राष्ट्रगौरव परम पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि
श्री ज्ञानमती माताजी का परिचय
कुन्दकुन्दान्वयो जीयात्, जीयात् श्री शांतिसागर:।
जीयात् पट्टाधिपस्तस्य, सूरि: श्री वीरसागर:।।
श्री ब्राह्मी गणिनी जीयात्, जीयादन्तिमचन्दना।
जीयात् ज्ञानमती माता, गणिन्यां प्रमुखा कलौ।।
जैनशासन के वर्तमान व्योम पर छिटके नक्षत्रों में दैदीप्यमान सूर्य की भाँति अपनी प्रकाश-रश्मियों को प्रकीर्णित कर रहीं पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर उठी लेखनी की अपूर्णता यद्यपि अवश्यंभावी है, तथापि आत्मकल्याण की भावना से पूज्य माताजी के श्रीचरणों में उनके दीर्घकालीन त्यागमयी जीवन के प्रति विनम्र विनयांजलिरूप मेरा यह विनीत प्रयास है।
१. जन्म, वैराग्य और दीक्षा-२२ अक्टूबर सन् १९३४, शरदपूर्णिमा के दिन टिवैâतनगर ग्राम (जि. बाराबंकी, उ.प्र.) के श्रेष्ठी श्री छोटेलाल जैन की धर्मपत्नी श्रीमती मोहिनी देवी के दांपत्य जीवन के प्रथम पुष्प के रूप में ‘‘मैना’’ का जन्म परिवार में नवीन खुशियाँ लेकर आया था। माँ को दहेज में प्राप्त ‘पद्मनंदिपंचविंशतिका’ ग्रन्थ के नियमित स्वाध्याय एवं पूर्वजन्म से प्राप्त दृढ़ वैराग्य संस्कारों के बल पर मात्र १८ वर्ष की अल्प आयु में ही शरद पूर्णिमा के दिन मैना ने आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज से सन् १९५२ में आजन्म ब्रह्मचर्यव्रतरूप सप्तम प्रतिमा एवं गृहत्याग के नियमों को धारण कर लिया। उसी दिन से इस कन्या के जीवन में २४ घंटे में एक बार भोजन करने के नियम का भी प्रारंभीकरण हो गया।
नारी जीवन की चरमोत्कर्ष अवस्था आर्यिका दीक्षा की कामना को अपनी हर साँस में संजोये ब्र. मैना सन् १९५३ में आचार्य श्री देशभूषण जी से ही चैत्र कृष्णा एकम् को श्री महावीरजी अतिशय क्षेत्र में ‘क्षुल्लिका वीरमती’ के रूप में दीक्षित हो गईं। सन् १९५५ में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की समाधि के समय कुंथलगिरी पर एक माह तक प्राप्त उनके सान्निध्य एवं आज्ञा द्वारा ‘क्षुल्लिका वीरमतीr’ ने आचार्य श्री के प्रथम पट्टाचार्य शिष्य-वीरसागर जी महाराज से सन् १९५६ में ‘वैशाख कृष्णा दूज’ को माधोराजपुरा (जयपुर-राज.) में आर्यिका दीक्षा धारण करके ‘‘आर्यिका ज्ञानमती’’ नाम प्राप्त किया।
२. अध्ययन और अध्यापन-ज्ञानप्राप्ति की पिपासा माता ज्ञानमती जी के रोम-रोम में प्रारंभ से ही कूट-कूट कर भरी थी। दीक्षा लेते ही स्वाध्याय-मनन-चिंतन की धारा में ही उन्होंने स्वयं को निबद्ध कर लिया। ज्ञान प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ स्रोत बना-संघस्थ मुनियों, आर्यिकाओं एवं संघस्थ शिष्य-शिष्याओं को जैनागम का तलस्पर्शी अध्यापन। ‘कातंत्र रूपमाला’ रूपी बीज से पूज्य माताजी की ज्ञानसाधना रूप वृक्ष प्रस्फुटित हुआ, जिस पर जो पत्ते, फूल-फल इत्यादि लगे, उन्होंने समस्त संसार को सुवासित कर दिया। गोम्मटसार, परीक्षामुख, न्यायदीपिका, प्रमेयकमलमार्तण्ड, अष्टसहस्री, तत्त्वार्थराजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, अनगारधर्मामृत, मूलाचार, त्रिलोकसार आदि अनेक ग्रंथों को अपनी शिष्याओं और संघस्थ साधुओं को पढ़ा-पढ़ाकर आपने अल्प समय में ही विस्तृत ज्ञानार्जन कर लिया। हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, कन्नड़, मराठी इत्यादि भाषाओं पर आपका पूर्ण अधिकार हो गया।
३. लेखनी का प्रारंभीकरण संस्कृत भाषा से-भगवान महावीर के पश्चात् २६०० वर्ष के जिस इतिहास में जैन साध्वियों के द्वारा शास्त्र लेखन की कोई मिसाल दृष्टिगोचर नहीं होती थी, वह इतिहास जागृत हो उठा जब क्षुल्लिका वीरमती जी ने सन् १९५४ में सहस्रनाम के १००८ मंत्रों से अपनी लेखनी का प्रारंभ किया। यही मंत्र सरस्वती माता का वरदहस्त बनकर पूज्य माताजी की लेखनी को ऊँचाइयों की सीमा तक ले गये। सन् १९६९-७० में न्याय के सर्वोच्च ग्रंथ ‘अष्टसहस्री’ के हिन्दी अनुवाद ने उनकी अद्वितीय विद्वत्ता को संसार के सामने उजागर कर दिया। कितने ही ग्रंथों की संंस्कृत टीका, कितनी ही टीकाओं के हिंदी अनुवाद, संस्कृत एवं हिन्दी में अनेक मौलिक ग्रंथों की रचना मिलकर आज लगभग २५० से भी अधिक संख्या हो चुकी है। पूज्य माताजी द्वारा लिखित समयसार, नियमसार इत्यादि की हिन्दी-संस्कृत टीकाएँ, जैनभारती, ज्ञानामृत, कातंत्र व्याकरण, त्रिलोक भास्कर, प्रवचन निर्देशिका इत्यादि स्वाध्याय ग्रंथ, प्रतिज्ञा, संस्कार, भक्ति, आदिब्रह्मा, आटे का मुर्गा, जीवनदान इत्यादि जैन उपन्यास, द्रव्यसंग्रह-रत्नकरण्डश्रावकाचार इत्यादि के हिन्दी पद्यानुवाद व अर्थ, बाल विकास, बालभारती, नारी आलोक आदि का अध्ययन किसी को भी वर्तमान में उपलब्ध जैन वाङ्गमय की विविध विधाओं का विस्तृत ज्ञान कराने में सक्षम है।
अध्यात्म, व्याकरण, न्याय, सिद्धांत, बाल साहित्य, उपन्यास, चारों अनुयोगोंरूप विविध विधाओं के अतिरिक्त पूज्य माताजी की लेखनी से विपुल भक्ति साहित्य उद्भूत हुआ है। इन्द्रध्वज, कल्पदु्रम, सर्वतोभद्र, तीन लोक, सिद्धचक्र, विश्वशांति महावीर विधान इत्यादि अनेका
नेक भक्ति विधानों ने देश के कोने-कोने में जिनेन्द्र भक्ति की जो धारा प्रवाहित की है, वह अतुलनीय है। पूज्य माताजी का चिंतन एवं लेखन पूर्णतया जैन आगम से संबद्ध है, यह उनकी महान विशेषता है।
धन्य हैं ऐसी महान प्रतिभावान् सरस्वती माता!
