‘‘पढमं ताव सुदं में आउस्संतो।’’ हे आयुष्मन्तों भव्यों ! मैंने प्रथम ही सुना है। क्या सुना है ? ‘‘ गिहत्थधम्मं’’ गृहस्थ धर्म सुना है। किनसे सुना है ? ‘‘ भयवदा महदिमहावीरेण’’ भगवान् महति महावीर के श्रीमुख से सुना है। वे भगवान् महावीर वैâसे हैं ? ‘‘समणेण महाकस्सवेण सवण्हाणेण सव्वलोयदरसिण।’’ जो श्रमण हैं, महाकश्यप गोत्र में जन्मे हैं, सर्वज्ञानी हैं और सर्वदर्शी हैं ऐसे भगवान् महावीर ने उपदेश दिया है और हमने सुना है। किसके लिये उपदेश दिया है ? ‘‘सावयाणं सावियाणं खुड्डयाणं खुड्डीयाणं कारणेण।’’ श्रावक और श्राविकाओं के लिये तथा क्षुल्लक और क्षुल्लिकाओं के लिए उपदेश दिया है। क्या उपदेश दिया है ? ‘‘पंचाणुव्वदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि चत्तारि सिक्खावदाणि बारसविहं गिहत्थधम्मं सम्मं उवदेसिदाणि।’’ पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ऐसे बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म का सम्यक् उपदेश दिया है। श्री गौतम स्वामी जो भगवान् महावीर स्वामी के प्रथम गणधर हुये हैं। उन श्री गौतमस्वामी के द्वारा बनाये गये सूत्ररूप प्रतिक्रमण पाठ आज उपलब्ध हैं जिन्हें मुनि, आर्यिकायें और क्षुल्लक क्षुल्लिकायें तथा व्रती श्रावक वर्ग प्रतिदिन पढ़ते हैं । ऐसे यतियों का और श्रावकों का दैवसिक रात्रिक प्रतिक्रमण पाठ तथा पाक्षिक प्रतिक्रमण नाम से प्रसिद्ध पाक्षिक प्रतिक्रमण मौजूद है। जिसमें प्राकृत के जितने भी दण्डक पाठ व सूत्रपाठ हैं वे सब श्री गौतमस्वामी द्वारा रचित हैं। यह बात टीकाकार श्री प्रभाचन्द्राचार्य ने कही है तथा अन्य भी आचार्यों ने इन प्रतिक्रमण दण्डक को श्री गौतमस्वामी रचित ही माना है। वे गौतम स्वामी उस पाक्षिक यतिप्रतिक्रमण में उपर्युक्त पंक्तियों को कह रहे हैं कि— ‘‘हे आयुष्मन्तों! मैंने सुना है महाकश्यप गोत्रीय, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, श्रमण भगवान् महावीर ने श्रावक, श्राविका, क्षुल्लक और क्षुल्लिका इनके लिये पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत ऐसे बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म का सम्यक् उपदेश दिया है।’’ यहाँ पर ये पंक्तियाँ बहुत ही महत्त्व की हैं क्योंकि श्रीगौतमस्वामी मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय इन चारों ज्ञान से सहित थे। बुद्धि ऋद्धि आदि सात प्रकार की ऋद्धियों से समन्वित थे। जिन्होंने कुछ दिन कम तीन वर्ष तक बराबर श्री महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि को सुना था तथा जिन्होंने स्वयं ही ग्यारह अंग और चौदह पूर्वरूप से ग्रन्थ रचना की थी ऐसे महान् गणधर पूर्ण प्रामाणिक श्री गौतम स्वामी गौरवपूर्ण शब्दों मेें स्वयं कह रहे हैं कि ‘‘मैंने सुना है’’ तथा अतीव कोमल और प्रिय शब्दों में भक्तों को संबोधित करते हुए कह रहे हैं कि ‘‘हे आयुष्मन्तों! मैंने सुना है।’’ इन शब्दों से श्री गणधर देव गृहस्थ धर्म को भगवान् महावीर द्वारा कथित सिद्ध कर रहे हैं, जो कि बारह व्रत रूप है । इन बारह व्रतों में स्वयं गौतम स्वामी के शब्दों में ही आप उनके नाम देखिये— ‘‘तत्थ इमाणि पंचाणुव्वदाणि पढमे अणुव्वदे थूलयडे पाणादिवादादो वेरमणं, विदिए अणुव्वदे थूलयडे मुसावादादो वेरमणं, तदिए अणुव्वदे थूलयडे अदत्तादाणादो वेरमणं, चउत्थे अणुव्वदे थूलयडे सदारसंतोस परदारगमणवेरमणं कस्स य पुणु सव्वदो विरदी, पंचमे अणुव्वदे थूलयडे इच्छाकदपरिमाणं चेदि, इच्चेदाणि पंच अणुव्वदाणि।’’
उन बारह व्रतों में से पहले पाँच अणुव्रत हैं । पहले अणुव्रत में स्थूल रूप से प्राणी—हिंसा से विरति है। दूसरे अणुव्रत में स्थूल रूप से असत्य से विरति है। तीसरे अणुव्रत में स्थूल रूप से बिना दिये हुये परद्रव्य से विरति है। चौथे अणुव्रत में स्वदार संतोष है अर्थात् अपनी विवाहिता स्त्री में सन्तोष है और परस्त्री से विरती है इसीलिये यह स्थूल रूप से व्रत है अथवा किसी—किसी की सम्पूर्ण स्त्री मात्र से ही विरति है। पाँचवें अणुव्रत में अपनी इच्छा के अनुसार परिग्रह का परिमाण किया गया है। इसलिये इसमें भी परिग्रह का पूर्ण त्याग न होने से स्थूल रूप से विरति है। इसलिये ये पांच अणुव्रत कहलाते हैं। इनका विशेष विवरण इस प्रकार है कि पाप पाँच होते हैं । हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह। इनका एकदेश त्याग करना अणुव्रत है और इनका पूर्णतया त्याग कर देना महाव्रत है। यहाँ पर श्री गौतम स्वामी ने बहुत ही संक्षेप में अहिंसा अणुव्रत का लक्षण कर दिया है कि ‘‘स्थूल रूप से प्राणियों की हिंसा का त्याग करना।’’ श्री उमास्वामी आचार्य ने ‘‘प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा ’’ इस सूत्र में ऐसा कहा है कि प्रमाद के योग से प्राणियों के प्राणों का घात करना हिंसा है और घात न करना अहिंसा है । यह लक्षण एक देश से अणुव्रत में और पूर्ण रूप से महाव्रत में घटित हो जाता है। श्री समंतभद्र स्वामी ने स्थूल का भाव खोलते हुये अणुव्रत का लक्षण बिल्कुल स्पष्ट शब्दों में किया है, जिसका हिन्दी पद्य इस प्रकार है—
मन वचन काय को कृत कारित, अनुमति से गुणते नव होते। नव कोटि से संकल्प सहित, त्रस का जो घात नहीं करते ।। स्थूलरूप त्रस हिंसा से, वे विरत हुये अणुव्रत धरते। श्री गणधर देव उन्हीं के तो, श्रावक का पहला व्रत कहते ।।
मन, वचन, काय को कृत, कारित, अनुमोदना से गुणा करने पर नव भेद हो जाते हैं, जो इन नव कोटि से संकल्पपूर्वक— अभिप्रायपूर्वक त्रस जीवों का घात नहीं करते हैं वे त्रस हिंसा से विरत होने से स्थूल रूप से इस अहिंसाव्रत का पालन करते हैं । चूँकि उनके अभी पाँच प्रकार के स्थावर जीवों की हिंसा का त्याग नहीं है इसलिये ये अणुव्रती कहलाते हैं तथा जो त्रस और स्थावर सभी जीवों की हिंसा का त्याग कर देते हैं। उनका यही व्रत महाव्रत बन जाता है। ऐसे ही अन्य चार अणुव्रतों के विषय में श्रीसमंतभद्र स्वामी के अभिप्रायानुसार देखिये।
स्थूल झूठ नहिं आप स्वयं , बोले नहिं पर से बुलवावे। ऐसा भी सत्य न बोले जो, पर को विपदाकृत हो जावे ।। वह सत्यअणुव्रत को पाले, ऐसा गणधर मुनि कहते हैं। इस सत्यव्रतिक को सभी लोग, विश्वासपात्र ही कहते हैं।। अचौर्य अणुव्रत का लक्षण— परकीय वस्तु जो रखी हुई, या गिरी पड़ी या भूली हो । बिन दिये उसे नहिं खुद लेता, नहिं अन्य किसी को देता जो।। वह ही अचौर्य अणुव्रत पाले , वह सब जग का विश्वासी हो। परधन के त्यागरूप व्रत से, वह नवनिधियों का स्वामी हो।। ब्रह्मचर्य अणुव्रत का लक्षण— जो पापभीरु हो पर महिला से, कामभोग नहिं स्वयं करें । पर से दुश्चरित न करवावें, निजस्त्री में संतोष धरें।। वे ही कुशील त्यागी नर हैं, वे शील धुरन्धर व्रत धारें । महिलायें भी परपुरुष त्याग करके दो कुल यश विस्तारें ।। परिग्रह परिमाण व्रत का लक्षण— जो क्षेत्र वास्तु हीरण्य स्वर्ण, धन—धान्य दास—दासी होते। औ कुप्य भाण्ड ये दश परिग्रह, इनका जो परीमाण करते।। फिर उससे अधिक नहीं चाहें, परिग्रह परिमाण व्रती वे हैं । वे घर में रहकर संतोषी, अतएव सुखी भी वे ही हैं।।
प्रत्येक गृहस्थ को इन पाँच अणुव्रतों को ग्रहण करना चाहिये। इन पाँचों अणुव्रतों के पाँच—पाँच अतिचार माने गये हैं। अणुव्रती श्रावक का कत्र्तव्य है कि उन अतिचारों का भी त्याग कर देवे। जो गृहस्थ इन अणुव्रतों को धारण करता है, वह गृहस्थाश्रम में रहते हुये भी सदा सुखी संतोषी रहता है। राजनीति के नियमों का उल्लंघन न होने से उसके व्यापार, उद्योग आदि कार्यों में भी पूर्ण सफलता मिलती है। इस भव में यश और सुख को प्राप्त कर वह परलोक में भी स्वर्गादि के सुखों का अनुभव करता है। सिद्धांत ग्रन्थों का यह नियम है कि अणुव्रती नरक, तिर्यंच और मनुष्य गति में नहीं जाता है। नियम से देवगम्ति में ही जन्म लेता है। कहा भी है।— ‘‘अणुवदमहव्वदाइं ण लहइ देवाउगं मोत्तुं।’’ जिसके देवायु को छोड़कर अन्य आयु का बंध हो गया है वह मनुष्य अणुव्रत या महाव्रत को ग्रहण नहीं कर सकता है।
बारह व्रतों के अंतर्गत तीन गुणव्रतों का वर्णन करते हुये श्री गौतमस्वामी कहते हैं— ‘‘ तत्थ इमाणि तिण्णि गुणव्वदाणि, तत्थ पढमे गुणव्वदे दिसिविदिसि पच्चक्खाणं, विदिए गुणव्वदे विविधअणत्थदण्डादो वेरमणं, तदिए गुणव्वदे भोगोपभोगपरिसंखाणं चेदि, इच्चेदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि।’’ उन बारह व्रतों के अंतर्गत ये तीन गुणव्रत हैं । उनमें से पहले गुणव्रत में दिशा—विदिशाओं का प्रत्याख्यान (नियम) किया जाता है। दूसरे गुणव्रत में विविध प्रकार के अनर्थ-दण्ड से विरति होती है। तीसरे गुणव्रत में भोग—उपभोग वस्तुओं का परिसंख्यान—परिमाण किया जाता है। इस प्रकार ये तीन गुणव्रत हैं।
