(कुन्दकुन्द स्वामी का कथन है, कि पूर्ण रूप से वस्तु का बोध निश्चयनय अथवा व्यवहारनय द्वारा नहीं हो पाता। निश्चय दृष्टि आत्मा को शुद्ध तथा अबद्ध मानती हैं। यह भी अपूर्ण कथन हैं। व्यवहारनय आत्मा को कर्मों से बद्ध तथा अशुद्ध मानता है। यह कथन भी अपूर्ण है। निश्चयनय ने सिद्ध जीव को अपना लक्ष्य बनाया, व्यवहारनय ने संसारी जीव की अपेक्षा कथन किया।
केवलज्ञान की दृष्टि में दोनों कथन पूर्ण नहीं है। समयसार निश्चयनय, व्यवहारनय के पक्षों से अतिक्रांत है। दोनों नय सम्यग्ज्ञान के अंग होने से वस्तु स्वरूप प्रतिपादक हैं। व्यवहारनय झूठा नहीं है। वह भी सम्यग्ज्ञान का भेद है। वस्तु की अशुद्ध पर्याय अनुभव गोचर है। उस अशुद्ध पर्याय को ग्रहण करने वाला व्यवहारनय मिथ्या नहीं है। कुन्दकुन्द स्वामी ने पंचम काल में धर्मध्यानरूप अपरमभाव का सद्भाव बताया है।
शुक्ल ध्यान रूप परमभाव का अभाव होने से परमभाव सम्बन्धी निश्चय की देशना का पात्र, इस कलिकाल में नहीं होता। इस बात का इस लेख में स्पष्टीकरण किया गया है।) जैनधर्म की देशना उसकी अनेकांत दृष्टि पर आश्रित है। वस्तु में अनंत धर्म पाये जाते है; वाणी की असमर्थता के कारण उनका एक साथ निरूपण असम्भव है; इसलिए सर्वज्ञ जिनेन्द्र ने तत्व की उपलब्धि हेतु एक धर्म को मुख्य, प्रधान अथवा विवक्षित करके शेष धर्मों को गौण करने की दृष्टि प्रदान की।
नय के द्वारा सत्य का अंश ग्रहण किया जाता है। वस्तु एक दृष्टि से (द्रव्य दृष्टि से) नित्य है और पर्याय दृष्टि से अनित्य भी है। भगवान ने दोनों दृष्टियों को सत्य सहित बताया है। कुन्दकुन्दस्वामी रचित पंचास्तिकाय की चौथी गाथा की टीका में अमृतचंद्र सूरि ने कहा है
‘‘द्वौ हि नयौ भगवता प्रणीतौ द्रव्यार्थिक: पर्यायार्थिकश्च।
तत्र न खल्वेकनयायता देशना किन्तु तदुभयायत्ता’’
भगवान ने द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक रूप से दो नय कहे हैं। भगवान की देशना एक ही नय पर निर्भर नहीं; किंतु वह दोनों नयों पर आश्रित है। अध्यात्म चर्चा करते हुए एकांतवादी निश्चयदृष्टि को सत्य प्रतिपादन करने वाली मानते हुए व्यवहारनय की दृष्टि को मिथ्या मानते हैंं इस कारण तत्त्व चिंतन के क्षेत्र में गड़बड़ी उत्पन्न हो गई है। इसलिये दोनों नयों का आगमोक्ता स्वरूप जानना परम आवयश्क है।
‘‘शुद्ध द्रव्य निरूपणात्मको निश्चयनय:।
अशुद्ध द्रव्यनिरूपणात्मको व्यवहारनय:
उभावप्येतौ स्त: शुद्धाशुद्धत्वेनोमयथा द्रव्यस्य प्रतीयमान त्वात्’’
