सोलहकारण भावना पुस्तक भी परमपूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी की एक मौलिक कृति है। तीर्थंकर प्रकृति का बंध कराने में कारणभूत यह सोलहकारण भावना हैं, प्रारंभ में पूज्य माताजी ने मंगलाचरण के रूप में लिखा है-
श्री देव शास्त्र गुरु के चरणों में, झुक झुक शीश प्रणाम करूँ।
सोलह कारण शुद्ध भावना भाकर निज आतम ध्यान धरूँ।।
दर्शन विशुद्ध आदिक भावों को, जो भविजन नित ध्याते हैं।
कहं ‘अभयमती’ वे स्वर्गिक सुख, लहं तीर्थंकर पद पाते हैं।।
दर्शनविशुद्धि, विनय सम्पन्नता, शीलव्रतेष्वनतिचार, अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग, संवेग, शक्तितस्त्याग, शक्तितस्तप, साधुसमाधि, वैय्यावृत्यकरण, अर्हंतभक्ति, आचार्यभक्ति, बहुश्रुतभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यक अपरिहाणि, मार्गप्रभावना, प्रवचनवत्सलत्व इन सोलह कारण भावनाओं को भाने से तीर्थंकर प्रकृति का बंध होता है। इसमें विशेष बात यह है कि दर्शनविशुद्धि भावना के बिना तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं हो सकता, भले ही आगे की १५ भावनाएं हों। दर्शनविशुद्धि भावना के होने पर अन्य भावनाएं स्वयं हो जायेंगी। पूज्य माताजी ने उदाहरण देकर समझाया है-
ज्यों मेघ पटल की आड़ से, सूर्य ज्योति छिप जाए।
त्यों मिथ्यात्व के उदय से, निज दर्शन नहिं भाय।।
अर्थात् जब तक मिथ्यात्व का उदय है, तब तक किसी को तीर्थंकर प्रकृति का बंध नहीं हो सकता, न आत्म दर्शन हो सकता है।
दर्शन विशुद्धि होते ही आत्मा स्फटिक मणि के समान चमकने लगती है अत: इस भावना के साथ अन्य भावना कम हो तो भी तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो जाता है। पूज्य माताजी ने सभी भावनाओं का विस्तार से विवेचन करके इसे नीति, दोहे एवं कथाओं के माध्यम से रोचक बनाया है अत: भव्यजन इस पुस्तक को पढ़कर अपने मनुष्य पर्याय को सार्थक करें और एक दिन परमात्म पद को प्राप्त करें, यही मंगल भावना है।