त्रसहस्रोनपञ्चाशीति लक्षश्रीजिनालयान्।
त्रियोिवशतिसंयुक्तान् वन्दे वन्द्यान्नरामरैः१।।१।।
अथोध्र्वलोकभागस्थान् स्वर्गग्रैवेयकादिकान्।
इन्द्रादिनाकिनां भूतिस्थितियुक्त्यादिकान् ब्रुवे।।२।।
सौधर्मैशानकल्पौ द्वौ दक्षिणोत्तरयोः स्थितौ।
सनत्कुमारमाहेन्द्रौ ब्रह्मब्रह्मोत्तराह्वयौ।।३।।
स्वर्गौ लान्तवकापिष्टौ दक्षिणोत्तरदिव्श्रितौ।
द्वौ च शुक्रमहाशुक्रौ युग्मरूपव्यवस्थितौ।।४।।
द्वौ शतारसहस्रारावानतप्राणताभिधौ।
आरणाच्युतनामानौ चैते स्वर्गाश्च षोडश।।५।।
चतुर्णामाद्यनाकानां चत्त्वारो वासवा पृथव्।
चतुः स्वर्मध्ययुग्मानां चत्त्वारः स्वर्गनायकाः।।६।।
चतुस्तदग्रनाकानामिन्द्राश्चत्वार ऊर्जिताः।
इतीन्द्रसंख्यया कल्पाः कथ्यन्ते द्वादशागमे।।७।।
सौधर्मेन्द्राह्वयः शक्रः सनत्कुमारदेवराट्।
ब्रह्मेन्द्रो लान्तवेन्द्रश्चानतेन्द्र आरणाधिपः१।।८।।
षडेते दक्षिणेन्द्राः स्युर्नूनमेकावतारिणः।
पूर्र्वािजतमहापुण्यजिनभक्तिभराज्र्तिाः।।९।।
ईशानेन्द्रो हि माहेन्द्रः शुव्रेन्द्रः शुक्रनाकभाव्।
शतारेन्द्रस्ततः प्राणतेन्द्रोऽच्युतेन्द्र उत्तमः।।१०।।
एते षडुत्तरेन्द्राः स्र्युिजनपूजापरायणाः।
सम्यग्दर्शनसंशुद्धाः सर्वामरनतक्रमाः।।११।।
उपर्युपरि सन्त्येते स्वर्गाः षोडशसम्मिताः।
दक्षिणोत्तरदिग्भागस्था युग्मरूपिणः शुभाः।।१२।।
स्वर्गाणामुपरि स्युश्चाद्याधोग्रैवेयकास्त्रयः।
तेषामुपरिसन्त्येव मध्यग्रैवेयकास्त्रयः।।१३।।
एषामुपरि तिष्ठन्ति चोध्र्वग्रैवेयकास्त्रयः।
अमीषामुपरि स्याच्च नवानुदिशनामकम्।।१४।।
तस्य सन्ति चर्तुिदक्षु चत्त्वारश्च विमानकाः।
विदिक्षु तेऽपितावन्तो मध्ये ह्येवं विमानकम्।।१५।।
तस्योपरि च पञ्चानुत्तराख्यं पटलं भवेत्।
तच्चर्तुिदक्षु चत्वारि विमानानि भवन्ति वै।।१६।।
मध्ये सर्वार्थसिद्ध्याथाख्यं स्याद्विमानं च्युतोपमम्।
ततो मुक्तिशिलादिव्या गत्वा द्वादशयोजनान्।।१७।।
इन्द्रक्रीडानिवासस्य प्रकारात्प्रथमाद्वहिः।
आदिशाल समव्यासोत्सेधाश्चत्वार ऊर्जिताः१।।१३२।।
महान्तोऽन्ये च विद्यन्ते प्राकारा अन्तरान्तरे।
प्राकारस्यादिमस्यैव योजनानां किलान्तरम्।।१३३।।
त्रयोदशैव लक्षाणि द्वितीयस्यास्य चान्तरम्।
त्रिषष्टिरेव लक्षाणि तृतीयस्य तथान्तरम्।।१३४।।
चतुःषष्टिस्तु लक्षाणि तुर्यशालस्य चान्तरम्।
लक्षाणि योजनानां चतुरशीतिप्रमाणि वै।।१३५।।
आद्यप्राकारभूमध्ये सैन्यनाथा वसन्ति च।
शालान्तरे द्वितीयस्याङ्गरक्षकसुधाभुजः।।१३६।।
तृतीयशालभूभागे निर्जराः परिषत्स्थिताः।
अन्तरे तुर्यशालस्य सामानिका वसन्ति च।।१३७।।
तत इन्द्रपुराद्बाह्ये चर्तुिदक्षु विमुच्य च।
लक्षार्धं योजनानां स्युश्चत्वािंरशद्वनान्यपि१।।१४९।।
