यह सृष्टि अनादि है, अनंत है और शाश्वत है। इसको रचने वाला कोई ईश्वर, सृष्टा, ब्रह्मा या विधाता नहीं है, प्रत्युत् यह स्वयंसिद्ध है, प्राकृतिक है, अनादिकाल से है और अनंतकाल तक रहेगी। जैन परम्परा के अनुसार आचार्यों ने बताया है कि यह संसार तीन लोक में विभक्त है-
लोगो अकिट्टिमो खलु, अणाइणिहणो सहावणिव्वत्तो।
जीवाजीवेहिं फुडो, सव्वागासवयवो णिच्चो।।
यह लोक अर्थात् संसार अथवा शास्त्रीय भाषा में कहें तो लोकाकाश अकृत्रिम है, अनादिनिधन है, स्वभाव से निर्मित है और जीव-अजीव से भरा हुआ है। ये नित्य है और जो सम्पूर्ण आकाश है उसका एक अवयव स्वरूप है। वस्तुत: आकाश के दो भेद हैं-अलोकाकाश और लोकाकाश। अलोकाकाश अत्यंत विस्तृत है और उसके बीचोंबीच में लोकाकाश है।
तीन लोक का आकार आपने देखा ही है, जैनधर्म का प्रतीक चिन्ह भी तीन लोक का यह आकार ही है। यदि कोई व्यक्ति दोनों पैरों को पैâलाकर खड़ा हो जाए और अपने दोनों हाथ कमर पर रख ले, तो जो ‘पुरुषाकार’ बनता है, वही तीन लोक अथवा लोकाकाश का आकार है।
यह लोकाकाश मूल में ७ राजू चौड़ा है, १४ राजू ऊँचा है, मध्य में घटते हुए बीचोंबीच में १ राजू रह गया है, पुन: बढ़ते-बढ़ते ब्रह्म लोक के पास अर्थात् कोहनी वाले स्थान पर ५ राजू हो गया है और पुन: ऊपर की ओर सिद्धशिला तक घटते-घटते १ राजू रह गया है। इसकी मोटाई सर्वत्र ७ राजू है। ऐसे इस लोकाकाश में सबसे नीचे अधोलोक में निगोद है, उसके ऊपर ७ नरक हैं, इनमें से प्रथम रत्नप्रभा पृथ्वी के तीन भाग हैं-खर भाग, पंक भाग और अब्बहुल भाग। अब्बहुल भाग में नारकी हैं और दो भागों में भवनवासी देवों के भवन बने हुए हैं, गौण रूप में व्यंतर देवों के भवन भी इन दो भागों में हैं।
अपने शरीर में नाभि स्थान पर १ राजू चौड़े मध्यलोक की कल्पना करें, जिसमें थाली के समान आकार वाले गोलाकार असंख्यात द्वीप-समुद्र हैं, जिनमें से प्रथम द्वीप का नाम है-‘जम्बूद्वीप’। ऊपर ऊर्ध्वलोक में सौधर्म स्वर्ग से सर्वार्थसिद्धि तक १६ स्वर्ग, ९ ग्रैवेयक, ९ अनुदिश और ५ अनुत्तर हैं, उसके ऊपर सिद्धशिला है।
इस लोकाकाश में अधोलोक ७ राजू ऊँचा है और ऊर्ध्वलोक भी ७ राजू ऊँचा है, जबकि मध्यलोक की ऊँचाई ऊर्ध्वलोक से मात्र १ लाख ४० योजन ली गई है, जो राजू के सामने नगण्य ही है क्योंकि
१ राजू में असंख्यात योजन होते हैं। १ योजन में २००० कोस अर्थात् ४००० मील है।
लोकाकाश के ध्यान में जब आप अपने शरीर में ही शाश्वत जिनमंदिरों की स्थापना करके उनको नमन करेंगे तो शरीर विशुद्ध हो जायेगा, आत्मा पवित्र हो जायेगी, असीम पुण्य का संचय होगा, शरीर से आधि-व्याधि-रोग पलायमान हो जायेंगे और भूत-प्रेत-व्यंतर आदि की बाधाएँ भी दूर हो जायेंगी।
सर्वप्रथम नाभि से नीचे अधोलोक में भवनवासी देवों के ७ करोड़ ७२ लाख जिनमंदिर हैंं, उनको नमस्कार हो; मध्यलोक में जम्बूद्वीप से लेकर १३ द्वीप पर्यंत ४५८ जिनमंदिर हैं, उनको नमस्कार हो, ऊर्ध्वलोक में अर्थात् नाभि के ऊपर सौधर्म स्वर्ग से लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यंत ८४ लाख ९७ हजार
