कल्पवासी देवों में १६ स्वर्गों के-१२ इंद्र, १४ या १६ इंद्र माने हैं। तिलोयपण्णत्ति में १२ इंद्र अथवा १६ इंद्र दो प्रकार से माने हैं। यथा—
बारस कप्पा केई केई सोलस वदंति आइरिया।
तिविहाणि भासिदाणिं कप्पातीदाणि पडलाणिंतिलोयपण्णत्ति
भाग-२ पृ. ७८६-७८७ गाथा-११५-११६, १२०। ।।११५।।
हेट्ठिम मज्झे उवरिं पत्तेक्वं ताण होंति चत्तारि।
एवं बारसकप्पा सोलस उड्ढुड्ढमट्ठ जुगलाणिं।।११६।।
कोई आचार्य बारह कल्प और कोई सोलह कल्प बतलाते है।। कल्पातीत पटल तीन प्रकार कहे गये हैं।।११५।। जो बारह कल्प स्वीकार करते हैं उनके मतानुसार अधो भाग, मध्य भाग और उपरिम भाग में से प्रत्येक में चार-चार कल्प हैं। इस प्रकार सब बारह कल्प होते हैं। सोलह कल्पों की मान्यतानुसार ऊपर-ऊपर आठ युगलों में सोलह कल्प हैं।।११६।।
सोहम्मीसाणसणक्कुमारमाहिंदबम्हलंतवया।
महसुक्कसहस्सारा आणदपाणदयआरणच्चुदया।।१२०।।
सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लांतव, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत, इस प्रकार ये बारह कल्प हैं।।१२०।। इसी तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में इंद्र जब नंदीश्वर की पूजा के लिए जाते हैं उस समय के प्रकरण में १४ इन्द्र माने हैं। यथा—
वरिसे वरिसे चउविहदेवा णंदीसरम्मि दीवम्मि। आसाढकत्तिएसुं फग्गुणमासे समायंति
तिलोयपण्णत्ति भाग-२ पृ. ५४० से ५४२ गाथा ८६ से ९८ तक।।।८३।।
एरावणमारूढो दिव्वविभूदीए भूसिदो रम्मो। णालियरपुण्णपाणी सोहम्मो एदि भत्तीए।।८४।।
वरवारणमारूढो वररयणविभूसणेहिं सोहंतो। पूगफलगोच्छहत्थो ईसाणिंदो वि भत्तीए।।८५।।
वरकेसरिमारूढो णवरविसारिच्छवुंडलाभरणो। चूदफलगोच्छहत्चो सणक्कुमारो वि भत्तिजुदो।।८६।।
चारों प्रकार के देव नन्दीश्वरद्वीप में प्रत्येक वर्ष आषाढ़, कार्तिक और फाल्गुन मास में आते हैं।।८३।। इस समय दिव्यविभूति से विभूषित रमणीय सौधर्म इन्द्र हाथ में नारियल को लिये हुए भक्ति से ऐरावत हाथी पर चढ़कर यहां आता है।।८४।। उत्तम हाथी पर आरूढ़ और उत्कृष्ट रत्न-विभूषणों से सुशोभित ईशान इन्द्र भी हाथ में सुपाड़ी फलों के गुच्छे को लिये हुए भक्ति से यहाँ आता है।।८५।। नवीन सूर्य के सदृश कुण्डलों से विभूषित और हाथ में आम्रफलों के गुच्छे को लिये हुए सनत्कुमार इन्द्र भी भक्ति से युक्त होता हुआ उत्तम िंसह पर चढ़कर यहां आता है।।८६।।
आरूढो वरतुरयं वरभूसणभूसिदो विविहसोहो। कदलीफलसहहत्थो माहिंदो एदि भत्तीए।।८७।।
हंसम्मि चंदधवले आरूढो विमलदेहसोहिल्लो। वरकेईकुसुमकरो भत्तिजुदो एदि बम्हिंदो।।८८।।
कोंचविहंगारूढो वरचामरविविहछत्तसोहिल्लो। पप्पुâल्लकमलहत्थो एदि हु बम्हुत्तिंरदो वि।।८९।।
वरचक्काआरूढो वुंडलकेयूरपहुदिदिप्पंतो। सयवंतियकुसुमकरो सुिंक्कदो भत्तिभरिदमणो।।९०।।
