सर्वत्र ज्योतिर्लोक का प्रतिपादन करने वाले शास्त्र तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार, लोकविभाग, श्लोकवार्तिक, राजवार्तिक, आदि ग्रन्थों में सूर्य के विमान योजन व्यास वाले एवं इससे आधे योजन की मोटाई के हैं और चन्द्र विमान योजन व्यास वाले एवं योजन की मोटाई वाले हैं। परन्तु राजवार्तिक ग्रन्थ जो कि ज्ञानपीठ से प्रकाशित है उसके हिन्दी टीकाकार प्रोपेसर महेन्द्र कुमार जी ने उसमें हिन्दी में ऐसा लिख दिया है
कि—सूर्य के विमान की लम्बाई ४८ योजन है तथा चौड़ाई २४ योजन है। उसी प्रकार चन्द्र के विमान की लम्बाई ५६ योजन है और चौड़ाई २८ योजन है। यह नितान्त गलत है। राजवार्तिक की मूल संस्कृत में चतुर्थ अध्याय के १२वें सूत्र में—सूर्य, चन्द्र के विमान का वर्णन करते हुये
‘‘अष्टचत्वारशद्योजनैकषष्टि भागविष्वंभायामानि तत्त्रिगुणाधिकपरिधीनि
चतुवशतियोजनैकषष्टिभागबाहुल्यानि अर्धगोलकाकृतीनि’’
इत्यादि अर्थात्—यह सूर्य के विमान एक योजन के इकसठ भाग में से अड़तालीस भाग प्रमाण आयाम वाले कुछ अधिक त्रिगुणी परिधि वाले एक योजन के इकसठ भाग में से २४ भाग वाहल्य (मोटाई) वाले अर्ध गोलक के समान आकार वाले हैं व्यास। मोटाई उसी प्रकार चन्द्र के विमान के वर्णन में—
‘‘चन्द्रविमानानि षट्पंचाशत् योजनैकषष्टिभागविष्वंभायामानि अष्टावशतियोजनैकषष्टिभागबाहुल्यानि’’
इत्यादि। अर्थात्—चन्द्र के विमान एक योजन के ६१ भाग में से ५६ भाग प्रमाण व्यास वाले एवं एक योजन के ६१ भाग में से २८ भाग मोटाई वाले हैं। व्यास। मोटाई। इसी प्रकार की पंक्ति को रखकर स्वयं ही विद्यानंद स्वामी ने श्लोकवार्तिक में उसका अर्थ योजन मानकर उसे लघु योजन बनाने के लिये पाँच सौ से गुणा करके कुछ अधिक ३९३ की संख्या निकाली है। देखिये—श्लोकवार्तिक अध्याय तीसरी का सूत्र १३वाँ।
‘‘अष्टचत्वारशद्योजनैकषष्टिभागत्वात् प्रमाणयोजनापेक्षयासातिरेक-त्रिनवतिशतत्रयप्रमाणत्वादुत्सेधयोजनापेक्षया दूरोदयत्वाच्च स्वाभिमुखलंबीद्ध-प्रतिभाससिद्धे:’’।
अर्थ—बड़े माने गये प्रमाण योजन की अपेक्षा एक योजन के इकसठ भाग प्रमाण सूर्य है। चूँकि चार कोस के छोटे योजन से पाँच सौ गुणा बड़ा योजन होता है। अत: अड़तालीस को पाँच सौ से गुणा करने पर और इकसठ का भाग देने से ३९३ प्रमाण छोटे योजन से सूर्य होता है।
इस प्रकार ३९३ योजन का सूर्य होता है और उगते समय यहाँ से हजारों (बड़े) योजनों दूर सूर्य का उदय होने से व्यवहित हो रहे मनुष्यों के भी अपने-अपने अभिमुख आकाश में लटक रहे दैदीप्यमान सूर्य का प्रतिभासपना सिद्ध है। इत्यादि। इस प्रकार विद्यानंद स्वामी ने
‘‘अष्टचत्वारशद्योजनैक षष्टिभाग’’
का अर्थ योजन करके इसे महायोजन मानकर ५०० से गुणा करके कुछ अधिक ३९३ प्रमाण लघु योजन बनाया है। इसकी हिन्दी भी पं. माणिकचंद जी ने इसी के अनुसार की है। जबकि प्रो. महेन्द्र कुमार जी इस पंक्ति का अर्थ ४८ योजन कर गये हैं। यदि इस संख्या में लघु योजन करके के लिये ५०० का गुणा करें तो—४८ ² ५०० · २४०८ संख्या आती है जो कि अमान्य है।
तथा यदि में पाँच सौ का गुणा करें तो— ² ५०० · ३९३ प्रमाण सही संख्या प्राप्त होती है जो कि श्री विद्यानंद स्वामी ने निकाली है। इसलिये कोई विद्वान् ऐसा कहते हैं कि सूर्य बिम्ब चन्द्र बिम्ब के प्रमाण में जैनाचार्यों के दो मत हैं। यह बात गलत है हिन्दी गलत होने से दो मत नहीं हो सकते हैं।
जैनाचार्यों के सभी शास्त्रों में सूर्य बिम्ब, चन्द्र बिम्ब आदि के विषय में एक ही मत है, इसमें विसंवाद नहीं है। ज्योतिर्लोक सम्बन्धी ज्योतिर्वासी देवों का सामान्यतया वर्णन समाप्त हुआ, विशेष जानकारी के लिये इस विषय सम्बन्धी ग्रन्थों का अवलोकन करना चाहिये।
इस लघु पुस्तिका में महान ग्रन्थों का सार रूप संकलन मैंने अपने अल्प बुद्धि से मात्र गुरु के प्रसाद से ही प्रस्तुत किया है। पाठकगण! सच्चे देव, शास्त्र, गुरु के प्रति अपनी श्रद्धा को दृढ़ रखते हुये उनकी वाणी पर नि:शंक विश्वास करे सम्यक्दृष्टि बनकर स्वर्ग-मोक्ष की प्राप्ति करें, यही शुभ भावना है।