सौधर्म नगर के मध्य भाग में सौधर्म इंद्र का दिव्य प्रासाद है यह प्रासाद फहराती हुई ध्वजा पताकाओं से सहित सुवर्ण, मणिमालाओं से सुंदर, रत्नमय, मत्तवारण, रत्न दीपक, वङ्कामय कपाटों से संयुक्त, शय्या, आसन आदि से परिपूर्ण, सात, आठ, नौ आदि तलों से सुशोभित, रत्नों से खचित दिव्य मनोहर है। इस प्रासाद की ऊँचाई ६०० योजन, विस्तार १२० योजन एवं भवन की नींव ६० योजन प्रमाण है।
प्रासाद के मध्य में पादपीठ से सहित अकृत्रिम आकार वाला, विशाल और उत्तम रत्नमय ‘सिंहासन’ स्थित है। इस सिंहासन पर दिव्य, उत्तम षोडश आभरणों से युक्त, सौधर्म इंद्र विराजमान होते है। पूर्वोपार्जित करोड़ों सुचरित्रों से प्राप्त हुई सौधर्म शुक्र की अनुपम विभूति को कौन कह सकता है? उत्तम छत्र चंवरों को धारण करने वाली देवियों से, प्रतीन्द्रों और सामानिक आदि देवों से जो नित्य ही सेवित हैं ऐसे सौधर्म इंद्र के १६०००० देवियाँ एवं आठ अग्रमहिषी हैंं। माया से रहित बहुत ही अनुराग से युक्त वे निपुण देवियाँ नित्य ही अपने इंद्र की सेवा करती रहती हैं।इंद्र के आस्थान में पीठ अनीक के अधिपतिदेव पादपीठ सहित बहुत से रत्नमय आसनों को देते हैं। जो आसन जिसके योग्य है ऐसे ऊँच, नीच, निकट, दूरवर्ती को जानकर वैसा ही आसन देते हैं।
इंद्र की सभा में उत्तम दंडरत्न को हाथ में लिये हुए द्वारपाल होते हैं, वे सेवकों को प्रस्तुत-अप्रस्तुत कार्य की घोषणा करते हैं। अनेक प्रकार के कार्यों को करने में कुशल अनेकों देवगण इंद्र की आज्ञा को सिर से ग्रहण करते हैं।प्रतीन्द्रादि देव बड़ी भक्ति से इंद्र सभा में अभिमुख स्थित रहते हैं। इंद्र के प्रधान भवन पूर्वादि चारों दिशाओं में चार होते हैं।दक्षिण इंद्रों के प्रासादों के नाम वैडूर्य, रजत, अशोक और मृषत्क सार एवं उत्तर इंद्रों के भवनों के नाम-रूचक, मंदर, अशोक और सप्तछद हैं।