स्यात्-कथंचित् रूप से ‘वाद’-कथन करने को स्याद्वाद कहते हैं। यह सर्वथा एकान्त का त्याग करने वाला है और कथंचित् शब्द के अर्थ को कहने वाला है। जैसे जीव कथंचित् नित्य है और कथंचित् अनित्य है अर्थात् जीव किसी अपेक्षा से (द्रव्यार्थिक नय से) नित्य है और किसी अपेक्षा से (पर्यायार्थिक नय से) अनित्य है। अथवा जीव नित्य भी है, अनित्य भी है। यहाँ ‘भी’ शब्द का प्रयोग होने से स्याद्वाद कथन है। उसमें अपेक्षा लगाकर कथन करना चाहिए।
यह स्याद्वाद सप्तभंग और नयों की अपेक्षा रखता है। सप्तभंगी का लक्षण प्रश्न के निमित्त से एक ही वस्तु में अविरोधरूप विधि और प्रतिषेध की कल्पना सप्तभंगी है। जैसे-
इसको आत्मा में घटित करते हैं- मेरी आत्मा कथंचित्-अपने स्वरूप से ‘अस्तिरूप’ है। मेरी आत्मा कथंचित् पद अचेतन आदि परस्वरूप से ‘नास्तिरूप’ है। मेरी आत्मा कथंचित् स्वपर स्वरूपादि को क्रम से कहने से ‘अस्ति-नास्तिरूप’ है। मेरी आत्मा कथंचित् स्वपर स्वरूपादि से एक साथ न कही जा सकने से अवक्तव्य है। मेरी आत्मा कथंचित् स्वरूप से अस्तिरूप और एक साथ दोनों धर्मों को नहीं कह सकने से ‘अस्तिअवक्तव्य’ है।
मेरी आत्मा स्वपर स्वरूप से क्रम से कही जाने से और दोनों धर्मों को एक साथ नहीं कहे जा सकने से अस्ति-नास्ति ‘अवक्तव्य’ है। प्रत्येक वस्तु के प्रत्येक धर्मों में ये सात भंग घटित होते हैं। अनेकांत-प्रत्येक वस्तु में अस्तित्व, नास्तित्व, एक, अनेक, भेद, अभेद आदि अनंत धर्म पाये जाते हैं। अनेक अन्त (धर्म) को कहने वाला अनेकांत है। जैसे-जिनदत्त सेठ किसी का पिता है, किसी का पुत्र है, किसी का चाचा है, किसी का भतीजा है।
पिता-पुत्र, भाई, भतीजा-चाचा आदि अनेक धर्म उसमें मौजूद हैं। जिसका पिता है, उसी का पुत्र नहीं है, किन्तु पुत्र का पिता है और अपने पिता का पुत्र है। वैसे ही प्रत्येक वस्तु जिस रूप से अस्तिरूप है उसी रूप से नास्तिरूप नहीं है। किन्तु अपने स्वरूप से अस्तिरूप और पररूप से नास्तिरूप है। यह अनेकांत संशयरूप या छलरूप नहीं है। अपनी-अपनी अपेक्षा से वस्तु के यथार्थ धर्मों को कहने वाला है। यह ‘‘अनेकांत’’ जैनधर्म का प्राण है।