प्रतिष्ठा के शास्त्रों का अध्ययन करते हैं तो स्पष्ट हो जाता है कि प्रतिष्ठा में साधु सान्निध्य अनिवार्य है अत: प्रयत्नपूर्वक साधुओं को आमंत्रित करें।
१. प्रतिष्ठासार संग्रह (आ.वसुनन्दि महाराज)
आचारादि गुणाधारो रागद्वेष विवर्जित: यशपातो जिझत: शान्त: साधुवर्गाग्रणी र्गणी।।८।।
अशेष शास्त्र विच्चक्षु प्रव्यत्तंकं लौकिक स्थिति: गम्भीरो मदुभाषीच स: सूरि परिकीर्तित:।।९।।
आचारादि गुणसहित, रागद्वेष रहित, निष्पक्ष, शान्त शास्त्रों के ज्ञाता, गम्भीर, मिष्टभाषी आचार्य है उनका सान्निध्य प्राप्त हो।
२. प्रतिष्ठा सारोद्वार (पं.आशाधरजी) अध्याय १ पृ.१३
एदं युगीन श्रुत धद्धुरीणो गण पालक:। पंचाचार परोदीक्षा प्रवेशाय तयोर्गुरू:।।७।।
व्यवहार शास्त्र को जानने वाला श्रुत ज्ञानियों में मुख्य, साधु संघ का मानने वाला दर्शनाचार आदिक पाचों आचारों को पालने में लीन ऐसा आचार्य यजमान और प्रतिष्ठाचार्य को प्रतिष्ठा कराने की दीक्षा देने वाला गुरू कहा गया है।
३. प्रतिष्ठापाठ (आ. जयसेन) पृ. ५६
गुर्वाज्ञा लंभन विधि, प्रातर्गृहीत्ववा पूजनाध्र्यं वादित्रनादोल्वण पात्रया स:
गुरुपकण्ठेनतमस्त— केन भूमिं स्पृशन् वाक्यमुपाचरेत्सत् ।।२३४।।
यजमान प्रभात समय गुरू पूजन निमित अध्र्य पात्र में लेकर नाना प्रकार वादित्रों को बजाय यात्राकरि मुनिसमीप मस्तक नवाय पृथ्वी को स्पर्श करता विनती करे हैं। हम प्रतिष्ठा कराना चाहते हैं हमें उपदेश दीजिये।
४. प्रतिष्ठापाठ (नेमिचन्द्रदेव)
चेत्यादि भक्तिभि: स्तुत्वा देवं शेषं समुद्वहन् धर्माचार्य समभ्र्यचर्य नत्वा विज्ञापये दिदम् ।।१७
एवं युगीनाखिल शास्त्रदृष्टे त्वं परंच भेदाचर णेकतान आचार्य
वर्यागम देशितांनोनिरूपपयोपासककार्यपूजाम् ।१८
यष्ट याजक यो र्लक्ष्म यज्ञ दीक्षोचितं व्रतम् भवत: श्रोतु मिच्छामि भगवन् भव्यं बांधव।।१९
त्वत्प्रसादात् प्रबुध्या र्हत्पूजादि लक्षणं स्फुटम् । जिनप्रतिष्ठा मिच्छाम: कर्तुमेतेऽद्य वालिशा: । २०
चैत्यभक्ति पढ़कर जिनेश्वर की स्तुति करें और शेषाक्षत धारण करने धर्माचार्य के पास जाकर उनकी पूजा करें और नमोस्तु करके निम्नलिखित प्रार्थना करें कि धर्माचार्य जो कुन्दकुन्दादिक अर्वाचीन आचार्य हुए हैं उनके द्वारा लिखित जो शास्त्र हैं ये ही उनके लिए नेत्र स्वरूप हैं, आप पांच प्रकार आचार पालन करने में निमग्र रहते हैं। श्रावकाचार में जिनका वर्णन किया है ऐसे श्रावक का आचरण व पूजा का स्वरूप हमे समझाइये।
हे भगवान आप सभी भव्य जीवों के अकारण मित्र है इसलिए यज्ञनायक तथा प्रतिष्ठाचार्य के लक्षण और प्रतिष्ठा विधि करने के लिए जिस यज्ञ दीक्षा लेने पर दोनों को व्रत पालन करना पड़ते हैं उसका विवरण सुनने की हम इच्छा प्रकट करते हैं। आचार्य देव हम आपसे पूजाओं का स्वरूप विस्तार पूर्वक समझना चाहते हैं क्योंकि हम मन्दबुद्धि वाले जिन प्रतिष्ठा कराने के इच्छुक हैं इस प्रकार प्रार्थना करें तब आचार्य देव समस्त विधि समझाते हैं।
इन प्रमाणों से स्पष्ट हो जाता है कि जिन बिम्ब प्रतिष्ठा में मुनिराजों का सान्निध्य अवश्य ही होना चाहिए। प्रतिष्ठा शास्त्रानुसार यह निर्णय होता है कि जहाँ मुनिराज का सान्निध्य हो वहां सूरिमंत्र उनसे ही दिलाया जाये। यदि सान्निध्य नहीं हो सकता तो प्रतिष्ठाचार्य सूरिमंत्र देवें। हम वर्तमान की व्यवस्था देखें किन्तु भूतकाल में क्या रहा होगा, उस समय के अनुसार व्यवस्था हुई होगी। भविष्य में क्या होगा ?
