-शार्दूलविक्रीडित-
सन्माल्यादि यदीयसन्निधिवशादस्पृश्यतामाश्रयेद्विण्मूत्रादिभृतं रसादिघटितं बीभत्सु यत्पूति च।
आत्मानं मलिनं करोत्यपि शुिंच सर्वाशुचीनामिदं संकेतैकगृहं नृणां वपुरपां स्नानात् कथं शुद्ध्यति।।१।।
अर्थ —जिस शरीर के संबंधमात्र से ही उत्तम सुगंधित पुष्पों की बनी हुई माला भी स्पर्श करने योग्य नहीं रहती है और जो शरीर विष्टा-मूत्र आदिक से चौतरफा भरा हुआ है और अनेक प्रकार के रस आदिकों से बना हुआ है और अत्यन्त भय का करने वाला है तथा दुर्गन्ध से व्याप्त है और जो शरीर अत्यन्त पवित्र भी आत्मा को मलिन कर देता है और समस्त जितने भर संसार में अपवित्र पदार्थ हैं, उन सबका संकेत घर है, ऐसा यह मनुष्यों का शरीर जल के स्नान से वैâसे शुद्ध हो सकता है ?
भावार्थ —अनेक मनुष्य ऐसा समझते हैं कि यह शरीर स्नान करने से पवित्र होता है लेकिन यह सर्वथा उनकी भूल ही है क्योंकि जो मनोहर पुष्पों की माला सुगन्धित तथा उत्तम होती है, वह माला भी एक समय इस शरीर के संबंध से ही ऐसी हो जाती है कि और की तो क्या बात ? उसका स्पर्श भी नहीं किया जाता है और स्वयं यह शरीर विष्टा-मूत्रादि निकृष्ट पदार्थों का भंडार है तथा अनेक प्रकार के रसों से भरा हुआ है और अत्यन्त भयंकर तथा दुर्गंधमय है और यद्यपि आत्मा पवित्र है लेकिन यह शरीर उस आत्मा को भी अपवित्र बना लेता है और जितने भर संसार में अपवित्र पदार्थ हैं, उन सबका स्थान यह शरीर ही है इसलिये ऐसा निकृष्ट शरीर वैâसे जल से शुद्ध हो सकता है ? कदापि नहीं हो सकता।।१।।
आत्मातीव शुचि:स्वभावत इति स्नानं वृथास्मिन् परे कायश्चाशुचिरेव तेन शुचितामभ्येति नो जातुचित्।
स्नानस्योभयथेत्यभूद्विफलता ये कुर्वते तत्पुनस्तेषां भूजलकीटकोटिहननात्पापाय रागाय च।।२।।
अर्थ —आत्मा तो स्वभाव से अत्यन्त पवित्र है इसलिये इस आत्मा के पवित्र करने के लिये स्नान करना व्यर्थ ही है और शरीर सर्वथा अपवित्र ही है, यह कदापि पवित्र हो नहीं सकता इसलिये इस शरीर के पवित्र करने के लिये भी वह स्नान बिना प्रयोजन का ही है अत: दोनों प्रकार से स्नान विफल ही है, ऐसा सिद्ध हुआ इसलिये ऐसा निश्चय होने पर भी जो पुरुष स्नान को करते हैं, उन मनुष्यों द्वारा किया हुआ वह स्नान करोड़ों पृथ्वीकाय के तथा जलकाय के जीवों के नाश होने से पाप के तथा राग के लिये ही होता है।
भावार्थ —यह बात विचार करने योग्य है कि मनुष्य जो स्नान करते हैं, वे किस चीज की शुद्धि के लिये स्नान करते हैं। कहोगे यदि आत्मा की शुद्धि के लिये स्नान करते हैं, तो उनका स्नान करना सर्वथा व्यर्थ ही है क्योंकि आत्मा स्वभाव से ही अत्यन्त शुद्ध है और जो स्वभाव से शुद्ध होता है, उसको शुद्ध करने वाले दूसरे पदार्थ की आवश्यकता नहीं होती, यदि कहोगे कि शरीर की शुद्धि के लिये स्नान करते हैं, तो भी स्नान करना सर्वथा निरर्थक ही है क्योंकि जो पदार्थ सर्वथा अशुद्ध होता