२३ जिनमंदिर हैं, उनको नमस्कार हो। तीन लोक में कुल ८ करोड़ ५६ लाख ९७ हजार ४८१ जिनमंदिर हैं, इन सबमें १०८-१०८ प्रतिमाएँ होने से कुल ९२५ करोड़ ५३ लाख २७ हजार ९४८ जिनप्रतिमाएँ हैं, इन सभी जिनमंदिरों एवं जिनप्रतिमाओं को मेरा बारम्बार नमस्कार है, ऐसा चिंतवन करें।
पुन: मध्यलोक में देखिए जहाँ व्यंतर देवों के जम्बूद्वीप से लेकर स्वयंभूरमण समुद्र पर्यंत असंख्यात भवन हैं, भवन-भवनपुर-आवास आदि, प्रत्येक में उनके जिनमंदिर बने हैं, जिनमें से प्रत्येक में १०८-१०८ जिनप्रतिमाएँ हैं, उनको नमस्कार करिये। सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र, तारा इत्यादि पाँच प्रकार के जो ज्योतिष्क देव हमें दिख रहे हैं, वे भी जम्बूद्वीप से लेकर स्वयंभूरमण समुद्र तक असंख्यात हैं, प्रत्येक के विमान में एक-एक जिनमंदिर है, तो इस प्रकार ज्योतिर्वासी देवों के असंख्यात जिनमंदिर हो गये और उनमें १०८-१०८ प्रतिमाएं हैं, उनको नमस्कार करिए।
पुन: आप देखें ढाई द्वीप को अर्थात् सुमेरु पर्वत को वेष्टित किए हुए प्रथम ‘जम्बूद्वीप’, पुन: जम्बूद्वीप को घेरे हुए लवण समुद्र, उसके पश्चात् धातकीखण्ड द्वीप, उसके पश्चात् कालोदधि समुद्र और उसके बाद पुष्करार्द्ध द्वीप। इस ढाई द्वीप में १७० कर्मभूमि हैं, इन सभी कर्मभूमियों में जितने भी अर्हंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, जिनधर्म, जिनागम, जिनचैत्य और जिनचैत्यालय रूप नवदेवता हैं, उनको नमस्कार करें; जितने भी कृत्रिम जिनमंदिर-जिनप्रतिमाएँ हैं, उनको नमस्कार करें; विद्यमान बीस तीर्थंकर-सीमंधर, युगमंधर, बाहु, सुबाहु आदि हैं, उनको नमस्कार करें। पाँच भरत-पाँच ऐरावत क्षेत्रों में भूत-भविष्यत-वर्तमान संंबंधी तीस चौबीसी के ७२० तीर्थंकर भगवन्तों को नमस्कार करें, साथ ही ढाई द्वीप की सभी कर्मभूमियों में जितनी भी पंचकल्याणक भूमियाँ हैं, निर्वाणभूमियाँ हैं, अतिशयक्षेत्र हैं, उन सबको नमस्कार करें।
इसके पश्चात् लोक के अग्रभाग पर सिद्धशिला है, आप चिंतन करें कि जो मैंने पुरुषाकार लोकाकाश बनाया है, उसके ठीक अग्रभाग पर ढाई द्वीप के समान ४५ लाख योजन विस्तृत उत्तान कटोरे के आकार वाली अर्धचन्द्राकार सिद्धशिला मेरे मस्तक पर विराजमान है और उस पर अनन्तानंत सिद्ध परमेष्ठी विराजमान हैं। पुन: चिन्तन वâरें कि जीव का स्वभाव ऊर्ध्वगामी है और ऊर्ध्वगमन स्वभावी मेरी आत्मा उसी सिद्धशिला पर पहुँचकर अनंत सिद्धों के बीच विराजमान हो गयी है, चिच्चैतन्य स्वरूप भगवान आत्मा सब कर्मों से पृथक होकर सिद्धशिला पर पहँुच गई है, उन सब सिद्धों को मेरा बारम्बार नमस्कार हो।
‘‘त्रिभुवन के मस्तक पर, सिद्धशिला पर सिद्ध अनंतानंत।
नमूँ नमूँ त्रिभुवन के सभी, तीर्थ को जिससे हो भव अंत।।’’