४. सिद्धांत चक्रेश्वरी–पूज्य माताजी ने जैनशासन के सर्वप्रथम सिद्धांत ग्रंथ ‘षट्खण्डागम’ की सोलहों पुस्तकों के सूत्रों की संस्कृत टीका ‘सिद्धांत चिंतामणि’ का लेखन करके महान कीर्तिमान स्थापित किया है। क्रम-क्रम से हिन्दी टीका सहित इन पुस्तकों के प्रकाशन का कार्य चल रहा है। आज से लगभग १००० वर्ष पूर्व आचार्य श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती ने जिस प्रकार छह खण्डरूप द्वादशांगरूप जिनवाणी को परिपूर्ण आत्मसात करके साररूप में द्रव्य संग्रह, गोम्मटसार, लब्धिसार इत्यादि ग्रंथ अपनी लेखनी से प्रसवित किये थे, उसी प्रकार इस बीसवीं सदी की माता ज्ञानमती जी ने समस्त उपलब्ध जैनागम का गहन अध्ययन-मनन-चिंतन करके इस सिद्धांतचिंतामणिरूप संस्कृत टीका लेखन के महत्तम कार्य से ‘सिद्धांत चक्रेश्वरी’ के पद को साकार कर दिया है। आचार्य श्री वीरसेन स्वामी द्वारा १००० वर्ष पूर्व लिखित ‘धवलाटीका’ के पश्चात् इस महान ग्र्रंथ की सरल टीका लेखन का कार्य प्रथम बार हुआ है।
५. शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर-जैन सिद्धांतों का मर्म विद्वत् वर्ग समझ सके, इस भावना से कितने ही शिक्षण-प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन पूज्य माताजी की प्रेरणास्वरूप किया गया। सन् १९६९ में जयपुर चातुर्मास के मध्य ‘जैन ज्योतिर्लोेक’ पर प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया गया, जिसमें पूज्य माताजी द्वारा ‘जैन भूगोल एवं खगोल’ का विशेष ज्ञान विद्वत्वर्ग को कराया गया। अक्टूबर सन् १९७८ में हस्तिनापुर में पं. मक्खनलाल जी शास्त्री, पं. मोतीचंद जी कोठारी, डा. लाल बहादुर शास्त्री सहित जैन समाज के उच्चकोटि के लगभग १०० विद्वानों का विद्वत् प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया गया, जिसमें पूज्य माताजी ने विद्वत्समुदाय को यथेष्ट मार्गदर्शन प्रदान किया। समय-समय पर आज तक यह श्रृंखला चल रही है।
६. राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार-सन् १९८५ में ‘जैन गणित एवं त्रिलोक विज्ञान’ पर अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में सम्पन्न हुआ, पुन: अनेक संगोष्ठियाँ सम्पन्न होती रहीं और सन् १९९८ में ‘भगवान ऋषभदेव राष्ट्रीय कुलपति सम्मेलन’ के भव्य आयोजन द्वारा देशभर के विश्वविद्यालयों से पधारे कुलपतियों को भगवान ऋषभदेव को भारतीय संस्कृति एवं जैनधर्म के वर्तमानयुगीन प्रणेता पुरुष के रूप में जानने का अवसर प्राप्त हुआ। ११ जून २००० को ‘जैनधर्म की प्राचीनता’ विषय पर आयोजित इतिहासकारों के सम्मेलन द्वारा पाठ्य पुस्तकों में जैनधर्म संबंधी भ्रांतियों के सुधार के लिए विशेष दिशा-निर्देश ‘राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद’ (र्ण्ERऊ) तक पहुँचाये गये। इनके अतिरिक्त अनेक अन्य सेमिनार भी समय-समय पर सम्पन्न हुए हैं, जिनके प्रतिफल में देश के समक्ष समय-समय पर साहित्यिक कृतियाँ (झ्rदमा्ग्हुे) प्रस्तुत हो चुकी हैं।
७. दिगम्बर समाज की साध्वी को प्रथम बार डी.लिट्. की उपाधि प्रदान कर विश्वविद्यालय भी गौरवान्वित हुआ-किसी महाविद्यालय, विश्वविद्यालय आदि में पारम्परिक डिग्रियों को प्राप्त किये बिना मात्र स्वयं के धार्मिक अध्ययन के बल पर विदुषी माताजी ने अध्ययन, अध्यापन, साहित्य निर्माण की जिन ऊँचाइयों को स्पर्श किया, उस अगाध विद्वत्ता के सम्मान हेतु डॉ. राम मनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, पैâजाबाद द्वारा ५ फरवरी १९९५ को डी.लिट्. की मानद् उपाधि से पूज्य माताजी को सम्मानित करके स्वयं को गौरवान्वित अनुभव किया गया तथा दिगम्बर जैन साधु-साध्वी परम्परा में पूज्य माताजी यह उपाधि प्राप्त करने वाली प्रथम व्यक्तित्व बन गईं। पुन: इसके उपरांत ८ अप्रैल २०१२ को पूज्य माताजी के ५७वें आर्यिका दीक्षा दिवस के अवसर पर तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय, मुरादाबाद में विश्वविद्यालय का प्रथम विशेष दीक्षांत समारोह आयोजित करके विश्वविद्यालय द्वारा पूज्य माताजी के करकमलों डी.लिट्. की मानद उपाधि प्रदान की गई।
इसी प्रकार से समय-समय पर विभिन्न आचार्यों एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा पूज्य माताजी को न्याय प्रभाकर, आर्यिकारत्न, आर्यिकाशिरोमणि, गणिनीप्रमुख, वात्सल्यमूर्ति, तीर्थोद्धारिका, युगप्रवर्तिका, चारित्रचन्द्रिका, राष्ट्रगौरव, वाग्देवी इत्यादि अनेक उपाधियों से अलंकृत किया गया है, किन्तु पूज्य माताजी इन सभी उपाधियों से निस्पृह होकर अपनी आत्मसाधना को प्रमुखता देते हुए निर्दोष आर्यिका चर्या में निमग्न रहने का ही अपना मुख्य लक्ष्य रखती हैं।
८. पूज्य माताजी की प्रेरणा से त्याग में बढ़े कदम-त्यागमार्ग में अग्रसर सम्यग्दृष्टी जीव की यह विशेषता रहती है कि वह संसार परिभ्रमण से आक्रान्त अन्य भव्यजीवों को भी मोक्षमार्ग का पथिक बनाने हेतु विशेषरूप से प्रयासरत रहता है। इसी भावना की परिपुष्टी करते हुए पूज्य माताजी ने अनेकानेक शिष्य-शिष्याओं का सृजन किया।