यह हमारे ज्ञान का विषय नहीं उस समय की व्यवस्था जो होगी जो होंगे वह करेंगे। हम अपनी चिन्ता करें। अपना जीवन आगमानुकूल बनाते हुए आत्म कल्याण करें। एक समय ऐसा था कि साधुओं का अभाव था उस समय मानव साधु दर्शन को तरसता था किन्तु आज साधुओं का सद्भाव है। यदि सूरिमंत्र मात्र प्रतिष्ठाचार्य दें तो यह हमारा दुर्भाग्य होगा कि हम प्रतिष्ठा में साधु का सान्निध्य नहीं कराते हैं। दिगम्बर मुद्रा वाले साधुओं द्वारा सूरिमंत्र के प्रमाण
१. नीतिसार समुच्चयपृ. २२ आचार्य इन्द्रनन्दि कृत
चतु: संघ (कृत) संहिताय जैन बिम्ब प्रतिष्ठितं नमेन्नार संघस्य यतोन्यास विपर्यय:।।४।।
प्रतिष्ठा कल्प आदि शास्त्रों की सहिंता कहते हैं। उपर्युक्त चार संघों (देवसंघ, सिंहसंघ, सेनसंघ, नन्दिसंघ) के द्वारा प्रतिष्ठा कल्प में कथित सूरि मंत्रों द्वारा प्रतिष्ठित जैन बिम्ब को नमस्कार करना चाहिए।
२. प्रतिष्ठा विधि दर्पण (गणधाराचार्य कुंथु सागर जी महाराज) पृ. २१२
ऊँ ह्रीं क्षुं हूं सु स: क्रौं ऐं अर्हं नम: सर्व अर्हन्त गुणभागी भवतु भवतु स्वाहा
इस मंत्र को निर्ग्रन्थ मुनि प्रतिमा के सीधे कान (दाहिने) में २१ बार बोले।
ऊँ ह्रीं श्री क्लीं हां ह्रौं श्रीं श्रीं जय द्रां कलि द्राक्षसां भृजस जिनेभ्यों ऊँ भवतु स्वाहा।
दर्पण सामने रखकर प्रतिमा के बायकर्ण में निर्ग्रन्थ मुनि पांच बार पढ़े। सूरिमंत्र को परदे के भीतर निर्ग्रन्थ मुनि ही देवें। सूरिमंत्र देते समय एक भी गृहस्थ वस्त्रधारी कोई भी वहां पर नहीं रहना चाहिए। यह सूरिमंत्र गुरु परम्परा से प्राप्त है, मूलरूप में सूरिमंत्र यही है। वर्तमान में प्रतिष्ठाचार्य णमोकार मंत्र या गायत्री मंत्र या इधर उधर से उपलब्ध मंत्र ही सूरिमंत्र समझकर भगवान के कान में फूक देते हैं यह ठीक नहीं मैंने सभी प्रतिष्ठा पाठ देखे हैं किसी भी प्रतिष्ठा पाठ में सूरिमंत्र नहीं दिया गया है। आचार्यों ने सूरिमंत्र गोप्य रखा है।
इसलिए शास्त्रों में वर्णन नहीं मिलता। दक्षिणात्य परम्परा में तो प्रतिष्ठाचार्य भगवान को सूरिमंत्र देते ही नहीं हैं। जब तक सूरिमंत्र नहीं दिया जावे तब तक प्रतिमा में प्राण नहीं होता। इसलिये सूरिमंत्र अवश्य ही देना चाहिये निग्र्रन्थ दिगम्बर साधु ही सूरिमंत्र देवे क्योंकि निग्र्रन्थ वीतरागी भगवान के लिए निर्ग्रन्थ वीतरागी साधु ही प्राण प्रतिष्ठा मंत्र दे सकता है।
वर्तमान में कुछ प्रतिष्ठाचार्य पंडित कुछ क्षण के लिए नंगे होकर सूरिमंत्र भगवान को दे देते हैं। यह प्रथा ठीक नहीं । प्रतिष्ठाचार्यों को विचार करना चाहिए। जहां भी कल्याणक हो वहां किसी निग्र्रन्थ साधु को अवश्य ही बुलाना चाहिए। वस्त्र छोड़कर पुन: वस्त्र ग्रहण करना पाप का कारण है। निग्र्रन्थ वेष धारण कर छोड़ा नहीं जाता।
