-शार्दूलविक्रीडित-
निश्शेषावरणद्वयस्थिति निशाप्रान्तेन्तरायक्षयो द्योते मोहकृते गते च सहसा निद्राभरे दूरत:।
सम्यग्ज्ञानदृगक्षियुग्ममभितो विस्फारितं यत्र तल्लब्धं यैरिह सुप्रभातमचलं तेभ्यो यतिभ्यो नम:।।१।।
अर्थ —दोनों जो निश्शेषावरण अर्थात् ज्ञानावरण और दर्शनावरण, उनकी जो स्थिति, वही हुई रात्रि, उसके अंत होने पर तथा अंतराय कर्म के क्षय होने के प्रकाश होने पर और मोहनीय कर्म के द्वारा किये हुवे निद्रा के भार के शीघ्र ही दूर होने पर जिस सुप्रभात में सम्यग्ज्ञान तथा सम्यग्दर्शन दोनों नेत्र उन्मीलित हुवे, (खुले) उस अचल सुप्रभात को जिन यतियों ने प्राप्त कर लिया है, उन यतियों के लिये नमस्कार है।
भावार्थ —जिस प्रकार प्रभात काल में रात्रि का सर्वथा अंत हो जाता है तथा प्रकाश प्रकट हो जाता है और निद्रा का नाश हो जाता है अर्थात् सोते हुवे प्राणी उठ बैठते हैं और दोनों नेत्र खुल जाते हैं उसी प्रकार जिस सुप्रभात में ज्ञानावरण और दर्शनावरण के सर्वथा नाश होने पर तथा मोहनीय कर्म की कृपा से उत्पन्न हुई निद्रा के सर्वथा दूर हो जाने पर सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन प्रकट हुवे और ऐसे सुप्रभात को जिन मुनियों ने प्राप्त कर लिया है, उन मुनियों के लिये मस्तक झुकाकर नमस्कार है।।१।।
यत्सच्चक्रसुखप्रदं यदमलं ज्ञानप्रभाभासुरं लोकालोकपदप्रकाशनविधिप्रौढं प्रकृष्टं सकृत्।
उद्भूते सति यत्र जीवितमिव प्राप्तं परं प्राणिभि: त्रैलोक्याधिपतेर्जिनस्य सततं तत्सुप्रभातं स्तुवे।।२।।
अर्थ —तीनों लोक के स्वामी श्री जिनेन्द्र भगवान के उस सुप्रभात स्तोत्र को नमस्कार करता हूँ कि जो जिनेन्द्र भगवान सुप्रभात समस्त जीवों को सुख का देने वाला है और समस्त प्रकार के मलों से रहित होने के कारण अमल है और ज्ञान की जो प्रभा उससे देदीप्यमान है तथा समस्त लोकालोक को प्रकाश करने वाला है और जो अत्यंत महान है और जिसके एक बार ही उदित होने पर समस्त प्राणियों को ऐसा मालूम पड़ता है कि हमको उत्कृष्ट जीवन की प्राप्ति हो जाती है अर्थात् वे अपना जीवन धन्य समझते हैं।
भावार्थ —जिस प्रकार प्रभातकाल समस्त प्राणियों को सुख का देने वाला होता है और अंधकार के नाश हो जाने पर निर्मल होता है, देदीप्यमान सूर्य की कान्ति से चमकीला होता है और समस्त पदार्थों का प्रकाशक होता है और प्रकृष्ट होता है तथा जिस प्रभातकाल के उदित होने पर समस्त प्राणी अपना जीवन उत्कृष्ट समझते हैं, उसी प्रकार तीन लोक के स्वामी श्री जिनेन्द्रदेव का भी प्रभात (केवलज्ञान) है क्योंकि यह भी समस्त जीवों को सुख का देने वाला है (अर्थात् जिस समय केवलज्ञान प्रगट होता है, उस समय तीनों लोक के जीवों को आनंद होता है) और ज्ञानावरणादि कर्मों के अभाव से निर्मल है तथा ज्ञान की (अपनी) प्रभा से देदीप्यमान है और समस्त लोक तथा अलोक का प्रकाश करने वाला है और महान है और जिस केवलज्ञान के उदित होने पर समस्त प्राणी अपने को धन्य समझते हैं, उन तीनों लोक के स्वामी श्री जिनेन्द्रदेव के सुप्रभात (केवलज्ञान) के लिये नमस्कार है।।२।।