संघस्थ साधुओं-मुनिजनों एवं आर्यिकाओं को अध्ययन कराते हुए सन् १९५६-५७ में ब्र. राजमल जी को राजवार्तिक आदि अनेक ग्रंथों का अध्ययन कराकर पूज्य माताजी ने उन्हें मुनिदीक्षा लेने की प्रेरणा प्रदान की। पुनश्च ब्र. राजमल जी कालांतर में आचार्य अजितसागर जी महाराज के रूप में चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज की परम्परा में चतुर्थ पट्टाचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
सन् १९६७ में सनावद चातुर्मास के मध्य पूज्य माताजी ने ब्र. मोतीचंद एवं युवक यशवंंत कुमार को घर से निकाला, उन्हें खूब विद्याध्ययन कराया तथा यशवंत कुमार को मुनिदीक्षा दिलवायी, जो वर्तमान में आचार्यश्री वध&मानसागर के नाम से प्रसिद्धि को प्राप्त हैं। ब्र. मोतीचंद जी भी क्षुल्लक मोतीसागर बनकर जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर के प्रथम पीठाधीश के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
वत&मान पट्टाचाय&श्री अभिनंदनसागर जी महाराज ने भी पूज्य माताजी से राजवाति&क, गोम्मटसार आदि ग्रंथों का अध्ययन किया था। मुनि श्री भव्यसागर जी महाराज, मुनि श्री संभवसागर जी महाराज इत्यादि ने भी पूज्य माताजी से विद्याध्ययन किया तथा उनकी प्रेरणा से ही मुनि दीक्षा प्राप्त की। वत&मान में पूज्य माताजी के अनन्य शिष्य स्वस्तिश्री कम&योगी पीठाधीश रवीन्द्रकीति& स्वामी जी अत्यंत कम&ठ व्यक्तित्व के रूप में समस्त समाज में प्रसिद्धि को प्राप्त हैं।
आयि&का माताओं की शृँखला में आयि&का श्री पद्मावती माताजी, आयि&का श्री जिनमती माताजी, आयि&का श्री आदिमती माताजी, आयि&का श्री श्रेष्ठमती माताजी, आयि&का श्री अभयमती माताजी, आयि&का श्री श्रुतमती माताजी, मैं स्वयं (आयि&का चन्दनामती) तथा आयि&का श्री सम्मेदशिखरमती माताजी, आयि&का श्री वैâलाशमती माताजी आदि अन्य कई माताजी पूज्य माताजी से प्राप्त वैराग्यमयी संस्कारों एवं अध्यापन का ही प्रतिफल हैं। पूज्य माताजी से सवां&गीण ग्रंथों का अध्ययन करके पूज्य जिनमती माताजी ने प्रमेयकमलमात&ण्ड, पूज्य आदिमती माताजी ने गोम्मटसार कम&काण्ड का हिन्दी अनुवाद किया है। मुझे भी षट्खण्डागम एवं अन्य महान ग्रंथों की हिन्दी टीका, महावीर स्तोत्र की संस्कृत टीका एवं कतिपय संस्कृत रचनाएँ लिखने का सुअवसर पूज्य माताजी की अनुकम्पा से प्राप्त हुआ है।
६२ वषों& की सुदीघ& अवधि में कितने ही भव्य जीवों ने पूज्य माताजी से आजन्म ब्रह्मचय& व्रत, पंच अणुव्रत, शक्ति अनुसार प्रतिमाएँ इत्यादि ग्रहण करके संयम के माग& को आत्मसात किया है। वत&मान में पूज्य माताजी के साक्षात् सानिध्य में रहकर अनेक ब्रह्मचारिणी बहनें त्यागमाग& में संलग्न हैं।
९. तीथ& विकास की भावना-तीथं&कर भगवन्तों की कल्याणक भूमियों एवं विशेष रूप से जन्मभूमियों के विकास की ओर पूज्य माताजी की विशेष आंतरिक रुचि सदा से रही है। पूज्य माताजी का कहना है कि हमारी संस्कृति का परिचय प्रदान करने वाली ये कल्याणक भूमियाँ हमारी संस्कृति की महान धरोहर हैं अत: इनका संरक्षण-संवध&न-विकास अत्यंत आवश्यक है।
सव&प्रथम भगवान शांतिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ की जन्मभूमि ‘हस्तिनापुर’ में पूज्य माताजी की प्रेरणा से निमि&त जैन भूगोल की अद्वितीय रचना ‘जम्बूद्वीप’ आज विश्व के मानस पटल पर अंकित हो गयी है, उ.प्र. सरकार के पय&टन विभाग ने जम्बूद्वीप से हस्तिनापुर की पहचान बताते हुए उसे एक अतुलनीय ‘मानव निमि&त स्वग&’ (A श्aह श्a प्ी&नह दf ळहज्araत्तत् एल्ज्ीत्aूग्ने Aह् र्aूल्raत् ेंदह्ीे) की संज्ञा प्रदा
न की है। सन् १९९३ से १९९५ तक शाश्वत जन्मभूमि ‘अयोध्या’ में ‘समवसरण मंदिर’ और ‘त्रिकाल चौबीसी मंदिर’ का निमा&ण करवाकर उसका विश्वव्यापी प्रचार, अकलूज (महाराष्ट्र) में नवदेवता मंदिर निमा&ण की प्रेरणा, सनावद (म.प्र.) में णमोकार धाम, प्रीत विहार-दिल्ली में कमलमंदिर, मांगीतुंगी (महाराष्ट्र) में सहस्रकूट कमल मंदिर, अहिच्छत्र में ग्यारह शिखर वाला तीस चौबीसी मंदिर और भगवान ऋषभदेव की दीक्षा एवं केवलज्ञान कल्याणक भूमि-प्रयाग (इलाहाबाद) में ‘तीथं&कर ऋषभदेव तपस्थली तीथ&’ का भव्य निमा&ण पूज्य माताजी की ही प्रेरणा के प्रतिफल हैं।
कितने ही अन्य स्थानों पर भी जैसे-खेरवाड़ा में वैâलाशपव&त निमा&ण की प्रेरणा, पिड़ावा में समवसरण रचना की प्रेरणा, सोलापुर (महा.) में भगवान ऋषभदेव की विशाल प्रतिमा की स्थापना, श्री महावीर जी के शांतिवीर नगर में मंदारवृक्ष की स्थापना, अतिशयक्षेत्र श्री त्रिलोकपुर में पारिजातवृक्ष की स्थापना, केकड़ी (राज.) में सम्मेदशिखर की रचना आदि अनेकानेक निमा&ण पूज्य माताजी के निदे&शन द्वारा सम्पन्न हुए और हो रहे हैं। भगवान महावीर स्वामी की जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा-बिहार) के विकास हेतु भगवान महावीर स्वामी कीति&स्तंभ, भगवान महावीर की विशाल खड्गासन प्रतिमा सहित विश्वशांति महावीर मंदिर, नवग्रह शांति जिनमंदिर, त्रिकाल चौबीसी मंदिर एवं नंद्यावत& महल आदि अनेक निमा&ण आपकी प्रेरणा से इस क्षेत्र पर हुए हैं तथा कुण्डलपुर तीथ& विश्वभर के लिए आकष&ण का केन्द्र बन गया है।
