२.१ जिन्हें बार-बार भाया जावे अर्थात् जिनका बार-बार चिन्तन किया जावे वे भावना कहलाती हैं। जैन-धर्म में
२ प्रकार की भावनाएं प्रसिद्ध हैं- बारह भावना और सोलह कारण भावना। बारह प्रकार की भावनाओं का उल्लेख पूर्व में किया जा चुका है।
ये सोलह भावनाएं ही तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का कारण हैं, अतः इन्हें सोलह कारण भावनाएं कहते हैं। इन
१६ भावनाओं में प्रथम भावना दर्शन-विशुद्धि है। इस भावना का भाना परमावश्यक है। यदि यह भावना नहीं है तो तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध नहीं हो सकता है। इस के साथ कुछ अन्य (या सभी शेष १५) भावनाएं और हों तो तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होता है। यह बन्ध केवली या श्रुतकेवली के चरणारविन्द में ही होता है।
१. दर्शनविशुद्धि भावना-सम्यग्दर्शन का अत्यन्त निर्मल व दृढ़ होना, २५ दोष रहित विशुद्ध सम्यग्दर्शन को धारण करना ।
२. विनय-सम्पन्नता भावना-सच्चे देव, शास्त्र, गुरु और रत््नात्रय की विनय करना।
३. शील-व्रत अनतिचार भावना-अहिंसा आदि व्रतों की रक्षा के लिये क्रोध आदि कषाय का त्याग करना शील है। शील व व्रतों का निर्दोष पालन करना तथा उनमें अतिचार नहीं लगाना।
४. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना-अभीक्ष्ण का अर्थ सदा या निरंतर है। ज्ञान के अभ्यास में सदा लगे रहना।
५. संवेग भावना-दुःखमय संसार के आवागमन से सदा डरते रहना, धर्म और धर्म के फल में सदा अनुराग रखना।
६. शक्तितस्तप भावना-अपनी शक्ति के अनुसार अंतरंग व बाह्य तप करना ।
७. शक्तितस्त्याग भावना-अपनी शक्ति के अनुसार आहार, औषधि, शास्त्र आदि का दान देना।
८. साधुसमाधि भावना-‘साधु’ का अर्थ है श्रेष्ठ और ‘समाधि’ का अर्थ है मरण। अत: श्रेष्ठ मरण की भावना भाना साधु समाधि भावना है। साधु, व्रती पर आई विप्िययों का निवारण भी इसमें आता है।
९. वैयावृत्त्यकरण भावना-रोगी, वृद्ध, साधु-त्यागी की सेवा-सुश्रुषा करना, उनके कष्टों को औषधि आदि निर्दोष विधि से दूर करना।
१०. अरहन्तभक्ति भावना-अरहन्त की भक्ति करना, अरहन्त द्वारा कहे अनुसार आचरण करना। उनके गुणों में अनुराग रखते हुए, ऐसे गुण स्वयं को प्राप्त हों, ऐसी भावना भाना।
११. आचार्यभक्ति भावना-आचार्य परमेष्ठी की भक्ति करना, उनके गुणों में अनुराग रखना एवं ऐसे गुण हमें भी प्राप्त हों ऐसी भावना सदैव रखना ।
१२. बहुश्रुतभक्ति भावना-जो मुनि द्वादशांग के पारगामी हैं, वे बहुश्रुत कहलाते हैं। चूँकि शास्त्रों में पारंगत उपाध्याय परमेष्ठी हैं, अतः इस भावना का तात्पर्य उपाध्याय परमेष्ठी की भक्ति करने से है। उपाध्यायों का आदर, विनय करना उनके उपदेशों के अनुरूप प्रवृ्िय करना बहुश्रुत भक्ति भावना है, ऐसे ही गुण हमें प्राप्त हों ऐसी भावना सदैव बनाये रखना।
१३. प्रवचनभक्ति भावना-केवली भगवान के प्रवचन में अनुराग रखना अर्थात् वीतरागी द्वारा प्रणीत आगम (जिनवाणी) की भक्ति करना।
१४. आवश्यकअपरिहाणि भावना-अपरिहाणि का अर्थ ‘‘न छोड़े जाने योग्य’’ है। इस प्रकार छः आवश्यक क्रियाओं को यथासमय सावधानी पूर्वक करना इस भावना में आता है।
१५. मार्ग प्रभावना भावना-ज्ञान, ध्यान ,तप, पूजा आदि के माध्यम से जिनेन्द्र भगवान द्वारा बताये गये धर्म (अर्थत् जैनधर्म) को प्रकाशित करना, पैâलाना मार्ग प्रभावना भावना है। विद्यालय व औषधालय खुलवाना, असहाय व्यक्तियों की सहायता करना आदि कल्याणकारी कार्य भी इस भावना में आते हैं।
१६. प्रवचनवात्सल्य भावना-साधर्मी बंधुओं में अगाध प्रेम भाव रखना।
विशेष-सोलहकारण भावनाओं का क्रम षट्खण्डागम (पुस्तक-८) में कुछ अलग प्रकार से है। उसे जानने हेतु ज्ञानामृत भाग-२ एवं तीर्थंकर बनने के नियम नामक ग्रंथों (जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर से प्रकाशित) से पढ़ना चाहिए।