गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की है यह स्वर्णिम गाथा।
हर भक्त हृदय का इनके चरणों, में झुक जाता है माथा।।
कब, कहाँ जन्म लेकर इनने, क्या-क्या उपकार किए जग पर?
हैं कौन पिता-माता इनके, सब सुनो ध्यान से हे प्रियवर!।।१।।
है शाश्वत तीर्थ अयोध्या जहाँ, प्रभु ऋषभदेव ने जन्म लिया।
बाहूबलि-भरत-राम ने भी, निज जन्म से जिसको धन्य किया।।
उस निकट टिकैतनगर नामक, है बसा एक छोटा सा गाँव।
जहँ त्याग, धर्म अरु भक्ती की, सबको मिलती रहती है छाँव।।२।।
यहाँ छोटेलाल नाम के इक, धर्मात्मा श्रेष्ठी रहते थे।
व्यापार के साथ ही पूजा, दान-क्रिया में तत्पर रहते थे।।
उनकी पत्नी मोहिनि देवी, इक धर्मपरायण नारी थीं।
वे अपने पितु से एक अनोखा, ग्रंथ दहेज में लाई थीं।।३।।
हर कार्य गृहस्थी का करके, मोहिनि स्वाध्याय भी करती थीं।
निज सरल प्रवृत्ती के द्वारा, सबको अनुरञ्जित करती थीं।।
कुछ समय बाद मोहिनि जी ने, इक कन्या को था जन्म दिया।
देखा सबने उस क्षण प्रसूति-गृह में था दिव्य प्रकाश हुआ।।४।।
दादी बोलीं-देखो! मेरे, घर में कोई देवी आई है।
इक पुण्यशालिनी कन्या मेरी, पोती बनकर आई है।।
नानी ने बड़े प्यार से उस, कन्या का मैना नाम रखा।
दादी बोलीं-कहिं मैना सम-उड़ जाए न’ डर मुझको लगता।।५।।
जिस बात का डर था दादी को, आगे चलकर वह सत्य हुई।
मैना गृहपिंजड़े को तज करके, त्यागमार्ग पर चली गई।।
बचपन से ही शास्त्रों को पढ़कर, मैना को वैराग्य हुआ।
सम्यक्, मिथ्यात्व कर्म आदिक, बातों का उसको ज्ञान हुआ।।६।।
इक बार गाँव में चेचक की, बीमारी जोरों से फैली।
इस रोग के चंगुल में फस गए थे, मैना के दो भाई भी।।
समझाया सबने-‘चलो! शीतला माता की पूजा करने।
लेकिन मैना ने किसी तरह से, नहीं दिया माँ को जाने।।७।।
वह प्रतिदिन मंदिर से गंधोदक, लाती शीतल जिनवर का।
इससे ही होगा रोग ठीक, ऐसा उसको श्रद्धान जो था।।
आखिर उसकी श्रद्धा ने इक दिन, चमत्कार था दिखलाया।
जिनधर्म में अनुपम शक्ती है, इसका प्रत्यक्ष फल बतलाया।।८।।
दोनों भाई को स्वस्थ देख, सबने मिथ्यात्व का त्याग किया।
मैना के कारण अवध प्रान्त से, कई कुरीतियाँ हुई विदा।।
जाने कब बचपन बीत गया, अब मैना ने यौवन पाया।
बेटी तो पराया धन है’ यह, विचार पितु के मन में आया।।९।।
इक दिन सुन्दर साड़ी-गहने, लेकर आए मैना के पास।
बोले-बेटी! इन्हें पहनकर, तुमको जाना है ससुराल।।
मैना ने सरल-सहज शब्दों में, अपना निर्णय सुना दिया।
बोलीं- निज मन में ही मैंने, व्रत ब्रह्मचर्य को ग्रहण किया।।१०।।
नहिं ब्याह रचाना है मुझको तो, दीक्षा धारण करना है।