शुद्ध द्रव्य का निरूपण करने वाला निश्चयनय है, अशुद्ध द्रव्य का निरूपण करने वाला व्यवहारनय है। ये दोनों नय कहे गये हैं क्योंकि द्रव्य की शुद्ध तथा अशुद्ध अवस्था दोनों रूप में प्रतीत हुआ करती है। इस कथन से यह बात सिद्ध होती है कि द्रव्य शुद्ध अवस्था अशुद्ध अवस्था सहित पाया जाता है। एकांतवादी द्रव्य को सदा ही मानते हैं।
इस मिथ्या कल्पना का इससे निराकरण हो जाता है। पंचास्तिकाय में दो प्रकार के जीव कहे हैं—‘‘जीवा संसारत्था णिव्वादा चेदणपगा दुविहा।१०९’’ टीका—जीवा: हि द्विविधा:। संसारस्था अशुद्धा निर्वृत्ता शुद्धाश्च। ते खलूभयेपि चेतनस्वभावा:। जीव दो प्रकार के हैं। संसारी जीव अशुद्ध हैं। तथा मुक्त जीव शुद्ध हैं। वे दोनों प्रकार के जीव चेतना स्वरूप हैं। संसारी जीव कर्मबद्ध होने से अशुद्ध है। मुक्तजीव कर्मबंधन से मुक्त हो जाने से शुद्ध है।
व्यवहारिक दृष्टि द्वारा अशुद्ध जीव का कथन किया जाता है। निश्चयदृष्टि द्वारा शुद्धावस्था युक्त जीव का कथन किया जाता है। जब द्रव्य स्वयं शुद्ध तथा अशुद्ध रूप हैं, तब उनका कथन करने वाले दोनों नय वस्तुग्राही होने से सत्य हैं। ऐसा नहीं है कि निश्चय नय ही सत्य है और व्यवहारनय असत्य। एकांतवादी वर्ग ने इस मौलिक तत्त्व को भुला दिया। एकांत पक्ष वाले व्यवहारनय और लौकिक व्यवहार को एक मान बैठे हैं। यह धारणा आगमविरुद्ध है। आगमानुसार अर्थग्रहण करना विवेकी का कर्त्तव्य है। जैसे सम्यग्दर्शन का लौकिक अर्थ है—‘‘ठीक देखना।
’’ इस दृष्टि से जिसके नेत्र खराब हैं, वह मिथ्यादृष्टि हो जाता है; अंधा व्यक्ति तो सम्यग्दृष्टि नहीं कहलायेगा।। आगम में दर्शन शब्द को श्रद्धा का वाचक माना गया है। अत: धर्म का मूल सम्यग्दर्शन सच्ची श्रद्धा रूप है। उसका सम्बन्ध नेत्र इंद्रिय जनित ज्ञान से नहीं हैं। इसी प्रकार लोक व्यवहार और व्यवहारनय में भिन्नता है।
दोनों नयों की अन्य रूप से भी व्याख्या की गई है। समयसार की गाथा नं. २७२ की टीका में लिखा है, ‘‘आत्माश्रितो निश्चयनय:। पराश्रितो व्यवहारनय:’’—पर का आश्रय न लेने वाला आत्माश्रित निश्चयनय है तथा अन्य द्रव्य का आश्रय लेकर तत्वग्रही व्यवहारनय है। पर का अवलम्बन लेना व्यवहारनय का विषय है। भिन्न साध्य—साधन भाव का अवलम्बन व्यवहारनय का कार्य का है; जहाँ भिन्न साध्य—साधन भाव नहीं होता है, वहाँ निश्चय दृष्टि की मुख्यता होती है। भेदग्राही व्यवहारनय है, अभेदग्राही निश्चयनय है। वस्तु कथंचित् भेदरूप है, कथंचित् अभेद रूप है।
प्रमाणगोचरौ सन्तौ भेदाभेदौ न संवृता।
तावेकत्रा विरुद्धौ ते गुण मुख्य विवक्षया।।३६।।