पुन: आगे चार शिक्षाव्रतों को कहते हैं— ‘‘तत्थ इमाणि चत्तारि सिक्खावदाणि, तत्थ पढमे सामायियं, विदिए पोसहोवासयं, तदिए अतिथिसंविभागो, चउत्थे सिक्खावदे पच्छिमसल्लेहणामरणं चेदि। इच्चेदाणि चत्तारि सिक्खावदाणि।’’ उन बारह व्रतों के अंतर्गत ये चार शिक्षाव्रत हैं। उनमें से प्रथम सामायिक शिक्षाव्रत है, दूसरा प्रोषधोपवास व्रत है, तीसरा अतिथिसंविभाग व्रत है और चौथा अंत में सल्लेखना मरण नाम का शिक्षाव्रत है, इस प्रकार ये चार शिक्षाव्रत हैं। श्रीकुन्दकुन्ददेव ने भी अपने चारित्रपाहुड़ ग्रन्थ में गुणव्रत और शिक्षाव्रतों के ये ही नाम कहे हैं। श्री उमास्वामी आचार्य और श्री समंतभद्र स्वामी ने इन सात व्रतों के क्रम में कुछ अंतर रखा है। यथा—‘‘दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोगपरिमाणातिथिसंविभागव्रतसंपन्नश्च।।२१।।’’ दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थदण्डविरति, ये तीन गुणव्रत हैं। सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोगपरिभोगपरिमाण और अतिथिसंविभाग ये चार शिक्षाव्रत हैं। श्री समंतभद्र स्वामी के शब्दों में अन्तर देखिये— ाqदग्व्रत, अनर्थदण्डव्रत और भोगोपभोगपरिमाण व्रत ये तीन गुणव्रत हैं। देशावकाशिकव्रत, सामायिकव्रत, प्रोषधोपवासव्रत और वैयावृत्य ये चार शिक्षाव्रत हैं। श्री उमास्वामी आचार्य और श्री समंतभद्र स्वामी ने इन बारह व्रतों का वर्णन करने के बाद अंत में सल्लेखना का वर्णन किया है। किन्तु श्री गौतमस्वामी ने दिग्व्रत—देशव्रत को एक में ही शामिल कर अतिथिसंविभाग को तृतीय शिक्षाव्रत में लेकर सल्लेखना को चतुर्थ शिक्षाव्रत में ही ले लिया है। विस्तृत रूप में गुणव्रतों का वर्णन करते हुये श्री समंतभद्र स्वामी कहते हैं— जो पाँच अणुव्रत रूपी मूलगुणों की वृद्धि करने वाले हैं और उन व्रतों को दृढ़ करने वाले हैं उन्हें ही गुणव्रत कहते हैं। दिग्व्रत का लक्षण करते हुये जो कहते हैं उसका पद्यानुवाद—
दश दिश की मर्यादा करके, जीवन पर्यंत नियम कर ले।
इसके बारह नहिं जाऊँगा, ऐसा निश्चित जो प्रण कर ले ।।
वह सूक्ष्म पाप से भी बचता , इस मर्यादा के बाहर में ।
जो जन इस दिग्व्रत का धारी , वह शांति लाभ करता जग में।।
दशों दिशाओं की सीमा करके जीवन भर उसके बाहर नहीं जाना। ‘मैं जीवन भर इस मर्यादा के बाहर नहीं जाऊँगा’ ऐसी प्रतिज्ञा कर लेना दिग्व्रत है। यह दिग्व्रती श्रावक मर्यादा के बाहर में सूक्ष्म पाप से भी बच जाता है। अत: घर में रहते हुये भी शांति लाभ करता है। समुद्र, नदी, वन, पर्वत, शहर या ग्राम आदि स्थानों द्वारा योजन या कोश प्रमाण से मर्यादा कर लेना। इस प्रकार चारों दिशाओं, चारों विदिशाओं और ऊपर—नीचे सुरंग आदि में कुछ सीमा निर्धारित कर लेना ही दिग्व्रत है। दिग्व्रती श्रावक के इस मर्यादा के बाहर अणुमात्र भी पाप नहीं लगता है अत: उस सीमा के बाहर उसके अणुव्रत महाव्रत रूप हो जाते हैं। प्रत्याख्यानावरण कषाय के मंदरूप हो जाने से उस जीव के चारित्रमोहरूप परिणाम मंद—मंद हो जाते हैं । यद्यपि उस दिग्व्रती श्रावक के ये प्रत्याख्यानावरण कषायें विद्यमान हैं, इनका अस्तित्व मौजूद है फिर भी मर्यादा के बाहर पाप का लेश न होने से उसके अणुव्रत महाव्रत सदृश हो जाते हैं। यह कथन उपचार से माना गया है। जो हिंसा आदि पाँचों पापों का पूर्ण रूप से त्याग कर देते हैं उनके प्रत्याख्यानावरण कषाय के नहीं होने से मात्र संज्वलन कषायें विद्यमान हैं अत: उन महाव्रती को छठा—सातवां गुणस्थान माना जाता है। उनके संयम का सद्भाव है किन्तु श्रावक के संयमासंयम का ही सद्भाव होने से उसका पाँचवां गुणस्थान ही रहता है, यह सिद्धांत का कथन है। देशव्रत या देशावकाशिक व्रत में कुछ काल के लिये दिशा— विदिशाओं की मर्यादा की जाती है अर्थात् दिग्व्रत में जीवन भर के लिये मर्यादा को किया जाता है किन्तु देश व्रत में कुछ दिन, महीना, वर्ष आदि के नियम से मर्यादा की जाती है। यहाँ पर श्री गौतमस्वामी ने देशव्रत को पृथक् नहीं लिया है अत: इनके इस प्रथम गुणव्रत में जीवन भर या कुछ—कुछ काल की मर्यादायें भी ली जा सकती हैं। द्वितीय गुणव्रत अनर्थदण्ड से विरति रूप है— श्री समंतभद्रस्वामी के अभिप्रायानुसार— जो अनर्थ अर्थात् बिना प्रयोजन ही दण्ड अर्थात् जीवों की हिंसा के कारण हों, उनसे विरति करना ही अनर्थदण्डविरति नाम का व्रत है। इसके ५ भेद हैं—
पापोपदेश औ हिंसा के , उपकरण दान अपध्यान तथा।
चौथा है दु:श्रुति नाम लहे, पंचम प्रमादचर्या विरथा।।
इस विध से पाँच अनर्थ दण्ड, जो सदा पाप आस्रव करते ।
त्रययोगों के दंण्डित कर्ता, मुनिगण इस विध से उच्चरते।।
पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दु:श्रुति और प्रमादचर्या ये पाँच अनर्थदण्ड हैं । इनमें सदा पाप का ही आस्रव होता रहता है। १. पापोपदेश अनर्थदण्ड के कई भेद हैं— तर्यक्वणिज्या—ाqतर्यंचों के व्यापार का उपदेश देना, क्लेशवणिज्या— दास—दासी आदि के क्लेशकारी उपदेश देना, हिंसोपदेश—ाqहंसा के कारणों का उपदेश देना, आरंभोपदेश—बाग लगाने— अग्नि जलाने आदि आरम्भ कर्मों का उपदेश देना, प्रलंभोपदेश—ठग विद्या, इन्द्रजाल आदि कार्यों का उपदेश देना। ये सब पापोपदेश अनर्थदण्ड है। इन सभी पापोपदेश से विरक्त होना, इनका त्याग कर देना, यह पहला अनर्थदण्ड त्याग व्रत है। २. हिंसादान— हंसा के कारणभूत फरसा, तलवार, कुदाली, अग्नि, शस्त्र, सींगी, विष, सांकल आदि वस्तुओं का दान देना हिंसादान नाम का अनर्थदण्ड है। ३. अपध्यान— पर के स्त्री, पुत्र आदि मर जावें, उनका अनिष्ट हो जाये, इनको कोई मार दे, काट दे, बांध दे, इनकी हार हो जाये, इत्यादि प्रकार से राग या द्वेष की भावना से अन्य के बारे में ऐसा चिंतवन करते रहना अपध्यान नाम का अनर्थदण्ड है। ४. दु:श्रुति— आरंभ, परिग्रह, साहस, मिथ्यात्व, राग, द्वेष, मद, काम—भोग और लोभ आदि से मन को मलिन करने वाले ऐसे शास्त्रों का या पुस्तकों का सुनना या पढ़ना अथवा पढ़ाना यह सब दु:श्रुति नाम का अनर्थदण्ड है। ५. प्रमादचर्या— पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति का बिना कारण ही आरम्भ करना अर्थात् बिना प्रयोजन ही भूमि खोदना, जल गिराना, अग्नि जलाना, हवा करना, व्यर्थ ही वनस्पति, अंकुर, वृक्ष आदि का छेदन—भेदन करना, व्यर्थ ही इधर—उधर घूमना या अन्य को घुमाना ये सब प्रमादचर्या नाम का अनर्थदण्ड है। इन सब अनर्थदण्डों का त्याग कर देना ही अनर्थदण्डविरति नाम का दूसरा गुणव्रत है। आगे तीसरे भोगोपभोग परिमाण व्रत को कहते हैं। तीसरा गुणव्रत भोगोपभोगपरिसंख्यान नाम का है, जिसका अर्थ भोग और उपभोग संबंधी वस्तुओं की मर्यादा करना। उनका विवरण स्वामी समंतभद्र के अनुसार देखिये—
परिग्रह परिमाण अणुव्रत में, जीवन भर नियम किया जो भी।
उसके अन्दर पंचेन्द्रिय के, विषयों का नियम करो फिर भी।।
यह रागासक्ति घटाने के, हेतू व्रत ग्रहण किया जाता ।
अतएव प्रयोजन है जितना, उतने को रख सब छुट जाता।।
पाँचवे परिग्रह परिमाण नामक अणुव्रत में जीवन भर के लिये जो सीमा कर ली गई है। राग की आसक्ति को घटाने के लिये उसी के भीतर पंचेन्द्रियों के विषयभूत पदार्थों का नियम करते रहना भोगोपभोग परिमाण व्रत कहलाता है। इस व्रत के ग्रहण करने के प्रयोजन से अतिरिक्त वस्तुओं का त्याग हो जाता है। यहाँ पहले भोग और उपभोग इन दोनों शब्दों का अर्थ कहते हैं—
जो भोगे जाकर छुट जाते, वे भोग शब्द से कहलाते ।
ये भोजन गंध माल्य आदि, जो पुन: भोग में नहिं आते।।
जिस वस्तु का नर भोग करे, अरु पुन: भोगने में आवे।
ऐसे वस्त्राभूषण आदि , उपभोग नाम जग में पावे।।
जो पदार्थ एक बार भोगने में आते हैं उन्हें भोग शब्द से कहा जाता है। ये भोजन, गंध, माला आदि पदार्थ हैं क्योंकि पुन: इनका उपभोग नहीं हो सकता है। इनसे अतिरिक्त जो वस्तुयें पुन:—पुन: भोगने में आती हैं ऐसे वस्त्र, आभूषण, आसन आदि उपभोग नाम से जाने जाते हैं। इस व्रत का वर्णन करते हुये आचार्य महोदय कहते हैं कि कुछ पदार्थ सर्वथा ही त्याग करने योग्य हैं—
त्रस जीव घात के त्याग हेतु, मधु मांस त्याग निश्चित करिये।
त्रसहिंसा तथा प्रमाद त्याग, हेतुक मदिरा भी परिहरिये।।
जिसने जिन चरण शरण ली है, वह श्रावक जिन आज्ञा पालें।
तीनों मकार ये भव—भव में, दुखदायी जीवन भर टालें।।
जिनके खाने में फल थोड़ा, स्थावर हिंसा बहुत बड़ी।
