
(१) मिथ्यात्व प्रकृति—जिसके उदय से जीव सर्वज्ञप्रणीत मार्ग में विमुख, तत्त्वार्थों के श्रद्धान करने में निरुत्सुक हिताहित का विचार करने में असमर्थ ऐसा मिथ्यादृष्टि होता है वह मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय है।
(२) सम्यक्त्व प्रकृति—वही मिथ्यात्व परिणाम जब शुभ परिणामों के कारण अपने स्वरस (विपाक) को रोक देता है और उदासीन रूप से अवस्थित रहकर आत्मा के श्रद्धान को नहीं रोकता है वह सम्यक्त्व प्रकृति कहलाती है। इसका वेदन करने वाला सम्यग्दृष्टि कहलाता है।
(३) सम्यग्मिथ्यात्व—वही मिथ्यात्व प्रक्षालन विशेष के कारण क्षीणाक्षीण मदशक्ति वाले कोदों और ओदन के उपयोग से प्राप्त हुए मिश्र परिणाम के समान उभयात्मक परिणाम होता है तब सम्यग्मिथ्यात्व कहलाता है।
दर्शनमोहनीय सत्वावस्था में तीन प्रकार के कोदों के समान (दला जाने वाला, अर्द्ध चावल और कोदों इन तीन अवस्था को प्राप्त होता है उसी प्रकार) दर्शनमोहनीय भी तीन अवस्था को प्राप्त हो जाता है।
‘‘पापक्रियानिवृत्तिश्चारित्रम्।’’ ‘‘घादिकम्माणिपावं। तेिंस किरिया मिच्छत्ता संजमकसाया। तेसिमभावो चारित्तं। तं मोहेइ आवारेदि तित्त चारित्तमोहणीयं।’’—पापरूप क्रियाओं की निवृत्ति को चारित्र कहते हैं। घातिया कर्मों को पाप कहते हैं। मिथ्यात्व, असंयम और कषाय, ये पाप की क्रियाएँ हैं। इन पाप क्रियाओं के अभाव को चारित्र कहते हैं। उस चारित्र को जो मोहित करता है अर्थात् आच्छादित करता है, उसे चारित्रमोहनीय कहते हैं अर्थात् राग का न होना, असंयम का न होना चारित्र है।
‘‘चरति चर्यतेऽनेनेति चरणमात्रं वा चारित्रं, तन्मोहयति मुह्यतेऽनेनेति चारित्रमोहनीयं।’’
चारित्रमोहनीय के दो भेद हैं—(१) कषाय वेदनीय (२) अकषायवेदनीय (नोकषायवेदनीय)। कषाय वेदनीय १६ भेद वाला है और नोकषाय वेदनीय ९ भेदों वाला है।
कषाय वेदनीय—‘‘जस्स कम्मस्स उदएण जीवो कसायं वेदयदि तं कम्मं कसायवेदणीयं णाम।’’—जिस कर्म के उदय से जीव कषाय का वेदन करता है वह कषायवेदनीय है।
अकषाय वेदनीय—‘‘जस्स कम्मस्स उदएण जीवो णो कसायं वेदयदि तं णोकसायवेदणीयं णाम।’’—जिस कर्म के उदय से जीव नोकषाय का वेदन करता है वह नोकषाय (अकषाय) वेदनीयकर्म है।
पढमादिया कसाया सम्मत्तं देससयलचारित्तं।
जहखादं घादंति य गुणणामा होंति सेसावि।।
पहली अनन्तानुबन्धी कषाय सम्यक्त्व को घातती है, दूसरी अप्रत्याख्यान कषाय देशचारित्र को , तीसरी प्रत्याख्यान कषाय सकलचारित्र को और चौथी संज्वलन कषाय यथाख्यातचारित्र को घातती है। इसके गुणों के अनुसार ही इनके गुणों के अनुसार ही इनके नाम भी हैं।
अनन्त संसार का कारण होने के कारण से मिथ्यात्व अनन्त है, उसके साथ जो सम्बन्ध करे वह अनन्तानुबन्धी है। अप्रत्याख्यान ईषत् संयम-देशसंयम को घातती है। प्रत्याख्यान सकलसंयम नहीं होने देती तथा संज्वलन-‘‘सम’’ एकरूप होकर जो संयम के साथ प्रकट रहे वह संज्वलन कषाय है। इसी प्रकार नोकषाय और ज्ञानावरणादि भी सार्थक नाम वाले हैं।
अंतोमुहुत्त पक्खं छम्मासं संखऽसंखणंतभवं।
संजलणमादियाणं वासणकालो दु णियमेण।।
संज्वलन का वासनाकाल अन्तर्मुहूर्त है, प्रत्याख्यानकषाय का एक पक्ष, अप्रत्याख्यान का छह महिना तथा अनन्तानुबन्धी का संख्यात-असंख्यात और अनन्तभव है।
