जैन वाङ्मय अनादिनिधन है। युग परिवर्तन की अपेक्षा से यह सादि-सनिधन भी माना जाता है। ‘कर्मारातीन् जयतीति जिनः’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो कर्म शत्रुओं को जीतने वाले हैं वे ‘जिन’ कहलाते हैं। इन्हें ही जिनदेव, जिनेन्द्र भगवान, जिनराज आदि सहस्रों नामों से पुकारा जाता है। इनके द्वारा बताया हुआ मार्ग जिनधर्म, जैनधर्म, आर्हतधर्म आदि नामों से प्रसिद्ध है। इन जिनराज की दिव्यध्वनि को ही आगम, जिनागम, जिनवाणी, सरस्वती, शारदा, जैन वाङ्मय, ‘‘जैन भारती’’ आदि संज्ञाएं व्यवहृत हैं।
जिनेन्द्रदेव के मुखकमल से निकली हुई वाणी द्वादशांग रूप है। पूर्वाचार्यों ने उसे चार अनुयोग रूप से विभाजित किया है। प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग। इन्हें चार वेद भी कहते हैं। इन चार अनुयोगों में द्वादशांग का सारभूत समस्त जैन वाङ्मय समाया हुआ है।
जिस प्रकार से जैनधर्म अनादिनिधन है उसी प्रकार से यह सम्पूर्ण चराचर विश्व भी अनादिनिधन है। कुछ लोग इस जगत को परमपुरुष परमात्मा के द्वारा बनाया हुआ मानते हैं किन्तु जैनाचार्यों ने इस सारी सृष्टि को ‘स्वयं सिद्ध’ माना है। यहाँ सर्वप्रथम जैन सिद्धान्त के अनुसार ‘सृष्टि का क्रम’ दिखाया जाता है।
यह तीन लोकरूप सम्पूर्ण विश्व शाश्वत है। मध्यलोक के अन्तर्गत सर्वप्रथम जम्बूद्वीप है। इस द्वीप में भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में हमेशा ही षट्काल परिवर्तन होता रहता है। इसे ‘युग परिवर्तन’ भी कहते हैं। इस काल परिवर्तन को अच्छी तरह समझ लेने से ही सृष्टि का क्रम समझ में आ जाता है अतः कुछ लोगों की जो मान्यता है कि ब्रह्मा से ही सृष्टि की उत्पत्ति होती है, विष्णु से उसका पालन होता है एवं महादेव से उसका प्रलय होता है, इस काल परिवर्तन के समझ लेने से इन सब मान्यताओं का निरसन सहज ही हो जाता है।
भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल के दो विभाग होते हैं। जिसमें मनुष्यों एवं तिर्यंचों की आयु, शरीर की ऊँचाई, वैभव आदि घटते रहते हैं वह अवसर्पिणी एवं जिसमें बढ़ते रहते हैं वह उत्सर्पिणी कहलाता है। अद्धापल्यों से निर्मित दस कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण अवसर्पिणी और इतना ही उत्सर्पिणी काल भी है, इन दोनों को मिलाकर बीस कोड़ाकोड़ी सागर का एक कल्पकाल होता है। अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी में से प्रत्येक के छह-छह भेद हैं।
सुषमासुषमा, सुषमा, सुषमा-दुःषमा, दुःषमा-सुषमा, दुःषमा और अतिदुःषमा। उत्सर्पिणी काल के भी छह भेद होते हैं जो कि इनसे विपरीत होते हैं-दुःषमा-दुःषमा, दुःषमा, दुःषमा-सुषमा, सुषमा-दुःषमा, सुषमा और सुषमा-सुषमा। ‘समा’ काल के विभाग को कहते हैं तथा ‘सु’ और ‘दुर्’ उपसर्ग क्रम से अच्छे-बुरे अर्थ में होने से व्याकरण से निष्पन्न ये ‘सुषमा’ ‘दुःषमा’ शब्द अच्छे और बुरे काल के वाचक हो जाते हैं। ये दोनों ही भेद कालचक्र के परिभ्रमण से सतत कृष्णपक्ष और शुक्लपक्ष की तरह घूमते रहते हैं। अवसर्पिणी के बाद उत्सर्पिणी और उत्सर्पिणी के बाद अवसर्पिणी, ऐसे क्रम से बदलते रहते हैं।
इनमें से प्रथम सुषमा-सुषमा काल चार कोड़ाकोड़ी सागर, द्वितीय सुषमाकाल तीन कोड़ाकोड़ी सागर, तृतीय काल दो कोड़ाकोड़ी सागर, चतुर्थ काल बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर, पंचम काल इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण और छठा काल भी इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण है।
प्रथम काल-
सुषमा-सुषमा काल में भूमि रज, धूम, अग्नि, हिम, कण्टक आदि से रहित एवं शंख, बिच्छू, चींटी, मक्खी आदि विकलत्रय जीवों से रहित होती है। दिव्य बालू, मधुर गंध से युक्त मिट्टी और पंच वर्ण वाले चार अंगुल ऊँचे तृण होते हैं। वहाँ वृक्ष समूह, कमल आदि से युक्त निर्मल जल से परिपूर्ण वापियाँ, उन्नत पर्वत, उत्तम-उत्तम प्रासाद, इन्द्रनीलमणि आदि से सहित पृथ्वी एवं मणिमय बालू से शोभित उत्तम-उत्तम नदियाँ होती हैं। इस काल में असंज्ञी जीव, जातविरोधी जीव भी नहीं होते हैं। गर्मी, सर्दी, अंधकार और रात-दिन का भेद भी नहीं होता है एवं परस्त्रीरमण, परधनहरण आदि व्यसन भी नहीं होते हैं। इस काल में युगल रूप से उत्पन्न हुए मनुष्य उत्तम तिल, मशा आदि व्यंजन एवं शंख, चक्र आदि चिन्हों से सहित तथा स्वामी और भृत्य के भेदों से रहित होते हैं। इनके शरीर की ऊँचाई छह हजार धनुष अर्थात् तीन कोस तथा आयु तीन पल्य प्रमाण होती है, यहाँ के प्रत्येक स्त्री-पुरुषों के पृष्ठ भाग में दो सौ छप्पन हड्डियाँ होती हैं। इनके शरीर मलमूत्र-पसीने से रहित, सुगंध निश्वांस से सहित, तपे हुए स्वर्ण सदृश वर्ण वाले, समचतुरस्र संस्थान और वङ्कावृषभनाराच संहनन से युक्त होते हैं, प्रत्येक मनुष्य का बल नौ हजार हाथियों सदृश रहता है। इस काल में नर-नारी से अतिरिक्त अन्य परिवार नहीं होता है। इस समय वहाँ पर ग्राम, नगर आदि नहीं होते हैं, दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं जो युगलों को अपने-अपने मन की कल्पित वस्तुओं को दिया करते हैं।
कल्पवृक्षों के नाम-पानांग, तूर्यांग, भूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, मालांग और ज्योतिरंग ये दस प्रकार के कल्पवृक्ष होते हैं। पानांग जाति के कल्पवृक्ष भोगभूमिज मनुष्यों को मधुर, सुस्वादु, छह रसों से युक्त पुष्टिकारक बत्तीस प्रकार के पेय द्रव्य को देते हैं। तूर्यांग कल्पवृक्ष उत्तम वीणा, पटु, पटह, मृदंग आदि वादित्रों को देते हैं। भूषणांग कल्पवृक्ष कंकण, कटिसूत्र, हार आदि आभूषणों को, वस्त्रांग कल्पवृक्ष चीनपट्ट, क्षौमादि वस्त्रों को, भोजनांग कल्पवृक्ष सोलह प्रकार के आहार, इतने ही प्रकार के व्यंजन, चौदह प्रकार की दाल, एक सौ आठ प्रकार के खाद्य पदार्थ, तीन सौ त्रेसठ प्रकार के स्वाद्य पदार्थ एवं त्रेसठ प्रकार के रसों को दिया करते हैं। आलयांग कल्पवृक्ष स्वस्तिक, नंद्यावर्त आदि सोलह प्रकार के दिव्य भवनों को, दीपांग कल्पवृक्ष शाखा, प्रवाल, फल, फूल और अंकुरादि के द्वारा जलते हुए दीपकों के समान प्रकाश को देते हैंं, भाजनांग कल्पवृक्ष सुवर्ण आदि से निर्मित झारी, कलश, गागर, चामर और आसन आदि देते हैं, मालांग जाति के कल्पवृक्ष बेल, तरु, गुच्छ और लताआेंं से उत्पन्न हुए सोलह हजार भेदरूप पुष्पों की मालाओं को देते हैं और ज्योतिरंग जाति के कल्पवृक्ष मध्य दिन के करोड़ों सूर्यों की किरणों के समान होते हुए नक्षत्र, सूर्य और चन्द्र आदि की कान्ति का संहरण करते हैं। ये सब कल्पवृक्ष न वनस्पतिकायिक हैं न कोई व्यन्तर देव हैं किन्तु विशेषता यह है कि ये सब पृथ्वीरूप होते हुए जीवों को उनके पुण्य कर्म का फल देते हैं।
भोगभूमिजों के भोग आदि-ये मनुष्य कल्पवृक्षों से दी गई वस्तुओं को ग्रहण करके और विक्रिया से बहुत प्रकार के शरीरों को बनाकर अनेक प्रकार के भोगों को भोगते हैं और चौथे दिन बेर के बराबर आहार ग्रहण करते हैं। ये युगल कदलीघात मरण से रहित होते हुए संपूर्ण आयुपर्यन्त चक्रवर्ती के भोगों की अपेक्षा अनन्तगुणे भोग को भोगते हैं। वहाँ के पुरुष इन्द्र से भी अधिक सुन्दर और स्त्रियाँ अप्सराओं के सदृश सुन्दर होती हैं।
भोगभूमि के आभूषण-भोगभूमि में कुण्डल, हार, मेखला, मुकुट, केयूर, भालपट्ट, कटक, प्रालम्ब, सूत्र (ब्रह्मसूत्र), नूपुर, दो मुद्रिकाएँ, अंगद, असि, छुरी, ग्रैवेयक और कर्णपूर ये सोलह आभरण पुरुषों के एवं छुरी और असि से रहित चौदह आभरण स्त्रियों के होते हैं।
