इसी भरत क्षेत्र में काशी नाम का देश है। उसमें एक वाराणसी नाम की नगरी है। तीर्थंकर ऋषभदेव के द्वारा राज्य को प्राप्त राजा अकम्पन उस नगरी के स्वामी थे। इनके सुप्रभा नाम की देवी थी। नाथवंश के अग्रणी राजा और रानी सुप्रभा ने हेमांगद आदि हजार पुत्रों को जन्म दिया तथा सुलोचना और लक्ष्मीमती इन दो पुत्रियों को जन्म दिया। इन पुत्र-पुत्रियों से घिरे हुए राजा अकम्पन गृहस्थाश्रम के सर्वोत्तम सुखो का अनुभव कर रहे थे।
धीरे-धीरे पुत्री सुलोचना ने किशोरावस्था को प्राप्त कर सर्व विद्या और कलाओं में निपुणता प्राप्त कर ली। उस सुलोचना ने जिनेन्द्रदेव की अनेक प्रकार की रत्नमयी बहुत सी प्रतिमाएँ बनवाई थीं और उनके सब उपकरण भी सुवर्ण के बनवाये थे। उनकी प्रतिष्ठा कराके महाभिषेक किया था। अनंतर वह प्रतिदिन उन प्रतिमाओं की महापूजा करती। अर्थपूर्ण स्तुतियों से अर्हंतदेव की भक्तिपूर्वक स्तुति करती, पात्रदान देती, महामुनियों का बार-बार चिंतवन करते हुए सम्यग्दर्शन की शुद्धता प्राप्त कर ली थी।
एक बार फाल्गुन की आष्टान्हिका में उसने विधिवत् प्रतिमाओं का अभिषेक, पूजन करके अष्टान्हिक की महापूजा की और उपवास किया था। पूजा के बाद पूजा के शेषाक्षत देने के लिए वह सिंहासन पर स्थित पिता अकम्पन के पास गई। राजा ने भी उठकर और हाथ जोड़कर उसके दिये हुए शेषाक्षत लेकर अपने मस्तक पर रखे तथा कन्या से बोले- ‘‘हे पुत्रि! तू उपवास से खिन्न हो रही है, अब घर जा! यह तेरे पारणा का समय है।’’ स्वयंवर विधि-पुन: उस पुत्री को युवावस्था में देखकर राजा ने अपने मंत्रियों को बुलाकर उसके विवाह के लिए मंत्रणा की।
अनेक परामर्श के बाद उसमें से एक सुमति नाम के मंत्री ने कहा- ‘‘राजन्! प्राचीन पुराणों में स्वयंवर की उत्तम विधि सुनी जाती है। यदि इस समय सर्वप्रथम अकम्पन महाराज के द्वारा उस विधि को प्रारंभ किया जाए तो भगवान ऋषभदेव और उनके पुत्र भरत के मान इनकी प्रसिद्धि भी युग के अंत तक हो जाये। उस स्वयंवर में यह कन्या जिसे भी स्वीकार करेगी, वही इसका स्वामी होगा। ऐसा करने से किसी भी राजा से अपने विरोध की बात नहीं होगी।’’
यह बात राजा को अच्छी लगी। तब उन्होंने घर आकर यह बात रानी सुप्रभा से, बड़े पुत्र हेमांगद से, कुल परम्परा से आगत वृद्ध पुरुषों से तथा अपने सगोत्री बंधुओं से भी कही। सबसे पूर्वापर विचार किया। जब सभी ने इसकी सराहना की, तब राजा ने सुलोचना के स्वयंवर की घोषणा कर दी। एक विचित्रांगद नाम का देव, जो कि पूर्वभव में राजा अकंपन का भाई था, वह सुलोचना के प्रेम से वहाँ आ गया और राजा से स्वीकृति लेकर उसने बहुत ही सुन्दर स्वयंवर मण्डप तैयार किया। उस समय सभी ने यह कहा था कि- ‘‘इस संसार में कन्यारत्न के सिवाय और कोई उत्तम रत्न नहीं है।
समुद्र अपने रत्नाकरपने का खोटा अहंकार व्यर्थ ही धारण करता है क्योंकि जिनके यह कन्यारूपी रत्न है, उन्हीं राजा अकंपन और रानी सुप्रभा के यह रत्नाकरपना सुशोभित होता है।’’ राजा अकंपन ने स्वयं जिनेन्द्रदेव की महापूजा की और दीन, अनाथजनों को दान दिया। रानी सुप्रभा ने सुलोचना को मंगलस्नान कराकर नित्य मनोहर चैत्यालय में ले जाकर अर्हन्तदेव की महापूजा कराई। अनंतर देवनिर्मित रथ में बैठकर कन्या स्वयंवर मण्डप में आ गई। उसे वंâचुकी ने सभी राजाओं का परिचय कराया। अंत में सुलोचना ने हस्तिनापुर के राजा जयकुमार के गले में वरमाला पहना दी।