प्रतिष्ठा कराने का अधिकारी कौन और कैसा होना चाहिए सारोद्धार अध्याय १ पृ.१२ की टिप्पणी में पं. आशाधर जी ने लिखा है कि वानप्रस्थ और भिक्षु को प्रतिष्ठा कराने का निषेध है यह प्रतिष्ठा नहीं कराते सूरिमंत्र देते हैं। प्रतिष्ठाचार्य के लक्षण बनाते हुए लिखा है चौथी प्रतिमा से लेकर आठवीं प्रतिमा तक पांच प्रतिमा वालों में कोई हो वही अधिकारी है इससे ज्ञात होता है कि यदि प्रतिष्ठाचार्य व्रती नहीं है तो पात्रों को संयम पालने का नियम कैसे दे सकता है ?
प्रतिष्ठाचार्य के लक्षणों में त्यागी , व्रती, वर्णी श्रावकाचार का पालन करने वाला होना चाहिए। अपनी पात्रता शास्त्रानुसारबनाना चाहिए।प्रत्येक कल्याणक की क्रिया में मंत्राराधक भक्तियां अवश्य ही करना चाहिए। मुहूत्र्त एवं समय पर क्रिया होना चाहिए। सन्त शिरोमणि आचार्य विद्यासागरजी के सान्निध्य में प्रतिष्ठायें अधिक कराने का सौभाग्य मिला।
गर्भ एवं जन्म कल्याण आचार्य श्री को आमंत्रित करते थे तो में आचार्य श्री एक महत्वपूर्ण आशीर्वाद रूप से कहते थे कि पंचकल्याणक में ढाई दिन गृहस्थों को हैं और ढाई दिन हमारे लिए हैं । राज्याभिषेक तक गृहस्थ कार्य करते हैं इसके बाद साधुओं का कार्य प्रारंभ हो जाता है।
(प्रतिष्ठापाठ श्री जयसेनाचार्य जी ने पृष्ठ १२ श्लोक ५२/५३ में लिखा है प्रतिष्ठा में इतनें मनुष्य अवश्य अधिकारी चाहिए।
आचार्यों मघवा कर्ता तत्पत्ती पूजकस्तथा पञ्चैते यज्ञ ने तारो मुख्या व्रत समन्विता ।।५२।।
१. आचार्य सूरिमंत्र दाता | २. इन्द्रक्रिया कर्ता | ३. यज्ञकर्ता यजमान |
४. यजमान की पत्नी | ५. पूजन का कर्ता |
यह पंचयज्ञ के कर्ता व्रतधारी जानना।
सामग्री सम्पत्तिकरा मंत्रिणोऽध्यापकाबुधा: श्री ह्यादिकन्यका लौकान्तिक कल्पा अपिस्मृता:।।५३।।
१. सामग्री संपादन करने वाला | २. मंत्री सभासद | ३. अध्यापक पाठवक्ता |
४. पण्डित विधि का जानने वाला | ५.श्री ह्रीं आदि कान्या | ६. लौकान्तिक देव |
इतने पात्र आवश्यक हैं यह सब व्रत पालन करने वाले होना चाहिए। इन पांचों में सरिमंत्र दाता आचार्य लिखा है यह ध्यान देना चाहिए।
प्राचीन पंचकल्याणक बिम्ब प्रतिष्ठा की विधि निम्न प्रकार से होती थी। मण्डप निर्माण के बाद यज्ञवेदी बनती थी उसके चारों तरफ से परदा लगाकर, बंद करके प्रतिष्ठा की समस्त विधि उस परदे के अन्दर की जाती थी।पश्चात मंडप में स्थित धार्मिक जन को ज्ञान कराया जाता था कि यह विधि हो गई तब विधि विधान एकाग्रता पूर्वक मंत्राराधन, भंक्तियां, प्रतिष्ठा संबंधी क्रियायें पूर्ण विधि से सम्पन्न की जाती थी उन प्रतिबिम्बों में अतिशय पाये जाते थे जिन्हें हम चतुर्थकाल की प्रतिमा कहते हैं, वह वर्तमान में हमारे सामने हैं ।