भोगभूमि में उत्पत्ति के कारण-भोगभूमि में मनुष्य और तिर्यञ्च जीव उत्पन्न होते हैं, मिथ्यात्व भाव से युक्त होते हुए भी मन्दकषायी, मधु मांसादि के त्यागी, गुणियों के गुणों में अनुरक्त, उपवास से शरीर को कृश करने वाले, निर्ग्रन्थ साधुओं को आहारदान देने वाले जीव या अनुमोदना आदि करने वाले पशु आदि भी यहाँ उत्पन्न होते हैं। जिनने पूर्व भव में मनुष्य आयु को बाँध लिया है और पश्चात् तीर्थंकर के पादमूल में क्षायिक सम्यग्दर्शन को प्राप्त किया है ऐसे कितने ही सम्यग्दृष्टि पुरुष भी भोगभूमि में उत्पन्न होते हैं।
कोई अज्ञानी जिनलिंग को ग्रहण करके छोड़ देते हैं, मायाचार में प्रवृत्त होकर कुलिंगियों को अनेक प्रकार के दान देते हैं, वे भी भोगभूमि में तिर्यञ्च होते हैं।
भोगभूमि के मनुष्य और तिर्यञ्चों की नव मास आयु शेष रहने पर स्त्रियों को गर्भ रहता है और दोनों-युगल के मृत्यु का समय निकट आने पर युगल/बालक-बालिका का जन्म होता है अर्थात् सन्तान के जन्म लेते ही माता-पिता मरण को प्राप्त हो जाते हैं। पुरुष को छींक और स्त्री को जंभाई आते ही वे मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं और उनके शरीर शरत्कालीन मेघ के सदृश तत्क्षण आमूल विलीन हो जाते हैं।
भोगभूमि के उत्पत्ति स्थान-मृत्यु के बाद भोगभूमिज मनुष्य या तिर्यञ्च यदि मिथ्यादृष्टि हैं तो भवनत्रिक-भवनवासी, व्यन्तर या ज्योतिष्क देवों में जन्म लेते हैं। यदि सम्यग्दृष्टि हैं तो सौधर्म युगल में जन्म लेते हैं।
भोगभूमिज युगल की वृद्धि-वहाँ के बालयुगल शय्या पर सोकर अंगूठा चूसते हुए तीन दिन निकाल देते हैं, पश्चात् बैठना, अस्थिर गमन, स्थिर गमन, कलागुणों की प्राप्ति, तारुण्य और सम्यग्दर्शन की योग्यता, इनमें से क्रमशः प्रत्येक अवस्था में उन बालकों के तीन-तीन दिन व्यतीत होते हैं अर्थात् इक्कीस दिन में ये युगल सात प्रकार की योग्यता को प्राप्त करके पूर्ण यौवन सहित सर्व कलाकुशल हो जाते हैं।
सम्यक्त्व के कारण-वहाँ पर कोई जीव जातिस्मरण से, कोई देवों के सम्बोधन करने से, कोई ऋद्धिधारी मुनि आदि के उपदेश सुनने से सम्यक्त्व को ग्रहण कर सकते हैं किन्तु इनके श्रावक के व्रत और संयम नहीं हो सकता है।
भोगभूमिज तिर्यञ्च-भोगभूमि में गाय, सिंह, हाथी, मकर, शूकर, हरिण, भैंस, बन्दर, तेन्दुआ, व्याघ्र, शृगाल, रीछ, मुर्गा, तोता, कबूतर, राजहंस आदि तिर्यञ्च युगल भी उत्पन्न होते हैं जो परस्पर के वैरभाव से रहित, क्रूरतारहित, मन्दकषायी होते हैं। वहाँ के व्याघ्र आदि थलचर एवं कबूतर आदि नभचर तिर्यञ्च मांसाहार के बिना दिव्य तृणों का भक्षण करते हैं। चार कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण इस प्रथम काल में शरीर की ऊँचाई, आयु, बल, ऋद्धि और तेज आदि हीन-हीन होते जाते हैं।
द्वितीय काल-
इस प्रकार से अवगाहना आदि के घटते-घटते ‘सुषमा’ नामक द्वितीय काल प्रविष्ट होता है। इस काल के आदि में मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई चार हजार धनुष-दो कोस, आयु दो पल्य प्रमाण और शरीर का वर्ण चन्द्रमा सदृश धवल होता है। इनके पृष्ठ भाग में एक सौ अट्ठाईस हड्डियाँ होती हैं। अतीव सुन्दर समचतुरस्र संस्थान से युक्त ये भोगभूमिज तीसरे दिन बहेड़ा के बराबर आहार ग्रहण करते हैं। इस काल में उत्पन्न हुए बालक युगल शय्या पर सोते हुए अपने अंगूठे के चूसने में पाँच दिन व्यतीत करते हैं पश्चात् उपवेशन, अस्थ्िार गमन, स्थिर गमन, कलागुण प्राप्ति, तारुण्य और सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता, इनमें से प्रत्येक अवस्था में उन बालकों के पाँच-पाँच दिन व्यतीत हो जाते हैं। इतनी मात्र विशेषता को छोड़कर शेष वर्णन जो सुषमा-सुषमा काल में कहे गये हैं, उन्हें यहाँ पर भी समझना चाहिए। तीन कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण इस सुषमा नामक काल में पहले से ही ऊँचाई, बल, ऋद्धि, आयु और तेज आदि उत्तरोत्तर हीन-हीन होते जाते हैं।
तृतीय काल-
तीन कोड़ाकोड़ी सागर काल के व्यतीत होने पर क्रम से सुषमा दुःषमा नामक तृतीय काल प्रवेश करता है, इस काल का प्रमाण दो कोड़ाकोड़ी सागर है। प्रारंभ में मनुष्यों की ऊँचाई दो हजार धनुष-एक कोस, आयु एक पल्य प्रमाण और वर्ण प्रियंगुफल के समान होता है। इस काल में स्त्री-पुरुषों के पृष्ठभाग की हड्डियाँ चौंसठ होती हैं। सभी मनुष्य समचतुरस्र संस्थान से युक्त, एक दिन के अंतराल से आंवले के बराबर भोजन ग्रहण करने वाले होते हैं। इस काल मेंं उत्पन्न हुए बालकों के शय्या पर सोते हुए अपने अंगूठे के चूसने में सात दिन व्यतीत होते हैं। इसके पश्चात् उपवेशन, अस्थिर गमन, स्थिर गमन, कलागुण प्राप्ति, तारुण्य और सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता। इनमें से प्रत्येक अवस्था में क्रमशः सात-सात दिन जाते हैं। इतनी मात्र विशेषता को छोड़कर शेष वर्णन जो सुषमा-सुषमा नामक काल में कह चुके हैं सो ही यहाँ पर समझना चाहिए।
इन तीनों ही भोगभूमियों में चोर, शत्रु आदि की बाधाएँ, असि, मसि आदि छह कर्म, शीत, आतप, प्रचंड वायु एवं वर्षा आदि नहीं होती हैं। इन्हें क्रम से उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमि भी कहते हैं।
कुलकरों की उत्पत्ति-इस भरतक्षेत्र के मध्यवर्ती आर्यखण्ड में अवसर्पिणी का तृतीय काल चल रहा था। इनमें आयु, अवगाहना, ऋद्धि, बल और तेज घटते-घटते जब इस तृतीय काल में पल्योपम के आठवें भाग मात्र काल शेष रह जाता है तब कुलकरों की उत्पत्ति प्रारंभ होती है।
प्रथम कुलकर का नाम ‘प्रतिश्रुति’ और उनकी देवी का नाम स्वयंप्रभा था। उनके शरीर की ऊँचाई एक हजार आठ सौ धनुष और आयु पल्य के दसवें भाग प्रमाण थी। उस समय आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा के दिन सायंकाल में भोगभूमियों को पूर्व दिशा में उदित होता हुआ चन्द्र और पश्चिम दिशा में अस्त होता हुआ सूर्य दिखलाई पड़ा। ‘यह कोई आकस्मिक उत्पात है’ ऐसा समझकर वे लोग भय से व्याकुल हो गये। उस समय वहाँ पर ‘प्रतिश्रुति’ कुलकर सबमें अधिक तेजस्वी और प्रजाजनों के हितकारी तथा जन्मांतर के संस्कार से अवधिज्ञान को धारण किये हुए सभी में उत्कृष्ट बुद्धिमान गिने जाते थे। उन्होंने कहा—हे भद्र पुरुषों! तुम्हें जो ये दिख रहे हैं वे सूर्य-चन्द्र नाम के ग्रह हैं, कालवश अब ज्योतिरंग जाति के कल्पवृक्षों की किरण समूह मंद पड़ गई हैं अतः इस समय ये दिखने लगे हैं, ये हमेशा ही आकाश में परिभ्रमण करते रहते हैं, अभी तक ज्योतिरंग कल्पवृक्ष से इनकी प्रभा तिरोहित होने से ये नहीं दिखते थे अतः तुम इनसे भयभीत मत होवो। प्रतिश्रुति के वचनों से उन लोगों को आश्वासन प्राप्त हुआ और उन लोगों ने उनके चरणकमलों की पूजा तथा स्तुति की।
प्रतिश्रुति कुलकर के स्वर्ग जाने के पश्चात् पल्य के अस्सीवें भाग अंतराल के व्यतीत हो जाने पर सुवर्ण सदृश कान्ति वाले ‘सन्मति’ नामक द्वितीय कुलकर उत्पन्न हुए। इनके शरीर की ऊँचाई एक हजार तीन सौ धनुष एवं आयु ‘अमम’ के बराबर संख्यात वर्षों की थी। उस समय ज्योतिरंग कल्पवृक्ष नष्टप्राय हो गये और सूर्य के अस्त होने पर अंधकार तथा तारागणों को देखकर ‘ये अत्यन्त भयानक/अदृष्टपूर्व उत्पात प्रकट हुए हैं’ इस प्रकार सभी मनुष्य व्याकुल होकर कुलकर के निकट आये। तब सन्मति कुलकर ने कहा कि कालवश ज्योतिरंग कल्पवृक्षों की किरणें सर्वथा प्रणष्ट हो जाने से इस समय आकाश में अंधकार और ताराओं का समूह दिख रहा है। तुम लोगों को इनकी ओर से भय का कोई कारण नहीं है। ये तो सदा ही रहते थे किन्तु कल्पवृक्षों की किरणों से प्रकट नहीं दिखते थे। ये ग्रह, तारा और नक्षत्र तथा सूर्य-चन्द्रमा जम्बूद्वीप में नित्य ही सुमेरु पर्वत की प्रदक्षिणा किया करते हैं। तब कुलकर के वचनों से वे सब निर्भय हो गये और उन कुलकर की पूजा करके स्तुति करने लगे।
