-अथ स्थापना-गीता छंद-
दर्शनविशुद्धी आदि सोलह, भावना भवनाशिनी।
जो भावते वे पावते, अति शीघ्र ही शिवकामिनी।।
हम नित्य श्रद्धा भाव से, इनकी करें आराधना।
पूजा करें वसुद्रव्य ले, करके विधीवत थापना।।१।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावनासमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावनासमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावनासमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।
अथाष्टकं (चाल-चौबीसों श्रीजिनचंद…..)
पयसागर को जल स्वच्छ, हाटक भृंग भरूँ।
जिनपद में धारा देत, कलिमल दोष हरूँ।।
वर सोलह कारण भाय, तीरथनाथ बनें।
जो पूजें मन वच काय, कर्म पिशाच हने।।१।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावनाजिनगुणसंपद्भ्यो जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयज चंदन कर्पूर, केशर संग घिसा।
जिनगुण पूजा कर शीघ्र, भव भव दु:ख घिसा।।वर…।।२।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावनाजिनगुणसंपद्भ्यो संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
उज्ज्वल शशि रश्मि समान, अक्षत धोय लिये।
अक्षय पद पावन हेतु, सन्मुख पुंज दिये।।वर…।।३।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावनाजिनगुणसंपद्भ्यो अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
चंपक सुम हरसिंगार, सुरभित भर लीने।
भवविजयी जिनपद अग्र, अर्पण कर दीने।।
वर सोलह कारण भाय, तीरथनाथ बनें।
जो पूजें मन वच काय, कर्म पिशाच हने।।४।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावनाजिनगुणसंपद्भ्यो कामबाण-विध्वंंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नानाविध घृत पकवान, अमृत सम लाऊँ।
निज क्षुधा निवारण हेतु, पूजत सुख पाऊँ।।वर…।।५।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावनाजिनगुणसंपद्भ्यो क्षुधारोग- विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
कंचनदीपक की ज्योति, दशदिश ध्वांत हरे।
जिन पूजा भ्रमतम टार, भेद विज्ञान करे।।वर…।।६।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावनाजिनगुणसंपद्भ्यो मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
कृष्णागरु धूप सुगंध, खेवत धूम्र उड़े।
निज अनुभव सुख से पुष्ट, कर्मन भस्म उड़े।।वर…।।७।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावनाजिनगुणसंपद्भ्यो अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
पिस्ता अखरोट बदाम, एला थाल भरे।
जिनपद पूजत तत्काल, सब सुख आन वरें।।वर…।।८।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावनाजिनगुणसंपद्भ्यो मोक्षफल-प्राप्तये फलंं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन अक्षत पुष्प, नेवज दीप लिया।
वर धूप फलों से पूर्ण, तुम पद अर्घ्य दिया।।वर…।।९।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावनाजिनगुणसंपद्भ्यो अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
-दोहा-
सकल जगत में शांतिकर, शांतिधार सुखकार।
झारी से धारा करूँ, सकल संघ हितकर।।१०।।
शांतये शांतिधारा।
कुंद कमल बेला वकुल, पुष्प सुगंधित लाय।
जिनगुण हेतू मैं करूँ, पुष्पांजलि सुखदाय।।११।।
दिव्य पुष्पांजलि:।
जयमाला
-दोहा-
स्वातमरस पीयूष से, तृप्त हुये जिनराज।
सोलह कारण भावना, भाय हुये सिरताज।।१।।
सोमवल्लरी छंद (चामर)
दर्श की विशुद्धी जो पचीस दोष शून्य है।
आठ अंग से प्रपूर्ण सात भीति शून्य है।।
सत्य ज्ञान आदि तीन रत्न में विनीत जो।
साधुओं में नम्रवृत्ति धारता प्रवीण वो।।१।।
शील में व्रतादि में सदोषवृत्ति ना धरें।
विदूर अतीचार से तृतीय भावना धरें।।
ज्ञान के अभ्यास में सदैव लीनता धरें।
भावना अभीक्ष्ण ज्ञान मोहध्वांत को हरें।।२।।
देह मानसादि दु:ख से सदैव भीरुता।
भावना संवेग से समस्त मोह जीतता।।
चार संघ को चतु: प्रकार दान जो करें।
सर्व दु:ख से छूटें सुज्ञान संपदा भरें।।३।।
शुद्ध तप करें समस्त कर्म को सुखावते।
साधु की समाधि में समस्त विघ्न टारते।।
रोग कष्ट आदि में गुरुजनों कि सेव जो।
प्रासुकादि औषधी सुदेत पुण्यहेतु जो।।४।।
भक्ति अरीहंत सूरि, बहुश्रुतों की भी करें।
प्रवचनों की भक्ति भावना से भवदधी तरें।।
छै क्रिया अवश्य करण योग्य काल में करें।
मार्ग की प्रभावना सुधर्म द्योत को करें।।५।।
वत्सलत्व प्रवचनों में धर्म वात्सल्य है।
रत्नत्रयधरों में सहज प्रीति धर्मसार है।।
सोलहों सुभावना पुनीत भव्य को करें।
तीर्थनाथ संपदा सुदेय मुक्ति भी करें।।६।।
वंदना करूँ पुन: पुन: करूँ उपासना।
अर्चना करूँ पुन: पुन: करूँ सुसाधना।।
मैं अनंत दु:ख से बचा चहूँ प्रभो सदा।
‘ज्ञानमती’ संपदा मिले अनंत सौख्यदा।।७।।
-दोहा-
तीर्थंकर पद हेतु ये, सोलह भावन सिद्ध।
जो जन पूजें भाव से, लहें अनूपम सिद्धि।।८।।
ॐ ह्रीं दर्शनविशुद्ध्यादिषोडशकारणभावनाभ्यो जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा। परिपुष्पांजलि:।