सुधम्मे इत्यादि। श्रीगौतमस्वामी—इष्टोपयोगसंबोधनेन भव्यान्संबोधयन् सुधम्मे इत्याद्याह१।। आउस्संतो।। आयुष्मन्तो भव्या मे मया सुदं श्रुतम्। इह भरतक्षेत्रे खलु स्फुटं भयवदा भगवताऽिंहसादीनि व्रतानि सम्मं धम्मोति सम्यग्धर्म इति—उवदेसिदाणि उपदिष्टानि। तच्छ्रवणं च मम तत्स्वरूपप्रतिपादकाद्भगवतीयदिव्यध्वने: सकाशात्संजातम्। आयुष्मन्त इति च संबोधनं सर्वेषामिष्टम्। तद्धर्मत्वप्ररूपण उपयोगे च व्रतानां हि धर्मत्वप्ररूपणमायुष्मतामेव सफलम्, चिरं तै: स्वयं तदनुष्ठानस्यान्येषां तत्प्रतिपादनस्य च सम्भवात्। नेतरेषां तद्विपर्ययात्। कथम्भूतेन भगवता ? समणेण।। श्रमणेन परमयतिना। किन्नाम्ना? महाइमहावीरेण।। महातिमहावीरनाम्ना। पुनरपि िंकविशिष्टेन ? महाकस्सवेण।। महांश्चासौ काश्यपश्च काश्यपगोत्रस्तेन। तथा।। सव्वण्णुणा१।। सर्वज्ञेन केवलज्ञानेन निखिलार्थपरिज्ञानवता।। सव्वलोयदरसिणा२।। लोक इत्युपलक्षणमलोकस्य। तेन केवलदर्शनेन लोकालोकदर्शिनेति गम्यते। अथ ज्ञानदर्शनयो: को विशेष:? सविशेषनिर्विशेषवस्तुग्रहण-कृतोऽनयोर्विशेष:। उक्तं च—
जं सामण्णं गहणं भावाणं णेव कट्टुमायारं।
अविसेसिऊण अट्ठे दंसणमिदि भण्णदे समए।।
पुनरपि िंकविशिष्टेन तेन ? जाणंता पस्संता।। जानता पश्यता च। काम्? आगिंद गिंद च।। कर्मवशादिह क्षेत्रे क्षेत्रान्तरादागतिमेतस्माच्च क्षेत्रात्क्षेत्रान्तरे गतिम्। कस्य ? (लोयस्स।।) लोकस्य प्राणिगणस्य। कथंभूतस्य? सदेवासुरमाणुसस्स।। देवासुरमानुषसहितस्य त्रैलोक्योदरवर्तिन: प्राणिगणस्येत्यर्थ:। देवशब्देन ह्यूर्ध्वलोकवर्तिन प्राणिगणस्योपलक्षणम्। मानुषशब्देन तु तिर्यग्लोकवर्तिन:। असुरशब्देन पुनरधोलोकवर्तिन इति। तथा। चवणोववादं।। च्यवनं। मृत्युमुपेत्य गत्वोपपद्यते जायत इत्युपपादव्युत्पत्ति:। तदुभयलोकस्य जानता पश्यता।। तथा। बंधं।। कर्मणां श्लेषम्।। मोक्खं।। मोक्षं देशत: साकल्येन वा कर्मनिर्जराम्।। इड्ढिं।। चक्रवर्तिसौधर्मादीनामृद्धिम्।। ठििंद।। आयुषां स्थितिम्।। जुिंद।। द्युिंत तेज:।। अणुभागं।। कर्मविपाकं कर्मणां फलदानसामर्थ्यम्।। तक्कं।। तर्कम्। विचिन्तितार्थं तर्कशास्त्रं वा।। कलं।। द्वासप्ततिकलां गणितं वा।। मणो।। परकीयं चित्तम्।। माणसियं।। मानसिकं मनश्चेष्टितम्।। भुत्तं।। पूर्वमनुभूतम्।। कयं।। पूर्वकृतं।। पडिसेवियं।। पुन: सेवितं।। आइकम्मं।। कर्मभूम्यनुप्रवेशे प्रथमत: प्रवृत्तमसिमषिकृष्यादिकं कृत्रिमं कर्म।। अरहकम्मं।। अरह:कर्म प्रकटं कर्म। अकृत्रिमं द्वीपसमुद्रादि, तस्य सर्वदाऽतिरोहिततया प्रकटत्वात्। अर्हतो वा कर्मानुष्ठानं ‘अरहकम्मं।। सव्वलोए।। त्रिचत्वारिंशदधिकशतत्रयरज्जुपरिमाणे लोके।। सव्वजीवे।। सर्वजीवान्। सव्वभावे।। सर्वभावांस्तत्पर्यायान्।। सव्वं समं।। आगत्यादिकं सर्वभावपर्यन्तमेतत्सर्वं समं युगपज्जानता पश्यता।। इत्थंभूतेन भगवता धर्मोपदेशार्थमिह खलु विहरमाणेण विहरता। केषां तानि धर्मोपदिष्टानि ? समणाणं।।मुनीनां। यानि चोक्तप्रकारेण भगवता।। पंचमहव्वयाणि।। पंचमहाव्रतानि।। राइभोयणवेरमणछठ्ठाणि।। विरमणं व्यावृत्ति:। विरमणमेव वैरमणं। प्रज्ञादित्वात्स्वार्थिकोऽण्। रात्रौ भोजनं रात्रिभोजनं। तस्माद्विरमणं व्यावृत्ति:। तत् षष्ठं येषु तानि रात्रिभोजनवैरमणषष्ठानि।। सभावणाणि।।सह भावनाभि: पंचविंशतिप्रकाराभिर्वर्तमानानि।। समाउगपदानि।। मातृकपदै: पंचसमितित्रिगुप्तिप्रतिपादकपदै: सह वर्तमानानि।। स-उत्तरपदाणि।। भावनापदमातृकपदेभ्योऽन्यानि पदान्युत्तरपदानि। तै: सह वर्तमानानि सम्यग्धर्मा इत्युपदिष्टानि। तेषां स्वरूपं तं जहेत्यादिना प्ररूपयति। तदुक्तविशेषणविशिष्टानां महाव्रतानां स्वरूपं यथा भगवता क्रमेणोपदिष्टं तथैव ग्रंथकार: प्रतिपादयति।। पढमे।। इत्यादिना पढमे (प्रथमे) पंचानां मध्य आद्ये।। महव्वदे।। महाव्रते। अभिसन्धिकृतो हि नियमो व्रतं। महच्च तद्व्रतं च महाव्रतं, साकल्येन विरतिसद्भावान् महद्भिरनुष्ठितत्वान्महाकार्यसंसाधकत्वाच्च महाव्रतमित्युच्यते। तस्मिन्।। पाणादिवादादो वेरमणं।। प्राणानामिन्द्रियादिदश—प्रकाराणामतिपातो व्यपरोपणं विनाशनं। तस्माद्विरमणं व्यावृत्ति: कर्तव्या। प्राणातिपातविरमणस्वरूपं प्रथमं महाव्रतमित्यर्थ:। एवं द्वितीये महाव्रते मृषावादतो वैरमणं, तृतीये महाव्रतेऽदत्तादानतो वैरमणं, चतुर्थे महाव्रते मैथुनाद्वैरमणं। मिथुनस्य कर्म मैथुनं स्त्रीपुरुषयो: कामोद्रेकात्सरागं चेष्टितं। तस्माद्वैरमणं। पंचमे महाव्रते परिग्रहाद्बाह्यादभ्यन्तराच्च वैरमणं। षष्ठेऽणुव्रते रात्रिभोजनाद्वैरमणं। कथमस्याणुव्रतत्वमिति चेत् , िंहसादिवदत्र साकल्येन विरतेरभावात्। रात्रावेव हि भोजननिवृत्तिर्न पुनर्दिवसे, तत्र यथाकालं भोजने प्रवृत्तिसंभवात्।। चेदि।। चशब्देनोक्तसमुच्चय:। इति शब्देन व्रतानां स्वरूपप्रतिपादनपरिसमाप्ति:।