ऐसे मूली आलू आदिक, सब कंदमूल अदरक गीली।।
मक्खन औ निम्बपुष्प केतकि, के पुष्प आदि को तज दीजे।
इनके भक्षण से पाप अधिक, इसलिये व्रतिक जन मत लीजे।।
त्रसहिंसा से बचने के लिये शहद, अण्डे, मछली, मांस आदि तथा शराब इनका जीवन भर के लिये त्याग कर देना चाहिये। ये मद्य—मांस और मधु त्रसहिंसा के स्थान हैं, प्रमाद को बढ़ाने वाले हैं और प्रकृति को क्रूर— तामस बनाने वाले हैं। इसलिये जिसने जिनेन्द्रदेव के चरणों की शरण ले ली है ऐसा श्रावक इन तीनों मकारों का जीवनभर के लिये त्याग कर देता है। इनके अतिरिक्त कुछ ऐसी वस्तुयें हैं जिनमें त्रसजीवों की हिंसा तो नहीं है किन्तु स्थावर हिंसा अत्यधिक होती है। उन्हीं के बारे में जैनाचार्यों का ऐसा कहना है कि जिनके खाने में लाभ तो बहुत कम है स्वाद भी एक क्षण के लिये है किन्तु स्थावर हिंंसा बहुत ही अधिक है। ऐसे पदार्थ कंदमूल आदि हैं। मूली, आलू, अरवी, गाजर आदि। तथा गीली अदरक का निषेध करने से सूखी हुई सोंठ खाने का त्याग नहीं माना जाता है। उसी प्रकार से और भी वस्तुयें है जैसे मक्खन अर्थात् दही को बिलोकर निकाला गया मक्खन ४८ मिनट के बाद अभक्ष्य हो जाता है उसके अन्दर ही उसे तपाकर घी निकाल लेना चाहिये। अन्यथा उसमें अनंत संमूर्छन जीवों का उत्पाद माना जाता है। ऐसे ही नीम के फूल, केवड़ा के पूâल आदि भी अभक्ष्य हैं इनमें भी बहुत से अनंतकायिक जीव रहते हैं । इनके भक्षण करने से पाप ही पाप लगता है, लाभ और स्वाद कितना मात्र है ? अतएव व्रतिक श्रावकों को तो इन्हें सर्वथा ही छोड़ देना चाहिये। इनसे अतिरिक्त कुछ अनिष्ट और अनुपसेव्य पदार्थ हैं उनका भी त्याग आवश्यक है। जो पदार्थ भक्ष्य तो हैं किन्तु स्वास्थ्य के लिये अहितकर हैं, अपथ्य हैं ऐसे पदार्थ ही अनिष्ट कहलाते हैं तथा जो पदार्थ भले पुरुषों के सेवन योग्य नहीं हैं वे अनुपसे्रव्य कहलाते हैं। जैसे मूत्र आदि। इस प्रकार इन अनिष्ट और अनुपसेव्य पदार्थों का त्याग करना भी आवश्यक है। इस भोगोपभोग परिसंख्यान के विषय में श्री समंतभद्रस्वामी ने त्याग के दो प्रकार माने हैं— नियम और यम । मर्यादित काल तक किसी वस्तु का त्याग करना नियम कहलाता है और यावज्जीवन किया गया त्याग यम कहलाता है। भोजन, वाहन, शय्या, आसन, स्नान, गंध, माला, तांबूल, वस्त्र, आभूषण, कामभोग, संगीतश्रवण, गीत और नाटक आदि सभी भोगोपभोग सामग्री हैं। इनमें से सभी का या किसी एक, दो आदि विषयों का कुछ दिन की मर्यादा से नियम करना। जैसे कि आज दो बार ही भोजन करूँगा, दो दिन वाहन से यात्रा नहीं करूँगा,दो चार दिन पलंग पर नहीं सोउँâगा, इत्यादि प्रकार से इनमें से किसी का कुछ समय या दिन आदि के लिये त्याग कर देना नियम है। यह नियम विषयों की लालसा को कम करने के लिये ही किया जाता है। तथा भक्ष्य होते हुए भी किसी वस्तु का जीवन भर के लिये त्याग कर देना यम है जैसे नमक का जीवन भर के लिये त्याग कर देना आदि। जिन खाद्य पदार्थों पर फपॅुंदी लग जाती है वे भी अभक्ष्य हो जाते हैं जैसे कच्चे आम की लौंजी, भीगा हुआ गीला कत्था, आम के रस का आमवट, बासी साग—सब्जी आदि। उसी प्रकार से बड़ी, पापड़, मुंगौड़ी आदि भी चौबीस घण्टे के बाद अभक्ष्य माने गये हैं चूँकि इनमें संभूच्र्छन जीव उत्पन्न हो जाते है। ऐसे ही वर्षा ऋतु में पत्ती के साग भी नहीं लेना चाहिये। कच्चा दूध यदि अड़तालीस मिनट तक तपा लिया जाता है तो ठीक अन्यथा ४८ मिनट के बाद में वह अभक्ष्य हो जाता है। छना हुआ पानी ४८ मिनट तक ग्राह्य है पुन: अनछने के समान है। यदि छानकर उसमें लवंग , इलायची या कपूर डाल देते हैं तो वह छह घण्टे तक प्रासुक रहता है तथा गरम किया हुआ जल चौबीस घण्टे तक प्रासुक माना गया है। ऐसे ही वर्षा ऋतु में कुटे हुये हल्दी आदि मसालों में भी छोटी—छोटी लटे पड़ जाती हैं अत: इन कुटे हुये मसालों को दो—तीन दिन ही काम में लेना चाहिये। व्रतिक श्रावकों का तो यह सब कर्तव्य है ही , भाद्रपद में शुद्ध खान—पान करने वाले पुरुषों को और महिलाओं को भी इन उपर्युक्त बातों की जानकारी रखते हुये शुद्ध, सात्विक, प्रासुक भोजन—पान करना चाहिये।
‘‘चत्तारि सिक्खावदाणि तत्थ पढ़मे सामाइयं।’’ चार शिक्षाव्रत हैं उसमें सर्वप्रथम सामायिक शिक्षाव्रत है। इस व्रत का लक्षण स्वयं श्री गौतमस्वामी कहते हैं—
जणवयण धम्मचेइयपरमेट्ठिजिणालयाण ण्च्चिं पि। जं वंदणं तियाणं कीरइ सामाइयं तं खु ।।
जिनवचन, जिनधर्म, जिनचैत्य, पंचपरमेष्ठी और जिनमंदिर इनकी नित्य ही तीनों संध्याओं में वंदना करना इसी का नाम सामायिक है। अर्थात् अरहंत, सिद्ध , आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और जिनमंदिर इन्हें नवदेवता कहते हैं। प्रतिदिन तीनों कालों में वंदना करना ही सामायिक है। श्री गौतमस्वामी द्वारा जो चैत्यभक्ति है उसको सामायिक में पढ़ने का विधान है। उसमें मुख्य रूप से जिनचैत्य अर्थात् जिनप्रतिमा और जिनमंदिरों की वंदना है ही है, साथ ही उसमें पंचपरमेष्ठी तथा जिनधर्म और जिनवचन की भी वंदना आ जाती है। इसके अतिरिक्त सामायिक में कृतिकर्म पूर्वक चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति इन दो भक्तियों को पढ़ने का विधान है। यह सामायिक विधि देववंदना नाम से क्रियाकलाप, ‘‘यतिक्रियामंजरी’’ और ‘‘सामायिक’’ आदि पुस्तकों में प्रकाशित हो चुकी है। विधिवत् उस देववंदना को करना ही सामायिक है। इस विधिवत् सामायिक के दो कृतिकर्म माने गये हैं जो कि मुनियों के लिये भी मूलाचार और अनगारधर्मामृत में अनिवार्य रूप से कहे गये हैं। यथा— ‘‘त्रिसंध्यं वंदने युंज्यात् चैत्यपंचगुरुस्तुति’’ तीनों संध्या कालों में देववंदना (सामायिक) करते समय चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति इन दोनों भक्तियों का पाठ करना चाहिये।
त्रिकाल देववंदना— सामायिक करने में चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति इन दो भक्तियों का विधिवत् प्रयोग किया जाता है। पुन: सर्वदोष विशुद्धि के लिए समाधि भक्ति पढ़ी जाती है। स्वाधीनता, त्रि:परीति, त्रयीनिषद्या, त्रिवार कायोत्सर्ग, द्वादशआवर्त और चार शिरोनति इस प्रकार कृतिकर्मरूप वंदना के छह कृति अथवा अंग हैं। सिद्धान्त ग्रन्थ में भी कहा है— ‘‘आदाहीणं पदाहीणं तिक्खुत्तं तिऊणदं चदुस्सिरं वारसावत्तं चेदि।’’ १. वंदना करने वाले की स्वाधीनता २. तीन प्रदक्षिणा ३. तीन भक्ति संबंधी तीन कायोत्सर्ग ४. तीन निषद्या—ईर्यापथ कायोत्सर्ग के अनंतर बैठकर आलोचना करना और चैत्यभक्ति संबंधी विज्ञापन करना, चैत्यभक्ति के अन्त में बैठकर आलोचना करना और पंचमहागुरुभक्ति संबंधी क्रिया विज्ञापन करना, पंचमहागुरुभक्ति के अंत में बैठकर आलोचना करना ५. चार शिरोनति और ६. बारह आवर्त। यही सब आगे किया जाता है। जिन, सिद्ध, आचार्य और बहुश्रुत की वंदना करने में जो क्रिया की जाती है उसे कृतिकर्म कहते हैं। उस कृतिकर्म के आत्माधीनता, तीन बार प्रदक्षिणा, तीन अवनति, चार नमस्कार और बारह आवर्त आदि रूप लक्षण, भेद तथा फल का वर्णन कृतिकर्म प्रकीर्णक करता है। पराधीन जीव हमेशा ही दीन बना रहता है अत: चैत्यवंदना आदि कार्यों में स्वाधीनता अवश्य चाहिए। ‘‘श्रुतज्ञानरूपी’’ चक्षु से अपनी आत्मा में चिच्चैतन्यस्वरूप भगवान् आत्मा को देखते हुए जिनालय में जाकर द्रव्यादि की शुद्धि से शुद्ध हुए साधु ‘‘नि:सही नि:सही नि:सही’’ इस प्रकार उच्चारण करते हुए मंदिर के भीतर प्रवेश करके जिनप्रतिमा के मुखचंद्र का अवलोकन कर अत्यन्त प्रसन्न होते हुए भगवान् को तीन बार नमस्कार करते हैं। पुन: चैत्यालय की तीन प्रदक्षिणा देते हैं। इसके बाद ‘‘अद्याभवत्सफलता नयनद्वयस्य’’ अथवा ‘‘दृष्टिं जिनेन्द्रभवनं भवतापहारि’’ स्त्रोत को पढ़कर वंदना के द्वारा ‘‘पडिक्कमामिभंते! इरियावहियाए’’ इत्यादि ईर्यापथशुद्धि पाठ बोलते हैं पुन: कायोत्सर्ग करके पंचांग नमस्कार करके ‘‘ईर्यापथे प्रचलिताद्य मया प्रमादा’’—इत्यादि आलोचना करके यदि धर्माचार्य हैं तो उनके निकट अन्यथा भगवन् के समक्ष पंचांग नमस्कार करके कर्तव्य कर्म को स्वीकार करते हैं अर्थात् ‘‘नमोऽस्तु भगवान् ! देववंदनां करिष्यामि’’— जय हो भगवान् ! नमस्कार हो अब मैं देववंदना करूँगा। इस प्रकार कर्तव्य की प्रतिज्ञा करके पर्यंकासन से बैठकर ‘‘सिद्धं सम्पूर्ण भव्यार्थं’’ इत्यादि से आरम्भ कर ‘‘खम्मामि सव्वजीवाणं’’ इत्यादि सूत्रपाठों द्वारा साम्यभाव को प्राप्त हो जाते हैं पुन: वंदना क्रिया का विज्ञापन करते हैं अर्थात् ‘‘पौर्वाह्णिकदेववंदनायां पूर्वा…….