अत्यंतसुकुमारस्य, जिनस्य सुरयोषित:।
शच्याद्या: पल्लवस्पर्श-सुकुमारकरास्तत:।।१७२।।
दिव्यामोदसमाकृष्टषट्पदौघानुलेपनै: ।
उद्वर्तयन्त्यस्ता: प्रापु:, शिशुस्पर्शसुखं नवम्।।१७३।।
ततो गंधोदवै: कुंभैरभिषिंचन् जगत्प्रभुं।
पयोधरभरानम्रास्ता वर्षा इव भूभृतं।।१७४।।
शचि आदि देवियों ने अत्यंत सुकुमार जिनबालक के शरीर पर दिव्य सुगंधित चंदन विलेपन करके शिशु के स्पर्श के नूतन सुख का अनुभव किया। पुन: सुगंधित जल से भरे हुये कलशों से जगत के प्रभु का अभिषेक किया।
गृहीतगंध-पुष्पादि-प्रार्चना: सपरिच्छदा।
अथैकदा जगामैषा, प्रातरेव जिनालयम्।।५५।।
त्रि:परीत्य तत: स्तुत्वा, जिनांश्च चतुराशया।
संस्नाप्य पूजयित्वा च, प्रयाता यति संसदि।।५६।।
वह कन्या सपरिवार गंध, पुष्प आदि पूजन सामग्री लेकर प्रात: ही जिनमंदिर में पहुंची। वहां पर तीन प्रदक्षिणा देकर जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक करके और उनकी पूजा करके यतियों की सभा मेंं पहुंचती है।
अथैकदा सुता सा च सुधी: मदनसुंदरी।
कृत्वा पंचामृतै: स्नानं, जिनानां सुखकोटिदम्।।
एक समय विदुषीमदन सुंदरी ने करोड़ों सुखों को देने वाला ऐसा जिनेन्द्रदेव का पंचामृतों से अभिषेक किया।
तदा वृषभसेना च प्राप्य राज्ञीपदं महत्।
दिव्यान् भोगान् प्रभुंजाना, पूर्वपुण्यप्रसादत:।।३८।।
पूजयंती जगत्पूज्यान्, जिनान् स्वर्गापवर्गदान्।
दिव्यैरष्टमहाद्रव्यै:, स्नपनादिभिरुज्ज्वलै:।।३९।।
तब वृषभसेना सम्राज्ञीपद को प्राप्त कर पूर्व पुण्य से दिव्य भोगों को भोगती हुयी जगत्पूूज्य जिनप्रतिमाओं की अभिषेकपूर्वक पूजा करती थी।