ब्राह्मी-चन्दनबाला सतियों के, पथ को सार्थक करना है।।
निर्णय सुनकर पितु-मात सभी, समझा-समझाकर हार गए।
आखिर सबने दृढ़ निश्चय के, आगे निज मस्तक झुका दिये।।११।।
आचार्य देशभूषण गुरुवर, जब आए बाराबंकी में।
मैना भी पहुँची वहँ अपने, अरमानों को पूरा करने।।
काफी संघर्षों बाद अन्त में, मैना की हो गई विजय।
जब माँ की आज्ञा से गुरुवर ने, ब्रह्मचर्य व्रत दिया उसे।।१२।।
सप्तम प्रतिमा, गृहत्यागरूप, व्रत को भी अंगीकार किया।
अब विजयी होकर मैना ने, मानों नवजीवन प्राप्त किया।।
इस दुर्लभ व्रत को पाकर मैना, मगन हुई निज आतम में।
अब उनको तो सोते-जगते, बस दीक्षा की इच्छा मन में।।१३।।
उनकी इस उत्कट इच्छा ने, साकार रूप अब धार लिया।
महावीर जी अतिशय तीरथ ने, जब अपना अतिशय दिखा दिया।।
आचार्य देशभूषण जी ने, दीक्षा क्षुल्लिका प्रदान किया।
देखी थी बहुत वीरता इनकी, अत: वीरमती नाम दिया।।१४।।
उत्कृष्ट अवस्था श्रावक की, पा मैना बहुत प्रसन्न हुई।
सर्वोच्च अवस्था पाने की, अब एकमात्र इच्छा उनकी।।
सौभाग्य मिला बीसवीं सदी के, प्रथम सूरि के दर्शन का।
आचार्य शांतिसागर जी के, दर्शन का उनके वंदन का।।१५।।
आचार्य निकट जाकर श्रद्धा-भक्तीपूर्वक दर्शन करके।
कर जोड़ निवेदन किया-आर्यिका दीक्षा मुझे प्रदान करें।।
गुरुवर बोले-अब मैंने दीक्षा, देने का है त्याग किया।
मुनि वीरसागर जी को मैंने, निज पट्टाचार्य प्रदान किया।।१६।।
तुम उनसे दीक्षा ग्रहण करो, ऐसा मेरा आदेश तुम्हें।
तुम जग में चमको सूर्य सदृश, ऐसा है आशीर्वाद तुम्हें।।
गुरु वचनामृत को पीकर वीर-मती को ऐसा भान हुआ।
उनके हर रोम-रोम में जैसे, दिव्यशक्ति का वास हुआ।।१७।।
अब वीरमती जी पहुँच गई, आचार्य वीरसागर के पास।
ये ही मुझको दीक्षा देंगे, ऐसा हुआ उन्हें विश्वास।।
गुरुवर के दर्शन करके उनसे, किया निवेदन दीक्षा का।
पूरे संघ ने सम्मान किया, उनकी इस अनुपम इच्छा का।।१८।।
गुरुवर ने उनकी उत्कट इच्छा, देखी पुन: विचार किया।
जयपुर से माधोराजपुरा, नगरी के लिए विहार किया।।
वहाँ पर वैशाख वदी दुतिया का, शुभ मुहूर्त घोषित कीना।
तब निज सौभाग्य सराह रही थी, नगरी की भाक्तिक जनता।।१९।।
था वीरमती को इंतजार, जिस घड़ी-दिवस का वर्षों से।
आखिर वह शुभ दिन भी आया, बहुतेक कष्ट-संघर्षों से।।
आचार्य वीरसागर जी ने, इनको आर्यिका बनाया था।
निज ज्ञान गुणों के द्वारा इनने, नाम ‘ज्ञानमति’ पाया था।।२०।।
गुरुवर की एकमात्र शिक्षा, निज नाम का ध्यान सदा रखना।
उस शिक्षा को अपने जीवन में, आत्मसात् तुमने कीना।।