अशोवं सप्तपर्णाख्यं चम्पकाह्वयमाम्रकम्।
इति नामाज्र्तिान्येव शाश्वतानि वनान्यपि।।१५०।।
योजनानां सहस्रेणायतानि विस्तृतानि च।
सहस्रार्धेन रम्याणि भवन्ति सफलानि वै।।१५१।।
अमीषां मध्यभागेषु चत्वारश्चैत्यपादपाः।
जम्बूद्रुमसमानाः स्युरशोकाद्या मनोहराः।।१५२।।
एषां मूले चर्तुिदक्षु जिनेन्द्रप्रतिमाः शुभाः।
देवाच्र्या बद्धपर्यज्रः सन्ति भास्वरमूर्तयः।।१५३।।
एषु वनेषु सर्वेषु सन्त्यावासा मनोहराः।
वाहनादिक देवानां योषिद्वृन्दसमाश्रिताः।।१५४।।
मध्येऽमरावतीसंज्ञे पुरस्यैशानसद्दिशि।
इन्द्रस्तम्भगृहस्यास्ति सभास्थानसुमण्डपः२।।१७४।।
सुधर्मसंज्ञकस्तुङ्ग पञ्चसप्ततियोजनैः।
शतैकयोजनायामः पञ्चाशद्विस्तरान्वितः।।१७५।।
पूर्वोत्तरदिशोर्दक्षिणाशायां तस्य सन्ति च।
द्व्यष्टयोजनतुङ्गानि विस्तृतान्यष्टयोजनैः।।१७६।।
रत्नद्वाराणि देव्योघैर्दुर्गमाणि सुरोत्करैः।
तन्मध्ये स्वर्गनाथस्य दिव्यं स्याद्धरिविष्टरम्।।१७७।।
तस्य िसहासनस्यात्र तिष्ठन्ति सन्मुखानि च।
अष्टानां तन्महादेवीनां महान्त्यासनान्यपि।।१७८।।
पूर्वादिदिक्षु तिष्ठन्ति लोकपालासनानि च।
अन्येषां देवसङ्घानां यथार्हमासनान्यपि।।१७९।।
तस्याग्रे रतनपीठस्थो मानस्तम्भोऽस्ति मानहृत्।
षड्िंत्रशद्योजनोत्तुङ्गो योजनव्यास ऊर्जितः।।१८०।।
वङ्काकायः स्फुरत्कान्तिर्महाध्वजविभूषितः।
मस्तके जिनबिम्बाढ्यः स्वांशूद्द्योतित दिग्मुखः।।१८१।।
क्रौशैकक्रमविस्तीर्ण कोटिद्वादशराजितः।
अधोभागे विहायास्य क्रोशोन योजनानि षट्।।१८२।।
ऊध्र्वभागे परित्यज्य क्रोशाग्रयोजनानि षट्।
तिष्ठप्ति मणिमञ्जूषा रत्नरज्जु विलम्बिताः।।१८३।।
क्रोशायाम युताः क्रोशचतुर्थभागविस्तृताः।
सुभूषणा जिनेन्द्राणां विद्यन्ते तासु सञ्चिताः।।१८४।।
भरतैरावतोत्पन्नानां सुरत्नमयाः परे।
निरौपम्या क्रमायाताः सौधर्मैशानकल्पयोः।।१८५।।
पूर्वापरविदेहोत्थार्हतां विभूषणा इति।
सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः सन्ति रत्नशालिनः।।१८६।।
सौधर्मे व सभैशाने शेषेन्द्राणां सभास्तथा।
उपपातसभाश्चैव अर्हदायतनानि च१।।२६३।।
शतार्धायामविस्तीर्णाः पुरस्तान्मुखमण्डपाः।
वेदिकाभिः परिक्षिप्ता नानारत्नशतोज्ज्वलाः।।२६४।।
।१००। ५०। सामानिकादिभिः सार्धम् इन्द्राः पर्वसु सादराः।
पूजयन्त्यर्हतां तेषु कथाभिरपि चासते।।२६५।।
कल्पेषु परतश्चापि सिद्धायतनवर्णना।
आयागाः खलु कल्पेषु सभा ग्रैवेयतः स्मृताः।।२६६।।
योजनाष्टकमुद्विद्धा तावदेव च विस्तृता।
उपपातसभेन्द्राणां त्रायिंस्त्रशवतां स्मृता।।२६७।।
अशोवं सप्तपर्णं च चम्पवं चूतमेव च।
पूर्वाद्यानि वनान्याहुर्देवराजबहिःपुरात्।।२६८।।
आयतानि सहस्रं च तदर्धं विस्तृतान्यपि।