इन कुलकर के स्वर्ग जाने के बाद असंख्यात करोड़ वर्षों का अन्तराल बीत जाने पर इस भरतक्षेत्र में तीसरे कुलकर उत्पन्न हुए। इनका नाम ‘क्षेमंकर’ था, शरीर की ऊँचाई आठ सौ धनुष और आयु ‘अटट’ प्रमाण वर्षों बराबर थी, वर्ण सुवर्ण सदृश और सुनंदा नामक महादेवी थी। उस समय व्याघ्र आदि तिर्यंच जीव क्रूरता को प्राप्त हो गये थे, तब भोगभूमिज मनुष्य उनसे भयभीत होकर क्षेमंकर मनु के पास पहुँचे और बोले-हे देव! ये सिंह, व्याघ्रादि पशु बहुत शान्त थे, जिन्हें हम लोग अपनी गोद में बिठाकर अपने हाथ से खिलाते थे, वे पशु आज हम लोगों को बिना किसी कारण ही सींगों से मारना चाहते हैं, मुख फाड़कर डरा रहे हैं हम क्या करें ? तब कुलकर बोले-हे भद्र पुरुषों! अब तुम्हें इन पर विश्वास नहीं करना चाहिए, इनकी संगति छोड़ देना चाहिए, ये कालदोष से विकार को प्राप्त हुए हैं। इस प्रकार से क्षेमंकर कुलकर के वचनों से उन लोगों ने सींग और दाढ़ वाले पशुओं का संसर्ग छोड़ दिया, केवल निरुपद्रवी गाय, भैंस आदि से संसर्ग रखने लगे।
इनकी आयु पूर्ण होने के पश्चात् असंख्यात करोड़ वर्षों का अन्तराल बीत जाने पर सज्जनों में अग्रसर ऐसे ‘क्षेमंधर’ नामक चौथे कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘तुटिक’ प्रमाण वर्षों की थी और शरीर की ऊँचाई सात सौ पचहत्तर धनुष की थी, इनका वर्ण स्वर्ण के सदृश और इनकी देवी का नाम विमला था। उस समय क्रूरता को प्राप्त हुए सिंहादि मनुष्यों के मांस को खाने लगे, तब सिंहादि के भय से भयभीत हुए भोगभूमिजों को क्षेमंधर मनु ने उनसे सुरक्षित करने के लिए दण्डादि रखने का उपदेश दिया।
इनके अनंतर असंख्यात करोड़ वर्षों के बीत जाने पर प्रजा के पुण्योदय से ‘सीमंकर’ नाम के पांचवें कुलकर हुए। इनकी आयु ‘कमल’ प्रमाण वर्षों की एवं शरीर की ऊँचाई सात सौ पचास धनुष की थी, वर्ण स्वर्ण के सदृश एवं ‘मनोहरी’ नाम की प्रसिद्ध देवी थी। इनके समय कल्पवृक्ष अल्प हो गये और फल भी अल्प देने लगे थे, इस कारण मनुष्यों में अत्यन्त क्षोभ होने लगा था। परस्पर में इन भोगभूमिजों के विसंवाद को देखकर सीमंकर मनु ने कल्पवृक्षों की सीमा नियत करके परस्पर संघर्ष को रोक दिया।
भोगभूमि की दण्ड व्यवस्था-उपर्युक्त प्रतिश्रुति आदि पाँच कुलकरों ने उन भोगभूमिजों के अपराध में ‘हा’/हाय! बुरा कार्य किया, ऐसी दण्ड की व्यवस्था की थी, बस! इतना कहने मात्र से ही प्रजा आगे अपराध नहीं करती थी।
पाँचवें कुलकर के स्वर्गगमन के पश्चात् असंख्यात करोड़ वर्षों का अन्तराल व्यतीत हो जाने पर ‘सीमंधर’ नामक छठे कुलकर उत्पन्न हुए। ये ‘नलिन’ प्रमाण वर्षों की आयु के धारक और सात सौ पच्चीस धनुष ऊँचे थे, इनकी देवी का नाम ‘यशोधरा’ था। इनके समय में कल्पवृक्ष अत्यन्त थोड़े रह गये और फल भी बहुत कम देने लगे इसीलिए मनुष्यों के बीच नित्य ही कलह होने लगा तब इन कुलकर ने कल्पवृक्षों की सीमाओं को अन्य अनेक वृक्ष तथा छोटी-छोटी झाड़ियों से चिन्हित कर दिया।
इनके बाद फिर असंख्यात करोड़ वर्षों का अन्तराल बीत जाने पर ‘विमलवाहन’ नामक सातवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘पद्म’ प्रमाण वर्षों की थी और शरीर की ऊँचाई सात सौ धनुष प्रमाण थी, वर्ण स्वर्ण के सदृश और ‘सुमति’ नाम की महादेवी थी। इस समय गमनागमन से पीड़ा को प्राप्त हुए भोगभूमिज मनुष्य इन कुलकर के उपदेश से हाथी, घोड़े आदि पर सवारी करने लगे और अंकुश, पलान आदि से उन पर नियंत्रण करने लगे।
सातवें कुलकर के स्वर्ग जाने के बाद असंख्यात करोड़ वर्षों का अन्तराल बीत जाने पर ‘चक्षुष्मान्’ नामक आठवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘पद्मांग’ प्रमाण और ऊँचाई छह सौ पचहत्तर धनुष की थी, इनकी देवी का नाम ‘धारिणी’ था। इनके समय से पहले के मनुष्य अपनी संतान का मुख नहीं देख पाते थे, उत्पन्न होते ही माता-पिता की मृत्यु हो जाती थी परन्तु अब वे क्षण भर पुत्र का मुुख देखकर मरने लगे, उनके लिए यह नई बात थी अतएव भयभीत हुए ‘चक्षुष्मान्’ कुलकर के पास आये, तब इन्होंने उपदेश दिया कि ये तुम्हारे पुत्र-पुत्री हैं, इनके पूर्ण चन्द्र के समान सुन्दर मुख को देखो। इस प्रकार मनु के उपदेश से स्पष्टरूप से अपने बालकों के मुख को देखकर वे भोगभूमिज तत्काल ही आयु से रहित होकर विलीन हो जाते थे।
आठवें कुलकर के स्वर्गगमन के पश्चात् करोड़ों वर्षों का अन्तराल व्यतीत होने पर ‘यशस्वान्’ नाम के नौवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘कुमुद’ प्रमाण वर्षों की थी और शरीर की ऊँचाई छह सौ पचास धनुष की थी, इनके ‘कांतिमाला’ नाम की देवी थी। उस समय ये कुलकर प्रजा को अपनी संतान के नामकरण के उत्सव का उपदेश देते थे। तब भोगभूमिज नामकरण करके आशीर्वाद देकर थोड़े समय रहकर आयु के क्षीण होने पर विलीन हो जाते थे।
नवम कुलकर के स्वर्गस्थ होने पर करोड़ों वर्षों का अन्तराल व्यतीत कर दशवें ‘अभिचन्द्र’ नाम के कुलकर हुए। इनकी आयु ‘कुमुदांग’ प्रमाण थी और शरीर की ऊँचाई छह सौ पच्चीस धनुष की थी। इनकी देवी का नाम ‘श्रीमती’ था। ये बालकों के रुदन को रोकने के निमित्त उपदेश देते थे कि तुम लोग इन्हें रात्रि में चन्द्रमा को दिखाकर क्रीड़ा कराओ और बोलना सिखाओ, यत्नपूर्वक इनकी रक्षा करो। इनके उपदेश से भोगभूमिज अपनी सन्तानों के साथ वैसा ही व्यवहार करके आयु के अन्त में विलीन होते थे।
इन कुलकरों की दण्ड-व्यवस्था-सीमंकर आदि पाँच कुलकर क्षोभ से आक्रांत उन युगलों के शिक्षण के निमित्त दण्ड के लिए ‘हा’/हाय! बुरा किया। ‘मा’/अब ऐसा मत करना, ऐसे खेदप्रकाशक और निषेधसूचक दो शब्दों का उपयोग करते हैं और इतने मात्र से ही प्रजा अपराध छोड़ देती है।
अभिचन्द्र कुलकर के स्वर्गारोहण के पश्चात् उतना ही अन्तराल व्यतीत होने के बाद ‘चन्द्राभ’ नाम के ग्यारहवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘नयुत’ प्रमाण वर्षों की और शरीर की अवगाहना छह सौ धनुष प्रमाण थी। इनकी देवी का नाम ‘प्रभावती’ था। इनके समय में अतिशीत, तुषार और अतिवायु चलने लगी थी, शीत वायु से अत्यन्त दुःख पाकर वे भोगभूमिज मनुष्य तुषार से ढके हुए चन्द्र आदि ज्योति समूह को नहीं देख पाते थे। इस कारण इनके भय को दूर करते हुए चन्द्राभ कुलकर ने उपदेश दिया कि भोगभूमि की हानि होने पर अब कर्मभूमि निकट आ गई है। काल के विकार से यह स्वभाव प्रवृत्त हुआ है, अब यह तुषार सूर्य की किरणों से नष्ट होगा, यह सुनकर प्रजाजन सूर्य की किरणों से शैल्य को नष्ट करते हुए कुछ दिनों तक अपनी सन्तान के साथ जीवित रहने लगे।
चन्द्राभ कुलकर के स्वर्ग जाने के बाद अपने योग्य अन्तर को व्यतीत कर ‘मरुदेव’ नामक बारहवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु ‘नयुतांग’ वर्ष प्रमाण और शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पचहत्तर धनुष की थी। इनकी देवी का नाम ‘सत्या’ था। इनके समय में बिजलीयुक्त मेघ गरजते हुए बरसने लगे। उस समय पूर्व में कभी नहीं देखी गई कीचड़युक्त जलप्रवाह वाली नदियों को देखकर अत्यन्त भयभीत हुए भोगभूमिज मनुष्यों को मरुदेव कुलकर काल के विभाग को बतलाते हैं अर्थात् काल के विकार से अब कर्मभूमि तुम्हारे निकट है। अब तुम लोग नदियों में नौका डालकर इन्हें पार करो, पहाड़ों पर सीढ़ियों को बनाकर चढ़ो और वर्षाकाल में छत्रादि को धारण करो। उन कुलकर के उपदेश से सभी जन नदियों को पारकर, पहाड़ों पर चढ़कर और वर्षा का निवारण करते हुए पुत्र-कलत्र के साथ जीवित रहने लगे।