भगवान मुनिसुव्रतनाथ की जन्मभूमि ‘राजगृही’ में ‘मुनिसुव्रतनाथ जिनमंदिर’ एवं विपुलाचल पव&त की तलहटी में मानस्तंभ रचना, भगवान महावीर की निवा&णस्थली पावापुरी में जलमंदिर के समक्ष पाण्डुकशिला परिसर में भगवान की खड्गासन प्रतिमा सहित ‘भगवान महावीर जिनमंदिर’, गौतम गणधर स्वामी की निवा&णस्थली गुणावां जी में गौतम स्वामी की खड्गासन प्रतिमा सहित जिनमंदिर, श्री सम्मेदशिखर जी में भगवान ऋषभदेव मंदिर इत्यादि समस्त निमा&ण भी पूज्य माताजी की संप्रेरणा से ही सम्पन्न हुए हैं।
तीथं&कर जन्मभूमि विकास की शृँखला में भगवान पुष्पदंतनाथ की जन्मभूमि काकंदी में ‘श्री पुष्पदंतनाथ जिनमंदिर’ का निमा&णकाय& होकर उसमें भगवान पुष्पदंतनाथ की विशाल सवा ९ फुट उत्तुंग पद्मासन प्रतिमा पंचकल्याणक प्रतिष्ठापूव&क विराजमान हो चुकी हैं।
तीथं&करों की शाश्वत जन्मभूमि अयोध्या में वत&मानकालीन वहाँ जन्में पाँच तीर्थंकरों की जन्मभूमि की टोकों पर जिनमंदिर निर्माण की प्रेरणा प्रदान कर आपने संस्कृति को जीवन्त करने का अभूतपूर्व प्रयास किया है। उस शृँखला में प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की टोंक पर सन् २०११ में सुन्दर कलात्मक मंदिर बनकर उसमें सवा चार फुट पद्मासन श्वेत प्रतिमा विराजमान हुई हैं तथा सरयू नदी के तट पर जून २०१३ में भगवान अनन्तनाथ के मंदिर का निर्माण होकर वेदी में भगवान की १० फुट उत्तुंग पद्मासन प्रतिमा विराजमान की गई है। इसी प्रकार जून २०१४ में भगवान अजितनाथ की टोंक पर विशाल जिनमंदिर का निर्माण तथा दिसम्बर २०१४ में भगवान अभिनंदननाथ की टोंक पर विशाल जिनमंदिर का निर्माण करके वेदी में ५-५ फुट की सुन्दर पद्मासन प्रतिमाएं विराजमान की गई है और भव्य पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएं सम्पन्न हुई हैं।
अब सुमतिनाथ भगवान की टोंक पर मंदिर निर्माण किया जा रहा है।
उल्लेखनीय है कि पूज्य माताजी के आर्यिका दीक्षास्थल-माधोराजपुरा (राज.) में भी ‘गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती दीक्षा तीर्थ’ के विकास का कार्य सम्पन्न किया जा चुका है। यहाँ सुन्दर कृत्रिम सम्मेदशिखर पर्वत का निर्माण करके १५ फुट उत्तुंग काले पाषाण वाली भगवान पार्श्वनाथ की खड्गासन प्रतिमा एवं चौबीसी विराजमान की गई हैं। इस तीर्थ की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा २१ नवम्बर से २६ नवम्बर २०१० तक पीठाधीश क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी महाराज के सान्निध्य में एवं कर्मयोगी ब्र.रवीन्द्र कुमार जैन (वर्तमान पीठाधीश रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी) के निर्देशन में विशेष महोत्सवपूर्वक सम्पन हुई है।
इसी शृँखला में अतिशय क्षेत्र श्री महावीर जी (राज.) में पूज्य माताजी की प्रेरणा एवं आशीर्वाद से महावीर धाम परिसर में पंचबालयति दिगम्बर जैन मंदिर का भव्य निर्माण कार्य सम्पन्न हुआ है। यहाँ पर पाँचों बालयति भगवान की प्रतिमाएँ विराजमान करके पृथक् वेदियों में पद्मावती, क्षेत्रपाल की प्रतिमाएँ भी विराजमान की गई हैं। संस्थान द्वारा उक्त जिनमंदिर का पंचकल्याणक दिनाँक २९ जनवरी से २ फरवरी २०१२ तक सानंद सम्पन्न किया गया।
विशेष : तेरहद्वीप रचना, तीर्थंकरत्रय प्रतिमा एवं तीनलोक रचना-
जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर तीर्थ के विकास की अद्वितीयता को अमरता प्रदान करने वाली इन रचनाओं का निर्माण पूज्य माताजी की प्रेरणा से इतिहास में प्रथम बार हुआ। अप्रैल सन् २००७ में स्वर्णिम तेरहद्वीप रचना की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई। विश्व में प्रथम बार निर्मित इस रचना में विराजमान २१२७ जिनप्रतिमाओं के दर्शन करके लोग इच्छित फल की प्राप्ति करते हैं। इसके अतिरिक्त हस्तिनापुर में जन्मे भगवान शांतिनाथ-कुंथुनाथ-अरहनाथ की ३१-३१ फुट उत्तुंग खड्गासन प्रतिमाओं एवं ५६ फुट उत्तुंग निर्मित तीनलोक रचना की जिनप्रतिमाओं की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा फरवरी सन् २०१० में हुई जो हस्तिनापुर के अतिशय में चार चाँद लगा रही हैं।
१०. विश्व में अनोखी १०८ फुट मूर्ति निर्माण की प्रेरणा-विश्व के अप्रतिम आश्चर्य के रूप में १०८ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव की खड्गासन प्रतिमा के निर्माण का कार्य मांगीतुंगी (महा.) के पर्वत पर पूज्य माताजी की प्रेरणा से द्रुतगति से चल रहा है। युगों-युगों तक जिनशासन की महिमा को विकसित करने वाली यह प्रतिमा जैन संस्कृति के विशाल व्यक्तित्व का परिचय भी जनमानस को प्रदान करेगी।
११. शिरडी (महाराष्ट्र) में ज्ञानतीर्थ-शिरडी (महाराष्ट्र) को जैन संस्कृति केन्द्र के रूप में स्थापित करने हेतु वहाँ पर ‘ज्ञानतीर्थ’ का निर्माण हुआ है, जिसमें पूज्य माताजी के निर्देशानुसार भगवान पार्श्वनाथ की विशाल प्रतिमा विराजमान करके पंचकल्याणक महोत्सव (मई २०१३ में) सम्पन्न हो चुका है और अब वहाँ सुन्दर कमल मंदिर का निर्माण किया जा रहा है।