है वह कदापि शुद्ध हो नहीं सकता, जिस प्रकार कोयला कभी भी सफेद नहीं हो सकता। शरीर सर्वथा अशुद्ध है इसलिये उसकी शुद्धता स्नान से हो नहीं सकती, इसलिये स्नान शरीर तथा आत्मा दोनों के लिये सर्वथा विफल ही है किन्तु जो मनुष्य ऐसा समझकर भी स्नान करते हैं, वे लोग पाप का ही संचय करते हैं क्योंकि स्नान के करने से पृथ्वीकाय के तथा जलकाय के जीवों का विध्वंस होता है और जीवों के विध्वंस से पाप होता ही है, यह बात सर्वसम्मत है तथा स्नान के करने से राग भी बढ़ता है इसलिये मनुष्यों को यह कभी भी नहीं समझना चाहिये कि स्नान शरीर तथा आत्मा की शुद्धि के लिये होता है किन्तु यिंत्कचित् बाह्यशुद्धि के लिये ही होता है।।२।।
चित्ते प्राग्भवकोटिसंचितरज: संबंधिताविर्भवन्मिथ्यात्वादिमलव्यपायजनक: स्नानं विवेक: सताम्।
अन्यद्वारिकृतं तु जन्तुनिकरव्यापादनात्पापकृत्, नो धर्मो न पवित्रता खलु तत: काये स्वभावाशुचौ।।३।।
अर्थ —पूर्व भवों में उपार्जन किये हुए जो करोड़ों पाप, उनके संबंध से प्रकट होते हुए जो मिथ्यात्वादिक मल, उनके नाश को करने वाला सज्जनों के चित्त में जो विवेक है, वही स्नान है किन्तु इससे भिन्न जो जल से किया हुआ स्नान है, वह अनेक जीवों के विध्वंस करने वाला होने से पाप का ही करने वाला है क्योंकि स्वभाव से ही अपवित्र इस शरीर में न तो स्नान से पवित्रता हो सकती है और न धर्म ही हो सकता है।
भावार्थ —शुद्धि का अर्थ निर्मलता है और निर्मलता उसी समय हो सकती है जिस समय समस्त मलों का नाश हो जावे। जल से किया हुआ जो स्नान है, उससे निर्मलता नहीं होती है किन्तु मलों की (पापों की) ही उत्पत्ति होती है क्योंकि जल स्नान के होने पर अनेक जीवों का विध्वंस होता है और उससे पाप की उत्पत्ति होती है किन्तु सज्जनों के चित्त में जो हिताहित का विवेक है, वही स्नान है क्योंकि वही स्नान सर्वभवों में उपार्जन किये हुए जो करोड़ों पाप, उन पापों से उत्पन्न हुआ जो मिथ्यात्व आदिक मल, उस मल का सर्वथा नाश करने वाला है इसलिये जो मनुष्य स्नान से शुद्धि मानते हैं, उनके चित्त में जो हिताहित का विवेक है, वह विवेक ही परमशुद्धि का कारण स्नान है, ऐसा भलीभाँति समझना चाहिये।।३।।
सम्यग्बोधविशुद्धवारिणि लसत्सद्दर्शनोर्मिव्रजे नित्यानंदविशेषशैत्यसुभगे निश्शेषपापद्रुहि।
सत्तीर्थं परमात्मनामनि सदा स्नानं कुरुध्वं बुधा: शुद्ध्यर्थं किमु धावत त्रिपथगामालाप्रयासाकुल:।।४।।
अर्थ —भो भव्यजीवों! जिसमें सम्यग्ज्ञानरूपी अत्यन्त निर्मल जल मौजूद है तथा जिसमें देदीप्यमान अनेक तरंगें विद्यमान हैं और जो सदा आनंद को देने वाली उत्तम शीतलताकर मनोहर है और जो समस्त पापों का नाश करने वाला है, ऐसे इस परमात्मा नामक उत्तम तीर्थ में ही सदा स्नान करो, अनेक प्रकार के प्रयत्नों से व्याकुल होकर क्यों शुद्धता के लिये प्रयाग आदिक तीर्थों, गंगा आदिक नदियों पर भटकते फिरते हो ?