प्राकारः परितस्तेषां मध्ये चैत्यद्रुमा अपि।।२६९।।
। १००० । ५००।
अर्हतां प्रतिबिम्बानि जाम्बूनदमयानि च।
तेषां चतुर्षु पाश्र्वेषु निषण्णानि चकासते।।२७०।।
वालुवं पुष्पवं चैव सौमनस्यं ततः परम्।
श्रीवृक्षं सर्वतोभद्रं प्रीतिकृद्रम्यवं तथा।।२७१।।
मनोहरविमानं च र्अिचमाली च नामतः।
विमलं च विमानानि यानकानीति लक्षयेत्।।२७२।।
नियुतव्यासदीर्घाणि वैक्रियाणीतराणि च।
वैक्रियाणि विनाशीनि स्वभावानि ध्रुवाणि च।।२७३।।
सौधर्मादिचतुष्के च ब्रह्मादिषु तथा क्रमात्।
आनतारणयोश्चैव उक्तान्येतानि योजयेत्।।२७४।।
तत्र िसहासने दिव्ये सर्वरत्नमये शुभे।
स्वैरं निषण्णो विस्तीर्णे जयशब्दाभिनन्दितः१।।२५४।।
वृतः सामानिवैर्देवैस्त्रायिंस्त्रशैस्तथैव च।
सुखासनस्थैः श्रीमद्भिस्तन्मुखोन्मुखदृष्टिभिः।।२५५।।
चित्रभद्रासनस्थाभिर्वामदक्षिणपाश्र्वयोः।
संक्रीडयमानो देवीभिः क्रीडारतिपरायणः।।२५६।।
तत्र योजनविस्तीर्णः षट्कृतिं च समुच्छ्रितः।
स्तम्भो गोरुतविस्तारधाराद्वादशसंयुतः।।२५७।।
वङ्कामूर्तिः सपीठोऽस्मिन् क्रोशतत्पाददीर्घकः।
व्यासाश्च रत्नशिक्यस्थास्तिष्ठन्ति च समुद्गकाः।।२५८।।
। १ । १/४।
सक्रोशानि हिषट् तूध्र्वं योजनान्यसमुद्गकाः।
क्रोशन्यूनानि तावन्ति अधश्चाप्यसमुद्गकाः।।२५९।।
।२५/४। २३/४।
जिनानां रुच्यकास्तेषु सुरैः स्थापितपूजिताः।
भरतैरावतेशानां सौधर्मैशानयोद्र्वयोः।।२६०।।
पूर्वापरविदेहेषु जिनानां रुच्यकाः पुनः।
सनत्कुमारमाहेन्द्रकल्पयोन्र्यस्तपूजिताः।।२६१।।
न्यग्रोधाः प्रतिकल्पं च आयागाः पादपाः शुभाः।
जम्बूमानाश्चतुःपाश्र्वे पल्यज्र्प्रतिमायुताः।।२६२।।
उत्तं च (ति. प. ८,४०५-६)
सयिंलदमंदिराणं पुरदो णग्गोहपायवा होंति।
एक्केक्वं पुढविमया पूव्वोदिदजंबुदुमसरिसा।।९।।
तम्मूले एक्केक्का जििणदपडिमा य पडिदिसं होंति।
सक्कादिणमियचलणा सुमरणमेत्ते वि दुरिदहरा।।१०।
अर्थ — मनुष्यों और देवों के द्वारा वन्दनीक चौरासी लाख सत्तान्नवे हजार तेईस जिनालयों को मैं (सकलकीत्र्याचार्य) नमस्कार करता हूँ।।१।।
अर्थ — अब ऊध्र्वलोक में स्थित सौधर्मादि स्वर्ग और ग्रैवेयक आदि की स्थिति आदि को तथा इन्द्रादिक देवों की विभूति एवं स्थिति आदि को कहता हूँ।।२।।
अर्थ — सौधर्म और ऐशान कल्प क्रमशः दक्षिण और उत्तर में अवस्थित हैं, सानत्कुमार-माहेन्द्र, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर तथा लान्तव और कापिष्ट ये स्वर्ग भी दक्षिण-उत्तर दिशाओं के आश्रित अवस्थित हैं। शुक्र और महाशुक्र ये युग्म रूप से अवस्थित हैं।।३-४।।
शतार – सहस्रार, आनत-प्राणत तथा आरण और अच्युत ये भी एक के बाद एक युग्म रूप से अवस्थित हैं, इस प्रकार ये सोलह स्वर्ग ऊध्र्वलोक में अवस्थित हैं।।५।।