१२. जृम्भिका तीर्थ विकास की प्रेरणा-भगवान महावीर स्वामी की वैâवल्य भूमि जृंभिका जो आज बिहार प्रान्त में जमुई के नाम से प्रसिद्ध है, वहाँ एक नूतन भूमि पर कमलासन युक्त भगवान की सवा ११ फुट उत्तुंग पद्मासन प्रतिमा की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा मई २०१४ में की गई है और आगे इस जृम्भिका तीर्थ का विकास हो रहा है।
१३. धर्मप्रभावना के विविध आयाम-जम्बूद्वीप रचना के निर्माण का प्रमुख लक्ष्य लेकर ‘दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान’ नामक संस्था का राजधानी दिल्ली में पूज्य माताजी की प्रेरणा से सन् १९७२ में गठन किया गया। इसी संस्थान ने विविध धर्मप्रभावना के कार्यों का संचालन
किया है। संस्थान स्थित ‘वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला’ द्वारा लाखों की संख्या में ग्रंथ प्रकाशन, चारों अनुयोगों के ज्ञान से समन्वित ‘सम्यग्ज्ञान’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन, णमोकार महामंत्र बैंक इत्यादि कितनी ही कार्ययोजनाएँ जिनशासन की कीर्ति को निरंतर प्रसारित कर रही हैं।
पूज्य माताजी की प्रेरणा से सन् १९८२ में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा राजधानी दिल्ली से उद्घाटित ‘जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति’ ने तीन वर्ष तक सम्पूर्ण भारतवर्ष में जैनधर्म के सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार किया और अंत में यह ज्योति अखण्डरूप से तत्कालीन केन्द्रीय रक्षामंत्री-श्री पी.वी. नरसिंहाराव द्वारा जम्बूद्वीप स्थल पर स्थापित कर दी गयी। इसी प्रकार अप्रैल सन् १९९८ में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘भगवान ऋषभदेव समवसरण श्र्ाीविहार’ का राजधानी दिल्ली से प्रवर्तन किया, जो समस्त प्रांतों में प्रवर्तन के पश्चात् भगवान ऋषभदेव की दीक्षास्थली-प्रयाग तीर्थ पर निर्मित ‘समवसरण मंदिर’ में स्थापित होकर युगों-युगों तक के लिए भगवान ऋषभदेव के वास्तविक समवसरण की याद दिला रहा है। भगवान महावीर जन्मभूमि-कुण्डलपुर (नालंदा) से सन् २००३ में ‘भगवान महावीर ज्योति रथ’ का विविध प्रांतों में सफल प्रवर्तन भी इसी शृँखला की विशिष्ट कड़ी है।
जैनधर्म की प्राचीनता तथा भगवान ऋषभदेव के नाम एवं सिद्धांतों को जन-जन तक पहुँचाने के लिए पूज्य माताजी ने सन् १९९७ में राजधानी दिल्ली में विशाल ‘चौबीस कल्पदु्रम महामण्डल विधान’ आयोजित कराया, जिसका झण्डारोहण पूर्व राष्ट्रपति डॉ. शंकरदयाल शर्मा ने किया एवं दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री साहिब सिंह वर्मा, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह तथा श्रीमती सुषमा स्वराज आदि अनेक वैâबिनेट मंत्रियों ने उपस्थित होकर धर्मलाभ लिया। साथ ही ‘भगवान ऋषभदेव जन्मजयंती वर्ष’ (सन् १९९७-१९९८ में) तथा ‘भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव वर्ष’ (सन् २००० में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा उद्घाटित) भी पूज्य माताजी की प्रेरणा द्वारा विविध धर्मप्रभावना के कार्यक्रमों सहित सम्पन्न हुए। विभिन्न टी.वी. चैनलों द्वारा पूज्य माताजी के ‘तीर्थंकर जीवन दर्शन (सचित्र)’ एवं अन्य विषयों पर प्रभावक प्रवचन लम्बे समय तक प्रसारित हुए एवं हो रहे हैं। पूज्य माताजी की प्रेरणा से स्थापित ‘अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महिला संगठन’ अपनी सैकड़ों ईकाइयों द्वारा दिगम्बर जैन समाज की नारी शक्ति को सृजनात्मक कार्यों हेतु संगठित कर रहे है।इसके अतिरिक्त कितने ही अन्य धर्मप्रभावना के कार्य पूज्य माताजी ने सम्पन्न किये हैं जिनका यहाँ लेखन तो संभव नहीं है, किन्तु आज पूरा समाज उनके कार्यकलापों से परिचित होकर उन्हें कर्मठता की मूर्ति के रूप में पहचानता है।
१४. संघर्ष विजेत्री-पूज्य माताजी ने प्रारंभ से अपना प्रमुख लक्ष्य बनाया- प्रत्येक कार्य आगमानुकूल ही करना। पुन: उन कार्यों के निष्पादन में जो भी विघ्न आते हैं, उन्हें बहुत ही शांतिपूर्वक झेलकर पूरी तन्मयता के साथ उस कार्य को परिपूर्ण करना उनकी विशेषता रही है। उनका पूरा जीवन आर्ष परम्परा का संरक्षण करते हुए अपने मूलगुणों में बाधा न आने देकर जिनधर्म की अधिकाधिक प्रभावना के साथ व्यतीत हुआ है।
१५. भगवान पार्श्वनाथ जन्मकल्याणक तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव का आयोजन-२३वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की जन्मभूमि वाराणसी में ६ जनवरी २००५ को पूज्य माताजी की प्रेरणा एवं ससंघ सानिध्य में ‘भगवान पार्श्वनाथ जन्मकल्याणक तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव’ का उद्घाटन किया गया। भगवान की केवलज्ञान कल्याणक भूमि ‘अहिच्छत्र’, निर्वाणभूमि ‘श्री सम्मेदशिखर जी’ इत्यादि अनेकानेक तीर्थों पर विविध आयोजनों के साथ यह वर्ष मनाया गया। वर्ष २००६ को ‘‘सम्मेदशिखर वर्ष’’ के रूप में मनाने की प्रेरणा पूज्य माताजी ने प्रदान की, ताकि तन-मन-धन से दिगम्बर जैन समाज अपने महान तीर्थराज ‘श्री सम्मेदशिखर जी’ के प्रति समर्पित हो सके। पुन: दिसम्बर २००७ में अहिच्छत्र में आयोजित ‘सहस्राब्दि महामस्तकाभिषेक’ के साथ इस त्रिवर्षीय महोत्सव का समापन किया गया।
