तत्रोपपादशय्यायामुदपादि महोदय:।
विमाने श्रीप्रभे रम्ये ललितांग: सुरोत्तम:।।२५४।।
अर्थ–वहाँ पर श्रीप्रभ नाम के अतिशय सुंदर विमान में उपपाद शय्या पर बड़ी सिद्धी का धारक ललितांग नाम का उत्तम देव हुआ।।२५४।।
पुनश्च ललितांग देव स्वर्ग के सुखों का अनुभव करते हुए अपनी आयु के छह माह शेष रहने पर मृत्यु के चिन्ह से मृत्यु निकट जानकर शोक को प्राप्त हुआ तब वहाँ पर अन्य देवों के सम्बोधन से धर्म में बुद्धि लगाई।
इति तद्वचनाद् धैर्यमवलम्ब्य स धर्मधी:।
मासार्द्ध भुवने कृत्स्ने जिनवेश्मान्यपूजयत्।।२३।।
अर्थ–इस प्रकार सामानिक देवों के कहने से ललितांगदेव ने धैर्य का अवलंबन किया, धर्म में बुद्धि लगाई और पन्द्रह दिन तक समस्त लोक के जिनचैत्यालयों की पूजा की।।२३।।
ततोऽच्युतस्य कल्पस्य जिनबिंबानि पूजयन्।
तच्चैत्यद्रुममूलस्थ: स्वायुरन्ते समाहित:।।२४।।
नमस्कारपदान्युच्चैरनुध्यायन्नसाध्वस:।
साध्वसौ मुकुलीकृत्य करौ प्रायाददृश्यताम्१।।२५।।
अर्थ–तत्पश्चात् अच्युत स्वर्ग की जिनप्रतिमाओं की पूजा करता हुआ वह आयु के अंत मे वहीं सावधान चित्त होकर चैत्यवृक्ष के नीचे बैठ गया तथा वहीं निर्भय हो हाथ जोड़कर उच्च स्वर से नमस्कार मंत्र का ठीक-ठीक उच्चारण करता हुआ अदृश्यता को प्राप्त हो गया।।२४–२५।।
भावार्थ–णमोकार मंत्र अनादि है स्वर्ग में भी देव जपते हैं।