आज प्रदर्शन अत्यधिक हो गया साथ ही सामूहिक रीति से होने वाले कार्यक्रम की समय सीमा भी नहीं रह पाली अर्थ संग्रह के लिए बोलियां अधिक होने से समय पर विधि पूर्ण रूपेण भी नहीं हो पाती आज कल प्रतिष्ठाचार्य आगमानुसार विधि नहीं करा रहें हैं। एक प्रतिष्ठा का कार्यक्रम देखा— कल्याणक की विधि नहीं हुई और कल्याणक की पूजा पहिले हो गई।
कल्याणक की पूजा के बाद बालक्रीड़ा कराई गई। ज्ञान कल्याणक के बाद आहार विधि की गई। स्मरण आया कि श्वेताम्बर समाज केवली को कवलाहार मानते हैं। एक प्रतिष्ठाचार्य रात्रि के ८ बजे केवलज्ञान प्राप्ति विधि करा रहे थे उन्हें दिन में समय नहीं मिला एक प्रतिष्ठाचार्य दीक्षा कल्याणक के दिन अपरान्ह पांच बजे तक प्रदर्शन में मग्न थे दीक्षा विधि कब हुई पता नहीं जबकि सूर्यास्त ६ बजे होता था।
इस प्रकार की व्यवस्था को देखकर लगता है अब मनमानी ज्यादा हो रही है। जिनवाणी का अवर्णवाद किया जा रहा है। वृहद वास्तु माला पृ.त १७८ पर प्रतिष्ठा के फलादेश का उल्लेख किया है—
अर्थ ही ना कर्तारं मंच हीनातुऋत्विजम् श्रियं लक्षण हीनातु न प्रतिष्ठा समो रिपु।।३५।।
द्रव्यहीन प्रतिष्ठा यजमान का, मंत्रहीन प्रतिष्ठा आचार्य का, लक्षणहीन प्रतिष्ठा लक्ष्मी का नाश करती है इसलिए प्रतिष्ठा समान कोई वैरी नहीं है। प्रतिष्ठासार संग्रह में लिखा है,
यदि महोतथा भूता प्रतिष्ठा कुरूते तथा पुरंराष्ट्र नरेन्द्रश्च प्रजा सर्वा विनश्यति।।
प्रतिष्ठादि क्रियाओं में प्रमाद व प्रदर्शन न करते हुए विधिवत् सम्पन्न करायें अन्यथा अनुष्ठान विधि, राज, प्रजा, राष्ट्र, प्रतिष्ठाचार्य और प्रतिष्ठाकारक के विनाश का कारण हो सकती हैं।
सूरिमंत्र विशेषांक में सम्मानीय हितैषीजी ने मेरे ऊपर विशेष ध्यान दिया यदि प्रत्येक विषय पर लिखा जाय तो उतना लिखना संभव नहीं। मेरे सामने १८ प्रतिष्ठा ग्रंथ मौजूद हैं। जिनका शक्तयानुसार अध्ययन किया गया।
किसी भी प्रतिष्ठा ग्रंथ में सूरिमंत्र और उसकी विधि का वर्णन नहीं मिला। आचार्य जयसेन महाराज ने तिलकदान, मुखोद्धाटन, अधिवासना नेत्रोन्मीलन विधि के पश्चात लिखा कि— अत: सद्यव सूरिमंत्रेण सर्वज्ञ त्वोपलंभन विदध्यात्’ यहाँ आचार्य ने सूरिमंत्र कौन हैं कैसे देना नहीं लिखा किन्तु मंत्राधिकार में तीन सूरिमंत्र लिखे हैं। प्रतिष्ठा प्रदीप, प्रतिष्ठा रत्नाकर, प्रतिष्ठा पाठसंग्रह इस ही प्रतिष्ठा ग्रंथ के आधार पर संग्रहित है।