१६. शताब्दी का अभूतपूर्व अवसर : दीक्षा स्वर्ण जयंती –वैशाख कृष्णा दूज, वी.नि.सं. २५३२ अर्थात् १५ अप्रैल २००६ को अपनी आर्यिका दीक्षा के ५० वर्ष पूर्ण करने वाली प्रथम साध्वी पूज्य माताजी वर्तमान दिगम्बर जैन साधु परम्परा में सर्वाधिक प्राचीन दीक्षित होने के गौरव से युक्त होकर हम सभी के लिए अतिशयकारी प्राचीन प्रतिमा के सदृश बन गईं। जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में १४ से १६ अप्रैल २००६ तक ‘गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी आर्यिका दीक्षा स्वर्ण जयंती महोत्सव’ का भव्य आयोजन करके समस्त समाज ने पूज्य माताजी के श्रीचरणों में अपनी विनम्र विनयांजलि अर्पित की।
१७. विश्वशांति अहिंसा सम्मेलन का उद्घाटन किया राष्ट्रपति जी ने-२१ दिसम्बर २००८ को जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में पूज्य माताजी की प्रेरणा से आयोजित विश्वशांति अिंहसा सम्मेलन का उद्घाटन भारत की प्रथम महिला राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटील के करकमलों से हुआ। पुन: सन् २००९ ‘‘शांति वर्ष’’ में पूरे देश में विश्व की शांति के लिए धार्मिक अनुष्ठान एवं संगोष्ठियों के कार्यक्रम आयोजित किए गए।
१८. ‘प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर वर्ष’ मनाने की प्रेरणा-बीसवीं सदी के प्रथम दिगम्बर जैनाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज के महान उपकारों से जन-जन को परिचित कराने के उद्देश्य से पूज्य माताजी ने वर्ष २०१० को ‘‘प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर वर्ष’’ के रूप में मनाने की प्रेरणा समस्त समाज को प्रदान की। इस वर्ष का उद्घाटन ज्येष्ठ कृ. चतुर्दशी, ११ जून २०१० को जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में भगवान शांतिनाथ जन्म-दीक्षा एवं निर्वाणकल्याणक के शुभ दिवस किया गया तथा ज्येष्ठ कृ. चतुर्दशी, ३१ मई २०११ तक यह वर्ष पूरे देश के विभिन्न अंचलों में अनेक धर्मप्रभावनात्मक कार्यक्रमों के साथ विभिन्न आयोजनोंपूर्वक मनाया गया।
१९. प्रथम पट्टाचार्य श्री वीरसागर वर्ष मनाने की प्रेरणा-शरदपूर्णिमा-२०११ के शुभ अवसर पर पूज्य माताजी द्वारा प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज के प्रथम पट्टशिष्य आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज, जो पूज्य माताजी के दीक्षा गुरु भी हैं, का वर्ष मनाने की घोषणा की अत: यह वर्ष समाज द्वारा विभिन्न आयोजन पूर्वक सानंद मनाया गया।
२०. चारित्रवर्धनोत्सव वर्ष-जिनकी दीर्घकालिक तपस्या के वर्षों की गिनती जानकर अनेक आचार्य, मुनि, आर्यिकाएँ इत्यादि भी इस बात को कहते हुए गौरव का अनुभव करते हैं कि आज जितनी मेरी उम्र भी नहीं है उससे अधिक तो पूज्य माताजी की दीक्षा की आयु है, अर्थात् १८ वर्ष की उम्र से त्याग मार्ग पर जिन्होंने कदम रखा, उन्होंने अपनी जन्मतिथि-शरदपूर्णिमा को भी त्याग से सार्थक कर उस त्यागमयी जीवन के ६० वर्ष भी उन्होंने निर्विघ्नतापूर्वक पूर्ण किये। इसीलिए इनके ७९वें जन्मदिवस एवं ६१वें त्यागदिवस पर हमने अखिल भारतीय दिगम्बर जैन महिला संगठन के आह्वान पर चारित्रवर्धनोत्सव वर्ष २०१२-२०१३ मनाने की घोषणा की। इस वर्ष में सभी को शक्ति अनुसार चारित्र ग्रहण करने का संदेश दिया गया।
२१. श्री गौतम गणधर वर्ष-श्रावण कृ. एकम्, वीरशासन जयंती, १३ जुलाई २०१४ के शुभ अवसर पर भगवान महावीर स्वामी के प्रमुख गणधर श्री गौतम स्वामी की आज भी उपलब्ध साक्षात् वाणी से जन-जन को परिचित कराने के लिए तथा गौतम स्वामी के उपकारों को याद कराने के लिए पूज्य माताजी ने जुलाई २०१४-२०१५ को ‘‘श्री गौतम गणधर वर्ष’’ के रूप में मनाने की प्रेरणा प्रदान की, जिसके अन्तर्गत विशेषरूप से अनेक स्थानों पर दशलक्षण जैसे महापर्व में दस दिनों तक लगातार गौतम गणधर वाणी पुस्तक के १० अध्यायों का क्रमश: विद्वानों का वाचन किया गया तथा विभिन्न संगोष्ठी, प्रश्नोत्तरी प्रतियोगिता आदि भी आयोजित किये जा रहे हैं।
२२. मंगलमय अमृत महोत्सव-संस्थान द्वारा जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में शरदपूर्णिमा, १८ अक्टूबर २०१३ को पूज्य माताजी की ८०वीं जन्मजयंती ‘‘गणिनी ज्ञानमती अमृत महोत्सव’’ के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर मनाई गई। इस अवसर पर ‘‘सम्मेदशिखर विधान’’ के ८० मांडले बनाकर ८० परिवारों के द्वारा विधान किया गया तथा सभी ने पूज्य माताजी की पूजन करके विहंगम दृश्य उपस्थित किया। इसके साथ ही भव्य विनयांजलि सभा भी आयोजित की गई, जिसमें प्रतिवर्ष के विभिन्न पुरस्कारों के साथ ही विशेषरूप से ‘‘अमृत महोत्सव पुरस्कार’’ भी प्रदान किया गया, जिसका सौभाग्य श्राविका आश्रम, सोलापुर को प्राप्त हुआ।