एकान्तोद्धतवादिकौशिकशतैर्नष्टं भयादाकुलै: जातं यत्र विशुद्धखेचरनुतिव्याहारकोलाहलम्।
यत्सद्धर्मविधिप्रवर्तनकरं तत्सुप्रभातं परं मन्येऽर्हत्परमेष्ठिनो निरुपमं संसारसंतापहृत्।।३।।
अर्थ —जिन अर्हंत भगवान के उपमारहित सुप्रभात के होने पर भयभीत होकर एकांत सिद्धांत से मत्त ऐसे सैकड़ों वादीरूपी कौशिक (वाल उल्लू) नष्ट हो गये और अत्यंत शुद्ध जो विद्याधरों की स्तुति उसका जो शब्द, उसको कोलाहल होता हुआ और जो सुप्रभात उत्तम धर्म की प्रवृत्ति का करने वाला है, वह अर्हंत भगवान का सुप्रभात (केवलज्ञान) समस्त संसार के संतापों को दूर करने वाला है, ऐसा मैं मानता हूं।
भावार्थ —जिस प्रकार सुबह के समय समस्त उल्लू छिप जाते हैं तथा पक्षीगण अपने कलकल शब्दों से आकाश में कोलाहल करते हैं और उत्तम धर्म की प्रवृत्तिहोती है अर्थात् जिस प्रभात काल में मनुष्य अपनी-अपनी धर्म क्रियाओं में तत्पर हो जाते हैं और जो सुप्रभात उपमारहित है तथा समस्त संतापों को दूर करने वाला है, उसी प्रकार अर्हंत भगवान की सुप्रभात है क्योंकि भगवान के सुप्रभात के (केवलज्ञान के) सामने भी वस्तु के एकांत स्वरूप को ही मानकर मदोन्मत्तवादीरूपी उल्लू नष्ट हो जाते हैं और जिस सुप्रभात में विद्याधर भगवान की स्तुति करते हैं, उस समय उनकी स्तुति के शब्द का कोलाहल सब जगह पर व्याप्त हो जाता है तथा भगवान का सुप्रभात (केवलज्ञान) श्रेष्ठ धर्म की प्रवृत्ति का करने वाला है अर्थात् जिस समय संसार अज्ञानांधकार से व्याप्त हो जाता है, उस समय केवलज्ञानी के केवलज्ञान से ही श्रेष्ठमार्ग की प्रवृत्ति होती है और यह भगवान का सुप्रभात उत्कृष्ट है, उपमा रहित है तथा समस्त संसार के संतापों का दूर करने वाला है, ऐसा मै मानता हूँ।।३।।
सानंदं सुरसुन्दरीभिरहित: शव्रैâर्यदा गीयते प्रात: प्रातरधीश्वरं यदतुलं वैतालिवैâ: पठ्यते।
यच्चाश्रावि नभश्चरैश्च फणिभि: कन्याजनाद्गायतयस्तद्वन्दे जिनसुप्रभातमखिलं त्रैलोक्यहर्षप्रदम्।।४।।
अर्थ —जिन जिनेन्द्र भगवान के समस्त सुप्रभात स्तोत्र को आनंदयुक्त देवागंना तथा इंद्र गान करते हैं तथा उपमा रहित जिस सुप्रभात स्तोत्र को वंदीजन राजाओं के सामने सुबह के समय पढ़ते हैं और गान करती हुई नाग कन्याओं से गाये हुये जिन स्तोत्र को विद्याधर तथा नागेन्द्र सुनते भी हैं, उन तीनों लोक को हर्ष के देने वाले भगवान के सुप्रभात स्तोत्र को मैं शिर नवाकर नमस्कार करता हूँ।
भावार्थ —जिन जिनेन्द्र भगवान के स्तोत्र को स्वर्ग में तो बड़े आनंद से देवांगना तथा इन्द्र गान करते हैं और मध्यलोक में राजाओं के आगे प्रात:काल में वंदीजन गान करते हैं तथा अधोलोक में नागकन्या अपने मधुर स्वर से गान करती हैं, जिसको बड़ी लालसा से विद्याधर तथा नागेन्द्र सुनते हैं, ऐसे उस तीनों लोकों को हर्ष के करने वाले भगवान के सुप्रभात को मैं नमस्कार करता हूँ।।४।।
उद्योते सति यत्र नश्यतितरां लोकेऽन्धचौरश्चिरं दोषेशोंतरतीत यत्र मलिनो मंदप्रभो जायते।
यत्रानीतितमस्ततेर्विघटनाज्जाता दिशो निर्मला वंद्यं नंदतु शाश्वतं जिनपतेस्तत्सुप्रभातं परम्।।५।।