कीरविहंगारूढो महसुक्विंदो वि एदि भत्तीए। दिव्वविभूदिविभूसिददेहो वरविविहकुसुमदामकरो।।९१।।
णीलुप्पलकुसुमकरो कोइलवाहणविमाणमारूढो। वररयणभूसिदंगो सदिंरदो एदि भत्तीए।।९२।।
गरुडविमाणारूढो दाडिमफललुंबिसोहमाणकरो। जिणचलणभत्तिरत्तो एदि सहस्सारइंदो वि।।९३।।
विहगाहिवमारूढो पणसंफललुंबिलंबमाणकरो। वरदिव्वविभूदीए आगच्छदि आणदिंदो वि।।९४।।
पउमविमाणारूढो पाणदइंदो वि एदि भत्तीए। तुंबुरुफललुंबिकरो वरमंडणमंडियायारो।।९५।।
परिपक्कउच्छहत्थो कुमुदविमाणं विचित्तमारूढो। विविहालंकारधरो आगच्छदि आरणिंदो वि।।९६।।
आरूढो वरमोरं वलयंगदमउडहारसंजुत्तो। ससिधवलचमरहत्थो आगच्छदि अच्चुदाहिवई।।९७।।
णाणाविहवाहणया णाणाफलकुसुमदामभरिदकरा।
णाणविभूदिसहिदा जोइसवणभवण एंति भत्तिजुदा।।९८।।
उत्तम भूषणों से विभूषित और विविध प्रकार की शोभा को प्राप्त माहेन्द्र श्रेष्ठ घोड़े पर चढ़कर हाथ में केलों को लिये हुए भक्ति से यहाँ आता है।।८७।। चन्द्र के समान धवल हंस पर आरूढ़, निर्मल शरीर से सुशोभित और भक्ति से युक्त ब्रह्मेन्द्र उत्तम केतकी पुष्प को हाथ में लेकर आता है।।८८।। उत्तम चँवर एवं विविध छत्र से सुशोभित और पूâले हुए कमल को हाथ में लिये हुए ब्रह्मोत्तर इन्द्र भी क्रौंच पक्षी पर आरूढ़ होकर यहाँ आता है।।८९।। वुंâडल एवं केयूर प्रभृति आभरणों से देदीप्यमान और भक्ति से पूर्ण मन वाला शुव्रेâन्द्र उत्तम चक्रवाक पर आरूढ़ होकर सेवंती पुष्प को हाथ में लिये हुए यहाँ आता है।।९०।। दिव्य विभूति से विभूषित शरीर को धारण करने वाला तथा उत्तम एवं विविध प्रकार के पूâलों की माला को हाथ में लिये हुए महाशुव्रेन्द्र भी तोता पक्षी पर चढ़कर भक्तिवश यहाँ आता है।।९१।। कोयल वाहन विमान पर आरूढ़, उत्तम रत्नों से अलंकृत शरीर से संयुक्त और नीलकमल पुष्प को हाथ में धारण करने वाला शतार इन्द्र भक्ति से प्रेरित होकर यहाँ आता है।।९२।। गरुड़विमान पर आरूढ़, अनार फलों के गुच्छे से शोभायमान हाथ वाला और जिनचरणों की भक्ति में अनुरक्त हुआ सहस्रार इन्द्र भी आता है।।९३।। विहगाधिप अर्थात् गरुड़ पर आरूढ़ और पनस अर्थात् कटहल फल के गुच्छे को हाथ में लिये हुए आनतेन्द्र भी उत्तम एवं दिव्य विभूति के साथ यहाँ आता है।।९४।। उत्तम आभरणों से मण्डित आकृति से संयुक्त और तुम्बरु फल के गुच्छे को हाथ में लिये हुए प्राणतेन्द्र भी भक्तिवश पद्म विमान पर आरूढ़ होकर यहाँ आता है।।९५।। पके हुए गन्ने को हाथ में धारण करने वाला और विचित्र कुमुद विमान पर आरूढ़ हुआ आरणेन्द्र भी विविध प्रकार के अलंकारों को धारण करके यहाँ आता है।।९६।। कटक, अंगद, मुकुट एवं हार से संयुक्त और चन्द्रमा के समान धवल चँवर को हाथ में लिये हुए अच्युतेन्द्र उत्तम मयूर पर चढ़कर यहाँ आता है।।९७।। नाना प्रकार की विभूति से सहित, अनेक फल व पुष्पमालाओं को हाथों में लिये हुए और अनेक प्रकार के वाहनों पर आरूढ़ ज्योतिषी, व्यन्तर एवं भवनवासी देव भी भक्ति से संयुक्त होकर यहाँ आते हैं।।९८।। त्रिलोकसार ग्रंथ में १२ इन्द्र माने हैं। यथा—
