अर्हन्तो मंगलं कुर्यु:, सिद्धा: कुर्युश्च मंगलम्।
आचार्या: पाठकाश्चापि, साधवो मम मंगलम्।।
आज मैं स्वरूपाचरण चारित्र के बारे में कुछ प्रकाश डालूँगी। मैंने अनेक ग्रंथों का स्वाध्याय किया है, अपने दीक्षा गुरु आचार्यश्री वीरसागर महाराज के मुख से बहुत कुछ सुना है लेकिन स्वरूपाचरण चारित्र का नाम नहीं सुना। अनगार धर्मामृत, समयसार, प्रवचनसार आदि ग्रंथों में भी कहीं स्वरूपाचरण का नाम नहीं आया है। हाँ, छहढालाकार पं. दौलतराम जी ने छठी ढाल में स्वरूपाचरण चारित्र को लिया है। ग्रंथों में शुद्धोपयोग शब्द आया है। शब्द का अन्तर होते हुए भी अर्थ साम्य से स्वरूपाचरण चारित्र और शुद्धोपयोग पर्यायवाची शब्द दिखते हैं। उसी पर मैं प्रकाश डाल रही हूँ। मेरे सामने प्रवचनसार प्रमुख ग्रंथ है, इसमें नवमीं गाथा में लिखा है-
जीवो परिणमदि जदा, सुहेण असुहेण वा सुहो असुहो।
सुद्धेण तदा सुद्धो, हवदि हि परिणाम सब्भावो।।९।।
अर्थात् जब यह जीव शुभ और अशुभ रूप से परिणमन करता है तब यह शुभ और अशुभरूप होता है और जब शुद्धरूप से परिणमन करता है तब शुद्धरूप होता है। चूँकि जीव का स्वभाव परिणमनशील है। अब मैं टीकाकार श्री अमृतचंद्रसूरि की पंक्ति बताती हूँ-
‘शुभेनाशुभेन वा रागभावेन परिणमति।’
जब जीव शुभ अथवा अशुभ राग भाव से परिणमन करता है तब शुभ व अशुभरूप होता है।
‘यदा पुन: शुद्धेनारागभावेन परिणमति।’
और जब जीव शुद्धरूप से अथवा अराग भाव-विराग भाव से परिणमन करता है, तब शुद्धरूप होता है।
शुद्धारागपरिणतस्फटिकवत्परिणामस्वभावा: सन् शुद्धो भवतीति, इसलिए शुद्ध अर्थात् अराग भाव से परिणत स्फटिक के समान परिणमन स्वभाव वाला जीव शुद्ध हो जाता है। अराग भाव क्या है?
श्री अमृतचंद सूरि का अभिप्राय अरागभाव से शुद्धभाव से है। कुछ लोग शुद्धभाव को चौथे गुणस्थान में घसीटते हैं लेकिन यह यहाँ नहीं घटेगा।
‘मिथ्यात्वसासादनमिश्रगुणस्थानत्रये तारतम्येनाशुभोपयोग:।’
श्री जयसेन स्वामी तात्पर्यवृत्ति टीका में कह रहे हैं कि मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र इन तीन गुणस्थानों में तरतमता से अशुभोपयोग है।
‘तदनन्तरमसंयतसम्यग्दृष्टि देशविरत-
प्रमत्तसंयतगुणस्थानत्रये तारतम्येन शुभोपयोग:।’
उसके बाद असंयत सम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत इन तीन गुणस्थानों में तारतम्यता से शुभोपयोग है।
‘तदनन्तरप्रमत्तादिक्षीणकषायांतगुणस्थानषट्के तारतम्येन शुद्धोपयोग:।’
अप्रमत्त से लेकर क्षीणकषाय गुणस्थान तक षट्के यानि छ: गुणस्थान में सातवें, आठवें, नवमें, दसवें, ग्यारहवें और बारहवें गुणस्थान तक तरतमता से शुद्धोपयोग है।
तदनन्तरं सयोग्ययोगिजिनगुणस्थानद्वये शुद्धोपयोग फलमिति भावार्थ:।।९।।
इसके अनन्तर सयोगी और अयोगी जिन दो गुणस्थानों में शुद्धोपयोग का फल है। यह श्री जयसेन स्वामी की भाषा है। यही भाषा छहढालाकार पं. श्री दौलतराम जी ने की भी है। मैं छहढालाकार की पूरी पंक्तियों का अर्थ बताती हूँ-
‘‘यों है सकल संयम चरित, सुनिए स्वरूपाचरण अब।
जिस होत प्रगटे आपनी निधि, मिटे पर की प्रवृति सब।।’’