अर्थ —जिन जिनेन्द्र भगवान के सुप्रभात के प्रकाशमान होने पर संसार में पापरूपी चोर सर्वथा नष्ट हो जाते हैं तथा नमनरूपी चंद्रमा मलिन मंदप्रभ (फीका) हो जाता है और अनीतिरूपी अंधकार के सर्वथा नाश हो जाने के कारण समस्त दिशाएँ स्वच्छ हो जाती हैं तथा जो भगवान का सुप्रभात उत्कृष्ट है तथा सदाकाल रहने वाला है और वदंनीक है, ऐसा वह जिनेन्द्र भगवान का सुप्रभात सदा इस लोक में जयवंत प्रवर्ते।
भावार्थ —जिस प्रकार सुबह के हो जाने पर सब चोर नष्ट हो जाते हैं और चंद्रमा मलिन तथा फीका पड़ जाता है तथा समस्त अंधकार के नाश हो जाने से दिशा सर्वथा स्वच्छ हो जाती है और जो उत्कृष्ट तथा वंद्य है, उसी प्रकार श्री जिनेन्द्रदेव का भी सुप्रभात (केवलज्ञान) है क्योंकि इस जिनेन्द्र के सुप्रभात के प्रकाशमान होने पर भी समस्त पापरूपी चोर सर्वथा नष्ट हो जाते हैं तथा मनरूपी चंद्रमा भी मलिन तथा फीका पड़ जाता है अर्थात् मन का व्यापार सर्वथा नष्ट हो जाता है और अनीति रूपी मार्ग के सर्वथा नाश हो जाने के कारण समस्त दिशाएँ निर्मल हो जाती हैं (अर्थात् भगवान के सुप्रभात के प्रकाशमान होने पर मिथ्यामार्ग की प्रवृत्ति नष्ट हो जाती है और उत्तममार्ग की प्रवृत्ति होती है) और जो जिनेन्द्र भगवान का सुप्रभात उत्कृष्ट है तथा सदा करने वाला है और समस्त भव्यजीवों को वंद्य (स्तुति के करने योग्य) है।।५।।
मार्गं यत्प्रकटीकरोति हरते दोषानुषंगस्थितिं लोकानां विदधाति दृष्टिमचिरादर्थावलोकक्षमाम्।
कामासक्तधियामपि कृशयति प्रीतिं प्रियायामिति प्रातस्तुल्यतयापि कोऽपि महिमापूर्व: प्रभातोऽर्हताम्।।६।।
अर्थ —जो अर्हंत भगवान का सुप्रभात मार्ग को प्रकट करता है और समस्त दोषों के संग से होने वाली स्थिति को नष्ट करता है तथा लोगों की दृष्टियों को शीघ्र ही पदार्थों के देखने में समर्थ बनाता है और जिन मनुष्यों की बुद्धि काम में आसक्त है अर्थात् जो पुरुष कामी हैं, उनकी स्त्रीविषयक प्रीति को नष्ट करता है इसलिये यद्यपि अर्हंतदेव का प्रभात प्रात:काल के समान मालूम पड़ता है, तो भी यह प्रात:काल से वचनागोचर अपूर्व महिमा का धारी है, ऐसा जान पड़ता है।
भावार्थ —यद्यपि शब्द से प्रात:काल तथा जिनेन्द्र का सुप्रभात समान ही प्रतीत होते हैं तो भी प्रात:काल की (सुबह की) अपेक्षा अर्हंत भगवान के सुप्रभात की महिमा अपूर्व ही है क्योंकि प्रात:काल तो मनुष्यों के चलने के लिये सड़क आदि मार्ग को प्रकट करता है किन्तु भगवान का सुप्रभात सम्यग्दर्शनादिस्वरूप मोक्ष के मार्ग को प्रकट करता है तथा प्रात:काल तो रात्रि की स्थिति का नाश करता है किन्तु भगवान का सुप्रभात रागद्वेषरूपी दोषों की स्थिति को दूर करता है और प्रात:काल तो घटपटादि थोड़े पदार्थों के देखने में ही मनुष्यों की दृष्टियों को समर्थ करता है किन्तु अर्हंत भगवान का सुप्रभात मनुष्यों की दृष्टि को मूर्तीक तथा अमूर्तीक समस्त पदार्थों को देखने में समर्थ बनाता है तथा प्रात:काल तो कामी पुरुषों की स्त्रीविषयक प्रीति को ही नष्ट करता है किन्तु अर्हंत भगवान का सुप्रभात समस्त प्रकार के मोह का नाश करने वाला है इसलिये प्रात:काल की अपेक्षा अर्हंत भगवान का सुप्रभात अपूर्व महिमा का धारी है, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं।।६।।