अर्थ — आदि के चार स्वर्गों के पृथव्-पृथव् चार इन्द्र हैं अर्थात् सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गों में से प्रत्येक में एक-एक इन्द्र हैं। मध्य के चार युगलों (आठ स्वर्गों) के चार इन्द्र हैं अर्थात् ब्रह्म, लान्तव, महाशुक्र और सहस्रार स्वर्गों में से प्रत्येक में एक-एक इन्द्र हैं।
ब्रह्मोत्तर, कापिष्ट, शुक्र और शतार स्वर्गों में इन्द्र नहीं हैं। शेष ऊपर के आनत, प्राणत, आरण और अच्युत में से प्रत्येक में एक-एक इन्द्र हैं। इस प्रकार आगम में बारह इन्द्र और बारह ही कल्प कहे गए हैं।।६-७।।
वैमानिक देवों के जितने विमान हैं उतने ही जिनमंदिर हैं। अब इन्द्रों के नाम और उनकी दक्षिणेन्द्र संज्ञा आदि का विवेचन करते हैं—
अर्थ — सौधर्म, सानत्कुमार, ब्रह्म, लान्तव, आनत और आरण नाम के ये छह इन्द्र दक्षिणेन्द्र हैं। ये छहों एक भवावतारी, पूर्वोपार्जित महापुण्य से युक्त और जिनेन्द्र भगवान की अपूर्व भक्ति के रस से सहित होते हैं।।८-९।।
सर्व देवों से नमस्कृत, सम्यग्दर्शन से शुद्ध और जिनेन्द्र की पूजा में तल्लीन रहने वाले ईशान, माहेन्द्र, शुक्र स्वर्ग का शुक्र, शतार, प्राणत और अच्युत नाम के ये छह इन्द्र उत्तरेन्द्र हैं।।१०-११।।
अर्थ — दक्षिण और उत्तर दिशाओं में षोडश स्वर्ग युग्म रूप से ऊपर-ऊपर अवस्थित हैं अर्थात् एक युगल के ऊपर दूसरा, दूसरे के ऊपर तीसरा इत्यादि।।१२।।
सोलह स्वर्गों के ऊपर तीन अधोग्रैवेयकों की (एक के ऊपर एक) अवस्थिति है। इनके ऊपर तीन मध्यम ग्रैवेयक और उनके ऊपर तीन ऊध्र्व ग्रैवेयक स्थित हैं। इन ग्रैवेयकों के ऊपर चार दिशाओं में चार, चार विदिशाओं में चार और एक मध्य में इस प्रकार नव अनुदिशों की अवस्थिति है।।१३-१५।।
नव अनुदिशों के ऊपर पाँच अनुत्तर विमान हैं, जो चार दिशाओं में चार हैं और मध्य में उपमारहित सर्वार्थसिद्धि नामक विमान अवस्थित है। सर्वार्थसिद्धि विमान से बारह योजन ऊपर जाकर दिव्य रूप वाली सिद्धशिला अवस्थित है।।१६-१७।।
सौधर्मादि स्वर्गों के विमानों का प्रमाण— क्रमांक स्वर्गों के नाम विमानों की संख्या क्रमांक स्वर्गों के नाम विमानों की संख्या १ सौधर्म ३२ लाख (३२०००००) ११ शतार ३०१९ २ ऐशान २८ लाख (२८०००००) १२ सहस्रार २९८१ ३ सानत्कुमार १२ लाख (१२०००००) १३ आनत प्राणत ४४० ४ माहेन्द्र ८ लाख (८०००००) १४ आरण अच्युत २६० ५ ब्रह्म २,९६००० १५ ३ अधस्तन ग्रैवेयक १११ ६ ब्रह्मोत्तर १,०४००० १६ ३ मध्यम १०७ ७ लान्तव २५०४२ १७ २ उपरिम ९१ ८ कापिष्ठ २४९५८ १८ अनुदिश ९ ९ शुक्र २००२० १९ अनुत्तर ५ १० महाशुक्र १९९८० योगफल – ८४,९७,०२३ है।