भावार्थ —बहुत से भोले प्राणी शुद्धि के अर्थ स्नान के लिये प्रयाग आदि तीर्थों में, गंगा आदि नदियों पर भटकते फिरते हैं किन्तु परमकरुणा के धारी आचार्य उन पर करुणाकर उपदेश देते हैं कि यदि तुम शुद्धि के लिये तीर्थ में स्नान करने की इच्छा रखते हो, तो तुम इस परमात्मारूपी उत्तम तीर्थ में ही स्नान करो क्योंकि जिस प्रकार प्रयाग आदि तीर्थों में गंगा आदि नदियों का जल रहता है, उसी प्रकार इस परमात्मारूपी तीर्थ में भी सम्यग्ज्ञानरूपी उत्तम पवित्र जल मौजूद है तथा जिस प्रकार प्रयाग आदि तीर्थों में गंगा आदि नदियों का जल मनोहर लहरोंकर सहित होता है, उसी प्रकार इस परमात्मारूपी तीर्थ में भी सम्यग्दर्शन आदि उत्तम तरंगों का समूह मौजूद है तथा जिस प्रकार प्रयाग आदि तीर्थ गंगा आदि नदियों के जल से शीतल रहते हैं उसी प्रकार यह परमात्मारूपी तीर्थ भी सदा जो आनंदविशेष, वही हुई शीतलता उस कर मनोहर है तथा यह आत्मारूपी तीर्थ समस्त पापों का नाश करने वाला है अर्थात् जो पुरुष उसमें गोता मारने वाले हैं, उनकी आत्मा के साथ किसी प्रकार के कर्ममल का संबंध नहीं रहता है इसलिये यही समस्त तीर्थों में उत्तम तीर्थ है किन्तु जो वास्तविक तीर्थ नहीं केवल तीर्थ के समान मालूम पड़ते हैं, ऐसे प्रयाग आदि तीर्थों में गंगा आदि नदियों पर तुम क्यों व्यर्थ स्नान करते हो?।।४।।
नो दृष्ट: शुचितत्त्वनिश्चयनदो न ज्ञानरत्नाकर: पापै: क्वापि न दृश्यते च समतानामातिशुद्धा नदी।
तेनैतानि विहाय पापहरणे सत्यानि तीर्थानि ते तीर्थाभाससुरापगादिषु जडा मज्जंति तुष्यंति च।।५।।
अर्थ —मूर्ख लोगों ने अपने पापों तथा दुर्भाग्यों की कृपा से न तो पवित्र निश्चयरूपी तालाब को देखा है और न ज्ञानरूपी समुद्र उनकी नजर पड़ा है तथा कहीं पर उन्होंने समतारूपी शुद्ध नदी को भी नहीं देखा है इसीलिये वे मूर्खपुरुष पापों के सर्वथा नाश करने वाले इन पवित्र तीर्थों को छोड़कर जो वास्तविक तीर्थ नहीं हैं, तीर्थाभास अर्थात् तीर्थों के समान मालूम पड़ते हैं, ऐसे गंगा आदि तीर्थों में स्नान करते हैं और स्नान करके अपने को अत्यन्त संतुष्ट मानते हैं।
भावार्थ —यदि निश्चयनय से देखा जाये तो सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक््âचारित्ररूपी नदी में भलीभाँति स्नान करने से समस्त पापों का नाश होता है किन्तु इनसे भिन्न नदियों में स्नान करने से थोड़े भी पापों का नाश नहीं होता किन्तु जो पुरुष पापी है, मूर्ख है, इसलिये अपने पापों की तीव्रता से अथवा दुर्भाग्यों से जिन्होंने सम्यग्दर्शनरूपी तालाब को नहीं देखा है तथा सम्यग्ज्ञानरूपी समुद्र भी जिनकी नजर नहीं पड़ा है और अत्यन्त शुद्ध समतारूपी नदी की ओर भी जो झाँककर नहीं देख सके हैं वे ही ऐसे समस्त पापों के नाश करने वाले पवित्र तीर्थों को छोड़कर सदा पाप के संचय करने वाले तथा जो तीर्थ नहीं हैं (तारने वाले नहीं हैं) किन्तु उल्टे संसार में डुबोने वाले होने के कारण तीर्थ के समान मालूम पड़ते हैं, ऐसे गंगा त्रिवेणी आदि तीर्थों को उत्तमतीर्थ मानकर उनमें स्नान करते हैं तथा उनमें स्नानकर अपने को संतुष्ट मानते हैं तथा कृतकृत्य मानते हैं, यह बड़ी भारी भूल है इसलिये जो सर्वथा पापों का नाश करना चाहते हैं, सुखी होना चाहते हैं, उनको चाहिये कि वे समस्त पापों के नाश करने वाले तथा परम पवित्र सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक््âचारित्ररूपी नदियों में ही स्नान करें और इन्हीं को परमतीर्थ समझें किन्तु इनसे भिन्न गंगा आदि नदियों की ओर झाँककर भी नहीं देखें और उनको तीर्थ न समझकर सर्वथा तीर्थाभास ही समझें।।५।।