‘‘पहले यहाँ युगल संतान उत्पन्न होती थी पुन: मरुदेव के ‘प्रसेनजित्’ नाम का एक पुत्र उत्पन्न हुआ। इसके पूर्व भोगभूमिज मनुष्यों के शरीर में पसीना नहीं आता था परन्तु प्रसेनजित् का शरीर पसीने के कणों से सुशोभित हो उठता था। वीर मरुदेव कुलकर ने अपने पुत्र प्रसेनजित् का विवाह विधि के द्वारा किसी प्रधान कुल की कन्या से विवाह कराया था। अन्त में मरुदेव पल्य के करोड़वें भाग तक जीवित रहकर स्वर्ग चले गये। तदनन्तर ये ‘प्रसेनजित्’ तेरहवें कुलकर कहलाये और इन्होंने ‘एक करोड़ पूर्व’ की आयु वाले, जन्मकाल में बालकों के नाल काटने की व्यवस्था करने वाले ‘नाभिराज’ नामक चौदहवें कुलकर को उत्पन्न किया था और स्वयं पल्य के दस लाख करोड़वें भाग जीवित रहकर स्वर्गस्थ हो गये थे।’’
इन बारहवें कुलकर के स्वर्गस्थ होने के बाद समय व्यतीत होने पर जब कर्मभूमि की स्थिति धीरे-धीरे समीप आ रही थी तब प्रसेनजित् नाम के तेरहवें कुलकर उत्पन्न हुए। इनकी आयु एक ‘पूर्व’ प्रमाण थी और शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पचास धनुष की थी। इनके ‘अभिमती’ नाम की देवी थी। इनके समय में बालकों का जन्म जरायु पटल में वेष्टित होने लगा था। ‘यह क्या है’ इस प्रकार के भय से संयुक्त मनुष्यों को इन कुलकर ने जरायु पटल को दूर करने का उपदेश दिया था। उनके उपदेश से सभी भोगभूमिज प्रयत्नपूर्वक उन शिशुओं की रक्षा करने लगे थे।
इनके बाद ही ‘नाभिराज’ नाम के चौदहवें कुलकर उत्पन्न हुए थे। इनकी आयु ‘एक करोड़ पूर्व’ वर्ष की थी और शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पच्चीस धनुष की थी, इनकी ‘मरुदेवी’ नाम की पत्नी थी। इनके समय बालकों का नाभिनाल अत्यन्त लम्बा होने लगा था इसलिए नाभिराय कुलकर उसके काटने का उपदेश देते हैं और वे भोगभूमिज मनुष्य वैसा ही करते हैं। उस समय कल्पवृक्ष नष्ट हो गये, बादल गरजने लगे, मेघ बरसने लगे, पृथ्वी पर स्वभाव से ही उत्पन्न हुए अनेकों वनस्पतियाँ-वनस्पतिकायिक धान्य आदि दिखलाई देने लगे। धीरे-धीरे बिना बोये ही धान्य सब ओर पैदा हो गये। उनके उपयोग को न समझती हुई प्रजा कल्पवृक्षों के नष्ट हो जाने से अत्यन्त क्षुधा वेदना से व्याकुल हुई नाभिराज कुलकर की शरण में आकर बोली-हे देव! मनवांछित फल को देने वाले कल्पवृक्षों के बिना हम पुण्यहीन अनाथ लोग किस प्रकार से जीवित रहें ? जो ये वृक्ष, शाखा, अंकुर, फल आदि उत्पन्न हुए हैं, इनमें कौन तो खाने योग्य हैं और कौन नहीं हैं ? इनका क्या उपयोग है, यह सब हमें बतलाइये। इस प्रकार के दीन वचनों को सुनकर नाभिराज बोले-हे भद्र पुरुषों! ये वृक्ष तुम्हारे योग्य हैं और ये विषवृक्ष छोड़ने योग्य हैं। तुम लोग इन धान्यों को खाओ, गाय का दूध निकालकर पीओ। ये इक्षु के पेड़ हैं, इन्हें दाँतों से या यंत्रों से पेल कर इनका रस पियो। इस प्रकार से महाराजा नाभिराज ने मनुष्यों की आजीविका के अनेकों उपायों को बताकर उन्हें सुखी किया और हाथी के गंडस्थल पर मिट्टी की थाली आदि अनेक प्रकार के बर्तन बनाकर उन पुरुषों को दिये और बनाने का उपदेश भी दिया। उस समय वहाँ कल्पवृक्षों की समाप्ति हो चुकी थी, प्रजा का हित करने वाले केवल नाभिराज ही उत्पन्न हुए थे इसलिए वे कल्पवृक्ष के समान प्रजा का हित करते थे।
चौदह कुलकर कहाँ से आये थे-प्रतिश्रुति आदि को लेकर नाभिराजपर्यंत ये सब चौदह कुलकर अपने पूर्व भव में विदेह क्षेत्र में महाकुल में राजकुमार थे, उन्होंने उस भव में पुण्य बढ़ाने वाले पात्रदान तथा यथायोग्य व्रताचरणरूपी अनुष्ठानों के द्वारा सम्यग्दर्शन प्राप्त होने से पहले ही भोगभूमि की मनुष्य आयु बाँध ली थी, बाद में श्री जिनेन्द्रदेव के समीप रहने से क्षायिक सम्यग्दर्शन तथा श्रुतज्ञान की प्राप्ति हुई थी जिसके फलस्वरूप आयु के अंत में मरकर वे इस भरतक्षेत्र में उत्पन्न हुए थे। इन चौदह कुलकरों में से कितने ही कुलकरों को जातिस्मरण था और कितने ही अवधिज्ञानरूपी नेत्र के धारक थे इसलिए उन्होंने विचार कर प्रजा के लिए ऊपर कहे हुए कार्यों का उपदेश दिया था। ये प्रजा के जीवन को जानने से ‘मनु’ तथा आर्य पुरुषों को कुल की तरह इकट्ठे रहने का उपदेश देने से ‘कुलकर’, अनेकों व्ांशों को स्थापित करने से ‘कुलंधर’ तथा युग की आदि में होने से ‘युगादि पुरुष’ भी कहे गये थे।
शलाका पुरुष-अब यहाँ से आगे नाभिराज कुलकर के पश्चात् पुण्योदय से इस भरतक्षेत्र में मनुष्यों में श्रेष्ठ और सम्पूर्ण लोक में प्रसिद्ध तिरेसठ शलाका पुरुष उत्पन्न होने लगते हैं। ये शलाका पुरुष २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलभद्र, ९ नारायण और ९ प्रतिनारायण इन नामों से प्रसिद्ध हैं।
२४ तीर्थंकर-उनमें से ऋषभ, अजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ, सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ, पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शान्ति, कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व और वर्धमान। इस भरत क्षेत्र में उत्पन्न हुए इन चौबीस तीर्थंकरों को मेरा नमस्कार होवे। ये ज्ञानरूपी फरसे से भव्य जीवों के संसाररूपी वृक्ष को छेदते हैं।
१२ चक्रवर्ती-भरत, सगर, मघवा, सनत्कुमार, शान्ति, कुंथु, अर, सुभौम, पद्म, हरिषेण, जयसेन और ब्रह्मदत्त ये छह खंडरूप पृथ्वीमण्डल को सिद्ध करने वाले, कीर्ति से भुवनतल को व्याप्त करने वाले १२ चक्रवर्ती भरतक्षेत्र में उत्पन्न हुए हैं।
९ बलभद्र-विजय, अचल, सुधर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, नंदी, नंदिमित्र, रामचंद्र और पद्म (बलदेव) भरतक्षेत्र में ये नौ बलभद्र हुए हैं।
९ नारायण-त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुण्डरीक, दत्त, नारायण (लक्ष्मण) और श्रीकृष्ण ये नव विष्णुपदधारक नारायण हुए हैं।
९ प्रतिनारायण-अश्वग्रीव, तारक, मेरक, मधुवैâटभ, निशुंभ, बलि, प्रहरण, रावण और जरासंध ये नव प्रतिनारायण हुए हैं।
ये त्रेसठ शलाका पुरुष कहलाते हैं।
अंतिम कुलकर महाराजा नाभिराज की महारानी मरुदेवी से भगवान् वृषभदेव का जन्म हुआ था। ये ऋषभदेव प्रथम तीर्थंकर भी थे और पन्द्रहवें कुलकर भी माने गये थे। इसी प्रकार ऋषभदेव की रानी यशस्वती ने भरत को जन्म दिया था। ये भरत महाराज चक्रवर्ती भी थे और सोलहवें कुलकर भी कहलाते थे। इस तरह ये सोलह कुलकर भी माने जाते थे।
इन कुलकरों की दण्ड व्यवस्था-ग्यारहवें से लेकर शेष कुलकरों ने ‘हा’ ‘मा’ और ‘धिक्’ इन तीन दण्डों की व्यवस्था की थी अर्थात् ‘खेद है’, ‘अब ऐसा नहीं करना’, ‘तुम्हें धिक्कार है’ जो रोकने पर भी अपराध करते हो।
भरतचक्री का दण्ड-भरत चक्रवर्ती के समय लोग अधिक दोष या अपराध करने लगे थे इसलिए उन्होंने वध, बन्धन आदि शारीरिक दण्ड देने की रीति भी चलाई थी।
प्रथम तीर्थंकर तृतीय काल में
जब तृतीय काल में चौरासी लाख वर्ष पूर्व, तीन वर्ष साढ़े आठ मास प्रमाण काल शेष रह गया था तब अंतिम कुलकर महाराजा नाभिराय की महारानी ‘मरुदेवी’ ने प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव को जन्म दिया। जब ऋषभदेव युवावस्था को प्राप्त हो गये, तब उनके पिता ने इन्द्र की अनुमति से ऋषभदेव का विवाह यशस्वती और सुनन्दा नाम की कन्याओं के साथ कर दिया। भगवान ऋषभदेव के भरत, बाहुबली आदि एक सौ एक पुत्र और ब्राह्मी-सुन्दरी नाम से दो कन्याएँ हुईं। भगवान ने सर्वप्रथम ब्राह्मी को ‘अ आ’ आदि लिपि और सुन्दरी को इकाई, दहाई आदि गणित विद्या सिखाई। अनन्तर सभी पुत्रों को भी सम्पूर्ण विद्याओं में, शास्त्रों में और शस्त्र कलाओं में निष्णात कर दिया।