पं. श्री दौलतराम जी ने पहले साधुओं के २८ मूलगुणों का वर्णन किया, फिर बारह तप, दसधर्म आदि उत्तरगुणों का वर्णन किया। इसके बाद उन्होंने कहा-सकल संयम चारित्र यानि पूर्ण संयम मुनियों के होता है। अत: यह सकल संयम चारित्र हुआ। अब स्वरूपाचरण को सुनें, जिसके प्रगट होते ही अपनी ज्ञानादि निधि-सम्पत्ति प्रगट हो जाती है और पर वस्तुओं से सब प्रकार की प्रवृत्ति हट जाती है, उसे स्वरूपाचरण चारित्र कहते हैं। अब मैं बताती हूँ छहढालाकार इस स्वरूपाचरण चारित्र को कहाँ तक मान रहे हैं-
‘‘जिन परम पैनी सुबुधि छैनी, डारि अन्तर भेदिया,
वरणादि अरु रागादि तैं, निज भाव को न्यारा किया।
निजमाहिं निज के हेतु निजकर, आप को आपै गह्यो,
गुण गुणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय, मंझार कछु भेद न रह्यो।।’’
ये कह रहे हैं जिन्होंने पैनी प्रज्ञारूपी छैनी को अन्दर डाल करके अंतरंग में भेद विज्ञान किया है। वर्णादि-रूप आदि बीस गुणों से और रागादि भावों से अपने आत्मभाव को एकदम पृथक् किया है और अपने आप में यानि अपनी आत्मा में ही स्थिर हुए हैं, उस समय उनके गुण, गुणी, ज्ञाता, ज्ञान, ज्ञेय में कुछ भी भेद नहीं रह जाता, सब विकल्प मिट जाते हैं। यही भाषा श्री अमृतचंद्रसूरि की समयसार में है-
‘उदयति न नयश्री रस्तमेति प्रमाणं। (अमृतचंद्र गाथा १३ की टीका में कलशकाव्य में) जहाँ पर प्रमाण भी अस्त हो जाते हैं, नयों का प्रकाश नहीं रहता है आदि। पं. श्री दौलतराम जी ने आगे कहा-
जहँ ध्यान ध्याता ध्येय को, न विकल्प वच भेद न जहाँ,
चिद्भाव कर्म चिदेस कर्ता, चेतना किरिया तहाँ।।
तीनों अभिन्न अखिन्न शुध, उपयोग की निश्चल दशा,
प्रगटी जहाँ दृग ज्ञान व्रत, ये तीनधा एकहि लसा।।
आत्म ध्यान की अवस्था में शुभोपयोग की निश्चलदशा, शुद्धोपयोग की निश्चलदशा प्रगट हो जाती है। सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र एकरूप बन जाते हैं यानि अभेद रत्नत्रय प्रगट हो जाता है। आगे देखिए-
परिमाण नय निक्षेप को, न उद्योत अनुभव में दिखे।
दृग ज्ञान सुख बल-मय सदा, नहिं आनभाव जु मो विखें।।
मैं साध्य साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनितें।
चित्पिंडचंडअखंड सुगुण, करण्ड च्युत पुनि कलनिते।
यों चिन्त्य निज में थिर भये, तिनि अकथ जो आनन्द लह्यो।
सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा, अहमिंद्र के नाहीं कह्यो।।
तबही शुकल ध्यानाग्नि करि, चउ घाति विध कानन दह्यो।
सब लख्यो केवलज्ञान करि, भवि लोक को शिवमग कह्यो।।
पं. श्री दौलतराम जी कह रहे हैं जब वे मुनिराज इस प्रकार का चिन्तन करते हुए अपने आप में-आत्म ध्यान में लीन हो जाते हैं, उस समय उनको जो आनन्द आता है, वह इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती, अहमिन्द्र को भी नहीं मिलता। फिर क्या होता है? उस समय वे शुक्लध्यानरूपी अग्नि के द्वारा चार घातिया कर्मरूपी वन को नष्ट कर देते हैं और केवलज्ञान से समस्त लोक-अलोक को जानकर भव्यों को मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं। इसका मतलब यह हुआ कि छहढालाकार स्वरूपाचरण नाम से शुद्धोपयोग को कह रहे हैं और सातवें गुणस्थान से बारहवें गुणस्थान तक पहुँचा रहे हैं क्योंकि बारहवें गुणस्थान के अंत में शुद्धोपयोग के बल से ही घातिया कर्मों को नाश करके केवली बनते हैंं। इसमें जो सराग और वीतराग की बात आई, उसके बारे में मैं आपको बताऊँ- श्री कुन्दकुन्द स्वामी के प्रवचनसार में १२वीं गाथा की टीका में श्रीजयसेनस्वामी ने लिखा है-
