अदरक भारतवर्ष के सब स्थानों में बोया जाता है। भूमि के अन्दर उगने वाला कन्द आद्र्र अवस्था में अदरक, व सूखी अवस्था में सौंठ कहलाता है। बाहृय स्वरूप:— यह उर्वरा तथा रेत मिश्रित भूमि में पैदा होने वाली गुल्म की वनस्पति का कन्द है, हर कोई इसे जानता है। इसके पत्ते बांस के पत्तों से मिलते —जुलते तथा एक या डेढ फीट ऊँचे लगते हैं।
अदरक में आद्र्रता ८०.९, प्रोटीन २.३, वसा ०.९, सूत्र २.४, कार्बोहाइड्रेट १२.३, खनिज १.२ प्रतिशत, कैल्शियम २०, फास्फोरस ६०, लौह २.६, मिग्रा.प्रति १०० ग्राम तथा कुछ आयोडीन और क्लोरीन भी होता है। विटामिन ए.बी, और सी, भी होते हैं। सौंठ में नमी १०-९, प्रोटीन १५.४, सूत्र ६.२ स्टार्च ५.३, कुल भस्म ६.६,उड़नशील तेल १-२.६, प्रतिशत होता है। उड़नशील तेल छिलके में ही तेल कोषाणु विशेष रूप से मिलते हैं। यही तेल अदरक से भी निकाला जा सकता है, इस तेल का नाम सौंठ तेल (ऑयल आफ जिंजर) है। इसमें कटुता नहीं होती। इस तेल (ऑयल आफ जिंजर) है। इसमें कटुता नहीं होती। इस तेल में जिंजी बेरीन तथा जिंजीबराल आदि तत्व होते हैं। सौंठ में उपस्थित रहने वाला कटु तत्व उड़नशील नहीं होता। अत: सौंठ के चूर्ण को अल्कोहल या ईथर में रखने पर एक गाढ़ा गहरे भूरे रंग का तेलीय राल, जिसे जिंजरीन भी कहते हैं, प्राप्त होता है। द्रव्य की सारी कटुता इसी में होती है। इसके अतिरिक्त तेलीय राल में सुगन्धित तेल ६-२८ प्रतिशत तथा अकटु पदार्थ ३० प्रतिशत होते हैं। कटु तत्वों में जिजंरोल, शोगाओल तथा जिजंरीन प्रमुख है।
(१) यह उष्ण होने से कफ—वात शामक है सर्दी का नाश करने वाला, शोथहर और वेदनास्थापन है। यह नाडियों को उत्तेजना देने वाला और वातशामन है। यह तृप्तिध्रे, रोचन , दीपन, पाचन वातानुलोमन, शूलप्रशमन तथा अर्शोघ्र है। उष्ण होने के कारण हृदय एवं रक्तवह संस्थान को उत्तेजित करता है। यह शोथहर तथा रक्तशोधक है। अदरक कटु और स्न्रिग्ध होने के कारण कफघ्र और श्वास हर है। यह मधुर विपाक होते से वृष्य और उष्ण होने से उत्तेजक है। यह ज्वरघ्र और शीत प्रशमन है। सौंठ एक उत्तम आमपाचन है। अत: शरीस्य आमदोष का पाचन कर आम से उत्पन्न होने वाले विविध विकारों को दूर करती है। तीक्ष्णता के कारण यह स्त्रोतवरोध का भी निवारण करती है।
शरोवदेना:— दूध से चतुर्थाश सौंठ का कल्क मिलाकर, नस्य लेने से नाना प्रकार के दोषों से उत्पन्न तीव्र शिरोवेदना नष्ट होती है।
प्रतिश्याय:— २ चम्मच अदरक के रस में मधु डालकर प्रात: सायं सेवन करने से श्वास कास तथा प्रतिश्याय आदि रोग शान्त होते है।
नजला:— २ चम्मच अदरक का रस गर्म करके उसमें शहद मिलाकर पीने से नजले—जुकाम का वेग कम होता है। शीत प्रशमन होता है।
दमा:— जो रोगी पिप्पली तथा सैंधा नमक इनके मिश्रित चूर्ण को अदरक के रस के साथ सोने के समय सेवन करता है, वह सात दिन अन्दर ही श्वास रोग से मुक्त हो जाता है।
मूर्छा :— इसके रस की नस्य देने से ज्वर में होने वाली मूच्र्छा मिटती है।
दंतशूल:— सर्दी की दन्त पीड़ा में इसके टुकड़े को दांतों के बीच दबाने से लाभ होता है।
कर्णशूल:— इसका रस गुनगुना कर २-५ बूंद कान में डालने से कर्णशूल मिटती है। निमोनिया: अदरक रस में १ या २ वर्ष पुराना घी व कपूर मिलाकर गरम कर छाती पर मालिश करें।
