णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं।
सुदर्शनमेरु वंदना तीर्थंकरस्नपननीरपवित्रजात:, तुङ्गोऽस्ति यस्त्रिभुवने निखिलाद्रितोऽपि।
देवेन्द्रदानवनरेन्द्रखगेन्द्रवंद्य:, तं श्रीसुदर्शनगिरिं सततं नमामि।।१।।
यो भद्रसालवननंदनसौमनस्यै:, भातीह पांडुकवनेन च शाश्वतोऽपि।
चैत्यालयान् प्रतिवनं चतुरो विधत्ते, तं श्रीसुदर्शनगिरिं सततं नमामि।।२।।
जन्माभिषेकविधये जिनबालकानाम्, वंद्या: सदा यतिवरैरपि पांडुकाद्या:।
धत्ते विदिक्षु महनीयशिलाश्चतसृ:, तं श्रीसुदर्शनगिरिं सततं नमामि।।३।।
योगीश्वरा: प्रतिदिनं विहरन्ति यत्र, शान्त्यैषिण: समरसैकपिपासवश्च।
ते चारणद्र्धिसफलं खलु कुर्वतेऽत्र, तं श्रीसुदर्शनगिरिं सततं नमामि।।४।।
ये प्रीतितो गिरिवरं सततं स्तुवन्ति, वंदन्त एव च परोक्षमपीह भक्त्या।
ते प्राप्नुवंति किल ‘ज्ञानमिंत’ श्रियं हि, तं श्रीसुदर्शनगिरिं सततं नमामि।।५।।
जो तीर्थंकर के न्हवन जल से पवित्र है, तीनों लोकों में सब पर्वतों से ऊँचा है और जो देवेन्द्र, असुरेन्द्र नरेन्द्र तथा विद्याधर इंद्रों से वंद्य है, उस श्री सुदर्शन मेरु को मैं सतत नमन करता हूँ।।१।।
जो शाश्वत होकर भी भद्रसाल नंदन, सौमनस और पाण्डुकवन से शोभित हो रहा है और जो प्रत्येक वन की चारों दिशाओं में जिन मंदिर को धारण कर रहा है, उस श्री सुदर्शन मेरु को मैं सतत नमन करता हूँ।।२।।
तीर्थंकर बालकों की जन्माभिषेक विधि के लिए जो पाण्डुक आदि शिलाएं हैं वे मुनिवरों से भी वंद्य हैं। जो पर्वत पाण्डुकवन में विदिशाओं में पूज्य ऐसी चार शिलाओं को धारण किये हुए हैं, उस श्री सुदर्शनमेरु को मैं सतत नमन करता हूँ।।३।।
जहाँ पर शांति की इच्छा करने वाले और समतारूपी एक अमृतरस पान के इच्छुक योगीश्वर महामुनि हमेशा विहार करते रहते हैं और वे वहाँ जाकर अपनी आकाश गमन चारण-ऋद्धि को निश्चित ही सफल कर लेते हैं, उस श्री सुदर्शनमेरु को मैं सतत नमन करता हूँ।।४।।
जो प्रीति से इस गिरिराज की सतत स्तुति करते हैं और यहाँ पर परोक्ष में ही भक्ति से वंदना करते हैं, वे निश्चित ही ज्ञान से सहित ऐसी ‘ज्ञानमती’ लक्ष्मी को प्राप्त कर लेते हैं, ऐसे उस श्री सुदर्शनमेरु को मैं सतत नमन करता हूँ।।५।।