इसी भरत क्षेत्र के कुरुजांगल देश में हस्तिनापुर नगरी है। ऋषभदेव को आहार देने वाले राजा सोमप्रभ और उनके भाई श्रेयांसकुमार इसी पृथ्वी तल पर प्रसिद्ध ही हैं। सोमप्रभ की रानी लक्ष्मीमती के बड़े पुत्र का नाम जयकुमार था। इनका परिचय इतने से ही समझ लीजिए कि ये जयकुमार चक्रवर्ती भरत के सेनापति थे। चक्रवर्ती के दिग्विजय की सफलता में इनका बहुत बड़ा योगदान रहा है। एक सेनापति रत्न नाम से चक्रवर्ती के चौदह रत्नों में एक रत्न थे। सम्राट् भरत के बड़े पुत्र अर्ककीर्ति भी स्वयंवर मण्डप में थे।
उनके दुर्मषण नाम के एक सेवक ने आकर अर्ककीर्ति को यद्वा-तद्वा समझाकर युद्ध के लिए भड़का दिया। राजा अकंपन ने बहुत कुछ उपाय से शांति चाही किन्तु वहाँ घोर युद्ध छिड़ गया। तब सुलोचना ने मंदिर में शांतिपूजा का अनुष्ठान कर कायोत्सर्ग धारण कर लिया था, भयंकर युद्ध में जयकुमार ने अर्वकीर्ति को पकड़ लिया और महाराज अर्वकीर्ति को समझाने में नियुक्त कर उन्हें उनके स्थान पर भेज दिया और स्वयं अपने परिकर सहित भगवान के मंदिर में जाकर बहुत बड़ी शांतिपूजा की। सुलोचना ने युद्ध की समाप्ति तक चतुराहार त्याग कर कायोत्सर्ग धारण कर लिया था। पिता ने उसकी प्रशंसा कर उसका कायोत्सर्ग समाप्त कराया। अनन्तर बड़े ही उत्सव के साथ इनका विवाह सम्पन्न हुआ। पुन: राजा अवंपन ने अर्वकीर्ति से क्षमायाचना कर अपनी छोटी पुत्री लक्ष्मीमती उसके लिए समर्पित कर दी।
बाद में जयकुमार और अर्ककीर्ति का भी आपस में प्रेम करा दिया। उपसर्ग से रक्षा-कुछ दिनों बाद जयकुमार सुलोचना के साथ हस्तिनापुर आ रहे थे। मार्ग में गंगा नदी के किनारे डेरे में हेमांगद और सुलोचना आदि को ठहराकर स्वयं अयोध्या जाकर भरत को प्रणाम किया। भरत ने भी समयोचित वार्तालाप से जयकुमार को प्रसन्न कर अनेक वस्त्र, आभूषणों से उसका सम्मान कर विदा किया। जयकुमार हाथी पर बैठकर गंगा नदी में तैरते हुए वापस अपने डेरे में आ रहे थे कि जहाँ पर सरयू नदी गंगा से मिलती है, वहाँ पर एक मगर ने जयकुमार के हाथी का पैर पकड़ लिया और उसे डुबोने लगा।
इधर तट पर खड़े हुए हेमांगद आदि भाइयों ने तथा सुलोचना ने जयकुमार पर संकट आया देखकर णमोकार मंत्र का स्मरण किया। सुलोचना उपसर्ग समाप्ति तक चतुराहार त्याग कर अपनी सखियों के साथ णमोकारमंत्र का जप करते हुए गंगा नदी में घुसने लगी। इतने में ही गंगा देवी१ का आसन वंपायमान होते ही वह वहाँ आ गई और उपसर्ग दूरकर जयकुमार के हाथी को किनारे तट पर ले आई। वह नदी के तट पर उसी क्षण एक भवन बनाकर सुलोचना को सिहासन पर बैठाकर उसकी पूजा करके बोली- ‘‘हे सति! सुलोचने! आपके नमस्कार मंत्र के प्रसाद से ही मैं गंगा की अधिष्ठात्री देवी हुई हूँ। मुझे आप विंध्यश्री जानो…..।’’
इस बात को सुनकर जयकुमार ने इसका रहस्य पूछा। तब सुलोचना ने बताया- ‘‘विंध्यपुरी नगरी में विंध्यकेतु राजा की प्रियंगुश्री रानी से विंध्यश्री नाम की एक पुत्री हुई थी। उस राजा का मुझ पर प्रेम विशेष होने से उसने अपनी पुत्री मेरे पास छोड़ दी। यह मेरे पास सर्व गुणों को सीखते हुए मेरी सहेली थी। यह एक दिन उपवन में क्रीड़ा कर रही थी कि उसे एक सर्प ने काट खाया। तब मैंने इसे णमोकार मंत्र सुनाते हुए सल्लेखना ग्रहण करा दी। जिसके प्रभाव से यह गंगादेवी हो गई है और मेरा प्रत्युपकार करने के लिए आई है।’’ अनंतर गंगादेवी इन दोनों का सम्मान कर अपने स्थान पर चली गई। जयकुमार, रानी सुलोचना और उनके परिकर सहित अपनी हस्तिनापुर नगरी में आ गये। माता-पिता, पुत्र-पुत्रवधू से मिलकर बहुत प्रसन्न हुए। जयकुमार ने अनेक रानियों के मध्य सुलोचना को पट्ट बांधकर पट्टरानी बनाया।