‘तच्चारित्रं अपहृतसंयमोपेक्षया संयमभेदेन सराग-
वीतरागभेदेन शुभोपयोग शुद्धोपयोग भेदेन च द्विधा भवति।
चारित्र के दो भेद हैं-अपहृत संयम, उपेक्षा संयम अथवा सराग चारित्र, वीतराग चारित्र अथवा शुभोपयोग और शुद्धोपयोग। इसी को भेदरत्नत्रय और अभेदरत्नत्रय भी कहते हैं। जो अपहृत संयम है उसके सराग चारित्र, शुभोपयोग, भेदरत्नत्रय ये पर्यायवाची नाम हैं और उपेक्षा संयम के वीतराग चारित्र, शुद्धोपयोग, अभेदरत्नत्रय ये पर्यायवाची नाम हैं। इसी को छहढालाकार ने अपने शब्दों में स्वरूपाचरण कहा है।
एक बात मैं आपको बताती हूँ। मैंने नियमसारप्राभृत ग्रंथ पर स्याद्वादचन्द्रिका टीका लिखी है। सन् १९८५-८६ में मैं कुछ अस्वस्थ चल रही थी। उस समय पं. श्री फूलचंद जी शास्त्री प्रतिदिन मेरे पास आते थे। एक दिन वे बोले-माताजी! मैं आपकी कुछ वैय्यावृत्ति करना चाहता हूँ यानि मैं कुछ स्वाध्याय आपको सुनाना चाहता हूँ। मैं उस समय ज्यादा बैठ नहीं पाती थी अत: मुझे संकोच रहता था। फिर भी उन्होंने कहा, माताजी आप लेटी रहिएगा मैं आपको स्वाध्याय सुनाऊँगा।
ठण्डी के दिन थे, प्रतिदिन वे पुराने मंदिर से आते, उस समय हमारे यहाँ स्याद्वादचन्द्रिका का स्वाध्याय चल रहा था, उन्होंने कहा मैं इसी नियमसार ग्रंथ की, माताजी की लिखी टीका को सुनाऊँगा, मैं इसे पढ़ना भी चाहता हूँ। उन्होेंने दो-तीन महीनों में उसे आद्योपांत सुनाया। कुछ थोड़े पेज आखिरी के बचे थे, तब उन्होंने एक दिन एक बात कही। स्वाध्याय में ब्र. मोतीचंद जी (वर्तमान में क्षुल्लक मोतीसागर), ब्र.रवीन्द्र जी भी बैठते थे।
पं. जी ने कहा-माताजी! आपने टीका बहुत सुन्दर लिखी है, एक-एक शब्द चुन करके रखा है और न जाने कितने ग्रंथों के समयोचित उद्धरण भी दिए हैं। इस प्रकार से वे जितनी तारीफ कर सकते थे, खूब किया। फिर बोले-वर्तमान में दो धाराएं आगम में हैं लेकिन माताजी! आपने एक धारा का अनुसरण किया है। मैंने पूछा दो धारा कौन सी हैं, तो वे बोले-एक ने चौथे गुणस्थान में वीतराग चारित्र को माना है और एक ने सातवें गुणस्थान से माना है।
मैंने कहा-पं. जी आगम में तो दो धारा नहीं हैं। वर्तमान में विद्वानों में दो धारा हो रही हैं। पं. जी बोले-आगम में है। मैंने कहा-कौन से आगम में है। तो वे चिन्तन करके बोले-अनगारधर्मामृत में। सराग-वीतराग की व्याख्या करते हुए उसमें लिखा है। मैंने उसी समय ब्र. माधुरी (वर्तमान में आर्यिका चंदनामती) से अनगारधर्मामृत मंगवाया। जो पंक्ति उन्होंने बताई थी मैंने उसे खोलकर उन्हें दिखाया, तो उनकी बात उनसे कट गई और सातवें की बजाय ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान में चली गई। खूब मजा आया, वे भी हँसे, अन्तरंग में उन्हें झेंप भी आई, संकोच भी हुआ। वह पंक्ति थी-