आम पाचन:— सौंठ, अतीस, नागरमोथा, इनका क्वाथ आम का पाचन करता है अथवा सौंठ, अतीस, नागरमोथा का कल्क, केवल पथ्या का चूर्ण अथवा सौंठ का चूर्ण मिलाकर गरम पानी के साथ सेवन करने से भी आम पाचन होता है। (मात्रा— ५०० मिग्रा. से २ ग्राम तक)
संग्रहणी :— सौंठ, नागरमोथा, अतीस, गिलोय, इन्हें समभाग लेकर जल से क्वाथ करें। इस क्वाथ का प्रात:—सायं पीने से मंदाग्नि निरन्तर कोष्ठ का आम दोषयुक्त रहना एवं आम संयुक्त ग्रहणी रोग शान्त होता है।
ग्रहणी:— गिलोय, अतीस, सौंठ, नागरमोथा, इन चारों का क्वाथ आमयुक्त ग्रहणी रोग को हरता है। ग्राही, दीपन तथा पाचन है। (मात्रा २० से २५ मिली. दिन में दो बार)
(१) २ ग्राम सौंठ का चूर्ण घृत के साथ अथवा केवल सौंठ का चूर्ण उष्ण जल के साथ प्रतिदिन प्रात:काल खाने से भूख बढ़ती है।
(२) प्रतिदिन भोजन के प्रारम्भ में लवण एवं अदरक की चटनी खाने से जीभ एवं वंâठ की शुद्धि होती है। अग्नि प्रदीप्त तथा हृदय बलवान होता है।
(३) इसका अचार खाने से भूख बढ़ती है। अजीर्ण:— यदि प्रात:काल अजीर्ण (रात्रि का भोजन न पचने) की शंका हो तो हरड़, सौंठ तथा सैंधा नमक का चूर्ण जल के साथ १ चम्मच खा लेवें। दोपहर अथवा—सांयकाल थोड़ा भोजन कर लेवे।
(१) सौंठ और पित्तपापड़ा का पाक ज्वरनाशक, अग्नि प्रदीप्त करने वाला तृष्णा तथा भोजन की अरूचि को शान्त करता है। इसे ५—१० ग्राम की मात्रा में नित्य सेवन करें।
(२) सौंठ, चिरायता, नागरमोथा, गुरूच का पाक्य भी ज्वर नाशक अग्नि प्रदीप्त करने वाला, तृष्णा एवं भोजन की अरूचि के शान्त करने वाला होता है।
उदर रोग:— सौंठ , हरीतकी, बहेड़ा, आँवला इनको समभाग लेकर कल्क बना लें। गाय का घी तथा तिल ढाई किग्रा. दही का पानी ढाई किग्रा. इन सबको मिलाकर विधिपूर्वक घी का पाक करें, तैयार हो जाने पर छानकर रख लें। इस घृत का पान१०-२० ग्राम की मात्रा में प्रात:—सायं करने से सभी प्रकार के उदर रोगों का नाश होता है तथा कफज, वातज एवं गुल्म रोग में भी इसका प्रयोग होताा है।
(१) अजवायन, सैंधा नमक, हरड़, सौंठ इनके चूर्णों को समपरिमाण में एकत्रित करें। मात्रा ५०० से २५० मिली. तक। यह चूर्ण शूल को नष्ट करता है तथा मन्द अग्नि को प्रदीप्त करता है।
(२) इसके १०—२० ग्राम रस में समभाग नींबू का रस मिलाकर पिलाने से मंदाग्नि दूर होती है।
वमन:— इसके १० ग्राम रस में मिश्री मिला प्रात:—सायं सेवन करने से लाभ होता है।
बहुमूत्र:— इसके २ चम्मच रस में मिश्री मिला प्रात: —सायं सेवन करने से लाभ होता है।
अर्शजनित वेदना:— दुरालभा और पाठा, वेल का गूदा और पाठा, अजवाइन व पाठा अथवा सौंठ और पाठा, इनमें से किसी एक योग का सेवन करने से अर्शजनित वेदना का शमन हो जाता है। मूत्रकृच्छ :— सौंठ, कटेली की जड़ बला मूल, गोखरू इन सबको २-२ ग्राम मात्रा तथा १० ग्राम गुड को २५० ग्राम दूध में उबालकर प्रात: —सायं पीने से मल—मूत्र की रूकावट का, ज्वर का तथा शोथ का नाश होता है।
अण्डकोषवृद्धि :— इसके १०-२० ग्राम स्वरस में २ चम्मच मधु मिलाकर पीने वातज मिश्रण देने से कामला मिलता है।
(१) सौंठ, खस, विल्वगिरी, मोथा, धनियाँ मोचरस तथा नेत्रबाला का क्वाथ अतिसार नाशक तथा पित्त—कफ ज्वरनाशक है।
(२) धनिया १० ग्राम, सौंठ १० ग्राम—इसका विधिवत क्वाथ करके रोगी को प्रात: सायं सेवन करने से वातश्लेष्मज्वर, शूल और अतिसार नष्ट होता है।