श्री गौतमस्वामी इष्ट उपयोग रूप से बोधन द्वारा-भव्यों को संबोधित करते हुए सुधम्मे मे-‘सुदं मे’ इत्यादि रूप से कहते हैं-आउस्संतो! हे आयुष्मन्तों! हे भव्यों! ‘मे सुदं’ मैंने सुना है।इह-भरत क्षेत्र में खलु-स्पष्ट है कि मैंने सुना है। भयवदा-भगवान ने अिंहसा आदि व्रतों को सम्मं धम्मोति-समीचीन धर्म है ऐसा उवदेसिदाणि-उपदेश दिया है।
वह मेरा जो श्रवण है-सुनना है। वह उस धर्म के स्वरूप का प्रतिपादक है। वह मेरा श्रवण साक्षात् भगवान की दिव्यध्वनि से उत्पन्न है। साक्षात् भगवान की दिव्यध्वनि को सुनकर ही मैं कह रहा हूँ ऐसा अभिप्राय है।यहाँ ‘आयुष्मन्तों!’ यह जो संबोधन है वह सभी भव्यजीवों को इष्ट है क्योंकि सद्धर्म के प्ररूपण में और उस धर्म का उपयोग करने में तथा धर्मत्व की जो प्ररूपणा है वह आयुष्मान् जनों में ही सफल है, क्योंकि आयुष्मान् भव्य ही चिरकाल तक उस धर्म का अनुष्ठान कर सकेंगे और उस धर्म का प्रतिपादन कर सकेंगे, इतर अल्पजीवी नहीं, क्योंकि न तो अधिक दिन व्रतों को धारण ही कर सकते और न प्रतिपादन ही कर सकते हैं।
प्रश्न-जिन्होंने धर्म का प्रतिपादन किया है ‘वे भगवान वैâसे हैं’ या कौन हैं ?
उत्तर-वे ‘समणेण’-श्रमण हैं-परम यति हैं-नग्न दिगंबर मुद्राधारी हैं।
प्रश्न-उनका नाम क्या है ?
उत्तर-महाइमहावीरेण-‘महतिमहावीर’ उनका नाम है।
प्रश्न–पुन: वे किन विशेषणों से विशिष्ट हैं ?
उत्तर-महाकस्सवेण-महान् जो काश्यण गोत्र है उस काश्यपगोत्र में जन्में हैं-क्षत्रिय कुल में जन्में हैं। तथा वे सव्वण्णुणा-सर्वज्ञ हैं-केवलज्ञान के द्वारा समस्त पदार्थों को जानने वाले हैं। सव्वलोयदरसिणा-यहाँ ‘लोक’ पद उपलक्षण मात्र है अत: वे भगवान अलोक-अलोकाकाश को भी देखने वाले हैं-अपने केवलदर्शन के द्वारा लोकालोक को देखने वाले हैं ऐसा यहाँ जाना जाता है।
प्रश्न-यहाँ ज्ञान और दर्शन में क्या अन्तर है ?
उत्तर-इन दोनों में सविशेष और निर्विशेष वस्तु को ग्रहण करने वाला होना यही अंतर है। कहा भी है-
गाथार्थ-पदार्थों में विशेषता न करके-भेद न करके और उनके आकार को ग्रहण नहीं करके जो पदार्थों का सामान्य-सत्तामात्र (झलक मात्र) ग्रहण करना है वह जैन आगम में ‘दर्शन’ इस नाम से कहा गया है।
पुन: वे भगवान कैसे हैं ?