ज्ञे सरागे सरागं स्याच्छमादिव्यक्तिलक्षणं।
विरागे दर्शनं त्वात्मशुद्धिमात्रं विरागकम्।।५१।। (अनगार धर्मामृत पृ. १५२)
इसकी टीका पं. आशाधर जी ने स्वयं की है। उन्होंने टीका में लिखा है-‘दर्शनं सरागं स्यात् सरागे असंयत सम्यग्दर्शनादौ।’ सराग सम्यग्दर्शन कहाँ होता है? सराग में, सराग व्यक्ति में, सराग जीव में, चाहे वह स्त्री, पुरुष, देव हो, असंयत सम्यग्दृष्टि आदि राग सहित जीव में सराग सम्यग्दर्शन होता है और जो विराग में सम्यग्दर्शन होता है वह वीतराग सम्यग्दर्शन कहलाता है। वह कहाँ होता है? तो इनकी टीका आगे देखिए-
विरागे-उपशांतकषायादिगुणस्थानवर्तिनी दर्शनं स्यात्।
विराग यानि उपशांत कषाय आदि गुणस्थानवर्ती जीवों के वीतराग सम्यग्दर्शन होता है और यह वीतराग सम्यग्दर्शन आत्मविशुद्धिमात्ररूप होता है। श्री जयसेन स्वामी तो सातवें से ले रहे थे जबकि पं. आशाधर जी ने ग्यारहवें, बारहवें में पहुँचा दिया। अब पं. जी की बोलती बंद हो गई। वे बोले-माताजी! आप तो सबसे आगे निकल गई हैं। मेरी बात मेरे से ही काट दी। बात यह है कि कभी-कभी गलतफहमी भी हो जाती है। टीका न पढ़कर ‘विरागे आत्मशुद्धिमात्रम्’ देखकर कोई चौथे में घटित करने लगते हैं।
अब मैं आपको आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज के शब्दों में बताती हूँ वे कहते थे स्वरूपाचरण नाम से शब्द आगम में नहीं है। शुद्धोपयोग शब्द है जो कि सातवें से बारहवें गुणस्थान तक है। ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान में यथाख्यात चारित्र रहता है यह बात ध्य्ाान में रखना चाहिए। ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान का जो यथाख्यात चारित्र या यथाख्यात संयम है, उसमें भी शुद्धोपयोग, अभेद रत्नत्रय, वीतराग चारित्र, उपेक्षा संयम ये सब पर्यायवाची नाम ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थान तक पहुँचते हैं क्योंकि शुद्धोपयोग का फल अथवा अपहृत संयम के बाद उपेक्षा संयम का फल तेरहवां गुणस्थान है।
उपेक्षा संयम कहो या वीतराग चारित्र, वीतराग संयम कहो या शुद्धोपयोग, स्वरूपाचरण कहो या अभेदरत्नत्रय, ये सब पर्यायवाची नाम हैं। ये जब १२वें गुणस्थान में पहुँचते हैं, तो यथाख्यात चारित्र में भी घट जाते हैं।
तो कथंचित् मेरा कहना यह है कि सातवें गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक स्वरूपाचरण चारित्र है। सिद्धांत की भाषा में, धवला की भाषा में वह धर्मध्यान के भेदरूप में है क्योंकि धवलाकार ने वहाँ तक अर्थात् दसवें तक धर्मध्यान माना है। मूलाचार ग्रंथ में श्रीकुंदकुंद स्वामी ने १०वें गुणस्थान तक धर्मध्यान माना है। ११वें, १२वें गुणस्थान में शुक्लध्यान माना है। १२वें गुणस्थान तक, यथाख्यात चारित्र तक यह व्याख्या चली जाती है।
एक बात मैं आपको और बताऊँ कि हस्तिनापुर में १३, १४, १५ अक्टूबर २००५ में विद्वानों की संगोष्ठी थी। उसमें यह विषय आया था। मैंने इस पर प्रकाश डाला। मुझे यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि दिल्ली में कतिपय विद्वानों ने अर्थ का अनर्थ किया है। मैं इस बात को बताना चाहती हूँ
