सौधर्म युगल के ३१ इंद्रकों में जो अंतिम इंद्रक है उसका नाम ‘प्रभ’ है। इस ‘प्रभ’ नामक इंद्रक के दक्षिण श्रेणी में स्थित जो अठारहवां श्रेणीबद्ध विमान है उसमें सौधर्म इंद्र रहता है। वहाँ पर ८४००० हजार योजन विस्तृत, सुवर्णमय प्राकार से वेष्टित सौधर्म इंद्र का नगर है। प्राकार के अग्रभाग पर कहीं पर पंक्तिबद्ध ध्वजायें, कहीं पर मयूराकार यंत्रों से शोभा बढ़ रही है। यह प्राकार ५० योजन विस्तृत और ३०० योजन ऊँचा है, ५० योजन की ही इसकी नींव है। इसके पूर्व में ४०० गोपुर द्वार १०० योजन विस्तृत, ४०० योजन ऊँचे हैं। इनका मूल भाग वङ्कामय, उपरिम भाग वैडूर्यमणिमय व सर्व रत्नमय है। सौधर्म इंद्र का ‘स्तम्भ’ प्रासाद ६० योजन की नींव सहित १२० योजन विस्तृत, ६०० योजन ऊँचा है। इस प्रासाद के भीतर १६०००० देवियों से सेवित सौधर्म इंद्र निरंतर सुख समुद्र में मग्न रहता है। सौधर्म इंद्र की शची को प्रमुख करके ८ अग्रदेवियाँ हैं, ये आठों ही १६-१६ हजार रूप बना सकती हैं। एक-एक देवी के १६-१६ हजार परिवार देवियाँ हैं। सौधर्म इंद्र की बल्लभा देवियाँ ३२ हजार (१६०००²८)±३२०००·१६०००० देवियाँ होती हैं अग्रमहिषी में प्रमुख शची है और वल्लभा में प्रमुखा कनक श्री है।]
सौधर्म इंद्र की अग्रदेवियों के आठ प्रासाद १०० योजन विस्तृत, ५०० योजन ऊँचे, ५० योजन अवगाह से सहित हैंं। सौधर्म इंंद्र की ‘कनक श्री’ नाम से प्रसिद्ध श्रेष्ठ वल्लभा देवी है। उसका मनोहर प्रासाद सौधर्म इंद्र के प्रासाद की पूर्व दिशा में है।