तीन लोक की इस अनादिनिधन रचना के चिंतन के पश्चात् अब आपको सृष्टि की व्यवस्था के विषय में समझना है। ढाई द्वीप में १७० कर्मभूमियों में १६० कर्मभूमियाँ विदेह क्षेत्र में हैं, जहाँ शाश्वत कर्मभूमि है। वहाँ पर सदा चतुर्थकाल की आदि (प्रारंभ) जैसी व्यवस्था ही रहती है अर्थात् यहाँ भरतक्षेत्र में भगवान ऋषभदेव के समय जैसा काल था, वही वहाँ सर्वदा विद्यमान रहता है, उसमें कोई परिवर्तन नहीं होता है। १६० विदेहों की तो यह व्यवस्था है।
आगे जम्बूद्वीप में एक भरत-एक ऐरावत हैं, धातकी खण्ड में २ भरत-२ ऐरावत हैं, पुष्करार्द्ध द्वीप में दो भरत-दो ऐरावत हैं, इस प्रकार कुल मिलाकर ५ भरत-५ ऐरावत क्षेत्र हुए , जिनमें से प्रत्येक के आर्यखण्ड में एक-एक कर्मभूमि होने से १० कर्मभूमियाँ हुईं और कुल मिलाकर १६०+१०=१७० कर्मभूमियाँ हो गईं। ५ भरत-५ ऐरावत क्षेत्रों में सदैव काल परिवर्तन होता रहता है। यह काल परिवर्तन अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी कालों के रूप में होता है। अवसर्पिणी के बाद उत्सर्पिणी, पुन: अवसर्पिणी पुन: उत्सर्पिणी यह क्रम सदा चला करता है।
प्रत्येक अवसर्पिणी १० कोड़ाकोड़ी सागर की होती है और प्रत्येक उत्सर्पिणी भी १० कोड़ाकोड़ी सागर की होती है। वर्तमान में जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में अवसर्पिणी ही चल रही है। इस अवसर्पिणी में मनुष्यों की आयु, ऊँचाई, सुख इत्यादि में क्रम-क्रम से हानि होती जाती है और उत्सर्पिणी में वृद्धि होती जाती है।
अवसर्पिणी के ६ भेद होते हैं-सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमा-दुषमा, दुषमा-सुषमा, दुषमा और अति दुषमा। उत्सर्पिणी में यही क्रम विपरीत हो जाता है अर्थात् अति दुषमा, दुषमा, दुषमा-सुषमा, सुषमा-दुषमा, सुषमा और सुषमा-सुषमा। सुषमा-सुषमा, सुषमा और सुषमा-दुषमा में क्रम से उत्तम भोगभूमि, मध्यम भोगभूमि और जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था रहती है।
इस बार भरतक्षेत्र में अवसर्पिणी के स्थान पर हुण्डावसर्पिणी काल चल रहा है। हुण्डावसर्पिणी अर्थात् जिसमें अघटित घटनाएं घट जाएं, ये करोड़ों-करोड़ों कल्पकालों के बाद आता है, कितनी ही अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी बीत जाती हैं, तब एक हुण्डावसर्पिणी काल आता है।
इस हुण्डावसर्पिणी के दोष से तृतीय काल के अंत में ही १४ कुलकर हुए, भगवान ऋषभदेव हुए, भरत चक्रवर्ती हुए और भगवान ऋषभदेव तृतीय काल के अंत में ही मोक्ष चले गये। वैसे तो अवसर्पिणी में चतुर्थ काल के आदि से अंत तक ही २४ तीर्थंकर होते हैं और उसी काल में मोक्ष जाते हैं परन्तु हुण्डावसर्पिणी के दोष से इस बार तृतीय काल में तीर्थंकर का जन्म एवं मोक्षगमन हुआ है।