(३) सौंठ और इन्द्र जौ के समभाग चूर्ण को चावल के पानी के साथ पीने को दें, जब चूर्ण पच जाए, उसके बाद चांगेरी, तक्र, दाड़िम का रस डालकर पकायी यवागू अतिसार में खाने को दें।
वातरक्त:— अंशुमती के क्वाथ से ६४० ग्राम दूध को पकाकर उसे ८० ग्राम मिश्री मिलाकर पीने के लिये दें। उसी प्रकार पिप्पली और सौंठ को क्वाथ तैयार करके २० मिली. प्रात:—सायं वातरक्त के रोगी को पीने के लिए दें।
वातशूल:— सौंठ तथा एरण्डमूल के क्वाथ में हींग और सौवर्चल नमक का प्रक्षेप देकर पीने से वात शूल नष्ट होता है। =
(१) सौंठ, पिप्पली, जमालगोटा की जड़, चित्रक मूल, वाय विडंग इन सभी द्रव्यों को समान भाग लें और दूनी मात्रा में हरीतकी चूर्ण लेकर इस चूर्ण का सेवन ३-६ ग्राम की मात्रा में गर्म जल के साथ प्रात:— सायं करें।
(२) सौंठ, पिप्पली, पाण पिप्पली, छोटी कटेरी, चित्रकमूल, पिप्पलामूल, हल्दी, जीरा मोथा इन सभी द्रव्यों को समभाग लेकर कपड़छन चूर्ण को मिलाकर रख लें, इस चूर्ण को २ ग्राम की मात्रा में गुनगुने जल के साथ दिन में ३ बार सेवन करने के त्रिदोष जनित शोथ तथा चिरकाल जनित शोथ का विनाश होता है।
(३) अदरक को १० ग्राम स्वरस गुड़ मिलाकर प्रात:काल पी लें। सब प्रकार की शोथ शीघ्र ही नष्ट हो जाती है। (पथ्य केवल बकरी का दूध)
शूल:— सौंठ के क्वाथ के साथ नमक, हींग तथा सौंठ के मिश्रित चूर्ण के सेवन करने से कफवातज हृच्छूल, पार्श्व शूल, पृष्ठशूल, उदरजल तथा विसूचिका , प्रभृति रोग नष्ट होते हैं । यदि मल बन्ध होता है तो इसके चूर्ण को जौ के क्वाथ के साथ पीना चाहिए।
संधिपीड़ा:— अदरक के एक किग्रा. रस में ५०० ग्राम तिल का तेल डालकर आग पर पकाना चाहिये, जब रस जलकर तेल मात्रा रह जाये, तब उतारकर छान लेना चाहिए। इस तेल की शरीर पर मालिश करने से जोड़ों की पीड़ा मिटती है।
ज्वर तृषा:— सौंठ, पित्तापापड़ा, नागरमोथा, खस, लाल चन्दन, सुगन्ध बेला इन सबको समभाग लेकर बताये गये क्वाथ को थोड़ा—थोड़ा पीने से ज्वर तथा प्यास शान्त होती है। यह उस रोगी को देना चाहिये जिसे ज्वर में बार—बार प्यास लगती है।
कुष्ठ:— सौंठ, मदार की पत्ती, अडूसा की पत्ती, निशोथ, बड़ी इलायची, कुंदरू इन सबका समान—समान मात्रा में बने चूर्ण को पलाश के क्षार और गोमूत्र में घोलकर बने लेप को लगाकर धूप में तब तक बैठे जब तक वह सूख न जाए, इससे मण्डल कुष्ठ फूट जाता है। और उसके घाव शीघ्र ही फूट जाते हैं।
ज्वर:— समस्त ज्वरों में सौंठ एवं धमासा का कषाय पंचविध कषाय बनाकर पीयें।
दाह ज्वर:— सौंठ, गन्धबाला, पित्तपापड़ा खस, मोथा, लाल चन्दन इनका क्वाथ ठंडा करके सेवन से तृष्णा —वमन पित्त ज्वर तथा दाह का निवारण होता है।
हेजा:— अदरक का १० ग्राम, आक की जड़ १० ग्राम, इन दोनों का खरल कर इसकी काली मिर्च के बराबर गोली बना लें। इन गोलियों को गुनगुने पानी के साथ देने से हैजे में लाभ पहँुचता है। इसी प्रकार अदरक का रस व तुलसी का रस समान भाग लेकर उसमें थोड़ी सी शहद अथवा थोड़ी सी मोर के पंख की भस्म मिलाने से भी हैजे में लाभ पहुँचता है।
इन्फ्ल्युएंजा:— ६ ग्राम अदरक रस में, ६ ग्राम शहद मिलाकर दिन में ३-४ बार सेवन करें।
सन्निपात ज्वर:— त्रिकुट, सैंधा नमक और अदरक का रस मिलाकर कुछ दिनों तक सुबह —शाम चटायें।
शरीर शैत्य:— सन्निपात की दशा में जब शरीर ठंडा पड़ जाये तो इसके रस में थोड़ा लहसुन का रस मिलाकर मालिश करने से गरमाई आ जाती है।