भेद तथा अभेद प्रमाण रूप ज्ञान के विषय हैं, वे काल्पनिक नहीं हैं। गौण मुख्य विवक्षा से वे दोनों एकत्र पाये जाते हैं। आलाप पद्धति में अध्यात्म भाषा द्वारा नय पर प्रकाश डालते हुए कहा है— निश्चयनयीऽभेद विषय: व्यवहारो भेद—विषय:’’ (पृष्ठ—१७७)
निश्चयनय अभेद विषय है अर्थात् उसका विषयगत तत्व भेदरहित है, अद्वैत है, शुद्ध है। व्यवहारनय का विषय भेद है, द्वैत है, अशुद्धावस्था है। निश्चय नय स्वभाव अवस्था का ग्राही है। व्यवहारनय विभाव पर्याय को ग्रहण करता है। नियमसार में कहा है—
णरणारयतिरियसुरा पज्जाया ते विभावमिदि भणिदा।
कम्मोपाधिविवज्जिय—पज्जाया ते सहाव मिदि भणिदा ।१५।।
मनुष्य ,नारक, पशु तथा देव पर्याय विभावपर्याय हैं। कर्मरूप उपाधिरहित स्वभावपर्याय है। व्यवहारनय मनुष्य आदि अशुद्ध अवस्था को ग्रहण करता है और निश्चयनय सिद्ध अवस्था को ग्रहण करता है। संसारी जीव में अशुद्ध पर्यायों का पाया जाना सबके अनुभवगोचर हैं।
निश्चयदृष्टि स्वावलम्बी होती है। उसकी प्राप्ति के पूर्व में असमर्थ व्यक्ति को व्यवहारनय सम्बन्धी परावलम्बन की दृष्टि को स्वीकार करना हितकारी है। मोक्ष के लिए ध्यान को अत्यंत महत्वपूर्ण माना गया है। इस संबंध में तत्त्वानुशासन ग्रंथ में नागसेन मुनिराज ने कहा है—
निश्चायाद् व्यवहारच्च ध्यानं द्विविध मागमे।
स्वरूपालंबनं पूर्व परालंबनमुत्तरम् ।।९६।।
आगम में निश्चय और व्यवहार के भेद से दो प्रकार का ध्यान माना है। आत्मस्वरूप का आलम्बन युक्त ध्यान निश्चय ध्यान है। पर का अवलम्बन लेना अर्थात् अरहंत आदि का आश्रय लेकर किया जाने वाला ध्यान व्यवहार ध्यान है। नागसेन आचार्य ने यह अनुभव पूर्ण बात लिखी है—
अभिन्न माद्यमन्यत्तुभिन्नं तत्ताव दुच्यते।
भिन्ने हि विहिताभ्यासोऽमित्रं ध्यायत्यनाकुल:।।७।।
निश्चय ध्यान आत्मा से अभिन्न है। आत्मा से भिन्न ध्यान को व्यवहारनय ध्यान कहा है। अर्हंत आदि भिन्न वस्तुओं का अवलम्बन लेकर ध्यान का अभ्यास करने वाला बिना बाधा के निश्चय ध्यान करने मेें समर्थ होता है। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि पराश्रय अथवा परावलम्बन रूप दृष्टि जीव की असमर्थ व्यवस्था में उपयोगी है। समर्थ होने पर निश्चय दृष्टि कल्याण प्रदान करती है।
समयसार में लिखा है कि परमभाव दर्शियों के लिए शुद्ध तत्वग्राही शुद्धनय प्रयोजनवान है, तथा व्यवहारनय अपरमभाव में स्थित जीवों के लिए कहा गया है। परमभाव शुद्धोपयोग, शुक्ल ध्यान से सम्बन्ध रखता हैं। इस काल में शुक्लध्यान भरतक्षेत्र में असम्भव होने से धर्मध्यानरूप अपरमभाव की देशना से संबंध रखने वाला व्यवहारनय प्रयोजनभाव है। समयसार की ८ वीं गाथा है—
जण णवि सक्कमणज्जो, अणज्जभासं विणा ण् गाहेउं।
तह ववहारेण विणा परमत्थुव—एसण—मसक्वं।।८।।