नो तीर्थं न जलं तदस्ति भुवने नान्यत्किमप्यस्ति तन्निश्शेषाशुचि येन मानववपु: साक्षादिदं शुद्ध्यति।
आधिव्याधिजरामृतिप्रभृतिभिर्व्याप्तं सदा तत्पुन: शश्वत्तापकरं यथास्य वपुषो नामाप्यसह्यं सताम्।।६।।
अर्थ —यह मनुष्यों का शरीर अत्यंत तो अपवित्र है तथा सदा आधि-व्याधि-जरा-मरण आदिक उपाधियों से व्याप्त है और सदा ताप का करने वाला है तथा सज्जनपुरुष इसका नाम श्रवण भी नहीं कर सकतेद्ध ऐसा यह मनुष्यों का शरीर है, इसलिये इस खराब शरीर के शुद्ध करने में न तो कोई उत्तमतीर्थ इस संसार में है और न कोई इसकी साक्षात् शुद्धि का करने वाला जल है तथा इनसे भिन्न और भी वस्तु कोई ऐसी नहीं है, जो इस शरीर को वास्तविक रीति से शुद्ध कर सके।
भावार्थ —बहुत से भोले मनुष्य इस अत्यन्त अपवित्र शरीर की वास्तविक दशा को न जानकर दूसरों के कहने सुनने से प्रयाग आदि तीर्थों में गंगा आदि नदियों में स्नान कर इसको पवित्र समझ लेते हैं तथा कोई-कोई कुएँ आदि के जल को ही गंगा आदि का जल मानकर तथा उस जल से स्नान कर इसको पवित्र समझ लेते हैं तथा कोई-कोई तीर्थ जल से भिन्न रज आदि लगाकर ही अपने शरीर को पवित्र मान लेते हैं किन्तु आचार्यवर वâहते हैं कि यह उन मनुष्यों की बड़ी भारी भूल है क्योंकि यह शरीर इतना अपवित्र है कि इसके बराबर संसार में कोई चीज अपवित्र नहीं तथा यह शरीर अनेक प्रकार की आधि, ज्वर आदिक व्याधि, वृद्धावस्था-मरण आदि दु:खों का घर है अर्थात् इसी के संबंध से मनुष्यों को अनेक प्रकार के आधि-व्याधि आदि सहने पड़ते हैं तथा यह जीवों को अनेक प्रकार के संतापों का भी करने वाला है इसलिये ऐसे निकृष्ट इस शरीर के पवित्र करने के लिये इस संसार में न तो कोई तीर्थ है तथा कोई जल भी नहीं है और इनसे भिन्न और भी कोई ऐसी चीज नहीं है, जो इस शरीर को पवित्र कर सके, इसलिये सज्जनों को चाहिये कि वे प्रयाग आदि तीर्थों को तथा गंगा आदि नदियों के जलों को और रज आदि दूसरी वस्तुओं को भी इस सर्वथा अपवित्र शरीर की शुद्धि में कारण न समझें किन्तु इनको उलटे अपवित्र करने वाले ही समझें।।६।।
सर्वैस्तीर्थजलैरपि प्रतिदिनं स्नानं न शुद्धं भवेत् कर्पूरादिविलेपनैरपि सदा लिप्तं च दुर्गंधभृत्।
यत्नेनापि च रक्षितं क्षयपथप्रस्थायि दु:खप्रदं यत्तस्माद्वपुष: किमन्यदशुभं कष्टं च िंक प्राणिनाम्।।७।।
अर्थ —संसार में जितने प्रयाग आदि तीर्थ हैं तथा जितनी उन तीर्थों में गंगा आदि विशाल-विशाल नदियाँ हैं, यदि उन सब नदियों के जल से धोया भी जावे, तो भी यह शरीर शुद्ध नहीं हो सकता तथा अत्यन्त सुगन्धित कपूर आदि पदार्थों से भी यदि इसके ऊपर लेप किया जावे, तो भी यह सुगन्धयुक्त नहीं होता किन्तु उलटा दुर्गंधयुक्त ही हो जाता है और इसकी अनेक प्रकारों से यदि रक्षा भी की जाए, तो भी यह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है तथा यह शरीर नाना प्रकार के दु:खों को ही देने वाला है इसलिये जीवों को इस शरीर से अधिक न तो कोई अशुभ है तथा कष्ट का देने वाला भी कोई इससे अधिक नहीं है।