(आचार्य श्री जयसेन महाराज ने पृ. १०८)
प्राण प्रतिष्ठा प्याधिवासनाच संस्कार नेत्रोच्छृति सूरिमंत्रा: मूलं जिनत्वाऽधिगमे क्रियाऽन्या भक्ति प्रधाना सुकृतोद् भवाय।३४९।
प्राण प्रतिष्ठा विधि, अधिवासना, मंत्र विधि सर्वज्ञत्व प्राप्ति में मुख्य हैं, यह विधि सर्व बिम्बों में करना आवश्यक हैं। प्रतिष्ठाचार्य ध्यान दें किसी प्रतिष्ठा शास्त्र में सूरिमंत्र लिखा और न विधि लिखी अधिकांश प्रतिष्ठा शास्त्रों में अधिवासना नेत्रोन्मीलन के पश्चात अनंत चतुष्टय प्राप्त कराने वाले मंत्रों द्वारा सर्वज्ञता प्राप्त करा दिया तब सूरिमंत्र दिया ही नहीं विचारणीय है।
सूरिमंत्र विशेषांक में पं. मधुबनजी जलगांव वाले अपने लेख पृष्ठ १३ में लिख रहे हैं मैने शताधिकवार नग्न होकर सूरिमंत्र दिया है। यह साधु सान्निध्य से वंचित रहे हैं। पं. सुरेशचंद्रजी दमोह पृ. ४४ पर लिख रहे हैं कि पिताजी ने अनेक पंचकल्याणकों में नग्न होकर सूरिमंत्र दया इनके पिता जी ने पांच प्रतिष्ठाचार्यो से अध्यन्न किया उसमें श्री पं. नाथूलालजी शास्त्री का नाम भी है। पं. मधुकरणी लिख रहे हैं। पं. नाथूलाल जी के प्रतिष्ठा प्रदीप में लिखा है।
कि विद्वान सूरिमंत्र देने से पहले अपने वस्त्र उतार दें। पश्चात् सूरिमंत्र देवें यह किस पृष्ठ पर लिखा है इत्यादि स्पष्ट कर देते तो उत्तम होता जबकि श्री पं. नाथूलाल जी शास्त्री ने प्रतिष्ठा प्रदीप १ पृष्ठ १८५ पर सूरिमंत्र लिखकर मंत्र के नीचे लिखा ‘पहिले १०८ बार जपकर लें। फिर जहां तक हो किन्हीं दिगम्बर मुनि से यह मंत्र प्रतिमा को दिलावें।
प्रतिष्ठा प्रदीप २ के पृष्ठ १९७ पर सूरिमंत्र लिखकर लिखा है पहिले १०८ बार जाप कर ले। फिर प्रतिष्ठा में विद्यमान दिगम्बर मुनि से यह मंत्र प्रतिमा को दिलावे। विचारणीय बात है कि यहां तो पं. जी.सा. ने नग्न होकर प्रतिष्ठाचार्य सूरिमंत्र दे, यह नहीं लिखा। आपने एवं सुरेशचन्द्र जी के पिता ने नग्न होकर सूरिमंत्र किस आधार पर दिया यह निर्णय अवश्य दें।
सुरेश चन्द्र जी आगे अपने लेख से लिख रहे हैं सूरिमंत्र अचेलक दशा में दिया जाना चाहिए। अत: यह संस्कार दिगम्बर मुद्राधारी मुनि आचार्य द्वारा किया जाना चाहिए। श्री पं. नाथूलाल जी सा. दिगम्बर मुनि के पक्षधर रहे हैं। सूरिमंत्र विशेषांक पृष्ठ १८ पर श्री हितैषी सा. लिख रहे हैं कि वास्तव में तो सूरिमंत्र देने वाले से तात्पर्य प्रतिष्ठाचार्य से ही है। नग्न दिगम्बर मुनि आचार्य से नहीं, यह वाक्य सर्वथा उचित नहीं,यह माना कि प्रतिष्ठा संबंधी समस्त विधि विधान का प्रमुख प्रतिष्ठाचार्य है।