इन्द्र के नगर इन्द्र के नगर सम्बन्धी प्राकारों की संख्या और उनके पारस्परिक अन्तर का प्रमाण कहते हैं—
अर्थ — इन्द्र के क्रीड़ा निवास (अर्थात् नगर) के प्रथम प्राकार से बाहर समुन्नत (व्यास के समान उन्नत) एवं महान् एक दूसरे के अन्तराल से चार प्राकार और हैं। जिनका व्यास एवं उत्सेध प्रथम प्राकार के सदृश है। प्रथम कोट (प्राकार) से दूसरे कोट का अन्तर १३ लाख योजन (१०४००००० मील) है।
दूसरे कोट से तीसरे कोट का अन्तर ६३ लाख योजन (५०४००००० मील) है। तीसरे कोट से चौथे कोट का अन्तर ६४ लाख योजन (५१२००००० मील) है और चौथे कोट से पांचवें कोट का अन्तराल ८४ लाख योजन (६७२००००० मील) प्रमाण है।।१३२-१३५।।
अर्थ — प्रथम कोट के मध्य में सेनापति और दूसरे कोट के मध्य से अङ्गरक्षक देव रहते हैं।।१३६।। तीसरे कोट के मध्य में परिषद् देव तथा चौथे कोट के अन्तराल में सामानिक देव निवास करते हैं।।१३७।।
अर्थ — इन्द्रों के नगरों से बाहर पूर्वादि चारों दिशाओं में पचास-पचास हजार योजन छोड़कर अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्र नाम के शाश्वत चार वन हैं।।१४९-१५०।।
उत्तम फलों से युक्त इन प्रत्येक रमणीक वनों की लम्बाई एक हजार योजन और चौड़ाई पाँच सौ योजन प्रमाण है।।१५१।।
इन चारों वनों के मध्य भाग में जम्बूवृक्ष सदृश प्रमाण वाले, अत्यन्त मनोहर अशोक आदि चार चैत्यवृक्ष हैं।।१५२।।
इन चारों वृक्षों में से प्रत्येक वृक्ष के मूल में चारों दिशाओं में, देव समूहों से पूज्य, पद्मासन एवं देदीप्यमान शरीर की कान्ति से युक्त जिनेन्द्र भगवान् की एक-एक प्रतिमाएँ हैं।।१५३।। इन चारों वनों में देवाङ्गनाओं के समूह से युक्त वाहन आदि जाति के देवों के मनोहारी आवास हैं।।१५४।।
अर्थ — अमरावती नामक नगर के मध्य में इन्द्रस्तम्भ प्रासाद की ईशान दिशा में सभास्थान नामक सुन्दर मण्डप है, जिसका नाम सुधर्म सभा है। इस सुधर्म सभा की ऊँचाई ७५ योजन (६०० मील), लम्बाई १०० योजन (८०० मील) और चौड़ाई ५० योजन (४०० मील) प्रमाण है।।१७४-१७५।।
अर्थ — आस्थान मण्डप की पूर्व, उत्तर और दक्षिण दिशा में १६ योजन ऊँचे और ८ योजन चौड़ाई के प्रमाण को लिए हुए एक-एक दरवाजा है। ये द्वार रत्नों से निर्मित और देव-देवियों के समूह से अलङ्घनीय हैं। मण्डप के मध्य भाग में इन्द्र का एक दिव्य सिंहासन है।।१७६-१७७।।
अर्थ — उस सिंहासन के सम्मुख (आगे) अष्ट महादेवांगनाओं के महान् आसन अवस्थित हैं।।१७८।।