बहुत काल तक सुखपूर्वक राज्य सुखों का अनुभव करते हुए जयकुमार और सुलोचना का काल क्षण के समान व्यतीत हो गया। एक समय जयकुमार सुलोचना के साथ कैलाशपर्वत पर घूम रहे थे। उस समय स्वर्ग में इन्द्र अपनी सभा में इन दोनों के शील की प्रशंसा कर रहा था। यह सुनकर ईष्र्यावश एक रविप्रभ देव ने जयकुमार के शील की परीक्षा के लिए एक कांचना नाम की देवी को भेज दिया। इधर सुलोचना जयकुमार से कुछ दूर हटकर फूल तोड़ रही थी। कांचना देवी ने विद्याधरी का रूप रखकर अनेक प्रकार से जयकुमार को रिझाना चाहा किन्तु जयकुमार ने कहा-मुझे परस्त्री का त्याग है इसलिए तू मेरी बहन के समान है। तब देवी राक्षसी वेष बनाकर जयकुमार को उठाकर भागने लगी।
उधर सुलोचना ने दूर से देखते ही उस राक्षसी को जोरों से फटकारा जिससे वह देवी उसके शील के प्रभाव से डरकर अदृश्य हो गई। अहो! शीलव्रती स्त्री से जब देवता भी डर जाते हैं तब औरों की तो बात ही क्या है! कांचना देवी ने उन दोनों के शील को स्वयं देखकर जाकर अपने स्वामी से बताया और बहुत प्रशंसा की। जयकुमार, सुलोचना की दीक्षा-एक बार जयकुमार अपने अनेक भाइयों और रानियों के साथ भगवान ऋषभदेव के समवसरण में पहुँचे। वहाँ दर्शन, पूजन के बाद उपदेश सुना। अनन्तर विरक्त होकर अपने अनेक भाइयों और चक्रवर्ती के अनेक पुत्रों के साथ जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। तत्क्षण ही जयकुमार को मन:पर्ययज्ञान और ऋद्धियाँ प्रगट हो गर्इं और वे भगवान के इकहत्तरवें (७१वें) गणधर हो गये।
पति के वियोग से दु:ख को प्राप्त हुई सुलोचना को चक्रवर्ती की पट्टरानी सुभद्रा ने समझाया तब उसने भी विरक्त हो ब्राह्मी आर्यिका के पास आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर ली१। दीक्षा लेकर सुलोचना ने तपश्चरण के साथ ही ज्ञान की भी विशेष आराधना की जिससे उन्हें ग्यारह अंगों का ज्ञान हो गया। हरिवंशपुराण में कहा है- ‘‘दुष्ट संसार के स्वभाव को जानने वाली सुलोचना ने अपनी सपत्नियों के साथ सपेद साड़ी पहनकर ब्राह्मी और सुन्दरी के पास जाकर आर्यिका दीक्षा ले ली। मेघेश्वर जयकुमार शीघ्र ही द्वादशांग के पाठी होकर भगवान के गणधर हो गये और आर्यिका सुलोचना भी ग्यारह अंगों की धारक हो गर्इं।
२ इस उदाहरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि र्आियकाएँ भी ग्यारह अंग तक पढ़ सकती हैं तथा भगवान के समवसरण में ब्राह्मी गणिनी के समान ही सुन्दरी भी अपनी बहन के साथ गणिनी स्थान को प्राप्त थीं। इस प्रकार सुलोचना ने जिनेन्द्रदेव की भक्ति और शील में अपना नाम अमर किया वैसे ही आर्यिका बनकर ग्यारह अंगों को पढ़कर आर्यिकाओं में भी अपना नाम उज्ज्वल किया है। संकटहरण विनती में भक्त लोग पढ़ा करते हैं-
हाथी पे चढ़ी जाती थी सुलोचना सती।३ गंगा में ग्राह ने गही गजराज की गती।
उस वक्त में पुकार किया था तुम्हें सती। भय टार के उबार लिया हे कृपापती।।