प्रथम काल अर्थात् उत्तम भोगभूमि में ३ पल्य की आयु और ३ कोस ऊँचा शरीर था, घटते-घटते क्रम से द्वितीय काल में २ पल्य की आयु और २ कोस ऊँचा शरीर और तृतीयकाल में १ पल्य की आयु और १ कोस ऊँचा शरीर हो गया और घटते-घटते तृतीय काल के अंत में अंतिम कुलकर नाभिराय के शरीर की ऊँचाई ५२५ धनुष रह गई। एक धनुष में ४ हाथ माने गये हैं। भगवान ऋषभदेव की ऊँचाई ५०० धनुष थी। युग की आदि में भोगभूमि समाप्त हो गई और कर्मभूमि प्रारंभ हो गई।
तीर्थंकर गर्भ-जन्म से ही मति, श्रुत व अवधि इन तीन ज्ञान के धारी होते हैं अत: भगवान ऋषभदेव ने अपने अवधिज्ञान से विदेह क्षेत्र की कर्मभूमि का स्मरण करते हुए चिंतन किया कि वहाँ पर क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये तीन वर्ण हैं तथा असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प इन षट् क्रियाओं के द्वारा जीवनयापन किया जाता है, उसी प्रकार यहाँ भरतक्षेत्र में भी वही व्यवस्थाएँ बनाना चाहिए अत: प्रभु ने प्रजा को इसी प्रकार का उपदेश दिया तथा क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन वर्णों की स्थापना की। इन्द्र को उन्होंने ग्राम, नगर, पुर, खेट इत्यादि बनाने की आज्ञा दी, जिसे देव कारीगरों ने देखते-देखते पूर्ण कर दिया। अनेकानेक ग्राम, नगर, शहर सब निर्मित हो गये, महल-मकान आदि निर्मित हो गये। पहले भोगभूमि में दश प्रकार के कल्पवृक्षों से महल, मकान, भोजन, वस्त्राभूषण इत्यादि सब प्राप्त हो जाते थे परन्तु कर्मभूमि में सब व्यवस्थाओं को बनाने की आवश्यकता थी अत: भगवान ऋषभदेव ने प्रजा को समस्त क्रियाएँ सिखाईं-कैसे बीज बोना, कैसे उगाना, कैसे धान्य काटना, कैसे आटा पीसना, कैसे भोजन बनाना, कैसे खाना-खिलाना इत्यादि सब व्यवस्थाओं से परिचित करा दिया।
चतुर्थकाल एक कोड़ाकोड़ी सागर का था, उसमें २४ तीर्थंकर हुए (भगवान ऋषभदेव तृतीय काल के अंत में ही हो गये थे), १२ चक्रवर्ती हुए, ९ बलदेव, ९ नारायण, ९ प्रतिनारायण, ऐसे ६३ शलाका पुरुष हुए। २४ कामदेव, ९ नारद और रुद्र भी हुए हैं। इन सबका वर्णन आप महापुराण, आदिपुराण, हरिवंशपुराण, तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रंथों के स्वाध्याय से समझ सकते हैं।
इस प्रकार इस क्रम से सृष्टि प्राकृतिक एवं स्वाभाविक रूप से चलती रहती है, जैसे मेघ स्वाभाविक रूप से ही आकाश मेें छा जाते हैं, उनसे स्वाभाविक रूप से जलवृष्टि होती है, आकाश में इन्द्रधनुष स्वाभाविक रूप से बन जाता है, स्वाभाविक रूप से ही शीत ऋतु, ग्रीष्म ऋतु, शरद ऋतु इत्यादि का परिवर्तन चलता रहता है, इसी प्रकार सृष्टि भी अपने क्रम से स्वत: ही चलती रहती है।
चतुर्थ काल की आदि में ५२५ धनुष ऊँचा बाहुबली का शरीर था, ५०० धनुष ऊँचा भगवान ऋषभदेव का शरीर था, जबकि उत्कृष्ट आयु १ कोटि वर्ष पूर्व की अर्थात् बहुत बड़ी आयु थी। चतुर्थकाल के अंत तक घटते-घटते शरीर की ऊँचाई ७ हाथ और आयु १२० वर्ष रह गई। धीरे-धीरे क्रम से घटते हुए शरीर साढ़े ३ हाथ का रह गया और पंचमकाल में भी यह घटने का क्रम जारी है।