इस गाथा की टीका में अमृतचंद्र सूरि ने लिखा है, ‘‘व्यवहश्रनयो नानुसर्तव्य:’’—व्यवहारनय का अनुसरण नहीं करना चाहिए। यह पंक्ति मोक्षमार्ग प्रकाशक में भी उद्धृत की गई है। इसके आधार पर व्यवहारनय को अनुपयोगी सोचा जाता है; किंतु वास्तव में अमृतचंद्र सूरि ने समयसार की १२वीं गाथा की टीका में अपने भाव को इस प्रकार स्पष्ट किया है। ‘‘प्रत्यगात्मर्दिशभि: व्यवहारनयो नानुसर्तव्य:’’—शुद्ध आत्मदर्शन करने वालों को व्यवहारनय का अनुसरण नहीं करना चाहिए। यहाँ यह बात स्मरण योग्य है कि शुद्ध आत्मा का अनुभव गृहस्थ के नहीं होता।
इसलिए निश्चयनय की देशना का पात्र नहीं है। प्रवचनसार की गाथा २५४ की टीका में लिखा है ‘‘गृहिणां समस्त विरतेरभावेन—अशुद्धात्मनोनुभवात् ’’; गृहस्थों के सकल संयम का अभाव होने से अशुद्ध आत्मा का अनुभव पाया जाता है अर्थात् शुद्ध आत्मा के अनुभव सहित परमभाव का उनके सद्भाव नहीं पाया जाता।
जयधवला टीका (भाग १ पृष्ठ ८ ) में लिखा है ‘गौतम गणधर ने व्यवहारनय का आश्रय लेकर चौबीस अनुयोग द्वारों के प्रारम्भ में मंगल किया है जो व्यवहारनय बहुत जीवों का हित करता है, वह आश्रय के योग्य है। ऐसा अपने मन में निश्चय करके गौतम महर्षि ने उक्त स्थल में मंगलाचरण किया। इस युग के सभी आचार्य जिन गौतम गणधर को, ‘‘मंगलं गौतमो गणी’’—कहकर सर्वोपर पूज्यता प्रदान करते हैं, उन्होंने व्यवहारनय को बहुजीव हितकारी कहा तथा उसका आश्रय लेना चाहिए यह भी कथन करने के साथ ‘‘मैं उस व्यवहारनय का आश्रय लेता हूँ’’ यह बात स्पष्ट की।
इससे एकांतवादी वर्ग जो व्यवहारनय के कथन को तुच्छ मानता है,वह भूल करता है; यह स्पष्ट हो जाता है। जयधवला की पंक्तियाँ इस प्रकार हैं—ववहारणयं पडुच्च पुण गोदमसामिणा चदुवीसण्हमणियोगद्दा राणामादीए मंगलं कदं।’ जो बहु—जीवाणुग्गहकारी वबहारणओ सो चेव समस्सिदव्वो त्ति मणेणावहारियगोदमथेरेण मंगलं तत्थ कयं।।’ यह बात समयसार मेें लिखी है, कि शुद्ध तत्त्व निश्चयनय के द्वारा भी ग्रहण में नहीं आता है। इस सम्बन्ध में आचार्य कुन्दकुन्द का यह कथन मननीय हैं—
जीवे कम्मं बद्धं, पुट्ठं चेदि ववाहारणयभणिदं।
सुद्धणयस्य दु जीवे, अबद्धपुट्ठं हवइ कम्मं।।१४१।।
सुद्धो सुद्ध देसो, णायव्वो परमभावदरिसीहिं।
ववहार देसिदा पुण, जेदु अपरमेट्ठिदा भावे।।१२।।
कम्मं बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जाण णयपक्खं।
पक्खातिक्वंतो पुण, भण्णदि जो सो समयसांरो।।१४२।।