यद्भानोरपि गोचरं न गतवच्चिते स्थितं तत्तमो भव्यानां दलयत्तथा कुवलये कुर्वद्विकासश्रियम्।
तेज: सौख्यहतेरकर्तृ सदिदं नक्तंचराणामपि क्षेमं वो विदधातु जैनमसमं श्रीसुप्रभातं सदा।।७।।
अर्थ —जो अंधकार सूर्य के भी गोचर (विषयभूत) नहीं है, ऐसे इस भव्यजीवों के चित्तों में विद्यमान भी अंधकार को जो जिनेन्द्र का सुप्रभात नष्ट करने वाला है तथा भूमंडल में जो जिनेन्द्र का सुप्रभात विकास की शोभा को धारण करता है (अर्थात् पृथ्वीमंडल में विकसित होता है) और जो जिनेन्द्र का सुप्रभात रात्रि में गमन करने वाले जीवों के तेज तथा सुख के नाश को नहीं करता है, ऐसा यह समीचीन तथा उपमारहित जिनेन्द्र भगवान का सुप्रभात सदा आप लोगों के कल्याण को करे।
भावार्थ —जो जिनेन्द्र का सुप्रभात, जहाँ पर सूर्य की भी गम्य नहीं है, ऐसे भव्यजीवों के मन में मौजूद अंधकार का नाश करने वाले है तथा जो समस्त पृथ्वीमंडल के ऊपर प्रकाशमान है और सूर्य तो रात्रि में गमन करने वाले उल्लू आदि जीवों के तेज तथा सुख का नाश करने वाला है किंतु जिनेन्द्र भगवान का सुप्रभात रात्रि में गमन करने वाले जीवों के न तो तेज का नाश करने वाला है तथा न सुख का नाश करने वाला है और जो समीचीन है तथा उपमा रहित है, ऐसा यह जिनेन्द्र भगवान का सुप्रभात सदा आप लोगों का कल्याण करे।।७।।
भव्याम्बोरुहनन्दिकेवलरवि: प्राप्नोति यत्रोदयं दुष्कर्मोदयनिद्रया परिहृतं जागर्ति सर्वं जगत्।
नित्यं यै: परिपठ्यते जिनपतेरेतत्प्रभाताष्टकं तेषामाशु विनाशमेति दुरितं धर्म: सुखं वर्धते।।८।।
अर्थ —जिन जिनेन्द्रदेव के सुप्रभात में भव्यरूपी कमलों को आनंद का देने वाला केवलज्ञानरूपी सूर्य उदय को प्राप्त होता है और जिस भगवान के सुप्रभात में समस्त जगत खोटे कर्मों से पैदा हुई जो निद्रा, उससे रहित होकर प्रबोध अवस्था को प्राप्त होता है, आचार्यवर कहते हैं कि जिनेन्द्र भगवान के इस प्रकार के उत्तम सुप्रभाताष्टक को जो भव्यजीव नित्य पढ़ते हैं, उन भव्यजीवों के समस्त पापों का नाश हो जाता है और उनके धर्म की वृद्धि होती है तथा सुख की भी वृद्धि होती है।
भावार्थ —जिस प्रकार प्रात:काल में कमलों को आनंद के देने वाले सूर्य का उदय होता है तथा समस्त लोक निद्रा से रहित होकर प्रबोध अवस्था को प्राप्त हो जाता है अर्थात् जग जाता है, उसी प्रकार भगवान का सुप्रभात भी है क्योंकि भगवान के सुप्रभात में भी भव्यरूपी कमलों को आनंद के देने वाले अथवा भव्य पद्मनंदी आचार्य को आनंद के देने वाले केवलज्ञानरूपी सूर्य का उदय होता है और समस्त लोक खोटे कर्मों से पैदा हुई जो निद्रा, उससे रहित होकर प्रबोध अवस्था को प्राप्त होता है इसलिये आचार्यवर कहते हैं कि जो भव्यजीव सदा इस जिनेन्द्र भगवान के सुप्रभाताष्टक स्तोत्र को पढ़ते हैं, उन भव्यजीवों के समस्त अशुभ कर्मों का नाश हो जाता है और उनके सुख की तथा धर्म की वृद्धि होती है।।८।।
इस प्रकार श्रीपद्मनंदि आचार्य द्वारा विरचित श्रीपद्मनंदिपंचविंशतिका
में सुप्रभाताष्टकस्तोत्र नामक अधिकार समाप्त हुआ।