२३. शाश्वत सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखर में ‘‘आचार्य श्री शांतिसागर धाम’’-प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज द्वारा सन् १९२७-२८ में की गई सम्मेदशिखर यात्रा की स्मृति को दिग्दिगंत व्यापी बनाने हेतु पूज्य माताजी की प्रेरणा से शाश्वत सिद्धक्षेत्र सम्मेदशिखर जी में मेन रोड पर ‘‘आचार्य श्री शांतिसागर धाम’’ नामक ऐतिहासिक स्मारक का निर्माण किया जा रहा है। यहाँ सम्मेदशिखर जी से प्रथम मोक्षगामी भगवान अजितनाथ की ३१ फुट उत्तुंग विशाल खड्गासन प्रतिमा विराजमान करके जिनमंदिर निर्माण के साथ ही आचार्य श्री के जीवनदर्शन को प्रदर्शित करता भव्य स्मारक भी निर्मित किया जायेगा। साथ ही विशाल धर्मशालाएं आदि समुचित व्यवस्थाएं भी उपलब्ध कराई जाएंगी।
इस प्रकार इन चतुर्मुखी प्रतिभा की धनी पूज्य माताजी के चरणों में कोटिश: नमन है तथा भगवान जिनेन्द्र से यही प्रार्थना है कि उनके इस पवित्र त्यागमयी जीवन का हमें शताब्दी महोत्सव भी मनाने का लाभ प्राप्त हो एवं आपके द्वारा नया-नया साहित्य जनता को प्राप्त होता रहे, यही मंगलकामना है।
जब किसी जिन प्रतिमा का दर्शन किया जाता है तो उसकी प्राचीनता ज्ञात होने पर दर्शन करने वाले श्रद्धालु भक्त की भक्ति कुछ विशेष ही हो जाती है, यह सर्वमान्य तथ्य है। वास्तविकता यह है कि जिनप्रतिमा जितनी प्राचीन होती है, उसकी भक्तिभावपूर्वक दर्शन-वंदना करने से उतना ही अधिक फल प्राप्त होता है। वर्तमान काल में यही सत्य हमारे सामने साकाररूप ले रहा है पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के रूप में। १८ वर्ष की अल्प आयु में घर का त्याग कर युग की प्रथम बालब्रह्मचारिणी के रूप में त्यागमार्ग में कदम बढ़ाने वाली इस लौह-बाला ने त्यागमयी जीवन के जो ५८ वर्ष पूर्ण किए हैं उनसे एक विशेष प्रकार का अतिशय उनमें उत्पन्न हो गया है। पूज्य माताजी के अनेक कार्यकलापों को देखकर लोग अक्सर कहा करते हैं कि माताजी तो महान पुण्यशालिनी हैं और उस पुण्य के बल पर ही उनके द्वारा इतने बड़े-बड़े कार्य सम्पन्न हो रहे हैं, परन्तु वास्तव में पुण्य कहीं बाजार में नहीं मिलता है और न ही किसी दुकान से खरीदा जा सकता है। पूज्य माताजी ने भी यह अपार पुण्य किसी से उधार नहीं लिया है वरन् इन ६२ वर्षों (१९५२-२०१४) में एक-एक क्षण करके घट में बूँद-बूंँद की भाँति उसे अर्जित किया है।अखण्ड असिधारा व्रत की स्वर्णिम धारा (६२ वर्ष), महाव्रतों को पालन करने की सूक्ष्म चर्या, मोक्षमार्ग के प्रणेता भगवान जिनेन्द्र के प्रति उनके कण-कण में व्याप्त अनुपमेय अपार भक्ति, प्रतिक्षण स्व एवं पर के कल्याण हेतु अटूट परिश्रम के महायज्ञ में समर्पण उनके इस महान पुण्यरूपी प्रासाद के सुदृढ़ स्तम्भ बने हैंं।
किन्हीं नीतिकार का कथन पूर्ण सत्य है-
पुण्यस्य फलमिच्छंति, पुण्यं नेच्छन्ति मानवा:।
न पापफलमिच्छंति, पापं कुर्वन्ति यत्नत:।।
अर्थात् लोग पुण्य से प्रसूत सुखरूप फल की इच्छा करते हैं, परन्तु पुण्य करना नहीं चाहते हैं। वे पापरूप फल को नहीं चाहते हैं परन्तु पाप के संचय में (सदैव) प्रयत्नशील रहते हैं। देखा जाये तो संसार में यही स्थिति बनी हुई है, लोग समस्त सुख-सम्पत्ति-वैभव के आधारभूत पुण्य क्रियाओं से तो अछूते बने रहते हैं और अपने जीवन में सदैव ऊँचाईयों की अभिलाषा से त्रस्त रहा करते हैं। ऐसे लोगों के लिए पूज्य माताजी का जीवन विशेषरूप से प्रेरणास्पद है।
पूज्य माताजी जिस तीर्थ को छूती हैं, वह आकाश की ऊँचाईयों को छूने लगता है,fजस मिट्टी को छूती हैं, वह सोना बन जाती है, जिस जंगल में पहुँच जाती हैं, वहाँ स्वर्ग बन जाता है, जिस ग्राम की धरती पर चरण रखती हैं, वह मंदिर बन जाता है, जिस व्यक्ति पर उनकी दृष्टि पड़ जाती है, वह अपने जीवन में इंसान से भगवान बनने की ओर अग्रसर हो जाता है और जिस बिन्दु का वह स्पर्श करती हैं, वह सिंधु बनने के लिए चयनित हो जाता है।
यही कारण है कि भगवान महावीर की जन्मभूमि-कुण्डलपुर (नालंदा) में मात्र २२ माह में हुए विशाल निर्माणकार्य को देखकर लोगों के मुख से सहसा निकलता है कि बीसों वर्ष का कार्य मानो स्वयं देवों ने आकर इतने अल्प समय में साकार कर दिया है। वस्तुत: देवोपुनीत इस कार्य को देखकर लोग आश्चर्य से दाँतों तले अगुँली दबा लेते हैं। पूज्य माताजी के साथ जुड़ने वाले भक्तों का समर्पण भी इसीलिए रहता है क्योंकि वह मात्र मंदिर या तीर्थ नहीं बनाती हैं वरन् जैन शासन की प्राचीन संस्कृति एवं अतिप्राचीन इतिहास की सुरक्षा में आचार्य कुन्दकुन्द एवं अकलंक देव जैसे उदाहरण प्रस्तुत कर रही हैं। साररूप में यदि कहा जाये तो उनके द्वारा विशाल साहित्य सृजन, हस्तिनापुर-अयोध्या-मांगीतुंगी-अहिच्छत्र-प्रयाग-कुण्डलपुर-शिर्डी-महावीर जी-माधोराजपुरा-सम्मेदशिखर जी आदि जैसे अनेकानेक तीर्थों का जीर्णोद्धार एवं विकास, जैन धर्म की प्राचीनता को जन-जन तक पहुँचाने के लिए किए गए महान प्रभावनात्मक कार्य जिनेन्द्र भगवान, जिनशासन एवं जिनवाणी के प्रति उनकी अटूट भक्ति एवं समर्पण के ही प्रतीक हैं। प्रारंभ से ही जिनशासन को अपना सर्वस्व मानने वाली पूज्य माताजी ने अपना हर कदम आगमानुकूल एवं अपने मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने के लिए बढ़ाया है। प्रतिदिन उनके मुख से यही निकला करता है कि हे भगवन्! यदि मेरे द्वारा किंचित् भी आपके प्रति भक्ति एवं गुणानुरागरूप क्रियाएँ सम्पन्न हो रही हैं, तो उनके पीछे मेरा एकमात्र यही स्वार्थ निहित है कि आने वाले कुछ ही भवों में मैं इस प्रकार की उच्चतम साधना एवं ध्यानाग्नि का प्रश्रय ले सवूँâ कि मेरे समस्त कर्म मलों की शृँखला चूर-चूर होकर मेरी शुद्ध चेतनस्वरूप आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति हो सके।