चतुर्थकाल के अंत में २४वें तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी का जन्म हुआ। उनके मोक्षगमन के पश्चात् ३ वर्ष साढ़े ८ माह तक चतुर्थकाल रहा तथा पुन: पंचमकाल प्रारंभ हुआ। हम और आप पंचमकाल में निवास कर रहे हैं। आयु, शरीर की ऊँचाई, सुख आदि सभी में देखते-देखते ह्रास हुआ है, हो रहा है। आप देखते हैं आपके बाबा अथवा पिता में जो शक्ति थी चलने की, बोलने की, खाने की, पचाने की अर्थात् जो स्वस्थता थी, आज आपमें उन सभी चीजों में ह्रास दिखायी पड़ता है, आपकी संतान की शक्ति आपसे भी कम है, इस प्रकार से षट्काल का परिवर्तन होता चला आ रहा है। आगे छठा काल आ जायेगा, उसमें अग्नि भी नहीं रहेगी क्योंकि पंचमकाल के अंत में ही अग्नि समाप्त हो जायेगी, राजा भी नहीं रहेगा, धर्म भी नहीं रहेगा, अत्यंत निष्कृष्ट यह काल होगा, मनुष्यों का जीवन पशुवत् व्यतीत होगा, अत्यंत दु:खी जीवन रहेगा। उसके पश्चात् उत्सर्पिणी काल आयेगा, जिसमें पहले छठा काल आयेगा, पुन: पाँचवां, चौथा इत्यादि तो इस प्रकार से सृष्टि के परिवर्तन का यह क्रम चला आ रहा है। जैन ग्रंथों के अनुसार सृष्टि की यह व्यवस्था स्वाभाविक रूप से चली आ रही है, किसी ब्रह्मा इत्यादि के द्वारा इसका संचालन जैन दर्शन में नहीं माना गया है। आज बालकों को पढ़ा दिया जाता है कि पूर्व में बंदर मनुष्य के पूर्वज थे, उनके रोम घिस गये, पूँछ घिस गयी तो उनसे धीरे-धीरे मनुष्यों का विकास हो गया, पर जैनागम के अनुसार ये कल्पनाएँ निराधार किंवदंतियाँ हैं।
हम मनु की संतान हैं, हमारे पूर्वज कहीं अधिक उन्नतिशील थे। मनु ‘कुलकर’ को कहते हैं। भगवान ऋषभदेव अंतिम १४वें कुलकर नाभिराय के पुत्र थे। ‘मनु’ से ही मानव बना है।
मनोरपत्यं मानव: अर्थात् मनु की संतान को मानव कहते हैं तो हम सब कुलकरों की संतान हैं।
ये तो कोई भी नहीं कह सकता कि पहले बीज है कि वृक्ष। संतान परम्परा अनादि है। उसकी आदि नहीं है पर अंत तो है। बीज को जला दो तो उसकी परम्परा का अंत हो जाएगा। इसी प्रकार हमारी और आपकी परम्परा भी अनादिकाल से चली आयी है। हमारे पिता, उनके पिता, उनके पिता इत्यादि, यह पूर्वजों की परम्परा कब से चली आई है, हम नहीं कह सकते। सभी माता-पिता से ही उत्पन्न हुए हैं, अपने आप नहीं। इस प्रकार हमारी यह कुल परम्परा उद्भव की दृष्टि से अनादि है परन्तु इस परम्परा को समाप्त किया जा सकता है। भगवान महावीर ने विवाह नहीं किया तो उनकी कुल परम्परा नहीं चली परन्तु अन्य तीर्थंकरों ने विवाह किया तो उनकी परम्परा तो चली आ रही है जिस परम्परा का हमें गौरव होता है।
मेरा तो कहना है कि हस्तिनापुर के निकट रहने वाले लोग तीर्थंकर शांतिनाथ, कुंथुनाथ एवं अरहनाथ की वंश परम्परा के हैं। हम लोग अयोध्या के निकट जन्म लेने वाले भगवान ऋषभदेव की परम्परा, उनके खानदान के हैं। बनारस में रहने वालों को मैं गौरव से कहती हूँ कि आप उग्रवंश के महाराज अश्वसेन के वंश के हैं। बिहार में रहने वालों को मैं कहूँगी कि आप राजा सिद्धार्थ के जो भाई इत्यादि रहे होंगे, उनकी वंश परम्परा के हैं। वास्तव में यह खानदान परम्परा कहीं न कहीं से चली आ रही है, उसका कोई आदि नहीं है और उसको बनाने वाला ईश्वर भी नहीं है, ये प्राकृतिक है और हमें इन सब बातों पर विश्वास रखना है।