प्रजा को असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य एवं शिल्प इन षट् क्रियाओं से आजीविका का उपाय बतलाने से भगवान प्रजापति कहलाये। उस समय जैसी व्यवस्था विदेहक्षेत्र में थी, वैसी ही व्यवस्था भगवान ने यहाँ पर स्थापित की, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र नाम से तीन वर्णों की स्थापना की, ‘विवाह-विधि’ आदि प्रचलित की। ‘अकम्पन’ आदि चार महापुरुषों को राज्यव्यवस्था बताकर ‘‘महाराज’’ पद पर उन्हें नियुक्त किया इसीलिए भगवान ऋषभदेव आदिब्रह्मा, युगादिपुरुष, विधाता आदि कहलाने लगे।
अनन्तर मोक्षमार्ग की स्थिति प्रगट करने के लिए वे दिगम्बर मुनि हो गये। उस समय चार हजार राजा उनकी देखा-देखी मुनि हो गये और भूख-प्यास की बाधा न सहन कर सकने से वे सब के सब भ्रष्ट हो गये। तब उन सभी ने मिलकर अनेक पाखण्ड मतों की स्थापना की। कुछ दिन बाद सम्राट भरत ने ब्राह्मण वर्ण नाम से एक वर्ण और स्थापित कर दिया।
भगवान ऋषभदेव के अनन्तर अजितनाथ आदि महावीरपर्यंत चौबीस तीर्थंकर हुए हैं।
इस हुण्डावसर्पिणी काल के दोष से भगवान ऋषभदेव तृतीय काल में हुए हैं, शेष तीर्थंकर चतुर्थकाल में हुए हैं।
चतुर्थकाल प्रारंभ-
भगवान ऋषभदेव के मोक्ष जाने के बाद तीन वर्ष, साढ़े आठ माह व्यतीत होने पर दुःषमासुषमा नामक चतुर्थ काल प्रविष्ट होता है। उस काल के प्रथम प्रवेश में उत्कृष्ट आयु एक पूर्वकोटि, पृष्ठ भाग की हड्डियाँ अड़तालीस और शरीर की ऊँचाई पाँच सौ पच्चीस धनुष प्रमाण थी। यह चतुर्थकाल बयालीस हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है।
भगवान ऋषभदेव के मुक्त हो जाने के पश्चात् पचास लाख करोड़ सागरों के व्यतीत हो जाने पर अजितनाथ तीर्थंकर ने मोक्षपद प्राप्त किया।
अजितनाथ के मुक्त होने के बाद तीस लाख करोड़ सागरों के व्यतीत हो जाने पर संभवनाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके बाद दस लाख करोड़ सागर व्यतीत हो जाने पर अभिनंदननाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके बाद नौ लाख करोड़ सागरों के चले जाने पर सुमतिनाथ भगवान सिद्धि को प्राप्त हुए।
इसके पश्चात् नब्बे हजार करोड़ सागरों के बीत जाने पर पद्मप्रभ जिन सिद्धि को प्राप्त हुए।
इसके अनन्तर नौ हजार करोड़ सागरों के चले जाने पर सुपार्श्वनाथ भगवान मोक्ष को प्राप्त हुए।
इसके बाद नौ सौ करोड़ सागरों के चले जाने पर चन्द्रप्रभ देव मोक्ष को प्राप्त हुए।
इसके बाद नब्बे करोड़ सागरों के बीत जाने पर पुष्पदन्तनाथ जिन सिद्धि को प्राप्त हुए।
इसके अनन्तर नौ करोड़ सागरों के चले जाने पर शीतलनाथ भगवान सिद्ध हुए।
इसके बाद छ्यासठ लाख छब्बीस हजार सौ सागर कम एक करोड़ सागर अर्थात् तेतीस लाख तिहत्तर हजार नौ सौ सागर के व्यतीत हो जाने पर श्रेयांसनाथ भगवान मोक्ष को प्राप्त हुए।
इसके अनन्तर चौवन सागर के बीत जाने पर वासुपूज्य भगवान मोक्ष को प्राप्त हुए।
इसके बाद तीस सागर व्यतीत हो जाने पर विमलनाथ भगवान सिद्ध हुए।
इसके बाद नौ सागर व्यतीत हो जाने पर अनंतनाथ मुक्त हुए।
इसके बाद चार सागर चले जाने पर धर्मनाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके बाद पौन पल्य कम तीन सागर के बीत जाने पर शांतिनाथ भगवान सिद्ध हुए।
इसके अनन्तर अर्द्धपल्य काल के बीत जाने पर कुंथुनाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके बाद एक करोड़ वर्ष कम पाव पल्य के बीत जाने पर अरहनाथ भगवान सिद्ध हुए।
इसके बाद एक हजार करोड़ वर्षों के बाद मल्लिनाथ जिन सिद्ध हुए।
इसके पश्चात् चौवन लाख वर्षों के बीत जाने पर मुनिसुव्रतनाथ सिद्ध हुए।
इसके पश्चात् छः लाख वर्ष बीत जाने पर नमिनाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके बाद पाँच लाख वर्षों के बीत जाने पर नेमिनाथ भगवान सिद्ध हुए।
इसके पश्चात् तिरासी हजार सात सौ पचास वर्षों के बीत जाने पर पार्श्वनाथ तीर्थंकर सिद्ध हुए।
इसके पश्चात् दो सौ पचास वर्षों के बीत जाने पर वीर भगवान सिद्ध हुए। उस समय पंचम काल के प्रवेश होने में तीन वर्ष साढ़े आठ माह शेष थे।
धर्मतीर्थ व्युच्छित्ति का काल—पुष्पदंत को आदि लेकर धर्मनाथपर्यंत सात तीर्थंकरों के तीर्थों में धर्म की व्युच्छित्ति (अभाव) हुई थी और शेष सत्रह तीर्थंकरों के तीर्थों में धर्म की परम्परा निरन्तर अक्षुण्णरूप से चलती रही है।
पुष्पदंत के तीर्थ में पाव पल्य तक धर्म का अभाव रहा है अर्थात् उस समय दीक्षा के अभिमुख होने वालों का अभाव होने पर धर्मरूपी सूर्यदेव अस्तमित हो गया था। इसी प्रकार शीतलनाथ के तीर्थ में अर्द्ध पल्य तक, श्रेयांसनाथ के तीर्थ में पौन पल्य तक, वासुपूज्यदेव के तीर्थ में एक पल्य तक, विमलनाथ के तीर्थ में पौन पल्य तक, अनन्तनाथ के तीर्थ में अर्द्ध पल्य तक और धर्मनाथ के तीर्थ में पाव पल्य तक धर्मतीर्थ का उच्छेद रहा था।
हुंडावसर्पिणी के दोष से यहाँ सात बार धर्म के विच्छेद हुए हैं।
पंचम काल-
वीर भगवान के मोक्ष जाने के बाद तीन वर्ष, आठ माह और एक पक्ष काल व्यतीत हो जाने के बाद ‘दुःषमा’ नामक पंचम काल प्रवेश करता है। इस पंचम काल के प्रथम प्रवेश में मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक सौ बीस वर्ष, ऊँचाई सात हाथ और पृष्ठ भाग की हड्डियाँ चौबीस होती हैं।
धर्मतीर्थ परम्परा
केवली-जिस दिन वीर भगवान सिद्ध हुए उसी दिन गौतम गणधर केवलज्ञान को प्राप्त हुए पुनः गौतम स्वामी के सिद्ध हो जाने पर उसी दिन श्री सुधर्मास्वामी केवली हुए। सुधर्मास्वामी के मुक्त होने पर जंबूस्वामी केवली हुए। पश्चात् जंबूस्वामी के सिद्ध हो जाने पर फिर कोई अनुबद्ध केवली नहीं रहे।
गौतम स्वामी के केवलज्ञान से लेकर जंबूस्वामी के मोक्षगमन तक का काल ६२ वर्ष प्रमाण है। केवलज्ञानियों में अंतिम ‘श्रीधर’ केवली कुण्डलगिरि से सिद्ध हुए। चारण ऋषियों में अंतिम ‘सुपार्श्वचन्द्र’ नामक ऋषि हुए। प्रज्ञाश्रमणों में अंतिम वङ्कायश और अवधिज्ञानियों में अंतिम ‘श्री’ नाम के ऋषि हुए हैं। मुकुटधरों में अंतिम चंद्रगुप्त ने जिनदीक्षा धारण की, इनके पश्चात् मुकुटधारी राजाओं ने जिनदीक्षा नहीं ली है।
श्रुतकेवली-जंबूस्वामी के अनन्तर नन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्द्धन और भद्रबाहु मुनि ये पाँचों ही ‘चौदह पूर्वी ’ इन नाम से विख्यात द्वादश अंगों के धारक पूर्ण श्रुतज्ञानी ‘श्रुतकेवली’ वर्धमान स्वामी के तीर्थ में हुए हैं। इन पाँचों का काल मिलाकर सौ वर्ष प्रमाण है।
दश पूर्वधारी-विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नागसेन, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिल, गंगदेव और धर्मसेन ये ग्यारह मुनि अनुक्रम से ग्यारह अंग और दश पूर्व के धारक ‘दश पूर्वी ’ कहलाये हैं। परम्परा से प्राप्त इन सबका काल एक सौ तिरासी वर्ष है। इनके बाद कालदोष से फिर दशपूर्वधर मुनिरूपी सूर्य नहीं हुए।
ग्यारह अंगधारी-नक्षत्रमुनि, जयपाल, पांडु, धु्रवसेन और कंसार्य ये पाँच मुनि ग्यारह अंग के धारक हुए हैं। इन सबका काल दो सौ बीस वर्ष प्रमाण है। इनके बाद फिर कोई मुनि ग्यारह अंग धारक नहीं हुए।