महादेवियों के आसनों से बाहर पूर्वादि दिशाओं में चारों लोकपालों के आसन हैं तथा दक्षिण आदि दिशाओं में अन्य देवों के योग्य आसन हैं अर्थात् इन्द्र के सिंहासन की आग्नेय, दक्षिण और नैऋत्य दिशा में अभ्यन्तर आदि परिषदों के, नैऋत्य में त्रायस्ंित्रश देवों के, पश्चिम में सेनानायकों के, वायव्य एवं ईशान में सामानिक देवों के तथा पूर्वादि चारों दिशाओं में अङ्गरक्षक देवों के आसन हैं।।१७९।।
आस्थान मण्डप के अग्र स्थित मानस्तम्भ का स्वरूप,प्रमाण एवं उस पर स्थित करण्डों का अवस्थान
अर्थ— उस सभामण्डप के आगे रत्नमयी पीठ पर मान को हरण करने वाला, ३६ योजन (२८८ मील) ऊँचा, एक योजन (८ मील) चौड़ा, वङ्कामयी देदीप्यमान कान्ति वाली महाध्वजा से विभूषित, शिखर (मस्तक) पर जिनबिम्बों से युक्त एवं अपनी किरणों से दशों दिशाओं को प्रकाशित करने वाला एक मानस्तम्भ है।।१८०-१८१।।
इसमें क्रमशः एक-एक कोश विस्तार वाली सूर्य सदृश प्रकाशमान बारह धाराएँ हैं। इन ३६ योजन ऊँचाई वाले मानस्तम्भों के अधोभाग में पौने छह योजन और उपरिम भाग में सवा छह योजन छोड़कर शेष मध्य भाग में रत्नमयी रस्सियों के सहारे लटकते हुए मणिमय करण्ड (पिटारे) हैं।।१८२-१८३।।
इन पिटारों की लम्बाई एक कोश एवं चौड़ाई पाव कोश प्रमाण है। इन करण्डों में जिनेन्द्रदेवों (तीर्थंकरों) के पहिनने योग्य अनेक प्रकार के आभरण आदि संचित रहते हैं।।१८४।।
भरतक्षेत्र में उत्पन्न होने वाले तीर्थंकरों के उत्तम रत्नमयी एवं उपमारहित आभूषण सौधर्म स्वर्गस्थ मानस्तम्भ पर, ऐरावत क्षेत्रोत्पन्न तीर्थंकरों के ऐशान स्वर्गस्थ मानस्तम्भों पर, पूर्व विदेह क्षेत्रोत्पन्न तीर्थंकरों के सानत्कुमार स्वर्गस्थ मानस्तम्भ पर एवं पश्चिम विदेह क्षेत्रोत्पन्न तीर्थंकरों के रत्नमयी आभूषण माहेन्द्र स्वर्गस्थ मानस्तम्भों पर स्थित मञ्जूषाओं में अवस्थित रहते हैं।।१८५-१८६।।’
सौधर्म कल्प के समान ऐशान कल्प में भी सभागृह है। उसी प्रकार शेष इन्द्रों के भी सभागृह, उपपातसभा और जिनायतन होते हैं।।२६३।।
उनके आगे सौ (१००) योजन दीर्घ, इससे आधे (५० यो.) विस्तीर्ण, वेदिकाओं से वेष्टित और सैकड़ों नाना प्रकार के रत्नों से उज्ज्वल मुखमण्डप होते हैं।।२६४।।
उनमें इन्द्र पर्व के दिनों में सामानिक आदि देवों के साथ भक्ति से जिन भगवान् की पूजा करते हैं तथा कथाओं के साथ (तत्त्वचर्चा करते हुए) वहाँ स्थित होते हैं।।२६५।।
कल्पों में तथा आगे ग्रैवेयक आदि में भी सिद्धायतन का वर्णन करना चाहिए। आयाग (न्यग्रोध वृक्ष) कल्पों में तथा सभाभवन ग्रैवेयक में माने गए हैं।।२६६।।
त्रायिंस्त्रशों के साथ इन्द्रों की उपपात सभा आठ योजन ऊँची और उतनी ही विस्तृत कही गई है।।२६७।।
इन्द्रपुर के बाहर पूर्वादि दिशाओं में क्रम से अशोक, सप्तवर्ण, चम्पक और आम्र ये चार वन स्थित हैं।।२६८।।
