‘‘स्यात्’’ यह शब्द निपात है और यह सर्वथा एकान्त का त्यागी होने से ‘कथंचित्’, ‘कथंचन’ आदि शब्दों के अर्थ का वाची है। जैसे-जीव कथंचित् नित्य है, कथंचित् अनित्य है इत्यादि। इसमें बताया गया है कि स्याद्वाद सप्तभंग और नयों की अपेक्षा रखता है एवं हेय और उपादेय को बतलाने वाला है। सप्तभंगी का स्पष्टीकरण-
‘‘प्रश्नवशादेकस्मिन् वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधविकल्पना सप्तभंगी।’’ ‘
‘प्रश्न के निमित्त से एक ही वस्तु में प्रत्यक्षादि प्रमाणों से अविरुद्ध विधि और प्रतिषेध की कल्पना सप्तभंगी है। यथा-
स्यादस्ति जीव:। स्यान्नास्ति जीव:। स्यादस्ति नास्ति जीव:।
स्यादवक्तव्यो जीव:। स्यादस्ति अवक्तव्यो जीव:।
स्यान्नास्ति अवक्तव्यो जीव:। स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्यो जीव:।’’
स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की अपेक्षा से जीव ‘अस्तिरूप’ ही है। परद्रव्यादि ‘चतुष्टय’ की अपेक्षा से जीव ‘नास्तिरूप’ ही है। क्रम से स्वपर चतुष्टय की अपेक्षा से जीव अस्तिनास्तिरूप है। युगपत् स्वपरचतुष्टय की अपेक्षा से जीव अवक्तव्य रूप है। स्वचतुष्टय की विवक्षा करने से एवं युगपत् दोनों धर्मों को न कह सकने से जीव अस्ति अवक्तव्य है। परचतुष्टय की विवक्षा करने एवं युगपत् दोनों धर्मों को न कह सकने से जीव नास्ति अवक्तव्य है।
स्वपरचतुष्टय की विवक्षा से एवं युगपत् दोनों धर्मों को न कह सकने से जीव अस्ति नास्ति अवक्तव्य है। यहाँ पर प्रथम भंग में अस्तित्व की प्रधानता होने से शेष छह भंग गौण हैं। द्वितीय भंग में नास्तित्व की प्रधानता होने से बाकी छह भंग गौण हैं ऐसे ही सर्वत्र समझना।
शंका – एक ही वस्तु में विरुद्ध दो धर्म शीतउष्ण स्पर्शवत् संभव नहीं है। जो वस्तु नित्य है वही अनित्य नहीं है, अन्यथा अनर्थ हो जायेगा।
समाधान – ऐसा नहीं है, क्योंकि जिस समय जीव द्रव्यदृष्टि से नित्य है उसी समय वही जीव पर्याय की दृष्टि से अनित्य है। देखो! जीव नित्य न होवे तो पुनर्जन्म में वही जीव नहीं जावे और यदि अनित्य नहीं होवे तो मनुष्य पर्याय का नाश और देव पर्याय का उत्पाद नहीं हो सकता है, किन्तु सभी आस्तिकवादी जीव का पुनर्जन्म एवं उत्पाद-विनाश मानते हैं,
ऐसे अनेकों विरोधी धर्म अपेक्षा की शैली से एक ही वस्तु में रह जाते हैं, बाधा नहीं आती है अथवा जैसे-किसी एक मनुष्य में शत्रु और मित्र रूप दो विरोधी धर्म एक साथ हैं वह किसी का शत्रु है तो वह अन्य किसी का मित्र भी उसी समय है।
सम्यक् एकान्त – प्रमाण के द्वारा निरूपित वस्तु के एक अंश को युक्ति सहित नय की विवक्षा से ग्रहण करने वाला सम्यक् एकान्त है। जैसे-जीव निश्चयनय से शुद्ध है। अथवा व्यवहारनय से अशुद्ध है। इसे ही सम्यक्नय कहते हैं।
मिथ्या एकान्त – वस्तु के एक धर्म को सर्वथा अवधारण करके अन्य धर्मों का निराकरण करने वाला मिथ्या एकान्त है। जैसे-वस्तु सर्वथा क्षणिक ही है या सर्वथा नित्य ही है, यह दुर्नय है।
सम्यक् अनेकांत – एक वस्तु में युक्ति और आगम से अविरुद्ध अनेक विरोधी धर्मों का ग्रहण करने वाला सम्यक् अनेकांत है। जैसे-जीव अनन्तधर्मात्मक हैं।
मिथ्या अनेकान्त – वस्तु को अस्ति-नास्ति आदि स्वभाव से शून्य कहकर उसमें अनेक धर्मों की मिथ्या कल्पना करना-अर्थशून्य वचन विलास मिथ्या अनेकान्त है। इन चारों में सम्यक् एकान्त ‘नय’ और सम्यक् अनेकान्त ‘प्रमाण’ कहलाता है। यदि अनेकान्त को अनेकान्त ही माना जावे और एकान्त का लोप किया जावे तो सम्यक् एकान्त के अभाव में, शाखादि के अभाव में वृक्ष के अभाव के समान तत्समुदाय रूप अनेकांत का भी अभाव हो जायेगा और यदि एकान्त ही माना जावे तो अविनाभावी इतर धर्मों का लोप होने से प्रकृत शेष का भी लोप हो जावेगा।
अनेकांतोप्यनेकांत: प्रमाणनयसाधन:।
अनेकांत: प्रमाणात्ते तदेकांतोर्पितान्नयात्।।
अत: अनेकांत भी अनेकांत रूप है क्योंकि प्रमाण और नय से सिद्ध है। प्रमाण की अपेक्षा से अनेकान्त, अनेकान्त रूप है एवं अर्पित-विवक्षित नय की अपेक्षा से एकान्त रूप है। इस प्रकार से अनेकांत में भी सप्तभंगी घटित हो जाती है। अर्हन्त भगवान के शासन में तीन चीजें परस्पर में अविरोधी हैं-
नयसत्त्वर्तव: सर्वे गव्यन्ये चाप्यसङ्गता:।
श्रियस्ते त्वयुवन् सर्वे दिव्यद्र्ध्या चावसंभृता:।।
अर्थ – हे भगवन्! आपके शासन में नय, प्राणी और ऋतुएं परस्पर में विरोधी होकर भी अविरोधी हैं। ये सब आपके प्रभाव से एक साथ संगत हो गये थे तथा कितने ही अन्य कार्य देवों की ऋद्धि से निष्पन्न किये गये थे। अर्थात् निश्चय-व्यवहार, द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिक आदि नय परस्पर में विरुद्ध हैं फिर भी कथंचित् इस नीति से एक-दूसरे की अपेक्षा रखने से अविरोधी हो जाते हैं।
ये आपके शासन का ही महत्व है अन्यत्र नहीं है। परस्पर विरोधी नकुल-सर्प, सिंह-हरिण आदि प्राणीगण भी आपके आश्रय में (समवसरण में) परस्पर का जन्म-जात वैर छोड़कर अविरोधी होकर प्रेमभाव धारण कर लेते हैं। वैसे ही षट् ऋतुएँ परस्पर में विरोधी हैं-एक साथ नहीं फलती हैं फिर भी जहाँ भगवान ध्यान करते हैं अथवा समवसरण होता है वहाँ पर एक साथ ही षट्ऋतुओं के फल-फूल फलित हो जाते हैं। ऐसा जैन शासन सदा काल जयवन्त रहे।