जाणंता पस्संता-वे भगवान जानते हुए और देखते हुए-
किनको जानते व देखते हुए ?
आगिंद गिंद च-आगति और गति को-कर्म के निमित्त से इस क्षेत्र में क्षेत्रांतर-भिन्न क्षेत्र से आना ‘आगति’ को और इस क्षेत्र से क्षेत्रांतर-भिन्न क्षेत्र में जाना ‘गति’ इनको जानते-देखते हुए।
ये आगति-गति किनकी हैं ?
(लोयस्स)-लोक की हैं-अर्थात् प्राणियों के समूह की हैं। ये लोक-प्राणिगण कौन-कौन से हैं ?
सेदवासुरमाणुसस्स-देव, असुर और मनुष्य सहित वह लोक है अर्थात् तीन लोक के अंदर रहने वाले सभी प्राणिगण इसमें आ जाते हैं। यहाँ देव शब्द से ऊर्ध्वलोकवर्ती प्राणिगण लिए गए हैं अर्थात् वैमानिक देव लिए गए हैं। यहाँ प्राणिगण शब्द उपलक्षण हैं। ‘मनुष्य’ शब्द से तिर्यग्लोकवर्ती-मध्यलोकवर्ती सभी प्राणिगण आ जाते हैं। इस मध्यलोक में मनुष्य, तिर्यंच व व्यंतर देव तथा ज्योतिषी देवगण भी आ जाते हैं। पुन: ‘असुर’ शब्द से अधोलोकवर्ती सभी प्राणिगण आ जाते हैं-इसमें भवनवासी व व्यंतर देव आ जाते हैं। तथा सातों नरक के नारकी व निगोद जीव भी आ जाते हैं।उसी प्रकार चवणोववादं-च्यवन-मृत्यु को प्राप्त करके उपपाद-जन्म लेना, ‘उपपद्यते इति उपपाद:’ इस व्याख्या से जो जन्म लेना है उसे ‘उपपाद’ कहते हैं। इन उभय लोक को जानते हुए-देखते हुए भगवान हैं। पुन:-बंधं-कर्मों के संश्लेष-संबंध को बंध कहते हैं। मोक्खं-मोक्ष अर्थात् एक देशरूप से कर्मनिर्जरा और संपूर्णरूप से कर्मों की निर्जरा हो जाना ‘मोक्ष’ है।
भावार्थ-अर्हंत अवस्था में घातिया कर्मों की निर्जरा अर्थात् घातिया कर्मों का नाश हो जाना यह एकदेश ‘मोक्ष’ हैं। पुन: संपूर्ण कर्मों की निर्जरा-अघातिया कर्मों से भी छूट जाना पूर्ण मोक्ष है-सिद्ध अवस्था प्राप्त कर लेना यही मोक्ष है।
इिंड्ढ-चक्रवर्ती और सौधर्मेंद्र आदि का वैभव प्राप्त करना ‘ऋद्धि’ है। ठििंद-आयु कर्म के सद्भाव को ‘स्थिति’ कहते हैं। जुिंद-द्युति का अर्थ तेज है। अणुभागं-कर्मों के विपाक को-कर्मों के फल देने की सामर्थ्य का नाम अनुभाग है। तक्कं-िंचतित अर्थ को तर्क कहते हैं अथवा न्याय शास्त्र को ‘तर्क’ कहते हैं। जैसे कि ‘प्रमेयकमलमार्तंड’, ‘अष्टसहस्री’ आदि ग्रंथों के ज्ञान को ‘तर्क’ कहते हैं। कलं-बहत्तर कलाएँ हैं अथवा गणित के ज्ञान को भी कला कहते हैं।