चैत्यभक्तिकायोत्सर्ग करोम्यहं’’ ऐसा बोलकर विज्ञापन करके खड़े होकर भूमिस्पर्शनात्मक पंचांग नमस्कार करते हैं। पश्चात् चार अंगुल प्रमाण पैरों में अन्तर रखकर खड़े होकर मुक्ताशुक्तिमुद्रा बनाकर तीन आवर्त और शिरोनति करके ‘‘णमो अरिहंताणं’’ इत्यादि सामायिकदंडक का पाठ करके तीन आवर्त और एक शिरोनति करके जिनमुद्रा से कायोत्सर्ग (९ बार णमोकार मंत्र का जाप्य २७ उच्छ्वास में) करते हैं। पुन: पंचांग नमस्कार करके खड़े होकर पूर्ववत् मुक्ताशक्ति मुद्रा से तीन आर्वत एक शिरोनति करके ‘‘थोस्मामि हं जिणवरे’’ इत्यादि चतुर्विंशतिस्तव पढ़कर तीन आवर्त एक शिरोनति करते हैं। पश्चात् वंदना मुद्रा बनाकर ‘‘जयतु भगवान् हेमांभोज’’ इत्यादि चैत्यभक्ति बोलते हुए जिनेन्द्र भगवान् की तीन प्रदक्षिणा दे लेते हैं। पुन: बैठकर ‘‘इच्छामि भंते! चेइयभत्ति ………’’ आदि चैत्यभक्ति की आलोचना करते हैं।’’ अनन्तर ‘‘पौर्वाह्णिक देववंदनायां पंचमहागुरु—भक्तिकायोत्सर्गं, करोम्यहं ’’ ऐसी विज्ञापना करके उठकर पंचांग नमस्कार करके पूर्ववत् सामायिकदंडक, कासयोत्सर्ग, थोस्सामिस्तव पढ़कर वंदना मुद्रा से ‘‘ प्रथमं करणं चरणं द्रव्यं नम:। शास्त्राभ्यासो’’ इत्यादि लघुसमाधिभक्ति पढ़कर बैठकर ‘‘इच्छामि भंते! समाहिभत्ति’’ इत्यादि आलोचना करते हैं। अनन्तर यथावकाश आत्मध्यान करते हैं। पुन: सभी साधु मिलकर लघुसिद्धाक्ति और आचार्यभक्ति द्वारा आचार्य की वंदना करते हैं। कहा भी है— प्रात:काल देववंदना रूप प्राभातिक अनुष्ठान के अनन्तर साधुजन विधिवत् आचार्य आदि की वंदना करते हैं, मध्यान्हकाल में देववंदना के बाद करते हैं और सायंकाल में प्रतिक्रमण के बाद करते हैं। यह त्रिकाल गुरुवंदना है। श्री समंतभद्रस्वामी ने सामायिक प्रतिमा का लक्षण करते हुए कहा है—
चतुरावत्र्तत्रितयश्चतु:प्रणाम: स्थितो यथाजात:। सामायिको द्विनिषद्यस्त्रियोगशुद्धस्त्रिसंध्यमभिवन्दी ।।
यथाजात मुद्राधारी अर्थात् सामायिक करते समय दिगम्बर मुद्रा धारण कर चार बार तीन—तीन आवर्त ऐसे बारह आवर्त, चार प्रमाण अर्थात् चार प्रमाण अर्थात् चार शिरोनति, दो आसन अर्थात् दो बार साष्टांग नमस्कार करते हुये मन, वचन, काय की शुद्धि पूर्वक तीनों संध्याओं में सामायिक करे। इसकी टीका में श्री प्रभाचन्द्र आचार्य ने यही स्पष्ट किया है कि प्रत्येक भक्ति पाठ के कायोत्सर्ग में यह बारह आवर्त, चार शिरोनति तथा दो नमस्कार किये जाते हैं । जैसा कि पहले ‘‘देववंदना प्रयोग विधि’’ में बतलाया गया है। श्रावक या मुनि दोनों के लिये देववंदना (सामायिक) में चैत्यभक्ति और पंचगुरुभक्ति का तो विधान है ही है। वैसे श्रावकों के लिये सामायिक देवपूजा से सम्बन्धित मानी गई है। उसमें चार भक्ति का विधान है— सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति। प्रत्येक क्रिया के अन्त में समाधि भक्ति तो करनी ही पड़ती है जिसका उल्लेख भक्तियों की गणना में नहीं किया जाता है। यथा— ‘‘अहिसेयवंदना सिद्धचेदियपंचगुरुसंतिभत्तीहिं’’।१ अभिषेक वंदना सिद्ध, चैत्य, पंचगुरु और शांतिभक्ति पूर्वक करना चाहिये। भावसंग्रह में भी लिखा हुआ है—
सामायिक प्रकुर्वीत कालत्रये दिनं प्रति । श्रावको हि जिनेंद्रस्य जिनपूजापुरस्सरम् ।। प्रतिदिन तीनों कालों में श्रावक जिनेंद्रदेव की पूजा पूर्वक सामायिक करे। इसी बात को श्री पूज्यपाद आचार्य ने भी कहा है— ‘‘कृत्वाहं सिद्धभत्तिंâ बुधनुतसकलीसत्क्रियां चादरेण। निष्ठाप्यैवं जिनानां सवनविधिरपि ………….. चैत्यभक्तयादिभिश्च। स्तुत्वा श्रीशांतिमंत्र …………………………..।। ’’
जिनेन्द्र भगवान् के मंदिर में प्रवेश कर प्रदक्षिणा आदि करके ईर्यापथ शुद्धि पढ़कर शुद्धि करना पुन: सिद्धभक्ति पढ़कर सकलीकरण आदि पुराकर्म करके जिनेंन्द्रदेव की प्रतिमा का विधिवत् अभिषेक करके अष्टद्रव्य से पूजा करना अनंतर जाप्य आदि करके चैत्यभक्ति, पंचगुरु और शांति भक्ति करके और भी विधि करके विसर्जन करना यही पूजा विधि है। निष्कर्ष यही निकलता है कि विधिवत् अभिषेकपूर्वक देवपूजा करते हुये सामायिक विधि संपन्न करनी चाहिये। यदि नहीं हो सकती है तो चैत्यभक्ति, पंचगुरु भक्ति पढ़कर सामायिक करनी चाहिये। सामायिक के समय, स्थान आदि कैसे हों ? तथा उस समय क्या चिंतवन करना, सो श्री समन्तभद्र स्वामी के अभिप्रायानुसार देखिये—
सामायकि हेतु समय निश्चित, करके पांचों ही पापों का ।
मन वचन काय कृत कारित औ अनुमति से त्याग करे सबका।।
बस उसी काल में सामायिक , शिक्षाव्रत होता श्रावक को।
श्री गणधर आदि महामुनिगण, प्रतिपादन करते है भवि को।।
सामायिक के लिये समय निश्चित करके पांचों ही पापों का मन—वचन—काय और कृत—कारित— अनुमोदना से त्याग कर देने से उसी काल में श्रावक के सामायिक शिक्षाव्रत होता है। ऐसा श्री गणधर देव कहते हैं ।
व्याक्षेप रहित एकान्त शुद्ध, स्थानों में या जंगल में।
घर में या चैत्यालल्य में भी, या पर्वत गुफा मसानों में।।
मन को प्रसन्न करके नित ही, सामायिक विधि करनी चाहिए।
श्री चैत्य पंचगुरु भक्ति पाठ, कृतिकर्म विधि करनी चाहिए।।९९।।
आकुलता उत्पादक रहित, शुद्ध एकान्त स्थान में या वन में, घर में, चैत्यालय में या पर्वत पर, गुफा में, श्मशान में जहाँ कहीं भी चित्त को प्रसन्न करके नित्य ही सामायिक करना चहिये। इसमें चैत्य—पंचगुरु भक्ति पाठ सहित कृतिकर्म विधिपूर्वक क्रिया करनी चाहिये। यदि श्रावक अव्रती है तो भी उसे व्रत के दिन सामायिक अवश्य करना चहिये, सो ही कहते हैं—
सब काय वचन की चेष्टा ओ, मन का कालुष्य दूर करके ।
संकल्प विकल्प अनेकों विध, जैसे हो उन्हें रोक करके।।
उपवास दिवस या एकाशन, में निश्चित सामायिक करिये।
व्रत के दिन में सामायिक कर, नानाविधि पाप दोष हरिये।।१००।।
वचन और काय की क्रिया तथा मन की कलुषता को दूर करके, सभी संकल्प विकल्पों को भी रोक करके उपवास के दिन अथवा एकाशन के दिन सामायिक अवश्य करना चाहिये। वैसे प्रत्येक श्रावक को प्रतिदिन सामायिक करना उचित है—
प्रतिदिन आलस्य छोड़ करवेâ, ऐकाग्रचित्त भी हो करके।
शास्त्रोक्तविधि के अनुसार सामायिक करिये रुचि धरके।।
पांचों व्रत की पूर्ति हेतु, यह सामायिक व्रत माना है।
जो इस व्रत को पालन करते, उनने निज को पहचाना है।।१०१।।
श्रावक का कर्तव्य है प्रतिदिन भी आलस्य छोड़कर एकाग्रचित होकर शास्त्रकथित विधि के अनुसार रुचि से सामायिक करे। यह सामायिक व्रत पांचों महाव्रतों को पूर्ण करने में हेतु है। जो व्रत का पालन करते हैं वे अपनी आत्मा को पहचान लेते हैं। सामायिक के समय श्रावक मुनि तुल्य हो जाता है—
सामायिक के शुभ अवसर में, जो श्रावक उभय वस्त्र रखते।
आरम्भ परिग्रह शेष सभी, तज करके सामायिक करते।।
जैसे मुनि के उपसर्ग काल में, वस्त्र पड़ा उस तरह कहो।
यद्यपि वह है गृहस्थ तो भी, मुनिरूप हुआ उस समय अहो।।
जो श्रावक सामायिक के समय दो वस्त्र (धोती, दुपट्टा) मात्र रखकर शेष परिग्रह और सर्व आरम्भ को छोड़कर सामायिक करते हैं, वे ‘‘जैसे मुनि के ऊपर उपसर्ग करते हुए कोई वस्त्र डाल दे’’ उनके समान हैं। यद्यपि वे गृहस्थ हैं तो भी उस समय वे मुनि के समान हैं, ऐसा कहा है। यह तभी संभव है जबकि वह एकाग्रचित्त होकर सामायिक कर रहा है। वैसे यह औपचारिक कथन है क्योंकि उस श्रावक का गुणस्थान पांचवां ही रहेगा छठा नहीं हो सकता है। श्रावक को भी सामायिक के समय परिषह और उपसर्ग सहन करना चाहिये—
श्रावक जिस समय मौन धर के, निश्चल सामायिक क्रिया करें।
उस समय शीत उष्णादि दंश, मशकादि परीषह सहन करें।।
सुर नर तिर्यंचों द्वारा कृत, उपसर्ग भले ही आ जावे।
मन वचन काय को वश में कर, सब सहन करें निज सुख पावें।।१०३।।
श्रावक जब मौन होकर निश्चल शरीर करके सामायिक करते हैं, उस समय उन्हें शीत, उष्ण, डांस, मच्छर आदि की परीषह भी सहन करना चाहिये। यदि देव, मनुष्य या तिर्यंच द्वारा किये गये उपसर्ग आ जावें तो उन्हें भी सहन करना चाहिये और मन—वचन— काय को वश में रखना चाहिये। सामायिक के समय क्या चिंतन करना सो बताते हैं—
यह जग अशरण औ अशुभरूप, क्षणभंगुर और दु:खमय ही।
यह पर है आत्मरूप नहीं है, इसमें मैं रहता हूँ नित ही।।
विपरीत शरण शुभमय, मैं नित्य सौख्य स्वात्मीयरूप ।
सामायिक में ऐसा ध्यावों , क्योंकि यह आत्मा शुद्धरूप।।
यह संसार शरण रहित होने से अशरण है, अशुभ है, क्षण भंगुर है और दु:खरूप है पर है, आत्मरूप नहीं है। मैं ऐसे संसार में निवास कर रहा हूँ। मोक्ष इससे विपरीत है, शरण भूत है, शुभ है, शाश्वत है, सुखरूप है और स्वात्मरूप है। सामायिक के समय ऐसा चिंतवन करना चाहिये क्योंकि शुद्धनय से यह आत्मा शुद्ध स्वरूप है। इस प्रकार से सामायिक शिक्षाव्रत का उपदेश दिया है । प्रत्येक श्रावक को प्रतिदिन प्रात: एक बार अथवा प्रात: और सायं ऐसे दो बार या मध्यान्ह में भी करने से तीन बार सामायिक करना चाहिये। दो प्रतिमाधारी के लिये दो बार सामायिक अनिवार्य है मध्यान्ह में करे या न करे, चल सकता है। किन्तु तृतीय सामायिक प्रतिमाधारी को त्रिकाल सामायिक करना ही चाहिये।