कि यथाख्यात संयम-यथाख्यात चारित्र में स्वरूपाचरण गर्भित है, न कि यथाख्यात चारित्र स्वरूपाचरण में गर्भित है। यथाख्यात चारित्र तो ११वें, १२वें गुणस्थान में होता है जबकि स्वरूपाचरण चारित्र ७वें से लेकर १०वें तक तो है ही, १२वें तक भी है, तो स्वरूपाचरण शब्द, अभेद रत्नत्रय शब्द, उपेक्षा संयम शब्द, शुद्धोपयोग शब्द ये ११वें, १२वें गुणस्थान में भी चले जाते हैं। इस बात को ध्यान में रखना चाहिए। अर्थ का अनर्थ कभी नहीं करना चाहिए।
छहढाला की पंक्ति का आधार लेकर ही मैंने कहा है-
सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा अहमिन्द्र के नाहीं कह्यो।
तबहि शुकल ध्यानाग्नि करि, चउघाति विध कानन दह्यो।।
शुक्लध्यान के द्वारा चार प्रकार के घातिया कर्मरूपी वन को दग्ध कर दिया। इसका मतलब यह है कि छहढालाकार ११वें, १२वें गुणस्थान में उस स्वरूपाचरण चारित्र को मान रहे हैं। एक बात और मैं खुलासा कर दूँ कि सन् १९५५ में दिसम्बर में जब मैं आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज के संघ में पहुँची।
उस समय संघ में आर्यिका माताएं ब्रह्मचारिणियों को सिद्धान्त प्रवेशिका पढ़ाती थीं। जब यह चर्चा का विषय बना कि स्वरूपाचरण चारित्र को श्री गोपालदास वरैया ने सिद्धान्त प्रवेशिका में चौथे गुणस्थान में माना है और छहढालाकार ने स्वरूपाचरण चारित्र को सातवें से माना है, यानि सकल संयम के बाद माना है तो स्वरूपाचरण की व्याख्या ऐसे भी कर सकते हैं ‘स्वरूपे आचरणं स्वरूपाचरणंं’। श्री जयसेन स्वामी ने अभेद रत्नत्रय स्वरूप, निश्चय रत्नत्रय स्वरूप को एक रूप में घटित किया है। शुद्ध आत्मतत्त्व का सम्यक् श्रद्धान, ज्ञान और अनुचरणरूप अभेद रत्नत्रय ऐसा घटित किया है, तो ‘स्वरूपे आचरणं स्वरूपाचरणं’ इस शब्द से व्याख्या घट जायेगी।
उस समय आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज ने सिद्धान्त प्रवेशिका संघ में पढ़ाना ही बंद कर दिया। वे बोले पं. गोपालदास वरैया ने जो इसमें चौथे गुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्र लिख दिया है यह गलत है। इसलिए संघ में इसे कोई नहीं पढ़ेगा। इस बात को हमेशा ध्यान में रखना जो चौथे गुणस्थान में स्वरूपाचरण को मानते हैं, वह कथमपि समयसार से, प्रवचनसार से या अनगार धर्मामृत से कहीं भी घटित नहीं होता है।
आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज और भी प्रमाण देते थे, उसे आर्ष परम्परा के सभी विद्वान पुष्ट करते थे। वे कहते थे कि श्री कुन्दकुन्द स्वामी का बनाया हुआ चारित्रपाहुड़ ग्रंथ है, उसमें चारित्र के दो भेद किए हैं-सम्यक्त्वाचरण और संयमाचरण। सम्यक्त्वाचरण को सम्यक्त्वरूप में लिया है जिसमें आठ अंग हों, प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिक्य ये चारगुण हों, वह सम्यक्त्वाचरण चारित्र है। संयमाचरण चारित्र में उन्होेंने २ भेद किए हैं-देशसंयम, सकल संयम। देशसंयम की व्याख्या अविरत सम्यग्दृष्टि में नहीं घटेगी, पाँचवें गुणस्थान में घटेगी। अविरत सम्यग्दृष्टि यानि चौथे गुणस्थान में सम्यक्त्वाचरण है। संयमाचरण पाँचवें गुणस्थान से शुरू होता है उसमें पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत को लिया है।
