श्रीमेरु सुदर्शन के ऊपर, सोलह चैत्यालय भास रहे।
उसमें क्रमश: वन भद्रसाल, नंदन सौमनसरु पांडुक हैं।।
चारों वन के चारों दिश में, शुभ चार-चार जिनमंदिर हैं।
प्रति जिनमंदिर में जिनप्रतिमाएँ, इकसौ आठ प्रमाण कहें।।१।।
ये इंद्रिय सुख से रहित अतीन्द्रिय, ज्ञान सौख्य संपतिशाली।
सब रागद्वेष विकाररहित, जिनवर प्रतिमा महिमाशाली।।
तनु बीस हजार हाथ ऊँची, पद्मासन मूर्ति सुखद सुन्दर।
प्रभु नासा दृष्टि सौम्य मुद्रा, संस्मित मुखकमल अतुल मनहर।।२।।
यह एक लाख चालिस योजन, ऊँचा शैलेन्द्र सुदर्शन है।
पृथ्वी पर चौड़ा दश हजार, ऊपर में चार हि योजन है।।
भूपर है भद्रसाल कानन, चंपक अशोक तरु आदि सहित।
चारों दिश में जिनभवन चार, उनमें जिनमूर्ति अकृत्रिम नित।।३।।
पृथ्वी से पांच शतक योजन, ऊपर नंदनवन राजे हैं।
स्वात्मैक निरत ऋषिगण गगने-गामी वहाँ निज को ध्याते हैं।।
उससे साढ़े बासठ हजार, योजन ऊपर सौमनस वनी।
सुरगण विद्याधर से पूजित, जिनवर मंदिर हैं अतुल धनी।।४।।
उससे छत्तीस सहस योजन, ऊपर पांडुकवन शोभ रहा।
चारों दिश चार जिनालय से, ध्यानी मुनिगण से राज रहा।।
चारों विदिशाओं में सुन्दर हैं, पांडुक आदिक चार शिला।
तीर्थंकर शिशुओं के अभिषव, महिमोत्सव से हैं वे अमला।।५।।
भू से मेरू इकसठ हजार, योजन तक चित्रित रत्नमयी।
उससे ऊपर कांचन छविमय, चूलिका कही वैडूर्यमयी।।
जिनमंदिर में ध्वजमंगल घट, है रत्न कनकमणिमालाएँ।
हैं रत्नजटित सिंहासनादि, अनुपम वैभवयुत मन भाएँ।।६।।
वंदन स्तुति दर्शनकर्ता, भविजन को पुण्य प्रदान करें।
ज्ञानी ध्यानी मुनिगण को भी, परमानंदामृत दान करें।।
उनकी मुद्रा को निरख-निरख, पापों का पुंज विनाश करें।
उनकी मुद्रा को ध्या-ध्या कर, परमाह्लादक निज में विचरें।।७।।
जय जय षोडश जिनवर मंदिर, जय जय अकृत्रिम सुखदाता।
जय जय मृत्युञ्जयि जिनवर की, प्रतिमा कल्पद्रुम समदाता।।
जय जय जय सकल विमल केवल, चैतन्यमयी आह्लाद भरें।
वे स्वयं अचेतन होकर भी, चेतन को सिद्धि प्रदान करें।।८।।
मैं भी उनको नितप्रति ध्याऊँ, वंदूँ प्रणमूँ गुणगान करूँ।
जिनसदन अकृत्रिम वंदन कर, निजका भव भ्रमण समाप्त करूँ।।
निज आत्मा में निज आत्मा को, पाकर निज में विश्राम करूँ।
दो केवल ‘ज्ञानमती’ मुझको, जिससे याचना समाप्त करूँ।।९।।
जो श्रद्धा भक्ती सहित, वंदे जिनवर धाम।
क्रम से ईप्सित सौख्ययुत, वे पावें निजधाम।।१०।।