जीव में कर्म बँधे हुए हैं, तथा जीव कर्मों से स्पृष्ट है, वह व्यवहारनय का कथन र्है। शुद्धनय अर्थात् निश्चयनय जीव को कर्मों से अबद्ध और अस्पृष्ट मानता है। जीव में कर्म बंधे हैं, जीव में कर्म नहीं बंधे है; ये दो नय पक्ष हैंं। अर्थात् निश्चयनय जीव को कर्मबंधन से रहित मानता है और व्यवहारनय इस पक्ष को स्वीकार करता है कि जीव में कर्म बंधे हैं। किन्तु समयसार जीव को बद्ध और अबद्ध पक्ष इन दोनों विकल्पों से अतीत मानता है।
वह समस्त पक्षों से रहित है। उसे कुन्दकुन्द स्वामी ने ‘‘णयपक्खपरिहीणो’’ (१४३) कहा है। इसका कारण यह है कि दोनों नय श्रुतज्ञान के अन्तर्गत हैं। पूर्ण ज्ञानयुक्त सर्वज्ञ केवली भगवान नय पक्ष को जानते हैं, ग्रहण नहीं करते समयसार की टीका की ये पंक्तियाँ महत्त्पूर्ण हैं— भगवान् केवली श्रुतज्ञानावयवभूतयो व्यवहार—निश्चयनय पक्षयो: विश्वसाक्षितया केवलं स्वरूपमेव जानाति न तु नय पक्षं परिगृति’’ (गाथा १४३ टीका समयसार) महत्व की बात:— वास्तव में बात यह है कि दोनों नय साध्य नहीं है। उनके द्वशरा वीतरागताय—रागद्वेष रहित अवस्था अर्थात् यथाख्यात चारित्र रूप अवस्था साध्य है।
पंचास्तिकाय की गाथा १७२ की टीका में आचार्य अमृतचंद ने लिखा है ‘‘अस्य खलु पारमेवरस्य शास्त्रस्य परमार्थतो वीतरागत्वमेव तात्पर्यमिति। तददं वीतरागत्वं व्यवहारनिश्चयाविराधेनैनुगगम्य—मानं भवति समीहितसिद्धये न पुनरन्यथा’’ इस सर्वज्ञोक्त शास्त्र का परमार्थ की दृष्टि से वीतरागता ही तात्पर्य है। वीतरागता व्यवहार तथा निश्चय के अविरोध रूप से ग्रहण करने पर इष्टसिद्धिप्रद होती है। अन्यथा नहीं होती है। जीव का मुख्य ध्येय सर्व दु:खों का क्षय करना है, उसका कारण वीतरागता है, जो निश्चय और व्यवहारनय युगल द्वारा उपलब्ध होती है। पंचास्तिकाय में कहा है—
एवं पवयणसारं पंचत्थिय संगहं वियाणित्ता।
जो मुयदि रागदोसे सो गहदि दुक्ख परिमोक्खं।।१०३।।
इस प्रकार जो प्रवचनसार अर्थात् जिनवाणी के सार रूप इस पंचास्तिकायसंग्रह ग्रंथ का भली प्रकार परिज्ञान करके राग तथा द्वेष का परित्याग करता है, वह सम्पूर्ण दु:खों के क्षय रूप मोक्ष को प्राप्त होता है। शास्त्राभ्यास मात्र ध्येय साधक नहीं हैं। मूलाचार में कहा है, यदि कोई हाथ में दीपक लेकर कुएँ में गिरता है तो दीपक का क्या दोष है? इसी प्रकार शास्त्र का ज्ञान करने के बाद भी यदि कोई सदाचार को भंग करता है तो उसकी शिक्षा से क्या लाभ है? इस प्रकार गाथा है—
जदि पददि दीवहत्थो, अवदे किं कुणदि तरस सो दीवो।
जदि सिक्खिऊण अणयं करेदि किं तस्स सिक्कफलं।।१५।।
यदि कोई हाथ में दीपक लेकर कुएँ में गिरता है, तो उसको दीपक क्या करेगा ? यदि शिक्षित होकर भी कोई अनय अर्थात् कुपथ में प्रवृत्ति करता है,तो उसकी शिक्षा का क्या लाभ है? कुन्दकुन्द स्वामी ने पंचास्तिकाय में लिखा है कि—