सामायिक शिक्षाव्रत के बाद ‘‘विदिए पोसहोवासयं’’ इस प्रकार से द्वितीय शिक्षाव्रत का नाम प्रोषधोपवास है। श्री गौतमस्वामी स्वयं श्रावक प्रतिक्रमण में चतुर्थ प्रतिमा यह प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत का द्वितीय भेद है और ग्यारह प्रतिमाओं में चतुर्थ प्रतिमारूप है। का वर्णन करते समय कहते हैं—
‘‘उत्तममज्झजहण्णं तिविहं पोसहविहाणमुछिट्ठं। सगसत्तीए मासम्मि चउसु पव्वेसु कायव्वं।।’’
प्रोषधविधान के तीन प्रकार माने गये हैं— उत्तम, मध्यम और जघन्य। प्रत्येक मास के चारों पर्वों में अपनी शक्ति के अनुसार उन्हें करना चाहिये। १. यह प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत का द्वितीय भेद है और ग्यारह प्रतिमाओं में चतुर्थ प्रतिमारूप है। श्री समंतभद्रस्वामी भी प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत का लक्षण करते हुये कहते हैं, उसका हिन्दी पद्यानुवाद देखिये—
अष्टमी चतुर्दशि पर्वों में , अपने अंतर की इच्छा से ।
चारों प्रकार आहार त्याग, कर देना जिनवचशिक्षा से ।।
यह है प्रोषध उपवास नाम, शिक्षाव्रत तप को सिखलावे।
जो इसका पालन करते हैं, वे तनु से निर्मम बन जावें।।१०६।।
प्रत्येक माह की दोनों अष्टमी और दोनों चतुर्दशी को अपनी इच्छा से आगम के अनुसार चारों प्रकार के आहार का त्याग करना प्रोषधोपवास नामक शिक्षाव्रत है । यह शिक्षाव्रत इसलिये है कि तप करने की शिक्षा देता है। इस व्रत के धारी शरीर से निर्मम हो जाते हैं।
जस दिन उपवास करो उस दिन, पांचों पापों का त्याग करो,
आरंभ गंध माला आदिक, सब अलंकार का त्याग करो।।
स्नान और अंजन मंजन, नस्यादि क्रियाओं को तजिये,
तन से ममत्व परिहार हेतु, वैराग्यभाव को आचरिये।।१०७।।
जिस दिन उपवास हो उस दिन पांचों पापों का त्याग करके आरंभ, गंध, माला, अलंकार, स्नान, अंजन, मंजन, नस्य आदि क्रियाओं का त्याग कर देना चाहिये। उस दिन शरीर से ममत्व दूर करने हेतु वैराग्यभाव को धारण करना चाहिये।
भावार्थ— उपवास के दिन स्नान आदि त्याग करने का विधान उनके लिये है जो कि जिनमंदिर या एकांत स्थान आदि पर रहकर २—३ दिन तक लगातार स्वाध्याय, ध्यान आदि ही किया करते हैं परन्तु जो घर में रहकर गृहस्थाश्रम के कार्यों का त्याग नहीं कर सकते उनका कर्तव्य है कि वे व्रत के दिन दान—पूजन अवश्य करें। तथा दान—पूजन आदि के लिये स्नान करना आवश्यक है यह बात ध्यान रखना चाहिये।
उपवास दिवस आलस्य रहित, होकर शास्त्रों का पठन करे।
उत्कण्ठित हो धर्मामृत को, निजकर्णों से भी पान करे।।
पर को भी धर्म सुधारस का, उस दिन वह पान करा देवे।
बस ज्ञान ध्यान में तत्पर हो, उपवास सफल निज कर लेवे।।१०८।।
उपवास दिवस आलस्य रहित होकर शास्त्रों का स्वाध्याय करे। अति उत्कंठा से धर्मरूपी अमृत को स्वयं पीवे अर्थात् धर्म का श्रवण करे और अन्यों को भी धर्म श्रवण करावे। इस प्रकार वह श्रावक ज्ञान और ध्यान में तत्पर होता हुआ अपने उपवास को सफल कर लेवे।
जब अशन खाद्य औ लेह्य पेय, चउविध आहार का त्याग करे।
उपवास यही औ एक बार , भोजन प्रोषध यह नाम धरे।।
तेरस—पूनो एकाशन कर, चौदस का जब उपवास करे।
तब होता प्रोषधोपवासी, ऐसी विधि अष्टमि को भि करे।।१०९।।
अशन, खाद्य, लेह्य और पेय आहार के ये चार भेद हैं। इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना उपवास कहलाता है । और दिन में एक बार शुद्ध भोजन करना ‘प्रोषध’ है। विशेष यह है कि—तेरस को एकाशन करके चौदश को उपवास करना, पुन: पूनों को एकाशन करना यह प्रोषधोपवास कहलाता है। ऐसे ही सप्तमी को एकासन, अष्टमी को उपवास, पुन: नवमी को एकाशन करना यह प्रोषधोपवास का लक्षण है। इन व्रतों में एकाशन के दिन दूसरी बार जल ग्रहण करना भी वर्जित है। चूँकि सबसे जघन्य विधि एक बार भोजन है। यह प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत भी मुनिव्रत पालन करने की शिक्षा देता है अतएव इसका शिक्षाव्रत का नाम सार्थक है। मुनि तो सदा ही एक भक्त— दिन में एक बार भोजन करते हैं अत: जो गृहस्थ इस प्रकार से प्रोषधव्रत किया करते हैं उन्हें एकाशन का अभ्यास हो जाने से मुनिपद में एक बार आहार लेने से कष्ट नहीं महसूस होता है और न उन्हें भूख—प्यास की बाधा ही सताती है। वैसे स्वास्थ्य की दृष्टि से भी प्रत्येक महीने में कम से कम चार बार उपवास या एकाशन उचित ही है। इससे पाचन शक्ति अच्छी रहती है, अपच, वातप्रकोप, कफ आदि दोष भी शांत हो जाते हैं। इसलिये प्रत्येक गृहस्थ के लिये चाहे महिला हो या पुरुष, नवयुवक हो या नवयुवती, बालक हो या बालिकायें उन सबके लिये भी यह शिक्षाव्रत उपयोगी है। उपवास और एकाशन का अभ्यास जीवन में बहुत ही आवश्यक है। प्रसंगोपात्त धर्म की रक्षा के लिये उपवास का अवसर आ जावे तो कायरता नहीं होती है । सती सीता ने रावण के यहाँ नियम कर लिया कि ‘जब तक मैं श्रीरामचन्द्र का समाचार नहीं सुनूंगी तब तक के लिये मेरे चतुराहार का त्याग है।’ ऐसे अवसर पर उनके ग्यारह उपवास हो गये उसके बाद हनुमान के द्वारा रामचन्द्र का समाचार विदित होने पर सीता ने अन्न—जल ग्रहण किया था। यदि उन्होंने बचपन में या जीवन में कभी भी उपवास न किया होता तो इतना बड़ा धैर्य कैसे कर पातीं। इसी प्रकार से सल्लेखना की सिद्धि के लिये भी जीवन में उपवास आदि का अभ्यास बहुत ही आवश्यक है। कहने का अभिप्राय यही है कि यदि आप लोग महीने में चार व्रत नहीं कर सकते तो कम से कम इस द्वितीय शिक्षाव्रत के अभ्यास के लिये ही पहले महीने में एक उपवास करने का नियम अवश्य बना लो। इन चार पर्वों में से किसी पर्व में अथवा णमोकार मंत्र व्रत, जिनगुणसंपत्तिव्रत आदि कोई व्रत लेकर के ही कुछ न कुछ उपवास या एकाशन को करते रहो यह स्वास्थ्य, धन, सल्लेखना, परलोक, और कर्मनिर्जरा के लिये बहुत ही गुणकारी है। श्री गौतमस्वामी के शब्दों में ‘तदिए अतिथि संविभागो’ तीसरा शिक्षाव्रत अतिथि संविभाग नाम का है। श्री कुन्दकुन्द देव ने भी चारित्र पाहुड़ में अतिथिसंविभाग को तीसरा शिक्षाव्रत ही कहा है। अन्यत्र ग्रन्थों में आचार्यों ने इसे चौथे शिक्षाव्रत में लिया है। श्री समंतभद्रस्वामी ने तो चौथे शिक्षाव्रत को ‘वैयावृत्य’ नाम दिया है।और उसके लक्षण में मुनियों को चार विध दान देने का भी वर्णन किया है।
‘दाता के गुण युक्त गृहस्थ को दिगम्बर अतिथि के लिये स्व तथा पर के अनुग्रह हेतु विशेष द्रव्य— देने योग्य वस्तु का विधिपूर्वक भाग अवश्य ही करना चाहिये’श्लोक १६७ पुरुषार्थसिद्धयुपाय। श्री समंतभद्रस्वामी भी वैयावृत्य नामक शिक्षाव्रत का लक्षण करते हुये कहते हैं— मूल श्लोकों का पद्यानुवाद यहाँ दिया गया है।
गुण निधि तपोधन मुनियों को, बस स्वपर धर्म की वृद्धि हेतु।
जो दान दिया जाता वह ही, है वैयावृत्य महाविशेष ।।
यश मंत्र प्रती उपकार आदि, से अनपेक्षित हो भक्ति से।
निज शक्ति विभव के अनूसार, उपकार करे गुरु भक्ति से ।।१११।।
गुणों के निधान और तपरूपी धन के धारक ऐसे मुनियों को स्वपर धर्म की वृद्धि हेतु जो दान दिया जाता है वह वैयावृत्य है। यश, मंत्र आदि प्रत्युपकार की अपेक्षा के बिना ही जो गृहत्यागी मुनियों का अपने वैभव व शक्ति के अनुसार उपकार किया जाना वह सब वैयावृत्य है। पुन: कहते हैं—
मुनि के गुण में अनुरागी बन, उनके दु:खों को दूर करे।
पद संवाहन मर्दन आदि, औ अन्य सभी उपचार करे।।
इस विधि से मुनि आर्यिकादी, संयमियों की वैयावृत्ती ।
यह चौथा शिक्षाव्रत माना, इससे होती सुख संपत्ती।।११२।।
मुनियों के गुणों में अनुराग करते हुये उनके दु:खों को दूर करना, उनके पैर दबाना, तेल मालिश करना आदि यथायोग्य अन्य भी उपचार करना सब वैयावृत्य है। इस प्रकार से मुनि, आर्यिका आदि संयमी साधु —साध्वियों की वैयावृत्ति यह चौथा शिक्षाव्रत है इससे श्रावक को सुख और संपत्ति की प्राप्ति होती है। अब दान देने की विधि बताते हैं—
पड़गाहन उच्चस्थान पाद—प्रक्षालन पूजन नमस्कार।
मन वचन काय शुद्धि भोजन, शुद्धि ये नवधा भक्तिसार।।
जो सात गुणों से युत श्रावक, रूचि से नवधाभक्ती पूर्वक।
देते संयमियों को आहार, उसको ही दान कहें गणभृत् ।।११३।।
