लिखना एक कला है और उसे सीखना पड़ता है। बोलना तो किसी स्कूल में पढ़े बिना भी आ जाता है, परन्तु लिखना पढ़कर भी नहीं आता। केव
ल कागज नीला या काला करने का नाम लिखना नहीं है। वह तो एक साधना है, तप है। जैसे बिना परिश्रम के कोई इंजीनियर नहीं बन सकता, वैसे ही बिना प्रयत्न के कोई लेखक नहीं हो सकता। अपने अनुभव के आधार पर एक सुलेखक होने या बनने की इच्छा रखने वालों के लिए हम दस टिप्स यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं-
१. पहली शर्त : लिखने की प्रेरणा-प्रेरणा ही सफलता की भूमिका है। जब तक प्रेरणा का अभाव रहा, तब तक कालिदास मूर्ख ही बने रहे। प्रेरणा का उदय होते ही वह महाकवि के रूप में विश्वविख्यात हो गये। प्रेरणा से बेचैनी उत्पन्न होती है और वह बनी रहे तो कुछ न कुछ हो ही जाता है। दृढ़ संकल्प कहो या प्रेरणा, दोनों अन्योनाश्रित हैं।
२. सुवाच्य लिखावट- सुस्पष्ट एवं सुपाठ्य लिखावट भी आवश्यक है। सुन्दर वस्त्राभूषण की भाँति ही वह सबको अपनी ओर आकर्षित करती है। कुछ लोग घसीटकर लिखते हैं। ऐसा लगता है, जैसे सूखी घास के रेशे तोड़कर कागज पर चिपका रहे हों। महात्मा गांधी की लिखावट अच्छी नहीं थी। अपनी आत्मकथा में इसके लिए उन्होंने पछतावा व्यक्त किया है।
३. प्रचुर शब्द भण्डार- हिन्दी भाषा के नये-नये शब्दों को हमेशा सीखते रहना चाहिए। अच्छे शब्दों की कमी से भाषा में रस और आनंद नहीं आ सकता। शब्दों का जितना बड़ा भंडार हमारे पास होगा, उतने ही कौशल से हम अपने मनोनुकूल भाव प्रगट कर सकते हैं। व्यापार में पूंजी का जो महत्व है, वही महत्व लेखन में शब्द-भंडार का है।
४. शब्दों का सुविचारित चयन- शब्द कामधेनु के समान हैं। कहा भी है-एक: शब्द: सम्यग्ज्ञात: सुप्रयुक्त: स्वर्गे लोके च समाधुग्धभवति।’ कौन सी बात किस प्रकार लिखी जाये, यह ज्ञान होना आवश्यक है। कठिन और अप्रचलित शब्दों का प्रयोग ठीक नहीं है। शोभन, नम्रतासूचक और अवसरानुकूल शब्द सबका ध्यान खींचते हैं। जिस प्रकार स्वर्णकार मीनाकारी करता है, उसी प्रकार लेखक को एक-एक शब्द चुन-चुनकर प्रयुक्त करना चाहिए।
५. सुगठित वाक्य रचना – वाक्य वीणा के समान है। जिस प्रकार वीणा के तारों के अपने-अपने स्थान पर रहने से ही उनसे मधुर ध्वनि निकलती है, उसी प्रकार वाक्य में शब्दों को यथास्थान रखने से ही अपेक्षित भावों का ज्ञान हो सकता है। श्री अनन्तगोपाल शेवड़े ने लिखा है, जो वाक्य बिजली के सजीव तार की तरह हृदय को धक्का न दे सके, उसे मैं असफल मानता हूँ।
