१. दर्शनविशुद्धि-पच्चीस मलदोषरहित विशुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करना।
२. विनयसम्पन्नता-देव, शास्त्र, गुरु तथा रत्नत्रय का विनय करना।
३. शीलव्रतों में अनतिचार-व्रतों और शीलों में अतिचार नहीं लगाना।
४. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग-सदा ज्ञान के अभ्यास में लगे रहना।
५. संवेग-धर्म और धर्म के फल में अनुराग होना।
६. शक्तितस्त्याग-अपनी शक्ति के अनुसार आहार, औषधि, अभय और शास्त्र दान देना।
७. शक्तितस्तप-अपनी शक्ति को न छिपाकर अन्तरंग-बहिरंग तप करना।
८. साधुसमाधि-साधुओं का उपसर्ग आदि दूर करना या समाधि सहित वीरमरण करना।
९. वैयावृत्यकरण-व्रती, त्यागी साधर्मी की सेवा करना, वैयावृत्ति करना।
१०. अर्हन्तभक्ति-अरहंत भगवान की भक्ति करना।
११. आचार्यभक्ति-आचार्य की भक्ति करना।
१२. बहुश्रुतभक्ति-उपाध्याय परमेष्ठी की भक्ति करना।
१३. प्रवचन भक्ति-जिनवाणी की भक्ति करना।
१४. आवश्यक अपरिहाणि-छह आवश्यक क्रियाओं का सावधानी से पालन करना।
१५. मार्गप्रभावना-जैनधर्म का प्रभाव पैलाना।
१६. प्रवचनवत्सलत्व-साधर्मी जनों में अगाध प्रेम करना। इस सोलह भावनाओं में दर्शनविशुद्धि का होना बहुत जरूरी है, फिर उसके साथ दो-तीन आदि कितनी भी भावनाएँ हों या सभी हों, तो तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो सकता है।