सौधर्म आदि देवियों की उत्कृष्ट आयु का प्रमाण कहते हैं—
गाथार्थ —देवियों की आयु पाँच से लेकर दो-दो मिलाते हुए सत्ताईस पल्य तक करें। पुनः उससे आगे सात-सात बढ़ाते हुए आरण-अच्युत पर्यन्त करना चाहिए।।११२२।।
आचारवृत्ति — सौधर्म कल्प में देवियों की उत्कृष्ट आयु पाँच पल्य है। ईशानस्वर्ग में सात पल्य, सानत्कुमार में नौ पल्य, माहेन्द्र स्वर्ग में ग्यारह पल्य, ब्रह्मकल्प में तेरह पल्य, ब्रह्मोत्तर में पन्द्रह पल्य, लान्तव में सत्रह पल्य, कापिष्ठ में उन्नीस पल्य, शुक्र में इक्कीस पल्य, महाशुक्र में तेईस पल्य, शतार में पच्चीस पल्य, सहस्रार में सत्ताईस पल्य, आनत में चौंतीस पल्य, प्राणत में इकतालीस पल्य, आरण में अड़तालीस पल्य और अच्युत में पचपन पल्य की उत्कृष्ट आयु है। अर्थात् पाँच पल्य से शुरू करके सहस्रार स्वर्ग की सत्ताईस पल्य तक दो-दो पल्य बढ़ायी गयी है। पुनः आगे सात-सात पल्य बढ़कर सोलहवें स्वर्ग में पचपन पल्य हो गयी है। देवीनामायुषः प्रमाणस्य द्वितीयमुपदेशं प्रतिपादयन्नाह—
गाथार्थ —युगल-युगल स्वर्गों में क्रम से पाँच पल्य, सत्रह पल्य, पच्चीस पल्य, पैंतीस पल्य, चालीस पल्य, पैंतालीस पल्य, पचास पल्य और पचपन पल्य आयु है।।११२३।।
आचारवृत्ति — सौधर्म और ऐशान स्वर्ग में देवियों की उत्कृष्ट आयु पाँच पल्य है। सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्ग में सत्रह पल्य है। ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर में पच्चीस पल्य है। लान्तव-कापिष्ठ में पैंतीस पल्य है। शुक्र-महाशुक्र में चालीस पल्य है। शतार-सहस्रार में पैंतालीस पल्य है। आनत-प्राणत में पचास पल्य है और आरण-अच्युत में पचपन पल्य की उत्कृष्ट आयु है। देवियों की आयु के प्रतिपादन की रीति से यही उपदेश न्यायसंगत है, क्योंकि यहाँ पर ‘एवकार’ किया गया है। अथवा दोनों भी उपदेश ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि दोनों ही सूत्र के उपदेश हैं। यद्यपि दोनों में से कोई एक ही सत्य होना चाहिए फिर भी दोनों को ग्रहण करने में संशय मिथ्यात्व नहीं होता है, क्योंकि जो अर्हन्त के द्वारा प्रणीत है वह सत्य है इसमें सन्देह का अभाव है। फिर भी छद्मस्थ जनों को विवेक कराना अर्थात् कौन-सा सत्य है यह समझाना शक्य नहीं है इसलिए मिथ्यात्व के भय से दोनों का ही ग्रहण करना उचित है।