(पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी से विशेष वार्ता)
आर्यिका स्वर्णमती-पूज्य माताजी ! वंदामि ! आज आप से ज्योतिर्लोक संबंधी कुछ जिज्ञासाओं का समाधान प्राप्त करने की भावना है । कृपया जैनागम के अनुसार सूर्य-चन्द्रमा-तारों इत्यादि के विषय में बताएं ।
पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी-जैनागम में देवों के चार भेदों-भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक में से ज्योतिष्क देवों के पाँच भेद बताए गए हैं-
(१) सूर्य | (२) चन्द्रमा | (३) ग्रह |
(४) नक्षत्र | (५) तारा । |
इनके विमान चमकीले होने से इन्हें ज्योतिष्क देव कहते हैं । ये सभी विमान अर्धगोलक के सदृश हैं तथा मणिमय तोरणों, देव-देवियों एवं जिनमंदिरों से संयुक्त हैं । अपने को जो सूर्य, चन्द्र, तारे आदि दिखाई देते हैं, यह उनके विमानों का नीचे वाला गोलाकार भाग है । ये सभी ज्योतिर्वासी (ज्योतिष्क) देव सुमेरु पर्वत को ११२१ योजन (४४,८४००० मील) छोड़कर नित्य ही प्रदक्षिणा के क्रम से भ्रमण करते हैं ।
आर्यिका स्वर्णमती–पूज्य माताजी ! कृपया यह भी बताएं कि ये देव-विमान हमारी पृथ्वी से कितनी दूर हैं एवं कितने बड़े हैं ?
पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी-इन पाँचों प्रकार के ज्योतिर्वासी देवों के विमान हमारी पृथ्वी अर्थात् चित्रा पृथ्वी से ७९० योजन से प्रारंभ होकर ९०० योजन की ऊँचाई तक अर्थात् ११० योजन में स्थित हैं । ७९० योजन के ऊपर प्रथम ही ताराओं के विमान हैं, उनसे १० योजन ऊपर जाकर अर्थात् पृथ्वी तल से ८०० योजन ऊपर सूर्य के विमान हैं तथा उनसे भी ८० योजन ऊपर अर्थात् पृथ्वी तल से ८८० योजन ऊपर चन्द्रमा के विमान हैं। पूर्ण विवरण निम्न तालिका से स्पष्ट है-
तालिका-१ ज्योतिष्क देवों की पृथ्वी तल से ऊँचाई विमानों के नाम 9(चित्रा पृथ्वी से ऊँचाई) योजन में मील में इस पृथ्वी से तारे ७९० योजन के ऊपर ३१६०००० मील पर इस पृथ्वी से सूर्य ८०० योजन के ऊपर ३२००००० मील पर इस पृथ्वी से चन्द्र ८८० योजन के ऊपर ३५२०००० मील पर इस पृथ्वी से नक्षत्र ८८४ योजन के ऊपर ३५३६००० मील पर इस पृथ्वी से बुध ८८८ योजन के ऊपर ३५५२००० मील पर इस पृथ्वी से शुक्र ८९१ योजन के ऊपर ३५६४००० मील पर इस पृथ्वी से गुरु ८९४ योजन के ऊपर ३५७६००० मील पर इस पृथ्वी से मंगल ८९७ योजन के ऊपर ३५८८००० मील पर इस पृथ्वी से शनि ९०० योजन के ऊपर ३६००००० मील पर जहाँ तक सूर्य, चन्द्रमा आदि के विमानों के प्रमाण की बात है
ताराओं के विमान सबसे छोटे (२५० मील) होते हैं। अन्य विमानों के प्रमाण निम्न तालिका में स्पष्ट हैं-
तालिका-२ ज्योतिष्क देवों के विमानों का प्रमाण विमानों का योजन से मील से प्रमाण सूर्य योजन ३१४७ चन्द्र योजन ३६७२ शुक्र १ कोश १००० बुध कुछ कम आधा कोश कुछ कम ५०० मील मंगल कुछ कम आधा कोश कुछ कम ५०० मील शनि कुछ कम आधा कोश कुछ कम ५०० मील गुरु कुछ कम १ कोश कुछ कम १००० मील राहु कुछ कम १ योजन कुछ कम ४००० मील केतु कुछ कम १ योजन कुछ कम ४००० मील तारे कोश २५० मील नोट – १ महायोजन = २००० कोस = ४००० मील
आर्यिका स्वर्णमती-पूज्य माताजी
२००० वर्ष पूर्व के जैन शास्त्रों में इस प्रकार का विशद वर्णन उपलब्ध है, यह जानकर आश्चर्य तो होता है । नि:संदेह ही केवलज्ञानी भगवान की दिव्यध्वनि से ही ये सभी तथ्य उद्भूत हुए हैं और इसीलिए हम सभी को ये पूर्णतया मान्य हैं । पूज्य माताजी ! कृपया ये और बताएं कि सूर्यग्रहण एवं चन्द्रग्रहण की जैनागम के अनुसार क्या व्यवस्था रहती हैं ?
पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी-प्राचीन जैन शास्त्रों में यथा-तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, तत्त्वार्थराजवार्तिक, श्लोकवार्तिक आदि जैन शास्त्रों में जैन ज्योतिर्लोक का विस्तार से वर्णन किया गया है एवं उसका अध्ययन करके प्रकृति के रहस्यों से अवगत होने में आनंद की भी प्राप्ति होती है।
आपका प्रश्न ग्रहण से संबंधित है अत: मैं आपको इसी से संबंधित विषय बतलाती हूँ तथापि स्वाध्याय के द्वारा इस विषय में उपलब्ध अन्य तथ्यों को भी यथासंभव हृदयंगम करने का प्रयास करना चाहिए। जैसा कि आपको ज्ञात हुआ कि सूर्य का गमन क्षेत्र पृथ्वीतल से ८०० योजन (८००²४०००·३२००००० मील) ऊपर जाकर है। यह गमन क्षेत्र इस जम्बूद्वीप के भीतर १८० योजन एवं लवण समुद्र में ३३० योजन है अर्थात् सम्पूर्ण गमन क्षेत्र १८०+३३० ·५१० योजन अर्थात् २०,४३,१४७ मील है।
इतने प्रमाण गमन क्षेत्र में १८४ गलियाँ हैं । इन गलियों में प्रत्येक का विस्तार ४८/६१ योजन है तथा एक गली से दूसरी गली का अंतराल २-२ योजन का है। इन गलियों में सूर्य क्रमश: एक-एक गली में संचार करते हैं। जैनागम के अनुसार जम्बूद्वीप में दो सूर्य तथा दो चंद्रमा हैं, यह बात भी स्मरण में रखना है।
श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के दिन जब सूर्य अभ्यंतर मार्ग (पहली गली) में रहता है, तब दक्षिणायन का प्रारंभ होता है एवं जब १८४वीं (अंतिम गली) में पहुँचता है, तब उत्तरायण का प्रारंभ होता है। अतएव ६ माह का दक्षिणायन एवं ६ माह का उत्तरायण होता है। जैसा कि पहले बताया था कि चन्द्रमा का विमान योजन (३६७२ मील) व्यास का है। सूर्य के समान चन्द्रमा का भी गमन क्षेत्र ५१० योजन है तथा इस गमन क्षेत्र में चन्द्र की १५ गलियाँ हैं ।
इनमें वह प्रतिदिन क्रमश: एक-एक गली में गमन करता है। अब यह समझें कि तालिका-२ के अनुसार राहु एवं केतु के विमान क्रमश: चन्द्रमा एवं सूर्य विमानों से बड़े हैं तथा राहु ग्रह का विमान चन्द्रमा विमान के नीचे एवं केतु ग्रह का विमान सूर्य विमान के नीचे रहता है अर्थात् राहु एवं केतु के विमानों के ध्वजादण्ड के ४ प्रमाणांगुल (२००० उत्सेधांगुल) प्रमाण ऊपर जाकर चन्द्र-सूर्य के विमान स्थित होकर गमन करते रहते हैं।
राहु और चन्द्रमा अपनी-अपनी गलियों को लांघकर क्रम से जम्बूद्वीप की आग्नेय और वायव्य दिशा से अगली-अगली गली में प्रवेश करते हैं अर्थात् पहली से दूसरी, दूसरी से तीसरी आदि गली में प्रवेश करते हैं। पहली से दूसरी गली में प्रवेश करने पर चन्द्र मण्डल के १६ भागों में से १ भाग राहु के गमन विशेष से आच्छादित होता हुआ दिखाई देता है । इस प्रकार राहु प्रतिदिन एक-एक मार्ग में चन्द्र बिम्ब की १५ दिन तक एक-एक कलाओं को ढकता रहता है।
इस प्रकार राहु बिम्ब के द्वारा चन्द्र की १-१ कला का आवरण करने पर जिस मार्ग में चन्द्र की १ ही कला दिखती है वह अमावस्या का दिन होता है। फिर वह राहु प्रतिपदा के दिन से प्रत्येक गली में १-१ कला को छोड़ते हुये पूर्णिमा को पन्द्रहों कलाओं को छोड़ देता है तब चन्द्र बिम्ब पूर्ण दीखने लगता है। उसे ही पूर्णिमा कहते हैं। इस प्रकार कृष्ण पक्ष एवं शुक्ल पक्ष का विभाग हो जाता है।
इस प्रकार ६ मास में पूर्णिमा के दिन चन्द्र विमान राहु के विमान से पूर्ण आच्छादित हो जाता है उसे चन्द्रग्रहण कहते हैं तथैव छह मास में सूर्य के विमान को अमावस्या के दिन केतु का विमान ढक देता है उसे सूर्यग्रहण कहते हैं ।
तो इस प्रकार यह स्पष्ट हुआ कि राहु का विमान चन्द्र विमान के आड़े आ गया, तब चन्द्र विमान दिखना बंद हुआ और इसी को चन्द्रग्रहण कहा गया और जब केतु का विमान सूर्य विमान के आड़े आ गया, तब सूर्य विमान दिखना बंद हुआ और इसी को सूर्यग्रहण कहा गया। ऐसा करने में न राहु-केतु के विमानों को कोई आनंद है और न चन्द्र-सूर्य के विमानों को कोई शोक है वरन् यह प्राकृतिक प्रक्रिया स्वत: चल रही है।
आर्यिका स्वर्णमती-पूज्य माताजी ! क्या ग्रहण के समय सूतक-पातक आदि मानना चाहिए ?
पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी-जैन परम्परा में ग्रहण के समय स्नान-दान इत्यादि की कोई आवश्यकता नहीं बताई है और न ही कोई सूतक इत्यादि माना है परन्तु ऐसे समय में दीक्षा, विवाह आदि शुभ कार्य एवं सिद्धांत ग्रंथों के स्वाध्याय को वर्जित माना है।
आर्यिका स्वर्णमती-पूज्य माताजी ! आज आपके मुखारविंद से जैन ज्योतिर्लोक के विषय में रोचक जानकारी प्राप्त करके बहुत आल्हाद हुआ। वंदामि माताजी !