मणो-पर के चित्त को मन कहते हैं। माणसियं-मानसिक अर्थात् मन की चेष्टा-प्रवृत्ति को मानसिक कहते हैं। भुत्तं-पूर्व में अनुभूत को भुक्त कहते हैं। कयं-पूर्व में किये कार्य को कृत कहते हैं। पडिसेवियं-पु:सेवित-सेवन करने को प्रतिसेवित कहते हैं। आइकम्मं-कर्मभूमि के प्रवेश काल में-प्रारंभ में प्रथम ही प्रवृत्त असि, मषि आदि षट्क्रियाओं को, कृत्रिम-की जाने वाली क्रियाओं को आदिकर्म कहते हैं। अरहकम्मं-प्रगट कर्म-अकृत्रिम द्वीप, समुद्र आदि हैं, क्योंकि ये सदा काल तिरोहित नहीं होते हुए-अविर्भूत-प्रगट ही रहते हैं। वे ‘अरहकर्म’ हैं। अथवा अर्हंत भगवान के कर्म-क्रियाओं के अनुष्ठान को ‘अरहकर्म’ कहते हैं। इन सभी को जानते हुए, देखते हुए भगवान महावीर के द्वारा कथित मुनिधर्म को मैंने सुना है ऐसा संदर्भ है।
सव्वलोए-तीन सौ तेतालिस राजु प्रमाण ऐसे लोक में अर्थात् लोकाकाश-तीन लोक का प्रमाण तीन सौं तेतालिस (३४३ राजु) राजु है। यह राजु असंख्यातों योजनों का होता है ऐसे तीनों लोकों में सव्वजीवे-सभी जीवों को सव्वभावे-सर्वभावों को अर्थात् गति से लेकर सर्वभाव पर्यंत इन सभी को समं-एक साथ जानते और देखते हुए ऐसे सर्वज्ञ, सर्वदर्शी भगवान महावीर ने धर्म के उपदेश के लिए इहु-यहाँ भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में, विहरमाणेण-श्री विहार करते हुए उपदेश दिया है।
किनके लिए यह धर्मोपदेश दिया है ?
समणाणं-मुनियों के लिए इस प्रकार का उपदेश दिया है भगवान महावीर ने, क्या उपदेश दिया है ?
पंचमहव्वयाणि-पाँच महाव्रतों का उपदेश दिया है। राइभोयण-वेरमणछट्ठाणि-यहाँ विरमण का अर्थ व्यावृत्ति है, विरमण ही वैरमण है ऐसा ‘प्रज्ञादित्वात्स्वार्थिकाऽण् ‘‘सूत्र से स्वार्थ में ही अण् प्रत्यय होकर विरमण को वैरमण बन गया है। रात्रि भोजन से निरत होना रात्रि भोजन वैरमण कहलाता है यह छठा व्रत है अर्थात् रात्रि भोजन से विरत होना-रात्रि भोजन त्याग करना यह मुनियों के लिए छठा अणुव्रत कहलाता है। सभावणाणि-भावनाओं के साथ पच्चीस-भावनाओं से सहित मुनिधर्म का उपदेश प्रभु ने दिया है।
समाउगपदाणि-मातृका पदों के साथ मुनिधर्म है-यह मातृका पद-पाँच समिति व तीन गुप्ति आठ भेदरूप माना है। अर्थात् इन आठ को मातृका पद या आठ प्रवचनमाता कहते हैं इनसे सहित मुनिधर्म का उपदेश प्रभु ने दिया है। सउत्तर- पदाणि-भावना पद और मातृका पद से भिन्न पद उत्तरपद कहलाते हैं उनके साथ वर्तमान समीचीन धर्म का उपदेश दिया है।
तं जहा-इस तं जहा -तद्यथा इस पद से आगे इसी धर्म का-मुनियों के धर्म का उपदेश देते हैं। इन उपर्युक्त विशेषणों से विशिष्ट महाव्रतों के स्वरूप का जिस प्रकार भगवान महावीर ने क्रम से उपदेश दिया है वैसा ही ग्रंथकार श्री गौतम स्वामी प्रतिपादित करते हैं-