निज ज्ञान के बल पर दो सौ ग्रंथों, की रचना तुमने कीनी।
जिनमें हैं कई विधान तथा, कई संस्कृत की टीकाएँ भी।।२१।।
है अष्टसहस्री ग्रंथ जिसे, सब कष्टसहस्री कहते थे।
हिन्दी अनुवाद किया उसका, तब विद्वत्जन अति विस्मित थे।।
बच्चों को होवे धर्मज्ञान, इस हेतू ‘बालविकास’ लिखे।
युवकों में धर्मरुची हेतू, तुमने अनेक उपन्यास लिखे।।२२।।
नारी आलोक लिखा जिससे, नारी को मिली प्रेरणा है।
विद्वानों के स्वाध्याय हेतु, सिद्धान्तग्रंथ की रचना है।।
ऐसा लगता है वर्षों बाद, समाज भ्रमित हो जाएगी।
सबकी लेखिका एक ही हैं, शायद यह समझ न पाएगी।।२३।।
साहित्य सृजन के साथ अनेकों, शिष्यों का भी किया सृजन।
उनको गृहबंधन से निकालकर, शिक्षाएँ भी दीं अनुपम।।
फिर प्रबल प्रेरणा देकर मुनि-आचार्य की पदवी दिलवाई।
जिनदीक्षा ही सर्वोत्तम है, यह बात सभी को समझाई।।२४।।
चेतन तीर्थों के साथ अचेतन, तीर्थों का निर्माण किया।
तीर्थंकर जन्मभूमि से तीर्थोद्धार का क्रम प्रारंभ किया।।
सबसे पहले श्री शान्ति-कुंथु-अर, जन्मभूमि हस्तिनापुरी।
कई सुन्दर मंदिर बनने से, यह नगरी लगती स्वर्गपुरी।।२५।।
है सुन्दर जम्बूद्वीप बना, उस मध्य सुमेरूपर्वत है।
हैं देवभवन-चैत्यालय, लवण-समुद्र भी अतिशय मनहर है।।
इक सुन्दर भव्य कमलमंदिर में, महावीर प्रभु राजित हैं।
ईशानकोण में बने ध्यान-मंदिर में ह्रीं विराजित हैं।।२६।।
है तीनमूर्ति मंदिर व ॐ मंदिर अरु वासुपूज्य मंदिर।
है शान्तिनाथ मंदिर व बीस तीर्थंकर का सुन्दर मंदिर।।
इक सहस्रकूट मंदिर में एक हजार आठ प्रतिमाएँ हैं।
श्री ऋषभदेव मंदिर अरु कीर्ति-स्तंभ को शीश नमाएं हम।।२७।।
अष्टापद मंदिर, तेरहद्वीप-जिनालय अतिशय सुखकारी।
सुन्दर-सुन्दर झांकियाँ यहाँ के, इतिहासों को दोहरातीं।।
है णमोकार का बैंक यहाँ, अरु झूले, रेल मनोरंजक।
ऐरावत हाथी आदि सभी हैं, तीर्थक्षेत्र के आकर्षण।।२८।।
इस सुन्दर तीरथ के पीछे, संप्रेरणा प्राप्त हुई जिनकी।
अरु आशिर्वाद मिला जिनका, वो हैं गणिनी माँ ज्ञानमती।।
सन् उन्निस सौ बानवे में इक दिन, ध्यानमग्न माताजी ने।
साकेतपुरी के ऋषभदेव, प्रभु की प्रतिमा के दर्श किए।।२९।।
प्रेरणा मिली इन ऋषभदेव का, महामस्तकाभिषेक हो।
तब नगरि अयोध्या ‘ऋषभ जन्म-भूमी के नाम से प्रसिद्ध हो।।
फिर तो माँ ज्ञानमती जी चल दीं, शाश्वत तीर्थ अयोध्या को।
समझाया सबने लेकिन कोई, रोक नहीं पाया उनको।।३०।।
वहाँ जाकर इक्तिस फुट उत्तुंग, प्रतिमा के दर्श किए माँ ने।
फिर तो विकास जो शुरू हुआ, लखकर आश्चर्यचकित सब थे।।
हुआ महामस्तकाभिषेक प्रभु का, लाखों भक्त उपस्थित थे।