तीर्थंकर भगवन्तों एवं आगम में वर्णित मोक्ष पथ की वर्तमानकालीन साधना के प्रति उनकी अतिशय भक्ति का ही यह परिणाम है कि तीर्थंकर भगवन्तों के पंचकल्याणकों की भूमियों विशेषरूप से संस्कृति की उद्गमस्थल-जन्मभूमियों के संरक्षण एवं विकास के प्रति उनके हृदय में विशेष संकल्प बना हुआ है। उनकी कर्मठताएवंसंकल्पशक्ति के विषय में समाज को पूर्ण विश्वास है कि जिस कार्य को माताजी हाथ में लेंगी, वह निश्चित रूप से बहुत ही सुन्दर एवं व्यवस्थित रूप में अल्प समय में ही पूर्ण हो जायेगा, इसीलिए पूज्य माताजी के आह्वान पर समाज भी हृदय से उस उद्देश्यात्मक कार्य के प्रति समर्पित हो जाता है। ठीक ही है कि जो वास्तव में कार्य करके दिखाते हैं, उनके प्रति श्रद्धा का भाव सहज ही उमड़ता है। हमारा महानतम सौभाग्य है कि ऐसी महान आत्मा का साक्षात् सानिध्य हमें इस कलिकाल में भी प्राप्त हो रहा है। पूज्य माताजी के चरण-कमलों में बारम्बार अभिवंदन करते हुए जिनेन्द्र प्रभु से यही हार्दिक प्रार्थना है कि उनकी पुण्यधारा निरन्तर यूँ हीं हम सबको सराबोर करती रहे।
जन्मस्थान-टिकैटनगर (बाराबंकी) उ.प्र.
जन्मतिथि-आसोज सुदी १५ (शरदपूर्णिमा) वि. सं. १९९१, (२२ अक्टूबर सन् १९३४)
जाति-अग्रवाल दि. जैन, गोत्र-गोयल, नाम-कु. मैना
माता-पिता-श्रीमती मोहिनी देवी एवं श्री छोटेलाल जैन
आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत–ई. सन् १९५२, बाराबंकी में शरदपूर्णिमा के दिन
क्षुल्लिका दीक्षा-चैत्र कृ. १, ई. सन् १९५३ को महावीरजी अतिशय क्षेत्र (राज.) में आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज से। नाम-क्षुल्लिका वीरमती
आर्यिका दीक्षा-वैशाख कृ. २, ई. सन् १९५६ को माधोराजपुरा (राज.) में चारित्रचक्रवर्ती १०८ आचार्य श्री शांतिसागर जी की परम्परा के प्रथम पट्टाधीश आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज के करकमलों से।
साहित्यिक कृतित्व-अष्टसहस्री, समयसार, नियमसार, मूलाचार, कातंत्र-व्याकरण, षट्खण्डागम आदि ग्रंथों के अनुवाद/टीकाएं एवं लगभग ३०० ग्रंथों की लेखिका।
डी.लिट्. की मानद उपाधि-सन् १९९५ में अवध वि.वि. (पैâजाबाद) द्वारा एवं तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय मुरादाबाद द्वारा ८ अप्रैल २०१२ को ‘‘डी.लिट्.’’ की मानद उपाधि से विभूषित।
तीर्थ निर्माण प्रेरणा-हस्तिनापुर में जंबूद्वीप, तेरहद्वीप, तीनलोक आदि रचनाओं के निर्माण, शाश्वत तीर्थ अयोध्या का विकास एवं जीर्णोद्धार, प्रयाग-इलाहाबाद (उ.प्र.) में तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली तीर्थ का निर्माण, तीर्थंकर जन्मभूमियों का विकास यथा-भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा-बिहार) में ‘नंद्यावर्त महल’ नामक तीर्थ निर्माण, भगवान पुष्पदंतनाथ की जन्मभूमि काकन्दी तीर्थ (निकट गोरखपुर-उ.प्र.) का विकास, भगवान पार्श्वनाथ केवलज्ञानभूमि अहिच्छत्र तीर्थ पर तीस चौबीसी मंदिर, हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप स्थल पर भगवान शांतिनाथ-कुंथुनाथ-अरहनाथ की ३१-३१ फुट उत्तुंग खड्गासन प्रतिमा, मांगीतुंगी में निर्माणाधीन १०८ फुट उत्तुंंग भगवान ऋषभदेव की विशाल प्रतिमा, महावीर जी तीर्थ पर महावीर धाम में पंचबालयति मंदिर, शिर्डी में ज्ञानतीर्थ इत्यादि।
महोत्सव प्रेरणा–पंचवर्षीय जम्बूद्वीप महामहोत्सव, भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव, अयोध्या में भगवान ऋषभदेव महाकुंभ मस्तकाभिषेक, कुण्डलपुर महोत्सव, भगवान पार्श्वनाथ जन्मकल्याणक तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव, दिल्ली में कल्पद्रुम महामण्डल विधान का ऐतिहासिक आयोजन इत्यादि। विशेषरूप से २१ दिसम्बर २००८ को जम्बूद्वीप स्थल पर विश्वशांति अिंहसा सम्मेलन का आयोजन हुआ, जिसका उद्घाटन भारत की तत्कालीन राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटील द्वारा किया गया।
शैक्षणिक प्रेरणा–‘जैन गणित और त्रिलोक विज्ञान’ पर अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी, राष्ट्रीय कुलपति सम्मेलन, इतिहासकार सम्मेलन, न्यायाधीश सम्मेलन एवं अन्य अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर के सेमिनार आदि।
रथ प्रवर्तन प्रेरणा-जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति (१९८२ से १९८५), समवसरण श्रीविहार (१९९८ से २००२), महावीर ज्योति (२००३-२००४) का भारत भ्रमण।
इस प्रकार नित्य नूतन भावनाओं की जननी पूज्य माताजी चिरकाल तक इस वसुधा को सुशोभित करती रहें, यही मंगल कामना है।