ये विश्वास का विषय है। जैसे हमने लंदन नहींr देखा, अमेरिका नहीं देखा, जर्मन नहीं देखा पर फिर भी हम विश्वास करते हैं क्योंकि आप जैसे कई लोग वहाँ जाकर आते हैं और हमें बताते हैं, अत: जो चीज हमने नहीं देखी है, वह नहीं है, ऐसा कहना अथवा मानना उचित नहीं है। वीतराग भगवान ने जो देखा है, सर्वज्ञ ने जो देखा है, उनकी वाणी में जो स्पष्ट है, वह है, ऐसा हमें दृढ़ विश्वास रखना है। इस प्रकार से संसार भी है, परलोक भी है, जीव का जन्म-मरण भी है, सुमेरुपर्वत भी है, जम्बूद्वीप भी है, स्वर्ग-नरक भी हैं, आत्मा का अस्तित्व भी है, इन सब बातों को हमें हृदय से स्वीकार करना है। सुमेरु पर्वत हमें साक्षात् नहीं दिखता है पर सर्वज्ञदेव की वाणी के अनुसार यह हमसे २० करोड़ मील की दूरी पर है अत: हमें इसके प्रति किंचित् मात्र भी संशय नहीं रखना है। वैदिक ग्रंथों में भी सुमेरु पर्वत को मध्यलोक का मापदंड कहा है तथा इस पर ब्रह्मा का निवास माना है। जैनागम के अनुसार सुमेरु पर्वत पर १६ अकृत्रिम चैत्यालय हैं, इसके पाण्डुक वन की ४ शिलाओं में से पाण्डुकशिला पर जन्मजात तीर्थंकर शिशु का जन्माभिषेक होता है। जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में निर्मित सुमेरु पर्वत की पाण्डुकशिला पर भी भक्तगण भगवान का जन्माभिषेक करते हैं। जब भी किन्हीं तीर्थंकर भगवान का जन्मकल्याणक आता है, तब उन्हीं भगवान की प्रतिमा पाण्डुक शिला पर ले जाकर जन्माभिषेक किया जाता है। हमारे शास्त्रों में जो वर्णित है, हमारे आचार्यों ने जो कहा है, वह सत्य है, यही दृढ़ विश्वास रूपी आस्तिक्य भावना है, इसी का नाम सम्यग्दर्शन है।
आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करो, परलोक को स्वीकार करो, चतुर्गति परिभ्रमण को स्वीकार करो, नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति अर्थात् इन चारों गति में से किसी न किसी से हम आये हैं और किसी न किसी गति में हमें जाना है। जैसे-जैसे पुण्य-पाप का हम संचय करेंगे, वैसी ही गति में हम जन्म धारण करेंगे इसीलिए तो आचार्यों का कहना है कि आप अपनी प्रवृत्ति अच्छी बनाओ, आचरण अच्छा रखो, सम्यग्दृष्टी बनो, ज्ञान का अर्जन करो, अपना चारित्र ऐसा सदाचारमय बनाओ कि उच्चगति मिले, देवगति मिले। आप चाहें तो स्वर्ग को प्राप्त कर सकते हैं और चाहें तो पुरुषार्थ करके मोक्ष को भी प्राप्त कर सकते हैं। ठीक है कि आज पंचमकाल में मोक्ष नहीं है पर परम्परा से तो मोक्ष है।