इस प्रथम सुनहरे अवसर को, पा करके सब जन प्रमुदित थे।।३१।।
दो मंदिर नवनिर्माण हुए, जिनमें इक समवसरण मंदिर।
अरु दूजा तीन चौबीसी मंदिर, सुन्दर कमलों से शोभित।।
जहाँ काल अनन्तों से जन्में, चौबिस-चौबिस तीर्थंकर हैं।
अरु आगे भी जन्मेंगे इस, हेतू यह मंदिर निर्मित है।।३२।।
कुछ कालदोष से इस युग में, बस पाँच जिनेश्वर ही जन्मे।
अरु अन्य उनीस जिनवरों ने, पन्द्रह नगरी को धन्य किये।।
दो मंदिर निर्मित हुए तथा, टोंकों के जीर्णोद्धार हुए।
इस तीरथ की सुन्दरता हेतू, कई अन्य भी कार्य हुए।।३३।।
वहाँ का उद्यान जो राजकीय, वह ऋषभदेव से धन्य हुआ।
वहाँ ऋषभदेव पद्मासन प्रतिमा, का निर्माण तुरन्त हुआ।।
है फैजाबाद में अवध विश्वविद्यालय जिसका नाम बहुत।
वहाँ के कुलपति भी माताजी का, ज्ञान देख करके हर्षित।।३४।।
डी.लिट्. की पदवी देकर उनने, निज गौरव में वृद्धी की।
इस अवध प्रान्त की मणि से गौरव-शाली विश्वविद्यालय भी।।
वहाँ ऋषभदेव की शोधपीठ का, शिलान्यास भी उस दिन था।
यह शोधपीठ भी माताजी की, प्रबल प्रेरणा का फल था।।३५।।
कई निधियाँ देकर तीरथ को, माताजी ने कर दिया विहार।
फिर संघ सहित हस्तिनापुरी में, किया उन्होंने चातुर्मास।।
हुआ चातुर्मास समापन ज्यों ही, पुन: एक घोषणा हुई।
अब ज्ञानमती माताजी मांगीतुंगी तीरथ को चल दीं।।३६।।
सब समझ गए यह सिद्धक्षेत्र, अब विश्व क्षितिज पर पहुँचेगा।
क्योंकी सबने हस्तिनापुरी, अरु तीर्थ अयोध्या देखा था।।
मांगीतुंगी तीरथ पर जब से, चरण पड़े माताजी के।
तब से वहँ पर अनेक अतिशय अरु, चमत्कार थे प्रगट हुए।।३७।।
वहाँ वर्षों से अवरुद्ध प्रतिष्ठा, माताजी ने करवाई।
सबने इक स्वर से यही कहा, लगता है दिव्यशक्ति आई।।
इक सहस्र आठ प्रतिमाओं से युत, मंदिर का निर्माण हुआ।
जो ‘सहस्रकूट कमलमंदिर’ के, नाम से जग में ख्यात हुआ।।३८।।
इन सबसे ज्यादा अतिशायी, प्रेरणा वहाँ जो दी तुमने।
वह है इक सौ अठ फुट प्रतिमा, प्रभु ऋषभदेव की वहाँ बने।।
तुंगी पर्वत पर पूर्वमुखी, प्रतिमा की बात को सुनते ही।
सम्पूर्ण देश के भक्तों ने, अर्थांजलि अपनी प्रस्तुत की।।३९।।
उस प्रतिमा का निर्माणकार्य, वहाँ जोर-शोर से चालू है।
सबकी इच्छा है प्रतिमा लखकर, जीवन सफल बना लूँ मैं।।
इस सिद्धक्षेत्र को सजा-संवारकर, माताजी वहाँ से चल दीं।
तब लम्बी पदयात्रा करके, वे दिल्ली नगरी में पहुँचीं।।४०।।
हुए छब्बिस कल्पद्रुम विधान, फिर समवसरण का श्रीविहार।
कुलपतियों का सम्मेलन अरु भी, कई हुए अतिशायी कार्य।।
अब इनकी दृष्टि गई जहँ पर, प्रभु ऋषभदेव ने दीक्षा ली।