आचारांगधारी-सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य ये चार आचार्य आचारांग के धारक हुए हैं। इनके काल का प्रमाण एक सौ अठारह वर्ष है। इनके स्वर्गस्थ होने पर भरतक्षेत्र में फिर कोई अंग और पूर्व श्रुत के धारक नहीं हुए। गौतम स्वामी से लेकर यहाँ तक का काल छः सौ तिरासी वर्ष होता है। ६२+१००+१८३+२२०+११८=६८३।
इन उपर्युक्त आचार्यों के बाद शेष आचार्य ग्यारह अंग और चौदह पूर्वों के एकदेश के धारक हुए हैं।
पंचमकाल के अंत तक धर्मतीर्थ-जो श्रुततीर्थ धर्म प्रवर्तन का कारण है, वह बीस हजार तीन सौ सत्रह वर्षों तक चलता रहेगा, अनंतर कालदोष से व्युच्छेद को प्राप्त हो जायेगा अर्थात् पंचमकाल इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण है, उसमें से उपर्युक्त छः सौ तिरासी वर्ष कम करने से बचे हुए प्रमाण काल तक जैनधर्म चलता रहेगा-२१०००-६८३·२०३१७।
इतने मात्र बचे हुए शेष समय में चातुर्वर्ण्य संघ जन्म लेता रहेगा। उस समय के लोग प्रायः अविनीत, दुर्बुद्धि, असूयक, सात भय व आठ मदों से संयुक्त, शल्य एवं गारवों से सहित, कलहप्रिय, रागिष्ठ, क्रूर और क्रोधी होंगे।
राज्य परम्परा-जिस समय वीर भगवान मुक्ति को प्राप्त हुए उसी समय ‘पालक’ नामक अवन्तीसुत का राज्याभिषेक हुआ। साठ वर्ष तक पालक का राज्य रहा पुनः एक सौ पचपन वर्ष तक विजयवंशियों का, चालीस वर्ष तक मरुंडवंशियों का, तीस वर्ष तक पुष्यमित्र का, इसके बाद साठ वर्ष तक वसुमित्र-अग्निमित्र का, एक सौ वर्ष तक गंधर्व का, चालीस वर्ष तक नरवाहन का, दो सौ बयालीस वर्ष तक भृत्य-आंध्रों का, पुनः दो सौ इकतीस वर्ष तक गुप्तवंशियों का राज्य रहा है।
कल्की का जन्म और कार्य-इसके बाद इन्द्र नामक राजा का पुत्र कल्की उत्पन्न हुआ, इसका नाम चतुर्मुख, आयु सत्तर वर्ष और राज्यकाल बयालीस वर्ष प्रमाण रहा है। महावीर के निर्वाण से इस कल्की तक का काल एक हजार वर्ष हो जाता है-६०+१५५+४०+३०+६०+१००+४०+२४२+२३१+४२=१००० वर्ष।
आचारांगधर आचार्यों के पश्चात् दो सौ पचहत्तर वर्षों के व्यतीत हो जाने पर कल्की राजा को पट्ट बाँधा गया था-६८३+२७५+४२=१००० वर्ष।
श्री वीरप्रभु के निर्वाण जाने के बाद छः सौ पाँच वर्ष और पाँच माह व्यतीत हो जाने पर ‘विक्रम’ नामक राजा हुए हैं। उसके बाद तीन सौ चौरानवे वर्ष, सात माह बीत जाने पर प्रथम कल्की उत्पन्न हुआ था।
अनन्तर वह कल्की प्रयत्नपूर्वक अपने योग्य जनपदों को सिद्ध करके लोभ और अन्याय को प्राप्त होता हुआ मुनियों के आहार में से प्रथम ग्रास को शुल्क रूप में माँगने लगता है, तब श्रमण मुनि अग्र ग्रास को देकर और ‘यह अन्तरायों का काल है’ ऐसा समझकर निराहार चले जाते हैं। उस समय उनमें से किसी एक मुनि को अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाता है। इसके बाद कोई असुरदेव अवधिज्ञान से मुनिगणों के उपसर्ग को जानकर और धर्म का द्रोही मानकर उस कल्की को मार डालते हैं। तब ‘अजितंजय’ नामक उस कल्की का पुत्र ‘रक्षा करो’ इस प्रकार कहकर उस देव के चरणों में नमस्कार करता है, तब वह देव ‘धर्मपूर्वक राज्य करो’ ऐसा कहकर उसकी रक्षा करता है। इसके पश्चात् दो वर्षों तक सच्चे धर्म की प्रवृत्ति रहती है पुनः क्रमशः काल के माहात्म्य से वह प्रतिदिन हीन होती चली जाती है।
इस प्रकार एक हजार वर्षोें के पश्चात् पृथक्-पृथक् एक-एक कल्की तथा पाँच सौ वर्षों के पश्चात् एक-एक उपकल्की होता है। प्रत्येक कल्की के समय एक-एक दुःषमाकालवर्ती साधु को अवधिज्ञान प्राप्त होता है और उसके समय में चातुर्वर्ण्य संघ भी अल्प हो जाते हैं। उस समय पूर्व में बाँधे हुए पापों के उदय से चांडाल, शबर, श्वपच, किरात आदि तथा दीन, अनाथ, क्रूर, नाना प्रकार की व्याधि-वेदना से युक्त, हाथों में खप्पर तथा भिक्षापात्रधारी और देशान्तर गमन से पीड़ित ऐसे बहुत से मनुष्य दिखते हैं।
अंतिम कल्की का जन्म और कार्य-इस प्रकार से दुःषमा काल में धर्म, आयु और ऊँचाई कम होती जाती है फिर अन्त में विषम स्वभाव वाला इक्कीसवाँ कल्की उत्पन्न होता है, उसके समय में ‘वीरांगज’ नामक एक मुनि, ‘सर्वश्री’ नाम की आर्यिका तथा ‘अग्निदत्त’ और ‘पंगुश्री’ नामक श्रावक-श्राविका होंगे। वह कल्की अपनी आज्ञा से अपने योग्य जनपदों को सिद्ध करके मंत्रिवरों से कहेगा कि ऐसा कोई पुरुष तो नहीं है जो मेरे वश में न हो ? तब मंत्री निवेदन करेंगे कि हे स्वामिन्! एक मुनि आपके वश में नहीं हैं, तब कल्की कहेगा कि कहो! वह अविनीत मुनि कौन है? इसके उत्तर में सचिव कहेंगे कि हे स्वामिन्! सकल अिंहसा व्रतों का आधारभूत वह मुनि सर्व परिग्रह से रहित होता हुआ शरीर की स्थिति के निमित्त दूसरों के घरों पर मध्यान्ह काल में अपने हस्तपुट में विघ्नरहित प्रासुक आहार को ग्रहण करता है। इस प्रकार के वचन सुनकर वह कल्की कहेगा कि वह अहिंसाव्रतधारी पापी कहाँ जाता है ? तुम स्वयं उसका पता लगाओ और उसके प्रथम ग्रास को शुल्करूप में ग्रहण करो।
तत्पश्चात् प्रथम ग्रास के माँगे जाने पर वे मुनिराज तुरंत उसे देकर और अन्तराय करके वापस चले जावेंगे तथा अवधिज्ञान को भी प्राप्त कर लेंगे। उस समय वे मुनि, सर्वश्री आर्यिका, अग्निदत्त श्रावक और पंगुश्री श्राविका को बुलाकर प्रसन्नचित्त होते हुए कहेंगे कि अब दुःषमाकाल का अंत आ चुका है, तुम्हारी और हमारी तीन दिन की आयु शेष है और यह अंतिम कल्की है। तब ये चारों जन चार प्रकार के आहार और परिग्रहादि को जीवनपर्यंत छोड़कर सन्यास को ग्रहण करेंगे। वे सब कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की अमावस्या के दिन सूर्य के स्वाति नक्षत्र पर उदित रहने पर सन्यास को ग्रहण करके समाधिमरण को प्राप्त करेंगे।
समाधिमरण के पश्चात् वीरांगज मुनि एक सागर आयु से युक्त होते हुए सौधर्म स्वर्ग में उत्पन्न होंगे और वे तीनों जन भी एक पल्य से कुछ अधिक आयु को लेकर वहाँ पर ही उत्पन्न होंगे।
उसी दिन मध्यान्ह में क्रोध को प्राप्त हुआ कोई असुरकुमार जाति का उत्तम देव कल्की राजा को मार डालेगा और सूर्यास्त के समय में अग्नि नष्ट हो जावेगी।
इस प्रकार इक्कीस कल्की और इतने ही उपकल्की धर्म के द्रोह से एक सागर आयु से युक्त होकर घम्मा पृथ्वी में जन्म लेते हैं।
अतिदुःषमा नामक छठा काल-
उपर्युक्त घटना के पश्चात् तीन वर्ष, आठ माह और एक पक्ष के बीत जाने पर महाविषम दुःषमादुःषमा नामक छठा काल प्रविष्ट होता है। उसके प्रथम प्रवेश में शरीर की ऊँचाई तीन अथवा साढ़े तीन हाथ, पृष्ठ भाग की हड्डियाँ बारह और उत्कृष्ट आयु बीस वर्ष प्रमाण होती है। उस काल में सब मनुष्यों का आहार मूल, फल और मत्स्य आदि होते हैं, उस समय मनुष्यों को वस्त्र, वृक्ष और मकान आदि दिखाई नहीं देते हैं इसलिए सब मनुष्य नंगे और भवनों से रहित होते हुए वनों में घूमते हैं, वे मनुष्य सर्वांग धूम्र वर्ण वाले, पशुओं जैसा आचरण करने वाले, क्रूर, बहरे, अंधे, काने, गूँगे, दरिद्र, क्रोधी, दीन, कुरूप, अतिम्लेच्छ, हुण्डक संस्थान से युक्त, कुबड़े, बौने, नाना प्रकार की व्याधि और वेदना से विकल, प्रचुर कषायों से युक्त, मोही, क्षोभयुक्त स्वभाव से पापिष्ठ, स्वजन-परिजन आदि से रहित, मित्रों से रहित, पुत्र- स्त्रियों से रहित, दुर्गन्धयुक्त शरीर सहित, जूँ-लीख आदि युक्त केशों को धारण करने वाले महामूर्ख होते हैं।
इस काल में नरक और तिर्यञ्चगति से आने वाले जीव ही जन्म लेते हैं तथा यहाँ से मरकर वे अत्यंत घोर नरक व तिर्यंचगति में ही उत्पन्न होते हैं। दिन-प्रतिदिन उन जीवों की ऊँचाई, आयु और शक्ति आदि हीन होते जाते हैं। इनके दुःखों को एक जिह्वा से कहने के लिए भला कौन समर्थ हो सकता है ?