भावार्थ —बहुत से मनुष्य यह समझते हैं कि जल से स्नान करने पर शरीर शुद्ध हो जाएगा किन्तु आचार्य इस बात का उपदेश देते हैं कि अरे भाई! थोड़े से जल की तो क्या बात है? यदि समस्त तीर्थों के जल से भी इस शरीर को धोया जावे, तो भी यह रंचमात्र भी शुद्ध नहीं होता तथा बहुत से यह जानते हैं कि अतर-फुलेल-कपूर आदिक से लिप्त करें, तो यह सुगंधियुक्त हो जायेगा किन्तु आचार्य इस बात को पुकार-पुकार कर कहते हैं कि इस दुर्गंधमय शरीर में चाहे जितना अतर लगाया जाए, चाहे जितना फुलेल लगाया जाए और कपूर भी खूब लगाया जाए, तो भी यह शरीर अंशमात्र भी सुगन्धित नहीं हो सकता किन्तु उल्टा और दुर्गंधमय ही होता चला जाता है तथा बहुत से मनुष्य यह समझते हैं कि यह हमारा शरीर सदाकाल कायम रहे इसलिये वे इसके लिये नाना प्रकार के प्रयत्न करते हैं, इसकी रक्षा के उपायों को सोचते हैं तो भी जिस प्रकार बिजली क्षणमात्र में चमककर नष्ट हो जाती है, उसी प्रकार यह शरीर भी क्षणमात्र में नष्ट हो जाता है तथा शरीर से ही मनुष्यों को इस संसार में नाना प्रकार के दु:खों का सामना करना पड़ता है इसलिये संसार में इस शरीर से अधिक न तो कोई प्राणियों के लिये अशुभ पदार्थ है और न कोई उनको इस शरीर से अधिक कष्ट का ही देने वाला है इसलिये भव्यजीवों को चाहिये कि वे न तो इस शरीर को जल आदि से शुद्ध मानें और अत्र-फुलेल-कपूर आदि से सुगन्धित भी न समझें तथा इसको क्षणभर में विनाशीक समझकर इसकी रक्षा का भी उपाय न करें, नहीं तो उनको पीछे जरूर ही पछताना पड़ेगा।।७।।
तंभव्या भूरिभवार्चितोदितमहादृङ्मोहसर्पोल्लसन्मिथ्याबोधविषयप्रसंगविकला मंदीभवद्दृष्टय:।
श्रीमत्पंकजनंदिवक्त्रशशिभृद्िंबवप्रसूतं परं पीत्वा कर्णपुटैर्भवंतु सुखिन: स्नानाष्टकाख्यामृतम्।।८।।
अर्थ —अनेक भवों में जिसका उपार्जन किया गया है, ऐसा जो प्रबल दर्शनमोहरूपी महासर्प, उसके काटने से तमाम शरीर में पैâला हुआ जो मिथ्यात्वरूपी विष, उसके संबंध से जो अत्यन्त दु:खित हैं तथा जिनका सम्यग्दर्शन मंद हो गया है, ऐसे जो मनुष्य हैं, वे श्रीमान् पद्मनंदि आचार्य के मुखरूपी चंद्रमा से निकला हुआ जो यह स्नानाष्टकरूपी अमृत है, उसको अपने कानों से पीकर सुखी होवें।
भावार्थ—जिस समय किसी मनुष्य को काला नाग काट लेता है, उस समय उसको बड़ा दु:ख होता है तथा समस्त शरीर में विष के पैâल जाने से उस मनुष्य की दृष्टि बंद हो जाती है, यदि वही मनुष्य कहीं से अमृत को पाकर पान कर जावे तो उसका विष सर्वथा नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार इन जीवों को भी अत्यन्त भयंकर तथा बलवान दर्शन मोहरूपी सर्प ने काट लिया है तथा दर्शमोहरूपी सर्प के काटने से इनकी आत्मा में मिथ्यात्वरूपी विष का पैâलाव हो गया है इसलिए वे अत्यनत दु:खी हैं तथा इनकी सम्यग्दर्शनरूपी दृष्टि भी बंद हो रही है इसलिए आचार्यवर इनको उपदेश देते हैं कि हे भव्यजीव! यदि उस विष का नाशकर तुम सुखी होना चाहते हो तो यह काम करो कि श्रीमान् मुनि पद्मनंदिके (हमारे) मुखरूपी चन्द्रमा से निकले हुए इस स्नानाष्टकरूपी अमृत का पान करो जिससे तुम सुखी हो जावो तथा तुम्हारे ऊपर मोहरूपी सर्प के काटने से उत्पन्न हुआ जो मिथ्यात्वरूपी विष है, वह सर्वथा नष्ट हो जावे।
इस प्रकार श्री पद्मनंदि आचार्यद्वारा विरचित श्री पद्मनंदिपंचविंशतिका
नामक ग्रंथ में स्नानाष्टक नामक अधिकार समाप्त हुआ।