यह पंक्ति मैं आपको बताऊँ-
दंसणवय सामाइय, पोसह सचित्त रायभत्ते य।
बंभारम्भ परिग्गह, अणुमणमुद्दिट्ठ देसविरदो य।।
(चारित्र पाहुड़ गाथा २२, पृ. ८२)
पञ्चेवणुव्वयाइं, गुणव्वयाइं हवंति तह तिण्णि।
सिक्खावय चत्तारि, य सञ्जम चरणं च सायारं।।२३।। पृ. ८५
पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षाव्रत अथवा ग्यारह प्रतिमाएं ये सागार का संयमाचरण है और इसके बाद अनगार का संयमाचरण अट्ठाईस मूलगुणरूप है। तो सम्यक्त्वाचरण में उन्होंने स्वरूपाचरण को नहीं लिया है। कहने का मतलब ये रहा कि आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज, आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज एवं इस परम्परा के सभी साधु यह कहा करते थे कि सम्यक्त्वाचरण नाम का आगम में चारित्र आया है स्वरूपाचरण नाम से कोई चारित्र नहीं आया है।
सन् १९५९-६० में जब संघ में श्री ज्ञानसागर जी मुनि बने थे, वे भी इस विषय पर बहुत अच्छा प्रकाश डालते थे। समयसार आदि के स्वाध्याय में श्री जयसेन स्वामी की टीका ले करके, शुद्धोपयोग को ७वें से स्वीकार करके, आत्म विशुद्धि मात्र जो वीतराग अवस्था है, उसे सातवें से ही घटित करते थे। सबको बहुत अच्छा लगता था। एक बार मैंने श्री ज्ञानसागरजी महाराज से आग्रह किया कि आपकी संस्कृत अच्छी है अत: आप श्री जयसेनाचार्य की तात्पर्यवृत्ति टीका का हिन्दी अनुवाद कर दीजिए।
चूँकि उस समय समयसार के जितने भी अनुवाद थे वे सब अमृतचन्द्रसूरि की टीका के अनुवाद थे। इसीलिए खींचतान करके अर्थ का अनर्थ हुआ करता था। तब श्री ज्ञानसागर जी महाराज ने जयसेनाचार्य की टीका का हिन्दी अनुवाद बहुत अच्छा किया है, जो कि छप चुका है।
उसके अनन्तर मैंने हस्तिनापुर में सन् १९८५-८६ के बाद समयसार की दोनों टीकाओं का श्रीअमृतचन्द्रसूरि और श्री जयसेनस्वामी की टीकाओं का हिन्दी अनुवाद ‘ज्ञानज्योति’ टीका नाम से किया है। उसमें जगह-जगह भावार्थ और विशेषार्थ खोले हैं, आगे पीछे का संदर्भ जोड़ा है, जिससे कोई भी अर्थ का अनर्थ न कर सके।
समयसार की भाषा में क्या है? पहले तो ये निश्चय को लेते हैं, फिर व्यवहार को लेते हैं, फिर दोनों का समन्वय करते हैं यह उनकी एक पद्धति है। निश्चय को पकड़कर कोई एकांगी न बन जाए। केवल व्यवहार को समझकर कोई एकांगी न हो जाय, इसलिए फिर उन्होंने समन्वय किया है।
मैंने समन्वयपरक गाथाएं एक बार निकालकर अलग से छपाई थी। दिल्ली में सन् १९८० में समयसार की वाचना में विद्वानों को दिया था। एक महीने तक वाचना चली, उस समय पं. श्री वैâलाशचंद जी शास्त्री भी आये थे। उस वाचना में भाग लिया था और दो दिन उन्होंने भी इसका वाचन किया। पं. श्री जगन्मोहनलाल शास्त्री और अनेक विद्वानों ने भी इसका वाचन किया था। विशेष रूप में पं. श्री पन्नालाल जी साहित्याचार्य को आमंत्रित किया था, वे इसमें प्रमुखरूप से वाचन करते थे।