प्रलयकाल—इस छठे काल में उनंचास दिन कम इक्कीस हजार वर्ष के बीत जाने पर जीवों का भयदायक घोर प्रलयकाल प्रवृत्त होता है। उस समय महागंभीर एवं भीषण संवर्तक वायु चलती है जो कि सात दिन तक वृक्ष, पर्वत, शिला आदि को चूर्ण कर देती है। वृक्ष एवं पर्वतों के भंग होने से मनुष्य एवं तिर्यञ्च महादुःख को प्राप्त करते हैं तथा वस्त्र और स्थान की अभिलाषा करते हुए अत्यन्त करुण विलाप करते हैं।
इस समय पृथक्-पृथक् संख्यात व सम्पूर्ण बहत्तर युगल गंगा-सिंधु नदियों की वेदी और विजयार्द्ध वन के मध्य में प्रवेश करते हैं। इसके अतिरिक्त देव और विद्याधर दयार्द्र होकर मनुष्य और तिर्यञ्चों में से संख्यातों जीवों को उन प्रदेशों में ले जाकर सुरक्षित रखते हैं।
सात प्रकार की वृष्टि—छठे काल के अन्त में मेघों के समूह सात प्रकार की निकृष्ट वस्तुओं की वर्षा सात-सात दिन तक करते हैं जिनके नाम—१. अत्यन्त शीतल जल २. क्षार जल ३. विष ४. धुआँ ५. धूलि ६. वङ्का एवं ७. जलती हुई दुष्प्रेक्ष्य अग्निज्वाला। इन सातरूप परिणत हुए पुद्गलों की वर्षा सात-सात दिन तक होने से लगातार उनंचास दिन तक चलती है।
‘‘इस वृष्टि के निमित्त से अवशेष बचे मनुष्य आदि भी नष्ट हो जाते हैं तथा विष और अग्नि की वृष्टि से दग्ध हुई पृथ्वी एक योजन भाग नीचे तक काल के वश से भस्म हो जाती है।
इस क्रम से भरतक्षेत्र के भीतर आर्यखण्ड में चित्रा पृथ्वी के ऊपर स्थित वृद्धिंगत एक योजन की भूमि जलकर नष्ट हो जाती है। वङ्का और महाअग्नि के बल से आर्यखण्ड की बढ़ी हुई भूमि अपने पूर्ववर्ती स्कन्ध स्वरूप को छोड़कर लोकान्त तक पहुँच जाती है।
उस समय आर्यखण्ड शेष भूमियों के समान दर्पणतल के सदृश कान्ति से स्थित, धूलि एवं कीचड़ की कलुषता से रहित हो जाता है। वहाँ पर उपस्थित (शेष बचे हुए विजयार्द्ध की गुफा आदि में सुरक्षित) मनुष्यों की ऊँचाई एक हाथ, आयु सोलह अथवा पन्द्रह वर्ष प्रमाण और वीर्य आदि भी तदनुसार ही होते हैं।
यहाँ तक अवसर्पिणी काल के छहों कालों का वर्णन होता है।
वर्तमान काल—यहाँ पर इस भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में इस समय पञ्चमकाल चल रहा है। अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी को मोक्ष गये ढाई हजार वर्ष से भी कुछ अधिक व्यतीत हो चुके हैं। अभी लगभग साढ़े अठारह हजार वर्ष और व्यतीत होंगे। अनन्तर छठा काल आयेगा, ऐसा समझना।
इसके पश्चात् उत्सर्पिणी इस नाम से रमणीय काल प्रवेश करता है। इसके छह भेदों में से प्रथम अतिदुःषमा, द्वितीय दुःषमा, तृतीय दुःषमा—सुषमा, चतुर्थ सुषमा-दुःषमा, पंचम सुषमा और छठा सर्व जनप्रिय अतिसुषमा, ऐसे छह काल होते हैं। यह काल भी अवसर्पिणी के सदृश दस कोड़ाकोड़ी सागर का है। इस काल में जीवों की ऊँचाई, आयु, वीर्य आदि दिन-प्रतिदिन बढ़ते ही जाते हैं।
दुषमादुषमा काल—
उत्सर्पिणी काल के प्रारंभ में पुष्कर मेघ सात दिन तक सुखोत्पादक जल को बरसाते हैं जिससे वङ्का, अग्नि से जली हुई सम्पूर्ण पृथ्वी शीतल हो जाती है। क्षीरमेघ सात दिन तक क्षीर जल की वर्षा करते हैं जिससे यह पृथ्वी क्षीर जल से भरी हुई उत्तम कान्तियुक्त हो जाती है। इसके पश्चात् सात दिन तक अमृतमेघ अमृत की वर्षा करते हैं जिससे अभिषिक्त भूमि पर लता, गुल्म आदि उगने लगते हैं। इसके बाद रसमेघ सात दिन तक दिव्य रस की वर्षा करते हैं, इस दिव्य रस से परिपूर्ण वे लता आदि सर्वरस वाले हो जाते हैं। उस समय विविध रसपूर्ण औषधियों से भरी हुई भूमि सुस्वाद परिणत हो जाती है।
पश्चात् शीतल गंध को प्राप्त कर वे मनुष्य और तिर्यञ्च गुफाओं से बाहर निकल आते हैं। उस समय वे मनुष्य और तिर्यञ्च नग्न रहकर पशुओं जैसा आचरण करते हुए, क्षुभित होकर वन प्रदेशों में वृक्षों के फल, मूल, पत्ते आदि को खाते हैं। उस काल के प्रथम भाग में आयु पन्द्रह अथवा सोलह वर्ष, ऊँचाई एक हाथ प्रमाण होती है, इसके आगे वह आयु बढ़ती हाr जाती है। आयु, तेज, बुद्धि, बाहुबल, देह की ऊँचाई, क्षमा तथा धैर्य इत्यादि ये सब काल के प्रभाव से उत्तरोत्तर बढ़ते जाते हैं। इस प्रकार इक्कीस हजार वर्षों के बीत जाने पर इस भरतक्षेत्र में अतिदुःषमा नामक काल पूर्ण हो जाता है।
दुःषमाकाल-
तब दुःषमा नाम का द्वितीय काल प्रवेश करता है। इस काल में मनुष्य, तिर्यंञ्चों का आहार बीस हजार वर्ष पर्यन्त पहले के समान ही रहता है। इस काल के प्रथम प्रवेश में उत्कृष्ट आयु बीस वर्ष और ऊँचाई तीन हाथ या साढ़े तीन हाथ प्रमाण होती है।
कुलकरों की उत्पत्ति-इस काल में एक हजार वर्षों के शेष रहने पर भरतक्षेत्र में चौदह कुलकरों की उत्पत्ति होने लगेगी। क्रम से उन कुलकरों के नाम-कनक, कनकप्रभ, कनकराज, कनकध्वज, कनकपुंगव, नलिन, नलिनप्रभ, नलिनराज, नलिनध्वज, नलिनपुंगव, पद्मप्रभ, पद्मराज, पद्मध्वज और पद्मपुंगव ये चौदह कुलकर होवेंगे। इनमें से प्रथम कुलकर की ऊँचाई चार हाथ और अन्तिम कुलकर की ऊँचाई सात हाथ की होगी।
उस समय विविध औषधियों के होते हुए भी श्रेष्ठ अग्नि नहीं रहती, तब विनय से युक्त मनुष्यों को वे कुलकर उपदेश देते हैं-मथ करके अग्नि उत्पन्न करो और अन्न को पकाओ तथा विवाह करके बान्धव आदि के साथ इच्छानुसार सुख का उपभोग करो। जिनको वे कुलकर इस प्रकार की शिक्षा देते हैं वे अत्यन्त म्लेच्छ सदृश होते हैं। यहाँ विशेष यह है कि अंतिम कुलकर पद्मपुंगव के समय से विवाह विधियाँ प्रचलित हो जाती हैं।
दुषमा-सुषमा काल-
इसके पश्चात् दुषमासुषमा नाम का तृतीय काल प्रवेश करता है। इसके प्रारंभ में ऊँचाई सात हाथ और आयु एक सौ बीस वर्ष प्रमाण होती है। इस समय पृष्ठ भाग की हड्डियाँ चौबीस होती हैं तथा मनुष्य पाँच वर्ण वाले शरीर से युक्त, मर्यादा, विनय एवं लज्जा से सहित, सन्तुष्ट और सम्पन्न होते हैं।
इस काल में चौबीस तीर्थंकर होते हैं। उनमें से प्रथम तीर्थंकर अंतिम कुलकर का पुत्र होता है। उस समय से वहाँ विदेहक्षेत्र जैसी वृत्ति अथवा अवसर्पिणी के चतुर्थ काल जैसी वृत्ति होने लगती है।
भविष्यत्काल के चौबीस तीर्थंकर-महापद्म, सुरदेव, सुपार्श्व, स्वयंप्रभ, सर्वप्रभ, देवसुत, कुलसुत, उदंक, प्रोष्ठिल, जयकीर्ति, मुनिसुव्रत, अर, अपाप, निष्कषाय, विपुल, निर्मल, चित्रगुप्त, समाधिगुप्त, स्वयंभू, अनिवृत्ति, जय, विमल, देवपाल और अनन्तवीर्य ये चौबीस तीर्थंकर होंगे। इनमें से प्रथम तीर्थंकर की ऊँचाई सात हाथ और आयु एक सौ सोलह वर्ष तथा अंतिम तीर्थंकर की ऊँचाई पाँच सौ धनुष एवं आयु एक पूर्व कोटि वर्ष प्रमाण होगी।
भविष्यत्कालीन तीर्थंकरों के पूर्व के तृतीय भव के नाम-ये तीर्थंकर जिन तृतीय भव में तीनों लोकों को शोभित करने वाले तीर्थंकर नामकर्म का बंध करते हैं, उनके उस समय के ये नाम हैं-श्रेणिक, सुपार्श्व, उदंक, प्रोष्ठिल, कृतसूर्य, क्षत्रिय, पाविल, शंख, नन्द, सुनन्द, शशांक, सेवक, प्रेमक, अतोरण, रैवत, कृष्ण, बलराम, भगलि, विगलि, द्वीपायन, माणवक, नारद, सुरूपदत्त और अन्तिम सात्यकिपुत्र (रुद्र) ये सब राजवंश में उत्पन्न हुए थे।