६. भाषा-शुद्धता और व्याकरण – जैसे न तो कोई अशुद्ध पानी पीता है और न अशुद्ध भोजन करता है, वैसे ही अशुद्ध भाषा भी नहीं लिखनी चाहिए। पढ़े-लिखे लोग जब सत्रह को सतरह, स्टेशन को अट्टेसन, बीमारी बिमारी या थूकना को थुकना लिखेंगे तो प्रबुद्ध समाज में वे हँसी के पात्र ही बनेंगे। भाषा की शुद्धता व्याकरण के ज्ञान पर निर्भर है।
७. विराम चिन्हों का सही प्रयोग – कुछ लोग केवल पूर्ण विराम या खड़ी पाई को ही एकमात्र विरामचिन्ह समझते हैं और लाठी की तरह चाहे जहाँ उसे टिका देते हैं। मन में उठने वाले आरोह-अवरोह, कौतूहल, जिज्ञासा, शोक, आश्चर्य, भय आदि की सूचना विराम चिन्हों के समुचित प्रयोग के बिना कैसे की जा सकती है। विरामचिन्ह भी शब्द-सम्पदा के ही अंग है।
उसके सही उपयोग के अभाव में वाक्य कभी-कभी भ्रामक और निरर्थक हो जाता है। किसी ने लिखा है-‘महात्माओं का राग-द्वेष निर्भर नहीं होता।’ क्या कोई बता सकता है कि इसका क्या अर्थ है? यथार्थ में वाक्य होना चाहिए-‘महात्माओं का राग द्वेष-निर्भर नहीं होता।’ एक नुक्त की गड़बड़ से वाक्य अर्थहीन हो सकता है।
८. रचनाकौशल – शब्द तो र्इंटों की तरह हैं, किन्तु र्इंटे ही तो मकान नहीं है। उन्हें जमाने की कला भी आनी चाहिए। र्इंटों से कामचलाऊ घर-झोपड़ी भी बन सकती है और दर्शनीय महल-मंदिर भी। एक कुशल शब्द-शिल्पी के द्वारा प्रयुक्त शब्द वाक्य से काव्य बन जाते हैं।
९. सतत अभ्यास – सबसे बड़ी बात है लिखते रहने का निरन्तर प्रयत्न करना। कलम को माँजने में समय लगता है। एकलव्य की तरह साधना किए बिना केवल हाथ में कलम पकड़ते ही कोई लेखक नहीं बन जाता। प्रभाकर जी की एक रचना कई पत्रो से लौटा दी गई, किन्तु वह निराश नहीं हुए। हर बार सुधारकर नए-नए पत्रों में भेजते रहे।
अपनी बीसवीं कोशिश में वह उसे छपा हुआ देखने में सफल हुए। आचार्य शिवपूजन सहाय ने लिखा है- ‘अपनी रचना कम से कम चार-पाँच बार पढ़ो और उसे इतना सुधारो कि कोई भी उसकी किसी भूल पर ऊँगली न उठा सके।’
१०. अनुभव और ज्ञान – चिन्तन-मनन, स्वाध्याय, सत्संग और पर्यटन के द्वारा अपना ज्ञान और अनुभव बढ़ाते रहना चाहिए। श्री रामचन्द्र वर्मा ने अपनी लोकप्रिय पुस्तक ‘अच्छी हिन्दी’ में लिखा है-लेखक का काम कुछ अंशों में मधुमक्खियों से मिलता-जुलता है। वे मकरन्द-संग्रह के लिए कोसों चक्कर लगातीं और अच्छे-अच्छे फूलों पर बैठकर उनका रस लेती हैं।
तभी तो उनके मधु में संसार की श्रेष्ठ मधुरता रहती है। जो अच्छा लेखक बनना चाहते हों, उन्हें भी अच्छे-अच्छे ग्रंथों का खूब अध्ययन-मनन करना चाहिए। इससे उनकी रचनाओं में भी मिठास आने लगेगी।’ सच तो यही है कि प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्ति ही लेखन के क्षेत्र में सफल होते हैं। ये हैं कुछ टिप्स, यदि इन्हें ध्यान में रखकर लिखते रहेंगे को काठ की कलम में कमाल पैदा हो सकता है ।