इस प्रकार संक्षेप में मैंने सृष्टि व्यवस्था आपको बतायी। आपको याद रखना है कि मध्यलोक की १७० कर्मभूमियों में ही तीर्थंकर आदि महापुरुष होते हैं और इन्हीं कर्मभूमियों में आप या हम मुनि दीक्षा धारण करके, तपश्चरण करके अपने कर्मों को काटकर मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं, इसीलिए इनका ‘कर्मभूमि’ नाम सार्थक है। ‘कर्म’ अर्थात् क्रियाएँ जहाँ पर की जाएं, जहाँ असि-मसि-कृषि इत्यादि षट्आवश्यक क्रियाओं का अभ्यास हो, जहाँ श्रावक देवपूजा, गुरुपास्ति इत्यादि षट्क्रियाएं करते हों, जहाँ मुनि सामायिक, देववंदना, स्तुति आदि अपनी आवश्यक क्रियाओं को करके मोक्षपुरुषार्थ को सिद्ध करें, वही कर्मभूमि है। कर्मभूमि का अर्थ यही है कि जहाँ पर जीव कर्म करके सुख-दुख के भोक्ता बनते हैं और पुरुषार्थ करके कर्मों को काटकर परम्परा से मोक्ष भी प्राप्त कर लेते हैं अत: इसका ‘कर्मभूमि’ नाम सार्थक है।
अपने को यह समझना है कि पूर्व में हमने कोई अशुभ कर्म संचित किया होगा, जिससे हमें पंचमकाल में मानव जीवन मिला, पर फिर भी मैं कहती हूँ कि अपने को महान पुण्यशाली मानो कि हमें जैन कुल, जैनधर्म मिला है, जिनवाणी का अध्ययन-स्वाध्याय का अवसर मिला, गुरुओं का समागम मिला। यह सब बहुत बड़ा पुण्य है। हम तो पंचमकाल में जन्म लेकर भी अपने को चतुर्थकाल से श्रेष्ठ मानते हैं, क्यों ? क्योंकि चतुर्थकाल में हमने यदि सम्यक्त्व प्राप्त किया होता, चारित्र ग्रहण किया होता तो हम मोक्ष प्राप्त कर लेते। वह चतुर्थकाल हमारे किस काम का था, जिसमें हमने मोक्ष पुरुषार्थ नहीं साधा और यह पंचमकाल हमारे लिए श्रेष्ठ है, जिसमें हमने धर्म पुरुषार्थ प्राप्त करके मोक्ष प्राप्ति के पुरुषार्थ का अभ्यास प्रारंभ किया है अतएव हमें इस पंचमकाल को भी अच्छा मानना है, जिसमें हमने सम्यग्दर्शन प्राप्त किया है, समीचीन ज्ञान प्राप्त किया है, गुरुओं के समागम से हमें चारित्र धारण करने की पात्रता, योग्यता एवं भव्यता प्राप्त हुई है, आज हम अपनी शक्ति के अनुसार अणुव्रत, पंच महाव्रत ग्रहण कर सकते हैं, पुरुषार्थ कर सकते हैं, तो हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ यही है कि हम अपने सम्यग्दर्शन को दृढ़ रखें, भगवन्तों की भक्ति करते हुए, स्वाध्याय करते हुए अपने ज्ञान की अभिवृद्धि करें। संसार में तीन ही रत्न हैं-
‘देव, शास्त्र, गुरु रतन शुभ, तीन रतन करतार।’
देव की पूजा से आपको सम्यग्दर्शन रूपी रत्न मिलेगा, शास्त्र स्वाध्याय से आपको सम्यग्ज्ञानरूपी रत्न मिलेगा, गुरुओं के प्रसाद से आपको सम्यव्âचारित्र रूपी रत्न मिलेगा, यह तीन रत्न आपको तीन ही रत्न देने वाले हैं।
अतएव कभी अपने आपको हम निरुत्साहित न करें वरन् सदैव विचार करें कि हम अतीव पुण्यशाली हैं, महान सौभाग्यशाली हैं। सदैव चिंतन करें कि मेरी आत्मा भगवान आत्मा है, शुद्ध निश्चयनय से हम भगवान आत्मा हैं और व्यवहार से हम संसारी हैं। हमें अपनी आत्मा को पवित्र भगवान आत्मा बनाना है। जितना पुरुषार्थ बन सकें उतना करके इस पंचमकाल में भी अपनी मनुष्य पर्याय को हमें सार्थक करना है।