पड़गाहन करना, उच्च आसन पर बिठाना, चरण प्रक्षालन करना, पूजन करना, नमस्कार करना, मन,वचन, काय की शुद्धि और आहार की शुद्धि बोलना, इन नव प्रकार से नवधा भक्ति कहलाती है। श्रद्धा, भक्ति, संतोष, विज्ञान (विवेक), क्षमा, निर्लोभता और सत्त्व ये सात गुण दाता के माने गये हैं । इन सात गुणों से युक्त श्रावक मुनियों को नवधा भक्ति पूर्वक जो आहार दान देते हैं उसी का नाम दान है। यहाँ नर श्री समंतभद्र स्वामी ने वैयावृत्य में आहार दान का लक्षण मुख्य रूप से लिया है। पुन: इस दान का क्या फल है ? सो कहते हैं —
गृह कर्म रूप अग्नीज्वालन, आदिक ‘सूना’ जो पाँच कहे।
उनके करने से पापों का, संचय होता दिन रात रहे।।
गृहत्यागी अतिथि के आहार, से सर्व पाप धुल जाते हैं।
जिस तरह रुधिर से मलिन वस्त्र जल से धो स्वच्छ बनाते हैं।।११४।।
अग्नि जलाना, जल भरना, कूटना, पीसना और बुहारी लगाना ये पाँच कार्य ‘सूना’ शब्द से कहे जाते हैं चूँकि इनमें हिंसा अवश्यम्भावी है। प्रत्येक गृहस्थ को इन पाँच सूना को करना ही पड़ता है। और इससे दिन—रात ही पाप कर्मों का संचय होता ही रहता है। वह सब पाप गृहत्यागी संयमी को आहार देने से नष्ट हो जाता है। जैसे रुधिर से गंदा हुआ वस्त्र जल से धुलकर स्वच्छ हो जाता है, वैसे ही गृहस्थी के आरम्भ से संचित पाप कर्म को आहार दान से धो डालता है, इसमें रंचमात्र भी संशय नहीं है चूंकि यह श्री समंतभद्र स्वामी के वाक्य हैं।
संयमियों को करते प्रणाम, वे उच्चगोत्र को पाते हैं।
जो देते दान भोग पाते, सेवा से पूजा पाते हैं।
भक्ति से सुंदर रूप मिले, स्तुति प्रशंसा से कीर्ति।
गुरु की उपासना से इस विध, हो जाती सब सुख संपत्ती।।११५।।
तपोनिधि मुनियों को नमस्कार करने से उच्चगोत्र में जन्म होता है, उनको दान देने से भोग मिलते हैं, उनकी उपासना करने से पूजा होती है, उनकी भक्ति करने से सुंदर रूप मिलता है, और उनकी स्तुति करने से कीर्ति बढ़ती है। इस तरह गुरुओं की भक्ति , पूजा, उपासना आदि से सब सुख संपत्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। अल्पदान से भी महाफल होता है उसको उदाहरण देकर समझाते हैं—
अच्छी उपजाऊ भूमी में, वह बीज बड़ा सा वृक्ष बने।
निज काय पाय भारी छाया, देता औ फल दे मिष्ट घने।।
वैसे ही उत्तम पात्रों में, विधिवत् जो दान अल्प भी दे।
वह समय पाय बहु फल देता, इच्छानुकूल सब वैभव दे।।११६।।
बढ़िया उपजाऊ जमीन में बोया गया छोटा सा भी बड़ का बीज एक दिन बहुत बड़ा वृक्ष बन जाता है। समय पर बहुत से लोगों को बहुत बड़ी छाया देता है और मीठे—मीठे फल भी खिलाता है। वैसे ही जो विधिवत् उत्तम पात्रों में यदि थोड़ा सा भी आहारदान देते हैं तो वह उनका दान समय के आने पर बहुत बड़ा फल देता है तथा इच्छा के अनुसार सभी प्रकार के वैभव प्रदान करता है। इस प्रकार श्री समंतभद्रस्वामी ने अपने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में श्रावकों के व्रतों में वैयावृत्य का वर्णन करते हुये उसमें साधुओं को आहार दान देने की विधि और फल पर प्रकाश डाला है जो कि सम्यग्दृष्टि श्रावक के लिये अतीव उपयोगी है, कर्तव्य है। ऐसा समझना।
वैयावृत्य के भेदों का वर्णन करते हुए श्री समंतभद्रस्वामी कहते हैं—
आहारदान औषधीदान, उपकरणदान आवासदान।
वैयावृत्ती के चार भेद, से कहलाते ये चार दान ।।
प्रासुक भोजन औषधियों से, श्रावकजन मुनि को स्वस्थ करे।
पिच्छी शास्त्रादिक दे उनको, वसती दे निज को धन्य करें।।११७।।
आहारदान, औषधिदान,उपकरणदान और वसतिकादान ये वैयावृत्य के चार भेद यहाँ माने गये गये हैं। श्रावक मुनि आदि साधुओं को प्रासुकभोजन और शुद्ध औषधि देकर उनको स्वस्थ रखने में सहयोगी बने। उन्हें पिच्छी, कमंडलु, शास्त्र आदि संयम, शौच तथा ज्ञान के उपकरण देकर एवं ठहरने के लिये वसतिका आदि स्थान देकर अपने जीवन को धन्य कर लेवे। श्री पूज्यपादस्वामी भी ‘सर्वार्थसिद्धि’ नामक ग्रन्थ में अतिथिसंविभागव्रत का लक्षण इसी प्रकार से कर रहे हैं— ‘अतिथि के लिये जो सम्यक् प्रकार से विभाग किया जाता है। वह अतिथि—संविभाग है। वह आहार, उपकरण, औषध और प्रतिश्रय— आवास के भेद से चार प्रकार का है ‘अतिथये संविभागोऽतिथिसंविभाग:। स चतुर्विध:— ाqभक्षोपकरणौषधप्रतिश्रयभेदात्।’ सर्वार्थसिद्धि अ०७, सू० २१।।’ श्रीसमंतभद्रस्वामी इन चार दानों में ख्यातिप्राप्त के नाम उल्लेख करते हुये कहते हैं—
श्रीषेण नृपति आहार दान, के फल से शांति जिनेश हुये।
दे औषधिदान वृषभसेना, तनु जल से पर दुख दूर किये।।
कौण्डेश शास्त्र देकर मुनि को, श्रुतज्ञान पूर्ण कर ख्यात हुआ।
शूकर मुनि को दे अभयदान, यश पूर्वक सुर पद प्राप्त किया।।११९।।
इन चारों की संक्षिप्त कथा इस प्रकार है— रत्नपुर के राजा श्रीषेण के सिंहनन्दिता और अनिंदिता नाम की दो रानियाँ थीं। इनके इन्द्रसेन ओर उपेन्द्रसेन ऐसे दो पुत्र थे। किसी दिन राजा ने आदित्यगति और अरिंजय नाम के दो चारण मुनियों को आहार दान देकर पंचाश्चर्यवृष्टि प्राप्त की तथा दान के प्रभाव से उत्तरकुरु भोगभूमि की आयु बाँध ली।
१. ‘अतिथये संविभागोऽतिथिसंविभाग:। स चतुर्विध:— ाqभक्षोपकरणौषधप्रतिश्रयभेदात्।’ सर्वार्थसिद्धि अ०७, सू० २१। अपने पुत्रों के आपसी झगड़े में राजा ने दु:खी होकर विष पुष्प सूँघकर अपना अपघात मरण कर लिया। फिर भी आहार दान के प्रभाव से वे उत्तम भोग भूमि में आर्य हो गये। ये ही श्रीषेण आगे चलकर सोलहवें तीर्थंकर और पाँचवें चक्रवर्ती ऐसे श्री शांतिनाथ भगवान् हुये हैं। एक मुनिदत्त योगिराज के ऊपर एक नौकरानी ने कचरा डाल दिया। पुन: राजा के द्वारा उनकी विनय और सेवा की जाने पर नौकरानी नागश्री ने भी पश्चात्ताप करके उन मुनिराज के शरीर में घाव आदि पर औषधि लगाकर भरपूर सेवा की। अन्त में मरकर वह एक सेठ की पुत्री वृषभसेना हुई । इसके स्नान किये जल से सभी के बड़े से बड़े कुष्ट रोग आदि नष्ट हो जाते थे यह पूर्वजन्म में किये गये औषधि दान का ही प्रभाव था। इस पुण्य से यह राजा की पट्टरानी हो गई और शील के माहात्म्य से देवों द्वारा भी पूजा को प्राप्त हुई है। कुरुमरी गाँव के एक ग्वाले ने वृक्ष की कोटर में एक जैन ग्रन्थ देखा, उसे घर लाकर उसकी पूजा करता रहा अनंतर उस ग्रन्थ को एक मुनिराज को दान कर दिया। मर कर वह एक चौधरी का पुत्र हुआ, उन्हीं मुनि से बोध प्राप्त कर मुनि हो गया । कालांतर में वही जीव राजा कौंडेश होकर मुनि दीक्षा ग्रहण कर द्वादशांग का पारगामी हो गया है। जंगल की गुफा में मुनिराज विराजमान थे। एक व्याघ्र उन्हें खाने को दोड़ा तो एक जंगली सुअर ने मुनि रक्षा के भाव से व्याघ्र से युद्ध शुरु कर दिया, गुफा के बाहर दोनों ही लहूलुहान होकर मर गये। भक्षण के भाव से व्याघ्र नरक गया और पूर्वजन्म में मुनि को धर्मशाला में ठहरने के संस्कार से तथा तत्काल में मुनि रक्षा के भाव सूकर मरकर स्वर्ग में चला गया । इन कथाओं का विस्तार आराधना कथाकोश से पढ़ना चाहिये। ये एक—एक दान भी जीवों की उन्नति के लिये कारण हैं और परम्परा से मोक्ष को प्राप्त कराने वाले हैं पुन: जो श्रावक धन से सम्पन्न है उनका कर्तव्य है कि वे प्रतिदिन मुनि, आर्यिकाओं को आहार आदि दान देकर अपने गृहस्थाश्रम को सफल कर लेवें। इन चारों दानों में भी आहारदान ऐसा महत्वशाली है कि जिसके देने पर देवगण भी पंचाश्चर्य दृष्टि करने लगते हैं ऐसा समझकर आहारदान देने में सदा ही आदर भाव रखना चाहिये। श्री समंतभद्रस्वामी इसी वैयावृत्य नामक शिक्षाव्रत में अर्हंतदेव की पूजा को कहते हैं—
देवाधिदेव अर्हंतों के, चरणों की पूजा करने से ।
संपूर्ण दु:ख स्वयमेव नशें, इच्छित फल आप स्वयं फलते।।
सब विषयवासना की इच्छा, को नष्ट करे अर्हत्पूजा।
आदर से नित करिये पूजा, नहिं इस सम अन्य कार्य दूजा।।११८।।
देवाधिदेव श्री अर्हंतदेव के चरणों की पूजा करने से संपूर्ण दु:ख दूर हो जाते हैं और मनवांछित फल स्वयं प्राप्त हो जाते हैं। यह पूजा संपूर्ण विषय वासनाओं की इच्छाओं का भी शमन करने वाली है। इसलिये आदर पूर्वक नित्य ही जिनपूजा करनी चाहिये क्योंकि इसके सदृश अन्य कोई दूसरा उत्तम कार्य नहीं है।
जिनपूजन के माहात्म्य को बतलाते हुये कहते हैं—
मेंढक प्रमोद से मुदितमना, बस एक पुष्प को ले करके।
जिनवर की पूजा हेतु चला, जब राजगृही में भक्ति से ।।
हाथी के पैर तले दबकर तत्क्षण ही सुरपद को पाया।