वे वन हजार (१०००) योजन लंबे और इससे आधे (५०० यो.) विस्तृत हैं। उनके चारों ओर प्राकार और मध्य में चैत्यवृक्ष स्थित हैं।।२६९।।
उक्त चैत्यवृक्षों के चारों पाश्र्वभागों में पल्यंकासन से स्थित सुवर्णमय जिनबिम्ब शोभायमान हैं।।२७०।।
वालुक, पुष्पक, सौमनस्य, श्रीवृक्ष, सर्वतोभद्र, प्रीतिकृत्, रम्यक, मनोहर, अर्चिमाली और विमल ये यानविमान जानना चाहिए। ये एक लाख (योजन) लंबे-चौड़े यानविमान विक्रियानिर्मित और प्राकृतिक भी होते हैं। उनमें विक्रियानिर्मित विमान नश्वर और स्वाभाविक विमान स्थिर होते हैं।।२७१-२७३।।
ये उपर्युक्त विमान क्रम से सौधर्म आदि चार कल्पों, ब्रह्मादि चार युगलों तथा आनत व आरण कल्प; इस प्रकार इन दस स्थानों में कहे गए योजित करना चाहिए।।२७४।।
स्वर्गों में चैत्यवृक्ष एवं मानस्तम्भ में तीर्थंकर के वस्त्राभरणादि उस सभाभवन में ‘जय-जय’ शब्द से अभिनन्दित इन्द्र दिव्य, सर्वरत्नों से निर्मित, शुभ एवं विस्तीर्ण सिंहासन के ऊपर स्वेच्छापूर्वक विराजमान होता है। वह सुखकारक आसनों पर स्थित एवं उसके मुख की ओर दृष्टि रखने वाले ऐसे कान्तियुक्त सामानिक और त्रायिंश्त्रस देवों से वेष्टित होकर क्रीड़ा में अनुराग रखता हुआ अपने वाम और दक्षिण भागों में अनेक प्रकार के भद्रासनों पर स्थित देवियों के साथ क्रीड़ा किया करता है।।२५४-२५६।।
वहाँ एक योजन विस्तीर्ण, छह के वर्गभूत छत्तीस योजन ऊँचा, एक कोस विस्तार वाली बारह धाराओं से संयुक्त और पादपीठ से सहित वङ्कामय स्तम्भ है। इसके ऊपर एक कोस लंबे और पाव (१/४) कोस विस्तृत रत्नमय सींके के ऊपर स्थित करण्डक है।।२५७-२५८।।
मानस्तम्भ के ऊपर सवा छह (६-१/४) योजन ऊपर और पौने छह (५-३/४) योजन नीचे वे करण्डक नहीं हैं।।२५९।।
सौधर्म और ऐशान इन दो कल्पों में स्थित उन स्तम्भों के ऊपर देवों के द्वारा स्थापित और पूजित भरत एवं ऐरावत क्षेत्रों के तीर्थंकरों के आभूषण रहते हैं।।२६०।।
सनत्कुमार और माहेन्द्र इन दो कल्पों में स्थित उन स्तम्भों के ऊपर देवों द्वारा स्थापित एवं पूजित पूर्व और अपर विदेह क्षेत्रों के तीर्थंकरों के आभूषण रहते हैं।।२६१।।
त्येक कल्प में अपने चारों पाश्र्वभागों में विराजमान ऐसी पल्यंकासन युक्त प्रतिमाओं से सुशोभित उत्तम न्यग्रोध आयाग वृक्ष होते हैं। ये वृक्ष प्रमाण में जम्बूवृक्ष के समान हैं।।२६२।।
समस्त इन्द्रप्रासादों के आगे पृथिवी के परिणामस्वरूप एक-एक न्यग्रोध वृक्ष होते हैं। वे प्रमाण आदि में पूर्वोक्त जम्बूवृक्ष के समान हैं।।९।।
उनके मूल भाग में प्रत्येक दिशा में एक-एक जिनप्रतिमा होती है। स्मरण मात्र से ही पाप को नष्ट करने वाली उन प्रतिमाओं के चरणों में इन्द्रादि नमस्कार करते हैं।।१०।।