वासनाकाल—उदय का अभाव होते हुए भी कषाय का संस्कार जितने काल तक रहे, उसका नाम वासनाकाल है। कषायों के भेद उदाहरण सहित, तारतम्यता के साथ आचार्यश्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती बतलाते हैं—
सिलपुढविभेदधूलीजलराइसमाणओ हवे कोहो।
णारयतिरियणरामरगईसु उप्पायओ कमसो।।
क्रोध चार प्रकार का होता है
(१) अनन्तानुबन्धी क्रोध—पत्थर की रेखा के समान,
(२) अप्रत्याख्यान क्रोध—पृथ्वी रेखा के समान,
(३) प्रत्याख्यान क्रोध—धूलि रेखा के समान और
(४) संज्वलन क्रोध—जल रेखा के समान। ये चारों ही क्रोध क्रमश: नरक, तिर्यक्, मनुष्य तथा देवगति में उत्पन्न करने वाले हैं। शक्ति की अपेक्षा क्रोध के चार भेद इस प्रकार हैं—उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, अजघन्य और जघन्य।
सेलट्ठिकट्ठवेत्ते णियभेएणुहरंतओ माणो।
णारयतिरियणरामरगईसु उप्पायओ कमसो।।
मान कषाय चार प्रकार की होती है—
(१) अनन्तानुबन्धी मान—पत्थर के समान,
(२) अप्रत्याख्यान मान—हड्डी के समान,
(३) प्रत्याख्यान मान—काठ के समान,
(४) संज्वलन मान—बेंत के समान। ये चारों ही कषाय क्रमश: नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य व देवगति की उत्पादक हैं।
वेणुवमूलोरब्भयसिगे गोमुत्तए य खोरप्पे।
सरिसी माया णारयतिरियणरामरगईसु खिवदि जियं।।
माया कषाय भी चार प्रकार की है—
(१) अनन्तानुबन्धी माया—बांस की जड़ के सदृश,
(२) अप्रत्याख्यान माया—मेढ़े के सींग सदृश,
(३) प्रत्याख्यान माया—गो मूत्र के सदृश व
(४) संज्वलन माया—खुरपा के सदृश। ये क्रमश: नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति को दिलाने वाली है।
किमिरायचक्कतणुमलहरिद्दराएण सरिसओ लोहो।
णारयतिरिक्खमाणुसदेवेसुप्पायओ कमसो।।
लोभ कषाय भी चार प्रकार का है—
(१) अनन्तानुबन्धी लोभ-किृमिराग के समान,
(२) अप्रत्याख्यान लोभ—चक्रमल (रथ आदि के पहियों के भीतर का ओंगन),
(३) प्रत्याख्यान लोभ—शरीर के मल के सदृश, और
(४) संज्वलन—हल्दी के रंग के समान। ये चारों लोभ कषायें भी तारतम्य के साथ क्रमश: नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवगति की उत्पादक हैं।
‘‘केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य’’। अर्थात् केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव इनका अवर्णवाद दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव है।
‘‘मार्गसंदूषणं चैव तथैवोन्मार्गदेशनम्’’। अर्थात् सत्य मोक्षमार्ग को दूषित ठहराना और असत्य मोक्षमार्ग को सच्चा बताना, ये भी दर्शनमोह के कारण हैं।
‘‘स्वपरकषायोत्पादनं तपस्विजनवृत्तदूषणं संक्लिष्टलिङ्गव्रतधारणादि: कषायवेदनीयस्यास्रव:।’’
स्वयं कषाय करना, दूसरों में कषाय उत्पन्न करना, तपस्वीजनों के चारित्र में दूषण लगाना, संक्लेश को पैदा करने वाले िंलग (वेष) और व्रत को धारण करना आदि कषायवेदनीय के आस्रव हैं।
‘‘जगदनुग्रहतन्त्रशीलव्रतभावितात्मतपस्विजनगर्हण—धर्मावध्वंसन—तदन्तरायकरणशीलगुणदेशसंयत-विरति—प्रत्यावन—मधुमद्यमांसविरतचित्तविभ्रमापादन—वृतसंदूषण—संकष्टिंलगव्रतधारणस्वपर-कषायोत्पादनादिलक्षण: कषायवेदनीयस्यास्रव:।’’