राजगृही में भगवान् महावीर के समवसरण के आने पर सभी जनों को दर्शन करने के लिये जाते देखएक मेंढक भी जिनभक्ति से एक कमल की पांखुड़ी को मुख में दबाकर चल पड़ा। मार्ग में राजा श्रेणिक के हाथी के पैर तले दबकर मर गया। जिनपूजा की भावना से मरा हुआ वह मेंढक का जीव तत्क्षण ही देव हो गया और राजा श्रेणिक के पहले ही समवसरण में पहुंचकर भगवान् महावीर का दर्शन करके उनकी भक्ति में नाचने लगा। इस प्रकार से जब मेंढक जिनपूजन की भावना मात्र से ही देवपद प्राप्त कर सकता है तब जो सदा ही भक्तिभाव से जिनेंद्रदेव के चरणों की पूजा करते हैं उन्हें क्या—क्या उत्तम फल नहीं मिलेंगे? अर्थात् सब कुछ अभ्युदय प्राप्त होंगे और परम्परा से निर्वाण पद भी मिलेगा, इसमें कोई संदेह नहीं है। एक बार आचार्यश्री वीरसागर जी के सामने एक श्रावक ने प्रश्न किया कि हे गुरुदेव! श्रावक के बारह व्रतों में जिनपूजन का विधान तो नहीं है अत: व्रती श्रावक जिनपूजन नियम से करे ऐसा क्यों? श्रावक के अतिथि संविभाग शिक्षाव्रत में जिनपूजा करने का आदेश है अत: बारहव्रतों के अन्तर्गत जिनपूजा समाविष्ट है ऐसा निश्चित समझो। किन्हीं—ाqकन्हीं ग्रन्थों में सामायिकव्रत में भी जिनपूजा का वर्णन किया गया है। भावसंग्रह ग्रन्थ में लिखा है— ‘जिन पूजां विना सर्वा, दूरा सामायिकी क्रिया।’ अत: सामायिक शिक्षाव्रत में भी देवपूजा करने का विधान है यह बात स्पष्ट हो जाती है । सल्लेखना— ‘चउत्थे सिक्खावदे पच्छिमसल्लेहणामरणं चेदि। इच्चेदाणि चत्तारि सिक्खावदाणियति प्रतिक्रमण।।’ चौथे शिक्षाव्रत में अंत में सल्लेखना मरण करना कहा है। इस प्रकार ये चार शिक्षाव्रत हैं। यहाँ पर श्री गौतमस्वामी ने शिक्षाव्रत में ही सल्लेखना मरण को लिया है। इसी प्रकार से श्री कुन्दकुन्ददेव ने भी अपने चारित्रपाहुड़ ग्रन्थ में चौथे शिक्षाव्रत में ही सल्लेखना को लिया है। इस सल्लेखना का लक्षण श्री पूज्यपादस्वामी ने इस प्रकार किया है— ‘सम्यक्काय—कषायलेखना सल्लेखनासर्वार्थसिद्धि अ०७, सूत्र २२।।’ १. यति प्रतिक्रमण। २. सर्वार्थसिद्धि अ०७, सूत्र २२। भली प्रकार से काय और कषायों को कृश करना सल्लेखना है। सल्लेखना कब की जाती है ? और उसकी विधि क्या है ? इस पर श्री समंतभद्रस्वामी ने अच्छा प्रकाश डाला है। यथा—
जसका प्रतिकार न हो सकता, ऐसा उपसर्ग यदी आवे।
ऐसा अकाल पड़ जावे या, जर्जरित बुढ़ापा आ जावे।।
अथवा हो रोग असाध्य कठिन, जिससे नहिं धर्म की रक्षा है।
तब करिये सल्लेखना ग्रहण , जो धर्म हेतु तनु त्यजना है
उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च नि:प्रतीकारे।
धर्माय तनुविमोचनमाहु:सल्लेखनामार्या: ।।१२२।।
जिसको किसी उपाय से दूर नहीं किया जा सकता ऐसा उपसर्ग यदि आ जावे, अथवा ऐसा अकाल पड़ जावे, या जर्जरित बुढ़ापा आ जावे, या कठिन असाध्य रोग हो जावे, ऐसे समय में धर्म की रक्षा के लिये जो शरीर का त्याग किया जाता है उसका नाम सल्लेखना है। जीवन भर जो तप, व्रत और चारित्र आदि का पालन किया जाता है। उनको यदि अगले भव में अपने साथ ले जाना है तो मरण के काल में अवश्य ही सल्लेखना करनी चाहिये। जैसे किसी देश में कमाये धन की यदि कोई मनुष्य वहाँ से प्रस्थान करते समय याद न करे और किसी दूसरे को सौंप जावे, तो उसका वह धन प्राय: व्यर्थ ही जाता है, इसी प्रकार परलोक यात्रा के समय अर्थात् मरण के अन्त में यदि सल्लेखना न की जावे और परिणाम भ्रष्ट हो जावें, तो दुर्गति हो जाती है। इसलिये मरण के समय में सल्लेखना करना एक शिक्षाव्रत माना गया है।
स्नेह वैर औ राग मोह, परिग्रह संपूर्ण छोड़ करके।
हो शुद्ध चित्त विधिवत् समाधि, से मरने की वाञ्छा करके।।
प्रिय वचनों से तुम क्षमा करो, स्वजनों को औ परजन को भी।
सबसे भी क्षमा करा लेवो, जो कुछ अपराध हुये हों भी।।१२४।।
समाधिमरण का इच्छुक श्रावक स्नेह, वैर, मोह और परिग्रह को छोड़ करके शुद्ध चित्त होते हुये प्रिय वचनों द्वारा अपने परिवार से व अन्य लोगों से भी क्षमा याचना करे तथा स्वयं भी सभी के अपराधों को क्षमा कर देवे।
जो किया कराया अनुमोदा, ऐसे समस्त भी पापों की ।
छल कपट रहित आलोचन विधि, करिये सबही निजदोषों की ।।
पुनरपि जीवनपर्यंत पांच, पापों का पूरण त्याग करो।
औ पंच महाव्रत धारण कर, निग्र्रंथ अवस्था प्राप्त करो।।१२५।।
१. उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च नि:प्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहु:सल्लेखनामार्या: ।।१२२।। अपने जीवन में जो पाप किये हैं, कराये हैं और उनकी अनुमोदना की है उन सभी पापों की मायाचार रहित सरल भावों से आलोचना करके जीवन भर के लिये पांचों पापों का पूर्णतया त्याग करके सल्लेखना के समय पाँच महाव्रत धारण कर मुनि बन जाना चाहिये। अभिप्राय यह है कि— श्रावक अपना अन्त समय समझ कर दिगम्बर मुनियों के संघ में जाकर आचार्य के समक्ष अपने जीवन भर किये हुये पापों की आलोचना कर गुरु के पादमूल में ही मुनिदीक्षा ले लेवे पुन: सल्लेखना करे, यह उत्तम विधि है। यदि कदाचित् संघ निकट में नहीं है और उतने उँâचे भाव नहीं हैं अथवा मुनि बनने की शक्ति नहीं है तो घर में रहकर ही अथवा मंदिर आदि स्थानों पर जाकर अन्य धर्मात्मा श्रावकों की सहायता से जितना त्याग हो सके उतना कर लेना चाहिये।
सल्लेखना ग्रहण करके श्रावक को धर्मामृत का पान करना चाहिये—
स्नेह शोक भय अप्रीती, मन की कालुषता भी तज के ।
निज बल उत्साह प्रगट करके, मन को प्रसन्न करिये श्रुति से।।
यह जिन आगम ही अमृत है, जो अतिशय तृप्ती करता है।
पुष्टी तुष्टी करके पुनरपि, इस मृत्यु को भी हरता है।।१२६।।
शोक, भय, स्नेह और अरति ये मन को कलुषित करने वाले हैं इनको छोड़कर तथा अपने बल और उत्साह को प्रगट करके अमृत के समान जिनवाणी के श्रवण से अपने मन को प्रसन्न करना चाहिये। क्योंकि जिनवचनरूपी अमृत अतिशय तृप्ति, पुष्टि और तुष्टि देकर पुन: मृत्यु को भी नष्ट कर देता है।
अन्नादिक भोजन छोड़ प्रथम, दुग्धादिक पेय वस्तु पीना।
स्निग्ध पेय को छोड़ पुन:, बस छांछ गर्मजल या पीना।।
जब क्रम से त्याग किया जाता, तब आकुलता नहिं होती है।
नहिं तन में पीड़ा कष्ट बढ़े, नहिं व्याधि विषमता होती है।। १२७।।
कांजी या छांछ गरमजल भी, तज करके यथा शक्ति पूर्वक।
उपवास करे भी जाप करे, बस महामंत्र की रुचि पूर्वक।।
संपूर्ण यत्न कर णमोकार, मंत्रादिक को जपते जपते।
अंतिम क्षण में तन को छोड़े, प्रभु नाम मंत्र रटते रटते।।१२८।।
जब श्रावक सल्लेखना ग्रहण कर लेता है तब शरीर को कृश करने के लिये क्रम—क्रम से भोजन आदि का त्याग करता जाता है। उसी क्रम को यहाँ बतलाया है। सबसे पहले अन्नादि रोटी, पूड़ी, भात, दाल आदि छोड़ देवे और दूध,रस, ठंठाई आदि पीने योग्य वस्तु एवं लेवे। पुन: दूध आदि चिकने पदार्थ छोड़ देवे और दही की छांछ या गरम जल ग्रहण करता रहे। पुन: धीरे—धीरे इनको भी छोड़ देवे। यह सब त्याग, जैसे शरीर में व्याधि न बढ़े और पीड़ा न होवे तथा मन में आकुलता न होकर शांति बनी रहे इसी तरह से करना चाहिये। अत: सललेखना के समय मुनिजन या अनुभवी धर्मात्मा श्रावक का होना बहुत जरूरी है। पुन: कांजी , तक्र या गरम जल को छोड़कर यथाशक्ति उपवास करना चाहिये । और संपूण प्रयत्न से महामंत्र का जाप करते—करते अन्तिम क्षण में शरीर को छोड़ते समय भी णमोकार मंत्र को पढ़ने या सुनने में उपयोग लगाये रहना चाहिये। इस प्रकार सल्लेखना से मरण करने वाला श्रावक नियम से देवगति को प्राप्त करता है पुन: वहाँ से च्युत होकर उत्तम मनुष्य होकर पुन: श्रावक या मुनि बनकर देवपद को प्राप्त कर लेता है। यह श्रावक अधिक से अधिक सात, आठ भव और कम से कम दो, तीन भव ग्रहण कर नियम से मोक्ष को प्राप्त कर लेता है, ऐसा श्री गौतमस्वामी का कथन है।