सम्मत्तणाणजुत्तंं, चारित्तं रागदोपरिहीणं।
मोक्खस्स हवदि मग्गो, भव्वाणं लद्ध बुद्धीणं।।१०६।।
जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा रागद्वेष के क्षय रूप चारित्र युक्त है, उन लब्धबुद्धि अर्थात् क्षीणकषाय नामक द्वादशम गुणस्थान प्राप्त भव्यात्माओं को मुक्तिपथ प्राप्त होता है इससे यह बात ज्ञात होती है कि सम्यग्दर्शन तथा निश्चयनय युगलयुक्त होते हुए भी जब तक यथाख्यातचारित्र रागद्वेषरहित वीतरागता नहीं होगी, तब तक शिवपथ की प्राप्ति नहीं होगी।
एकान्तवादी वीतरागता की बहुत स्तुति करता हुआ चारित्र से अपना सम्पर्क स्थापित करने में प्रवादवश संकोच प्रदर्शित करता है। कुन्दकुन्द स्वामी की वाणी का रहस्य समझने वाला यह मानता है कि बिना चारित्र पालन के वीतरागता की परिकल्पना आकाश पुष्पों के संचय सदृश विवेक विरुद्धा परिकल्पना है। वीतरागता चारित्र सम्पन्नता का नामान्तर है।
सार—इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि सम्यग्ज्ञान के अंग होने से जैसे निश्चयनय में वास्तविक, उसी प्रकार व्यवहार में यथार्थता है। दोनों नय वस्तुस्वरूपग्राही है द्रव्य शुद्ध तथा अशुद्ध दो प्रकार की है। शुद्ध द्रव्य को निश्चयनय ग्रहण करता है। अशुद्ध द्रव्य व्यवहारनय का विषय है। स्याद्वादविद्या का रहस्य समझने वाला व्यक्ति आगम के आधार पर इस निश्चय पर पहुँचता है; कि अपरमभाव अर्थात् धर्मध्यान रूप शुभभाव युक्त व्यक्ति व्यवहारनय की देशना का पात्र है। ज्ञातव्य—पंचमकाल में धर्मध्यान रूप शुभभाव होता है।
शुक्लध्यानरूप शुद्ध भाव नहीं होता; अत: कुन्दकुन्द स्वामी के कथनानुसार पंचमकाल में शुद्धभावरूप शुक्लध्यान से सम्बन्धित निश्चयनय की देशना का कोई भी पात्र नहीं कहै। खेद है एकान्तवादी इस बात पर ध्यान नहीं देते। गौतम गणधर ने व्यवहारनय को बहुत जीवों का कल्याणकारी मानने के साथ उसका आश्रय लेने की बात कही तथा स्वयं व्यहारनय का आश्रय लेकर महाकम्पयडि पाहुड ग्रंथ के आरम्भ में मंगलाचरण किया।
निश्चय दृष्टि हमारे लिए सदा वन्दनीय है तथा शुभभावरूप धर्मध्यान से सम्बन्धित व्यवहार दृष्टि आश्रयणीय है। णमोकार मंत्र में अरहंतों को सिद्धों के पूर्व प्रणाम किया जाना यह सूचित करता, है कि व्यवहार दृष्टि का भी महत्व है। दोनों नयों में मैत्रीभाव आत्मकल्याणप्रद है तथा एकान्तवाद संसार—परिभ्रमण कराने वाला है।
निश्चय अरु व्यवहार नय जिन आगम आधार।
तिन बिन भटकत जीव यह नहिं पावत शिवद्वार।।
शुद्ध दृष्टि को हो नमन मेरा बारम्बार।
या प्रसाद तें जीव यह शीघ्र हो भवपार।।