मैंने निश्चयपरक गाथाएं छाँट-छाँटकर अलग निकाली, व्यवहारपरक गाथाओं को अलग निकाला और समन्वयपरक गाथाएं भी अलग करके दिखाया है। लोगों को बहुत अच्छा लगा। इसमें जगह-जगह गाथाओं में मुनि शब्द आया है, श्रावक शब्द नहीं आया है। इस बात पर भी मैंने प्रकाश डाला था।
नियमसार में एक भक्ति नाम का अधिकार है, उसमें श्रावक शब्द और मुनि शब्द दोनों आये हैं। सकल संयमधारी मुनि अर्थात् अट्ठाईस मूलगुणधारी मुनि में ये सब बातें शुद्धोपयोग की अर्थात् निश्चय की घटित हो जाती हैं। इस प्रकार मैंने आपको स्पष्ट बता दिया कि सम्यक्त्वाचरण और संयमाचरण दो ही अपने यहाँ माने हैं, स्वरूपाचरण को नहीं माना है। छहढालाकार के शब्दों में हम स्वरूपाचरण को लेते भी हैं तो इसमें कोई बाधा नहीं है। ‘स्वरूपे आचरणं स्वरूपाचरणं’ इन्होंने सातवें गुणस्थान से उसको घटित किया है। इन्होंने बहुत स्पष्ट कहा है-
‘यों है सकल संयम चरित सुनिए स्वरूपाचरण अब।’
यहाँ तक इन्होंने सकलसंयम का वर्णन मूलगुण और उत्तरगुण रूप से कर दिया है और स्वरूपाचरण को इन्होंने शुक्लध्यान तक केवलज्ञान होने तक पहुँचाया है। इन सब बातों को देखते हुए यह समझ में आता है कि स्वरूपाचरण शब्द शुद्धोपयोग का पर्यायवाची शब्द है जो कि सातवें से शुरू होकर बारहवें तक रहता है और शुद्धोपयोग का फल १३वाँ, १४वाँ गुणस्थान है, जो कि केवली अवस्था में है यह निष्कर्ष निकलता है। इस बात को अच्छी तरह से समझना चाहिए।
वर्तमान में विचार करके देखा जाये कि हम लोग इसको क्यों पढ़ें, जब हम लोग इसके अधिकारी ही नहीं हैं। तो बात यह है कि भावना बहुत बड़ी चीज है। जब हम शुक्लध्यान की भावना, सिद्ध होने की भावना भाते हैं तो समयसार पढ़कर समयसाररूप बनने की भावना क्यों नहीं भा सकते? पिण्डस्थ ध्यान में जब तत्त्वरूपवती धारणा की जाती है तब ऊर्ध्वगमन की भावना भाई जाती है।
आज एकाग्रचिंतानिरोधरूप धर्मध्यान नहीं हो सकता है क्योंकि अपने में इतनी संहनन शक्ति नहीं है, आज धर्मध्यान भी भावनारूप है। आचार्यों ने जगह-जगह कहा है भावना, चिन्तन, अभ्यास यही सब चलते हैं, आज जिसे हम ध्यान कह देते हैं पिण्डस्थ ध्यान, पदस्थ ध्यान, कोई भी ध्यान हो, आज की भायी गई भावना एक न एक दिन शुक्लध्यानरूप परिणत हो सकती है। पाँचवें गुणस्थान तक ये भावनारूप चलेगी, छठे गुणस्थान में अगर भावलिंगी हैं तो छठे, सातवें में परिवर्तन करते रहेंगे। सातवें गुणस्थान में शुद्धोपयोग कहीं-कहीं माना है। आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज कहा करते थे कि सातवें गुणस्थान में दो पाये हैं-एक स्वस्थान अप्रमत्त और दूसरा सातिशय अप्रमत्त। सातिशय अप्रमत्त से शुद्धोपयोग शुरू होता है और स्वस्थान अप्रमत्त में शुभोपयोग ही रहता है।
जो भी हो, वर्तमान में स्वस्थान अप्रमत्त ही है सातिशय अप्रमत्त नहीं है। अगर हम स्वस्थान अप्रमत्त में भी शुद्धोपयोग को मानें तो कोई आगम से बाधा नहीं आती है क्योंकि जहाँ शुभोपयोग को सातवें से शुरू किया है, वहाँ दो भेद नहीं खोले हैं। कहीं-कहीं खोला है अत: मुनि ही इसके अधिकारी हैं, हम और आप देशव्रती संयमासंयमी गुणस्थान की चरमसीमा को प्राप्त करने वाले इसकी भावना ही भा सकते हैं और भावना भाते ही रहना चाहिए क्योंकि भावना ही एक दिन फलवती होती है।