भविष्यत्काल के बारह चक्रवर्ती-भविष्यत्काल में तीर्थंकरों के समय जो बारह चक्रवर्ती होंगे उनके नाम-भरत, दीर्घदन्त, मुक्तदन्त, गूढ़दन्त, श्रीषेण, श्रीभूति, श्रीकान्त, पद्म, महापद्म, चित्रवाहन, विमलवाहन और अरिष्टसेन।
भविष्यत्काल के नव बलभद्र-चन्द्र, महाचन्द्र, चन्द्रधर, वरचन्द्र, सिंहचन्द्र, हरिचन्द्र, श्रीचन्द्र, पूर्णचन्द्र और सुचन्द्र ये पूर्व भव में निदान को न करके पुण्य के उदय से नौ बलदेव होते हैं।
भविष्यत्काल के नव नारायण-नन्दी, नन्दिमित्र, नन्दिभूति, नन्दिषेण, बल, महाबल, अतिबल, त्रिपृष्ठ और द्विपृष्ठ ये नव नारायण बलदेवों के अनुज होंगे।
भविष्यत्काल के नव प्रतिनारायण-श्रीकंठ, हरिकंठ, नीलकंठ, अश्वकंठ, सुकंठ, शिखिकंठ, अश्वग्रीव, हयग्रीव और मयूरग्रीव ये नव प्रतिनारायण, नारायणों के प्रतिशत्रु होंगे।
ये त्रेसठ शलाका पुरुष बयालीस हजार वर्ष कम कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण इस तृतीयकाल में क्रम से उत्पन्न होंगे। इस काल के अन्त में मनुष्यों की आयु एक पूर्वकोटि प्रमाण, ऊँचाई पाँच सौ पच्चीस धनुष और पृष्ठ भाग की हड्डियाँ चौंसठ होंगी। इस समय के नर-नारी देव एवं अप्सराओं के सदृश होंगे।
सुषमादुषमा काल-
इसके पश्चात् सुषमादुषमा नामक चतुर्थकाल प्रविष्ट होता है। इसके प्रारंभ में मनुष्यों की आयु एक पूर्व कोटि वर्ष प्रमाण होती है, मनुष्यों की ऊँचाई पाँच सौ धनुष प्रमाण होती है पुनः क्रम से आयु, ऊँचाई और बल बढ़ते ही जाते हैं। इसमें कल्पवृक्षों की उत्पत्ति हो जाती है।
उस समय यह पृथ्वी जघन्य भोगभूमि कही जाती है, इसके अन्त में मनुष्यों की आयु एक पल्य प्रमाण होती है, ऊँचाई एक कोस और मनुष्यों का वर्ण प्रियंगु जैसे वर्ण का होता है। कल्पवृक्षों से भोग सामग्री प्राप्त होती है। इन भोगभूमियों का वर्णन अवसर्पिणी काल के कथन में किया जा चुका है। यह काल दो कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होता है।
सुषमा काल-
इसके बाद सुषमा नामक पाँचवाँ काल प्रविष्ट होता है। इसके प्रथम प्रवेश में मनुष्य-तिर्यञ्चों की आयु आदि मध्यम भोगभूमि के सदृश होते हैं अर्थात् एक पल्य से लेकर अन्त में दो पल्य की आयु हो जाती है एवं एक कोस से लेकर क्रम से अन्त में दो कोस तक शरीर की ऊँचाई हो जाती है। ये नर-नारी पूर्ण चन्द्र सदृश मुख वाले, बहुत विनयी, शील से सम्पन्न, एक सौ अट्ठाईस पृष्ठ भाग की हड्डियों से सहित होते हैं। यह काल तीन कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होता है।
सुषमासुषमा काल-
तदनंतर सुषमा-सुषमा नामक छठा काल प्रविष्ट होता है। उसके प्रथम प्रवेश में आयु आदि पहले के समान होते हैं। काल के स्वभाव से मनुष्य और तिर्यंचों की आयु बढ़ते-बढ़ते अंत में तीन पल्य की आयु और ऊँचाई तीन कोस प्रमाण होती है, मनुष्यों के वर्ण उदित होते हुए सूर्य के सदृश होते हैं, पृष्ठ भाग की हड्डियाँ दो सौ छप्पन होती हैं। उस समय यह पृथ्वी उत्तम भोगभूमि नाम से प्रसिद्ध हो जाती है। वे भोगभूमिज बहुत परिवार की विक्रिया करने में समर्थ ऐसी शक्तियों से संयुक्त होते हैं। यह काल चार कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होता है।
इस प्रकार से उत्सर्पिणी के षट्कालों का परिवर्तन पूर्ण होता है। इसके पश्चात् फिर नियम से वह अवसर्पिणी काल प्रवेश करता है।
षट्काल परिवर्तन कहाँ-कहाँ है?
भरत और ऐरावत क्षेत्र के आर्यखण्डों में अरहघटिका के न्याय से अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल अनन्तानन्त होते हैं।
असंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल की शलाकाओं के बीत जाने पर प्रसिद्ध एक हुंडावसर्पिणी आती है। इसके चिन्ह ये हैं-
इस काल के भीतर सुषमादुषमा नामक तृतीय काल की स्थिति में कुछ काल अवशिष्ट रहने पर भी वर्षा आदि पड़ने लगती है और विकलेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति होने लगती है। इसी तृतीय काल में कल्पवृक्षों का अन्त और कर्मभूमि का व्यापार प्रारंभ हो जाता है। उसी काल में प्रथम तीर्थंकर और प्रथम चक्रवर्ती भी उत्पन्न हो जाते हैं। इस हुण्डावसर्पिणी के दोष से चक्रवर्ती का विजयभंग, उसी के द्वारा की गई ब्राह्मण वर्ण की उत्पत्ति भी हो जाती है। इस काल में अट्ठावन ही शलाका पुरुष होते हैं और नौंवे से लेकर सोलहवें तीर्थंकर तक सात तीर्थों में धर्म का विच्छेद हो जाता है। ग्यारह रुद्र और कलहप्रिय नव नारद उत्पन्न होते हैं। इसके अतिरिक्त सातवें, तेईसवें और अंतिम तीर्थंकर के ऊपर उपसर्ग भी होता है। तृतीय, चतुर्थ व पंचमकाल में उत्तम धर्म को नष्ट करने वाले विविध प्रकार के दुष्ट, पापिष्ठ, कुदेव और कुलिंगी भी दिखने लगते हैं। चाण्डाल, शबर, श्वपच तथा किरात आदि निकृष्ट जातियाँ तथा बयालीस कल्की व उपकल्की भी होते हैं। अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, वङ्कााग्नि आदि का गिरना, इत्यादि विचित्र भेदों को लिए हुए नाना प्रकार के दोष इस हुण्डावसर्पिणी काल में हुआ करते हैं।
भीमावली, जितशत्रु, रुद्र, वैश्वानर, सुप्रतिष्ठ, अचल, पुण्डरीक, अजितंधर, अजितनाभि, पीठ और सात्यकिपुत्र ये ग्यारह रुद्र अंगधर होते हुए तीर्थकर्ताओं के समयों में हुए हैं। इनमें से प्रथम रुद्र ऋषभनाथ के काल में और जितशत्रु अजितनाथ के काल में हुआ है, इसके आगे सात रुद्र क्रम से सुविधिनाथ से लेकर सात तीर्थंकरों के समय में हुए हैं। दसवाँ रुद्र शान्तिनाथ के समय में और सात्यकिपुत्र वीर भगवान के तीर्थ में हुआ है। सब रुद्र दसवें पूर्व का अध्ययन करते समय विषयों के निमित्त से तप से भ्रष्ट होकर सम्यक्त्वरूपी रत्न से रहित होते हुए घोर नरकों में डूब गये।
भीम, महाभीम, रुद्र, महारुद्र, काल, महाकाल, दुर्मुख, नरकमुख और अधोमुख ये नौ नारद हुए हैं। ये सब नारद अतिरुद्र होते हुए दूसरों को रुलाया करते हैं और पाप के निधान होते हैं। सब ही नारद कलह एवं महायुद्ध प्रिय होने से वासुदेवों के समान नरक को प्राप्त हुए हैं।
भगवान बाहुबली, अमिततेज, श्रीधर, यशोभद्र, प्रसेनजित, चन्द्रवर्ण, अग्निमुक्ति, सनत्कुमार (चक्रवर्ती), वत्सराज, कनकप्रभ, सिद्धवर्ण, शान्तिनाथ (चक्र.), कुंथुनाथ (चक्र.), अरनाथ (चक्री), विजयराज, श्रीचन्द्र, राजा नल, हनुमान, बलगज, वसुदेव, प्रद्युम्न, नागकुमार, श्रीपाल और जम्बूस्वामी।
चौबीस तीर्थंकरों के समयों में अनुपम आकृति के धारक ये बाहुबली आदि चौबीस कामदेव होते हैं।
तीर्थंकर, उनके माता-पिता, चक्रवर्ती, बलदेव, नारायण, रुद्र, नारद, कामदेव और कुलकर पुरुष, ये सब भव्य होते हुए नियम से सिद्ध होते हैं। तीर्थंकर तो उसी भव से नियम से सिद्ध होते हैं, अन्यों के लिए उसी भव का नियम नहीं है।