सोहम्मीसाणक्कुमारमाहिंदगा हु कप्पा हु। बह्मव्बह्मुत्तरगो लांतवकापिट्ठगो छट्ठो
त्रिलोकसार पृ. ३९९ से ४०१ तक। गाथा ४५२ से ४५४ तक।।।४५२।।
सौधर्मैशानसनत्कुमारमाहेन्द्रका हि कल्पा हि। ब्रह्मब्रह्मोत्तरकौ लान्तवकापिष्टकौ षष्ठ:।।४५२।।
सोहम्मी । सौधर्मैशानसनत्कुमारमाहेन्द्रकाश्चत्वार: कल्पा: ब्रह्मब्रह्मोत्तरकौ
द्वौ मिलित्वा एकेन्द्रापेक्षया एक कल्प: लान्तवकापिष्ठावपि तथा षष्ठकल्प:।।४५२।।
सुक्कमहासुक्कगदो सदरसहस्सारगो हु तत्तो दु। आणदपाणदआरणअच्चुदगा होंति कप्पा हु।।४५३।।
शुक्रमहाशुक्रगत: शतारसहस्रारगो हि ततस्तु। आनतप्राणतारणाच्युतगा भवन्ति कल्पा हि।।४५३।।
सुक्कमहा। शुक्रमहाशुक्रावपि तथा एक: कल्प: शतारसहस्रारकावपि तथैक: कल्प:।
ततस्तु आनतप्राणतारणाच्युता इति चत्वार: कल्पा भवन्ति।।४५३।।
उन विमानों के कल्प और कल्पातीत स्वरूप दो भेद करके सर्वप्रथम कल्पों के नाम दो गाथाओं द्वारा कहते हैं :- गाथार्थ :- सौधर्मैशान, सानत्कुमार-माहेन्द्र (ये चार ), ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर (पाँचवाँ), लान्तव-कापिष्ठ (छठा), शुक्र-महाशुक्र (सातवाँ), शतार-सहस्रार (आठवाँ), आनत-प्राणत, आरण और अच्युत (के एक-एक) कल्प होते हैं ।।४५२,४५३।। विशेषार्थ :- सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार और माहेन्द्र इनके एक-एक इन्द्र हैं अत: ये चार कल्प हुए । ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर दोनों का मिलकर एक इन्द्र है अत: यह एक ही (पाँचवाँ) कल्प हुआ । इसी प्रकार लान्तव-कापिष्ठ छठा, शुक्र-महाशुक्र सातवाँ और शतार-सहस्रार आठवाँ कल्प है क्योंकि इन दो-दो का मिलकर एक-एक ही इन्द्र होता है। आनत, प्राणत, आरण और अच्युत ये चार कल्प हैं, क्योंकि इनके एक-एक इन्द्र होते हैं।
इदानीमिन्द्रापेक्षया कल्पसंख्यामाह –
मज्झिमचउजुगलाणं पुव्वारजुम्मगेसु सेसेसु। सव्वत्थ होंति इंदा इदि बारस होंति कप्पा हु।।४५४।।
मध्यमचतुर्युगलानां पूर्वापरयुग्मयो: शेषेषु। सर्वत्र भवन्ति इन्द्रा इति द्वादश भवन्ति कल्पा हि।।४५४।।
मज्झिम। मध्यमचतुर्युगलानां पूर्वयुग्मयोब्र्रह्मलान्तवयोरेवैकेन्द्रौ। अपरयुग्मयो: महाशुक्रसहस्रारयोरेवैकेन्द्रौ।
शेषेष्वष्टसु कल्पेषु सर्वत्रेन्द्रा भवन्ति। इतीन्द्रापेक्षया कल्पा द्वादश भवन्ति।।४५४।।