भावना, अभ्यास, चिन्तन बार-बार उसकी ओर अपना उपयोग लगाना, उसको प्राप्त करने की उत्कट-तीव्र अभिलाषा होना ये भी बहुत बड़ी बात है। कभी-कभी मैं प्रवचन में कह दिया करती हूँ कि खेल-खेल में जैसे बालक राजा बन जाते हैं, प्रधानमंत्री बन जाते हैं या खेल के खिलाड़ी बन जाते हैं, कुछ भी बन जाते हैं, ऐसे ही जब आप बार-बार चिंतन करेंगे कि मैं ऊर्ध्वगमन स्वभाव वाला होने से एक समय में ऊर्ध्वगमन करते-करते सिद्धालय में विराजमान हो गया हूँ। जहाँ भगवान महावीर विराजमान हैं, ऐसे सिद्धालय में मेरी आत्मा शुद्ध चिच्चैतन्यस्वरूप आठों कर्मों से रहित विराजमान है, ऐसी भावना भाने से एक न एक दिन वह अभ्यास फलीभूत हो जायेगा। इसीलिए सिद्धभूमियों की वंदना की जाती है, तीर्थंकरों की कल्याणक भूमियों की वंदना की जाती है। तीर्थयात्रा का भी यही अभिप्राय रहता है।
भगवान शांतिनाथ ने हस्तिनापुर में जन्म लेकर राज्य किया और अनेक प्रकार से अपने चक्ररत्न के द्वारा दिग्विजय करके छहखण्डों को जीतकर एकछत्र शासन किया पुन: इसी हस्तिनापुर की भूमि में भगवान शांतिनाथ ने दीक्षा ग्रहण की, दीक्षा ग्रहण करते ही उन्हें मन:पर्ययज्ञान प्रकट हो जाता है। दीक्षा लेते समय इतनी विशुद्धि होती है कि पहले शुद्धोपयोग होता है फिर शुभोपयोग होता है।
किन्हीं भी दीक्षा लेने वाले दिगम्बर जैन साधुओं का भी यह नियम है कि वे पहले सातवें गुणस्थान में जायेंगे, फिर छठे में आयेंगे। जब सामान्य साधुओं के लिए इतनी विशुद्धि मानी गई है तो भगवान तीर्थंकर के लिए कहना ही क्या? जिस भूमि पर भगवान शांतिनाथ ने दीक्षा लेकर मन:पर्ययज्ञान प्राप्त किया और अनेक प्रकार से ध्यान, तपश्चरण किया पुन: यत्र-तत्र पूरे भारत में विचरण करके इसी हस्तिनापुर की भूमि में वापस आकर सहस्राम्रवन में दिव्य केवलज्ञान प्राप्त किया। ऐसी पावन भूमि पर बैठ करके बार-बार यह चिंतन करना चाहिए कि ऐसी शुद्ध अवस्था को एक दिन हम भी प्राप्त करें।
द्वात्रिंशतिका-सामायिक पाठ में लिखा है-
‘‘बोधि: समाधि: परिणाम शुद्धि:, स्वात्मोपलब्धि: शिवसौख्य सिद्धि:।
चिन्तामणिं चिंतित वस्तुदाने, त्वां वंद्यमानस्य ममास्तु देवी!’’।।११।।
ये प्रार्थना सरस्वती देवी से हम लोग किया करते हैं। यहाँ कहने का मतलब यह रहा कि जब तक हम शुद्धोपयोग की स्थिति को न प्राप्त कर सकें, तब तक शुभोपयोग में रहते हुए उस शुद्धोपयोग की भावना भाएं और उसे प्राप्त करने के पुरुषार्थ के लिए बार-बार चिंतन करें कि हे भगवन्! कब वह समय आवे, जब हम शुभोपयोग में रहते हुए अशुभोपयोग से पूर्णरूपेण बचें और शुद्धोपयोग को प्राप्त कर सकें।
‘विषय कषाय वंचनार्थं पंचपरमेष्ठीनां आराधना।’
पंचपरमेष्ठियों की आराधना, विषय कषाय से अपनी आत्मा को छुड़ाने के लिए बार-बार की जाती है, ऐसी भावना भाते रहें। यही भावना श्रेयस्कर फलीभूूत होएगी। इस प्रकार से स्वरूपाचरण के बारे में मैंने कुछ प्रकाश डाला है। इस पर आप चिन्तन करें, विचार करें और आगम के परिप्रेक्ष्य में इस तथ्य को-रहस्य को समझें, यही मेरी मंगल प्रेरणा है।