पढमे-इस प्रथम शब्द से पाँच महाव्रतों में जो प्रथम है, महव्वदे-महाव्रत है उसके विषय में कहते हैं-अभिप्रायपूर्वक किया गया-लिया गया नियम ही ‘व्रत’ कहलाता है और जो महान्-सर्वोत्कृष्ट व्रत है वह ‘महाव्रत’ है क्योंकि इसमें सम्पूर्ण प्रकार से विरति का सद्भाव है, तथा महापुरुषों के द्वारा ग्रहण किया गया होने से एवं महान्-मोक्ष कार्य का सम्यक् प्रकार से साधक होने से ‘महाव्रत’ कहे जाते हैं। उन व्रतों में-
पाणादिवादादो वेरमणं-प्राणों के-इंद्रिय आदि दश प्रकार के प्राणों के अतिपात-व्यपरोपण-विनाश करना, इन दश प्रकार के प्राणों के विनाश से विरत होना-व्यावृत्त होना चाहिये। यह प्राणातिपात विरमण स्वरूप प्रथम महाव्रत है यहाँ ऐसा अर्थ समझना अर्थात् जीवों की िंहसा का पूर्णरूपेण त्याग करना प्रथम अिंहसा महाव्रत है।
(विदिए महव्वदे मुसाावादादो वेरमणं, तिदिए महव्वदे अदिण्णदाणादो वेरमणं, चउत्थे महव्वदे मेहुणादो वेरमणं, पंचमे महव्वदे परिग्गहादो वेरमणं, छट्ठे अणुव्वदे राइभोयणादो वेरमणं चेदि।)
इसी प्रकार द्वितीय महाव्रत में ‘मृषावाद’-असत्य बोलने से विरत होना है, तृतीय महाव्रत में ‘अदत्तादान’-बिना दी हुई वस्तु को लेने से विरत होना है, चौथे महाव्रत में मैथुन सेवन से विरत होना है। यहाँ मिथुन-युगल स्त्री-पुरुष की क्रिया को मैथुन कहा है जो कि स्त्री-पुरुष में काम के उद्रेक से सराग चेष्टा-क्रिया है-काम के उद्वेक से भोग क्रिया है वह मैथुन कहलाता है। उससे विरत होना चौथा महाव्रत है। पाँचवें महाव्रत में परिग्रह से-बाह्य और अभ्यंतर परिग्रह से विरत होना-संपूर्ण परिग्रह का त्याग करना होता है ? छठे अणुव्रत में रात्रि भोजन से विरत होना है।
प्रश्न-इस छठे व्रत को अणुव्रत क्यों कहा है ?
उत्तर-क्योंकि िंहसा, असत्य आदि के समान इसमें संपूर्ण रूप से विरति का अभाव है। रात्रि में ही भोजन से निवृत्ति है-रात्रि में ही भोजन का त्याग है, दिवस में नहीं है, दिन में यथाकाल भोजन में प्रवृत्ति संभव है अर्थात् जिस प्रकार पाँचों पापों का हमेशा के लिए पूर्णतया त्याग करते हैं उस प्रकार इस छठे व्रत में रात्रि में ही आहार का त्याग करते हैं दिन में एक बार श्रावकों द्वारा दिए गए नवधाभक्ति पूर्वक आहार को ग्रहण करते हैं इसीलिए इस छठे रात्रिभोजन त्याग को अणुव्रत यह संज्ञा है, ऐसे श्री गौतमस्वामी के वचन हैं अत: यह छठा व्रत भी अनादि निधन-शाश्वत व्रत है।
चेदि-च इति-यहाँ च शब्द से छहों व्रतों का समुच्चय है और ‘इति’ शब्द से व्रतों के स्वरूप के प्रतिपादन की समाप्ति है।
ये दण्डकसूत्र श्री गौतमस्वामी के मुखकमल से निकले हुये हैं न कि सामान्य मुनियों के, यह समाधान भी टीकाकार श्रीप्रभाचंद्राचार्य ने किया है।