अब इन्द्र की अपेक्षा कल्पसंख्या कहते हैं :- गाथार्थ :- मध्य के चार युगलों में से पूर्व और अपर के दो-दो युगलों में एक-एक इन्द्र होते हैं। शेष चार युगलों के आठ इन्द्र होते हैं। इस प्रकार बारह इन्द्रों की अपेक्षा बारह कल्प होते हैं ।।४५४।। विशेषार्थ :- सोलह स्वर्गों के कुल आठ युगल हैं । जिसमें मध्य के चार युगलों में से पूर्व युगल ब्रह्म, लान्तव और अपर युगल महाशुक्र और सहस्रार अर्थात् ब्रह्म ब्रह्मोत्तर, लान्तव कापिष्ठ, शुक्र महाशुक्र और शतार सहस्रार इन चार युगलों अर्थात् आठ स्वर्गों के चार ही इन्द्र हैं अत: ये चार कल्प हैं । शेष ऊपर नीचे के दो-दो युगलों अर्थात् आठ स्वर्गों के आठ इन्द्र हैं अत: ये आठ कल्प हुए। इस प्रकार सोलह स्वर्गों के बारह इन्द्रों की अपेक्षा बारह कल्प हैं। यथा :- स्वर्ग नाम इन्द्र इन्द्र संख्या पटल इन्द्र संख्या इन्द्र स्वर्गनाम अच्युत इन्द्र १ ६ १ इन्द्र आरण प्राणत इन्द्र १ . १ इन्द्र आनत सहस्रार इन्द्र १ १ . . सतार महाशुक्र इन्द्र १ १ . . शुक्र कापिष्ठ . . २ १ इन्द्र लान्तव ब्रह्मोत्तर . . ४ १ इन्द्र ब्रह्म माहेन्द्र इन्द्र १ ७ १ इन्द्र सानत्कुमार ऐशान इन्द्र १ १३ १ इन्द्र सौधर्म लोकविभाग ग्रंथ में १२ इन्द्र माने हैं। यथा—
सौधर्मः प्रथमः कल्प ऐशानश्च ततः परः। सनत्कुमारमाहेन्द्रौ ब्रह्मलोकोऽथ लान्तवः
लोकविभाग पृ. १७५ से १७६। ।।१७।।
महाशुक्रः सहस्रार आनतः प्राणतोऽपि च। आरणश्चाच्युतश्चेति एते कल्पा उदाहृताः।।१८।।
वैमानिक देव दो प्रकार के हैं—कल्पोत्पन्न और कल्पातीत। उनमें कल्प बारह हैं। उनके आगे कल्पातीत हैं।।१६।। प्रथम कल्प सौधर्म, तत्पश्चात् दूसरा ऐशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तव, महाशुक्र, सहस्रसार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत; ये बारह कल्प कहे गये हैं।।१७-१८।।
सिद्धान्तसार दीपक ग्रंथ में भी १२ इन्द्र माने हैं। यथा—
चतुर्णामाद्यनाकानां चत्त्वारो वासवा पृथव्। चतुः स्वर्मध्ययुग्मानां
चत्त्वारः स्वर्गनायकाःसिद्धान्तसार दीपक-पृ. ५०४ गाथा ६-७।।।५।।
चतुस्तदग्रनाकानामिन्द्राश्चत्वार ऊर्जिताः। इतीन्द्रसंख्यया कल्पाः कथ्यन्ते द्वादशागमे।।७।।
अर्थ — आदि के चार स्वर्गों के पृथव्-पृथव् चार इन्द्र हैं। अर्थात् सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गों में से प्रत्येक में एक एक इन्द्र हैं। मध्य के चार युगलों (आठ स्वर्गों) के चार इन्द्र हैं। अर्थात् ब्रह्म, लान्तव, महाशुक्र और सहस्रार स्वर्गों में से प्रत्येक में एक एक इन्द्र हैं। ब्रह्मोत्तर, कापिष्ट, शुक्र और शतार स्वर्गों में इन्द्र नहीं है। शेष ऊपर के आनत, प्राणत, आरण और अच्युत में से प्रत्येक में एक-एक इन्द्र हैं। इस प्रकार आगम में बारह इन्द्र और बारह ही कल्प कहे गये हैं।।-६-७।।