किसी का प्रश्न होता है कि अपने—आप प्राणों का विसर्जन करने से आत्मघात हो जाता है? इस पर आचार्यों का समाधान यह है कि — ‘प्रमाद के योग से प्राणों का घात करना हिंसा है।’ किंतु यहाँ प्रमाद का योग नहीं है। क्योंकि ‘जो क्रोध आदि कषायों से ग्रसित होकर श्वास निरोध, जल, अग्नि विष, शस्त्र आदि से अपने प्राणों का घात करते हैं उनके निश्चित ही आत्मघात होता है।’ यो हि कषायविष्ट: कुंभकजलधूमकेतूविशस्त्रै: । व्यपरोपयति प्राणान् तस्य स्यात्सत्यमात्मवध:।।१७८।। पुरुषार्थसिद्धयुपाय। जो जीव क्रोध, मान, माया, लोभ के वश अथवा इष्ट वियोग के शोक से व्यथित या आगामी निदान के वश या किसी अपमान आदि से खिन्न होकर अग्नि में जलकर या कुएँ आदि में डूबकर मर जाते है उन्हें आत्मघात का दोष लगता है। जैसे — पति के पीछे सती होना, हिमालय से गलना, काशी करवत लेनी आदि। किन्तु संन्यास पूर्वक मरण करने वालों को आत्मघात का दोष नहीं लगता। किसी उपसर्ग , संकट या दुर्घटना आदि के प्रसंग पर जब शरीर के बचने में संदेह दिखता हो तब मर्यादा पूर्वक प्रतिज्ञा करनी चाहिये कि ‘‘यदि मैं इस उपसर्ग या संकट से बचूँगा तो पुन: अन्नजल ग्रहण करूँगा अन्यथा जीवन भर के लिये चतुराहार का त्याग है।’’ ऐसी प्रतिज्ञा करने पर नियम सल्लेखना कहलाती है और जब शरीर के बचने की सर्वथा आशा न हो तब धर्माराधन पूर्वक विधिवत् उसे छोड़े देना यम सल्लेखना है। जो जीव धर्म की रक्षा के लिये शरीर से निर्मम होकर उसको छोड़ देते हैं वे आत्मघाती नहीं हैं। प्रत्युत जो देश और राष्ट्र की रक्षा के लिये भी अपने प्राणों को छोड़ देते हैं उनका भी मरण वीरमरण कहलाता है। जैसे जो संन्यास विधि से मरण करता है , उनके परिवार वालों को सूतक (पातक) नहीं लगता है वैसे देश, राष्ट्र व मातृभूमि के लिये बलिदान हुये व्यक्तियों के परिवार जनों को भी पातक नहीं लगता है ऐसा शास्त्रों में कथन है । इस प्रकार सल्लेखना का महत्त्व अचिन्त्य है। ये बारहव्रत धर्म हैं— ‘‘ पढमं ताव सुदं में आउस्संतो! इह खलु समणेण भयवदा महदिमहावीरेण महाकस्सवेण सव्वण्हणाणेण सव्वलोयदरिसिणा सावयाणं सावियाणं खुड्डयाणं खुड्डियाणं कारणेण……. बारहविहं गिहत्थधम्मं सम्मं उवदेसियाणि।’’ हे आयुष्मन्तों भव्यों ! प्रथम ही मैंने सुना है। यहाँ भरतक्षेत्र के आर्यखंड में महाकाश्यपगोत्री, सर्वज्ञज्ञानी, सर्वलोकदर्शी, श्रमण, भगवान् महति महावीर ने श्रावक—श्राविकाओं और क्षुल्लक—क्षुल्लिकाओं के लिये पंच अणुव्रत आदि बारहविध गृहस्थ धर्म (श्रावक धर्म) का सम्यक् प्रकार से उपदेश दिया है। उसी के अंतर्गत ………………… णिस्संकिय णिक्वंâखिय णिव्विदिगिंछा अमूढदिट्ठी य। उवगूहण ट्ठिदिकरणं वच्छल्लपहावणा य ते अट्ठ।। नि:शंकित, नि:कांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना ये सम्यक्तव के आठ अंग हैं। सव्वेदाणि पंचाणुव्वदाणि तिण्णि गुणव्वदाणि चत्तारि सिक्खावदाणि वारसविहं गिहत्थधम्ममणुपालइत्ता। दंसण वय सामाइय पोसह सचित राइभत्ते य। बंभारंभ परिग्गह अणुमणमुद्दिट्ठ देसविरदो य।। सब ये पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत मिलकर बारह प्रकार का गृहस्थ धर्म है। इनका पालन करते हुये श्रावक क्रम से ग्यारह स्थानों को प्राप्त करते हैं। दर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषध, सचित्त त्याग रात्रिभुक्ति त्याग, ब्रह्मचर्य, आरम्भ निर्वृात, परिग्रह विरति, अनुमति त्याग और उद्धिष्ट त्याग ये देशव्रत के ग्यारह स्थान हैं। श्री गौतमस्वामी ने यहाँ इन बारहव्रतों को गृहस्थ का धर्म कहा है। क्योंकि ‘उत्तमे सुखे धरतीति धर्म:।’ जो उत्तम सुख में पहुँचावे वही धर्म है। तथा जो ग्यारह स्थान बताये हैं, इन्हें प्रतिमा भी कहते हैं। इनमें से दर्शन प्रतिमा से लेकर रात्रिभुक्त त्याग प्रतिमा तक— छह प्रतिमा तक के व्रत ग्रहण करने वाले श्रावक गृहस्थ हैं, इन्हें जघन्य श्रावक संज्ञा है। ब्रह्मचर्य व्रत से लेकर परिग्रह विरति तक मध्य के तीन प्रतिमा वाले मध्यम श्रावक हैं तथा अनुमति त्याग और उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा वाले उत्कृष्ट श्रावक कहलाते हैं। ग्यारहवीं प्रतिमाधारी तो क्षुल्लक—ऐलक ही होते हैं। आगे श्री गौतमस्वामी कहते हैं—
महुमंसमज्जजूआ वेसादिविवज्जणासीलो। पंचाणुव्वयजुत्तो सत्तेहिं सिक्खावएहिं संपुण्णो।।
मधु, मांस, मद्य, जुआ और वेश्या आदि व्यसन इनको त्याग करने वाला, पांच अणुव्रतों से युक्त तथा सात शिक्षाव्रतों से परिपूर्ण गृहस्थ होता है। यहाँ मद्य, मांस, मधु के त्याग का आदेश दिया है। तथा—
जुआ खेलना मांस मद, वेश्यागमन शिकार। चोरी पररमणीरमण सातों व्यसन निवार।।
इस प्रकार जुआ और वेश्या , ‘आदि’ शब्द से सातों व्यसनों के त्याग का उपदेश दिया गया समझना चाहिये। यहाँ विचारणीय विषय यह है कि गौतमस्वामी जैसे चारज्ञानधारी, सप्तऋद्धि समन्वित, तद्भवमोक्षगामी, गणधरदेव स्वयं गृहस्थ श्रावक को आत्मा—आत्मा का ही उपदेश न देकर मद्य,मांस, मधु त्याग और जुआ आदि व्यसनों के त्याग का उपदेश दे रहे हैंं तथा इसे ही वे गृहस्थों के लिये ‘धर्म,’ शब्द से घोषित कर रहे हैं। जो आज इस त्याग की परम्परा को ‘धर्म’ नहीं कहते हैं उन्हें इन पंक्तियों को देखना चाहिये। ये पंक्तियाँ साक्षात् गौतमस्वामी के मुख कमल से विनिर्गत हैं। पुन: वे स्वयं इस गृहस्थ धर्म के फल को बतलाते हुये कहते हैं— ‘जो एदाइं वदाइं धरेइ सावया सावियाओ वा खुड्डय, खुड्डियाओ वा अट्ठदह भवणवासिय वाण विंतरजोइसियसोहम्मीसाणदेवीओ वदिक्कमित्तं उवरिम अण्णदर महड्ढियासु देवेसु उववज्जंति।’ जो श्रावक, श्राविकायें, अथवा क्षुल्लक—क्षुल्लिकायें इन व्रतों को धारण करते हैं वे दश प्रकार के भवनवासी, आठ प्रकार के व्यंतर, पाँच प्रकार के ज्योतिषी और सौधर्म—ईशान स्वर्ग की देवियों का व्यतिक्रम कर ऊपर में अन्य किन्हीं भी महद्र्धिक देवों में उत्पन्न होते हैं। सम्यग्दृष्टि और व्रती चाहे स्त्री हों या पुरुष, वे भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देव—देवियों में जन्म नहीं लेते हैं तथा सौधर्म—ईशान स्वर्ग की देवियों में भी जन्म नहीं लेते हैं। अर्थात् कल्पवासी देवों की देवियाँ दो स्वर्ग तक ही जन्म लेती हैं। आगे तीसरे से लेकर सोलहवें स्वर्ग तक के देव अपनी—अपनी देवियों की उत्पत्ति ज्ञातकर आकर अपने—अपने स्वर्ग में ले जाते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव कल्पवासी देवियों में भी जन्म नहीं लेते हैं। इनसे अतिरिक्त सोलह स्वर्गों में विशेष—विशेष ऋद्धिधारी देवों में ही जन्म लेते हैं। सम्यग्दृष्टि कहाँ — कहाँ जन्म लेते हैं ? सो ही बताते हैं—
तं जहा—सोहम्मीसाणसणक्कुमारमाहिंदबंभबंभुत्तरलांतवकापिट्ठसुक्कमहासुक्कसतारसहस्सार आणतपाणतआरणअच्युदकप्पेसु उववज्जंति। अडयंबरसत्थधरा, कडयङ्गदबद्धनउडकयसोहा । भासुरवरबोहिधरा देवा य महड्ढिया होंति।।
सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ट, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत इन कल्पों में उत्पन्न होते हैं। वहाँ पर नाना प्रकार के वस्त्र—आभरण—कटक, अंगद मुकुट आदि से शोभायमान, दिव्य वैक्रियिक शरीर के धारक और देदीप्यमान बोधि के धारक महद्र्धिक देव होते हैं। इन पंक्तियों से यह स्पष्ट है कि वस्त्र सहित क्षुल्लक, ऐलक आदि जो कि संयमा—संयम को धारण करने वाले पंचमगुणस्थानवर्ती हैं। ये सोलह स्वर्ग के ऊपर नहीं जा सकते हैं। इन कल्पों के ऊपर दिगंबर मुनि ही जाते हैं। भले ही कोई द्रव्यलिंगी ही क्यों न हो वह भी अंतिम ग्रैवेयक तक जाने की योग्यता रखता है। यहाँ पर तो गृहस्थ धर्म की महानता को बतलाता है पुन: श्री गणधरदेव कहते हैं— उक्कस्सेण दो तिण्णि भवगहणाणि जहण्णे सत्तट्ठभवगहणाणि तदो समणुसुत्तादो सुदेवत्तं सुदेवत्तादो सुमाणुसत्तं तदो साइहत्था पच्छा णिग्गंथा होऊण सिज्झंतिबुज्झंति मुंचंति परिणिव्वाणयंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंति।’ ये श्रावक या श्राविका अथवा क्षुल्लक या क्षुल्लिका उत्कृष्टपने से दो या तीन भव ग्रहण करते हैं, जघन्य रूप से सात या आठ भव ग्रहण करते हैं। इन भवों में भी सुमनुष्यत्व से सुदेवत्व — अच्छे, कुलीन, श्रेष्ठ, राजा, महाराजा आदि मनुष्य होकर उत्कृष्ट जाति के देव हो जाते हैं। सुदेवत्वय से सुमनुष्यत्व को प्राप्त कर लेते हैं, पुन: अन्तिम भव में नियम से निग्र्रंथ मुनि होकर सिद्ध हो जाते हैं, मुक्त हो जाते हैं और परिनिर्वाण को प्राप्त कर लेते हैं। यह है गृहस्थ धर्म का फल, श्री गणधर देव के शब्दों में । अत: गृहस्थाश्रम में रहते हुये गृहस्थधर्म का पालन करना कितने महत्व की बात है यह समझना आवश्यक है। वास्तव में जो गृहस्थ मद्य, मांस, आदि के त्यागी होते हैं, जुआ आदि दुव्र्यसनों से दूर रहते हैं और अणुव्रतों का पालन करते हैं । वे घर में रहते हुये भी बहुत ही सुखी रहते हैं। राजनैतिक अन्याय न करने से उन्हें मानसिक शांति बनी रहती है। सर्वत्र प्रशंसा के पात्र होते हैं और सभी जनों में विश्वस्तता को भी प्राप्त कर लेते हैं। इन धर्मों से युक्त गृहस्थों को सर्वत्र सुख, शांति, यश और धन की वृद्धि आदि प्राप्त होते हैं तथा परभव में स्वर्ग के सुखों को भोग कर पुन: चक्रवर्ती, तीर्थंकर आदि के भी पुण्य को प्राप्त कर परंपरा से मोक्ष को प्राप्त कर शाश्वत सुख के भोक्ता बन जाते हैं। इसलिये गृहस्थाश्रम में रहते हुये प्रत्येक स्त्री या पुरुष को अणुव्रत आदि गृहस्थधर्मों का पालन करना बहुत ही जरूरी है, सर्वथा हितकर ही है ऐसा समझना चाहिये। क्योंकि यह धर्म भगवान् महावीर ने अपनी दिव्यध्वनि में कहा है और श्री गौतमस्वामी ने तीस वर्ष तक उनके पादमूल में रहकर उनसे श्रवण किया है और परमकरुणा बुद्धि से गृहस्थों के लिये कहा है।