प्रत्येक विधि विधान प्रतिष्ठाचार्य ही कराता है किन्तु सूरिमंत्र दिगम्बर मुद्रावालों से दिलाव। यदि साधु नहीं हो तो प्रतिष्ठाचार्य ही सूरिमंत्र दे सर्वथा एकान्त नहीं अनेकान्त से कार्य करना उचित लगता है। मेरे पिताजी प्रतिष्ठाचार्य थे उनसे मैंने प्रतिष्ठा कार्य को प्राप्त क्रिया उनकी डायरी से मंत्र लिखे हैं मैंने २५० पंचकल्याणक किए जिसका विवरण पुष्पांजलि में स्पष्ट है किन सन्तों के सान्निध्य में किए सब लिखा है किन्तु एक भी बार सूरिमंत्र नहीं दिया प्रत्येक प्रतिष्ठा में सान्निध्य साधुओं का रहा है।
एक बार विषमता पैदा हो गई चन्द्रपुर महाराष्ट्र में पंचकल्याणक था कमेटी के साथ में परम पूज्य शिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागरजी उस समय मण्डला में विराजमान थे निवेदन किया कि आपका सान्निध्य चन्द्रपुर प्रतिष्ठा में हो ऐसी प्रार्थना है।
आचार्य श्री ने कहा हम बहुत दूर है संघ के साधु समीप नहीं जो वहां पहुंच सके मैंने कहा सूरिमंत्र कौन देगा। आचार्य श्री ने कहा दे देना। मैंने निवेदन किया— कि आज तक सूरिमंत्र दिया नहीं तब आचार्य श्री ने दशमी प्रतिमा वाले दो ब्रह्मचारी इस भावना वाले दिये जो दिगम्बर मुद्राधारण करना चाहते थे उन्होंने सूरिमंत्र निर्वस्त्र अवस्था में दे दिया था अत: हमारा कत्र्तव्य है कि हम साधुओं का सान्निध्य जरूर दिलावें ।
यदि संभव नहीं तो प्रतिष्ठाचार्य सूरिमंत्र दें। मेरा यही मत था श्री हितैषी जी ने अपने लेख में बहुत घुमाया, बहुत कुछ लिखा किन्तु अंत में वह भी विशेषांक के पृष्ठ ३३३ पर हितैषी जी अपनी बात पर स्थिर नहीं रह पाये कि सूरिमंत्र प्रतिष्ठाचार्य दे यह भी भूल गये और पं.टोडरमल स्मारक ट्रस्ट के निर्देशन में सम्पन्न प्रतिष्ठा में सूरिमंत्र साधुओं से दिलाया और भविष्य में भी साधुओं के नाम अंकित किये । जबकि वह प्रतिष्ठाचार्य द्वारा सूरिमंत्र देना चाहिए मान्यता थी किन्तु उन्होंने अतिक्रमण करके साधुओं से सूरिमंत्र दिलाया यह लेख में स्पष्ट किया । वह भी मेरे पक्ष में आ गए।
हम दर्शनार्थियों से करबद्ध निवेदन करना चाहते हैं कि मुनिराज हों या श्रावक हों, वह प्रतिमा की वीतराग छवि का दर्शन करें प्रशस्ति में यह न देखें कि सूरिमंत्र मुनिराज ने दिया या प्रतिष्ठाचार्य ने क्योंकि प्रतिष्ठा ग्रंथों में दोनों प्रमाण मिलते हैं कि मुनिराज का प्रतिष्ठा में सान्निध्य हो तो वह सूरिमंत्र देंगे। यदि कारणवशत् मुनिराज नहीं है तो प्रतिष्ठाचार्य सूरिमंत्र देंगे।
इसलिए निवेदन है कि श्रद्धा में अन्तर नहीं आना चाहिए। प्रतिमा को न वेदी से अलग करना चाहिए, न अन्य कोई प्रतिक्रिया होना चाहिए।