अरु केवलज्ञान हुआ जहँ पर, वह है प्रयाग की शुभ धरती।।४१।।
अब माताजी निज संघ सहित, तीरथ प्रयाग की ओर चलीं।
इस मध्य हुई जिन धर्मप्रभावना, गाँव, शहर, अरु नगर-गली।।
वहाँ पर विशाल केलाशगिरी, जो अतिशय मनहर लगता है।
सबसे ऊपर वृषभेश्वर की, प्रतिमा से सुन्दर दिखता है।।४२।।
इस पर्वत पर निर्मित बाहत्तर, चैत्यालय मन को मोहें।
ऊपर चढ़कर सचमुच की पर्वत-यात्रा का अनुभव होवे।।
इस पर्वत के आजू-बाजू में, दो जिनमंदिर निर्मित हैं।
जिनमें इक दीक्षा मंदिर है, अरु दूजा समवसरण का है।।४३।।
श्री ऋषभदेव का कीर्तिस्तंभ भी, इस तीरथ पर निर्मित है।
अरु झूले, झरने, रेल आदि भी, तीरथ के आकर्षण हैं।।
आया शुभ समय वीरप्रभु के, छब्बिस सौवें जन्मोत्सव का।
दिल्ली में प्रधानमंत्री ने, उद्घाटन किया महोत्सव का।।४४।।
तीरथ प्रयाग में माताजी ने, उत्सव खूब था करवाया।
नवरचित विश्वशांती विधान भी, भक्तों द्वारा करवाया।।
सामूहिक स्वर आया दिल्ली से, माताजी दिल्ली आवें।
छब्बिस सौवें जन्मोत्सव के, सुन्दर आयोजन करवावें।।४५।।
सबका आग्रह स्वीकार किया, माताजी चलीं राजधानी।
वहाँ छब्बिस मण्डल एक साथ, करवाए सबको हुई खुशी।।
कई अन्य कार्य भी हुए तभी, माताजी ने चिन्तन कीना।
इस जन्मोत्सव पर वीर जन्म-भूमी को है विकसित करना।।४६।।
हुआ दिल्ली के इण्डियागेट से, बीस फरवरी को विहार।
तब भारी जनसमूह ने की थी, कुण्डलपुर की जयजयकार।।
तीरथ प्रयाग में चातुर्मास, किया फिर कुण्डलपुर पहुँचीं।
जिस दिन था मंगलमय प्रवेश, वह पौष कृष्ण दशमी तिथि थी।।४७।।
वहाँ बाइस महिनों के भीतर, जो अद्भुत नवनिर्माण हुआ।
सब जन आश्चर्यचकित थे आखिर, यह सब कैसे काम हुआ!
क्या स्वर्गलोक से देवों ने, आकर ये रचनाएँ की हैं?
या भूमी के अन्दर से ये, अनुपम रचनाएँ निकली हैं?।।४८।।
वहाँ के प्राचीन जिनालय के, परिसर में कीर्तिस्तंभ बना।
अरू नूतन भूमी पर मंदिर, अरु नंद्यावर्त महल रचना।।
इक विश्वशांति महावीर जिनालय, इक सौ अठ फुट उन्नत है।
इसमें प्रभु वीर की खड्गासन-प्रतिमा बेदाग मनोहर हैं।।४९।।
प्रभु ऋषभदेव का मंदिर है, अरु नवग्रहशांती जिनमंदिर।
है तीन मंजिला यहँ त्रिकाल-चौबीसी का सुन्दर मंदिर।।
इक सात खण्ड का महल प्रमुख, आकर्षण है इस तीरथ का।
इस नंद्यावर्त महल में चैत्यालय है शान्तिनाथ प्रभु का।।५०।।
इन सब तीर्थों की प्रबल प्रेरिका, ज्ञानमती माँ को वन्दन।
उनके तप-त्याग-ज्ञान-चारित-चिन्तन, दृढ़ता को सदा नमन।।
इनका पावन सन्निध यह वसुधा, बहुत समय तक प्राप्त करे।
बस यही ‘‘सारिका’’ वीर प्रभू से, विनती दिन अरु रात करे।।५१।।