जगदुपकारी शीलव्रती तपस्वियों की निन्दा, धर्मध्वंस, धर्म में अंतराय करना, किसी को शीलगुण देशसंयम और सकल संयम से च्युत करना, मद्य-मांस आदि से विरक्त जीवों को उससे बिचकाना, चारित्रदूषण, संक्लेशोत्पादक व्रत और वेषों का धारण, स्व और पर में कषायों का उत्पादन आदि कषायवेदनीय के आस्रव के कारण हैं।
१. हास्य वेदनीय—उत्प्रहास, दीनतापूर्वक हँसी, कामविकारपूर्वक हँसी, बहुप्रलाप तथा हर एक की हँसी मजाक करना हास्य वेदनीय के आस्रव के कारण है।
२. रति—विचित्र क्रीड़ा, दूसरे के चित्त को आकर्षित करना, बहुपीड़ा, देशादि के प्रति अनुत्सुकता, प्रीति उत्पन्न करना।
३. अरति—रति विनाश, पापशील व्यक्तियों की संगति, अकुशल क्रिया को प्रोत्साहन देना आदि।
४. शोक—स्वशोक, प्रीति के लिए पर का शोक करना, दूसरों को दु:ख उत्पन्न कराना, शोक से व्याप्त का अभिनन्दन आदि शोकवेदनीय के आस्रव के कारण है।
५. भय—स्वयं भयभीत रहना, दूसरों में भय उत्पन्न करना, निर्दयता, त्रास आदि भयवेदनीय के आस्रव के कारण हैं।
६. जुगुप्सा—धर्मात्मा, चतुवर्ण, विशिष्ट वर्ग, कुल आदि की क्रिया और आचार में तत्पर पुरुषों से ग्लानि करना, दूसरों की बदनामी करने का स्वभाव आदि।
७. स्त्रीवेद—अत्यन्त क्रोध के परिणाम, अतिमान, अत्यन्त ईर्ष्या, मिथ्याभाषण, छलकपट, तीव्रराग, परांगनागमन, स्त्रीभावों में रुचि आदि।
८. पुंवेद—मन्द क्रोध, कुटिलता का न होना, अभिमान न होना, निर्लोभ भाव, अल्पराग, स्वदार संतोष, ईर्ष्या रहित भाव, स्नान, गन्ध, माला, आभरण आदि के प्रति आदर न होना आदि।
९. नपुंसकवेद—प्रचुर क्रोध, मान, माया, लोभ, गुप्त इन्द्रियों का विनाश, स्त्री-पुरुषों में अनङ्ग क्रीडा का व्यसन, शीलव्रत गुणधारी और दीक्षाधारी पुरुषों को बिचकाना, परस्त्री पर आक्रमण, तीव्रराग, अनाचार आदि नपुसंक वेद के आस्रव के कारण हैं।
तात्पर्य यह है कि सर्व कर्मों में मोहनीय कर्म प्रधान है। समस्त दु:खों की प्राप्ति का निमित्तकारण होने से मोह को ‘‘अरि’’ अर्थात् शत्रु कहा है क्योंकि समस्त कर्म मोह के आधीन हैं। मोह के बिना शेष कर्म अपने-अपने कार्य की उत्पत्ति में व्यापार करते हुए नहीं पाये जाते हैं जिससे कि वे स्वतन्त्र समझे जायें इसलिए सच्चा ‘अरि’ तो मोहनीय कर्म है किन्तु ऐसा माने कि मोह आधीन अन्य कर्म हैं तो मोह शत्रु के नष्ट होने पर, जन्म-मरण की परम्परा रूप संसार के उत्पादन की सामर्थ्य शेष कर्मों में नहीं रहने से उनका सत्त्व असत्त्व के समान हो जाता है।
बध्यते मुच्यते जीव, समम निर्मम क्रमात्।
तस्मान् सर्वप्रयत्नेन, निर्मम इति िंचतयेत्।।
जीव राग के द्वारा बँधता है और राग न करने से छूटता है इसलिए प्रयत्नपूर्वक राग का त्याग करना चाहिए। मनुष्य जितना बाह्य पदार्थों से राग-द्वेष-मोह करना छोड़ेगा, उतना-उतना ही सुखी होता जायेगा। आचार्य अमितगति मोहनीय कर्म को क्षय करने के लिए कहते हैं—
न संति बाह्या: मम केचनार्था: भवामि तेषां न कदाचनाहं।
इत्थं विनिश्न्चित्य विमुच्य बाह्यं, स्वस्थ: सदा त्वं भव भद्र मुक्त्यै।।
जो मनुष्य मोहनीय कर्म के उदय से मान के वशीभूत होकर देव, शास्त्र, गुरु का अवर्णवाद करता है वह सत्तर कोड़ाकोड़ी वर्ष की अवधि का कर्मबन्ध कर लेता है अर्थात् यदि व्यक्ति सुख एवं सद्गति चाहता है तो उसे बाह्य पदार्थों के प्रति आसक्ति का त्याग करके व्रत, नियम, दान, दया, पूजन आदि शुभोपयोग में जीवन बिताना चाहिए।