गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी का परिचय
(श्री अभयमती माताजी की क्षुल्लिका दीक्षागुरु)
कुन्दकुन्दान्वयो जीयात्, जीयात् श्री शांतिसागर:।
जीयात् पट्टाधिपस्तस्य, सूरि: श्री वीरसागर:।।
श्री ब्राह्मी गणिनी जीयात्, जीयादन्तिमचन्दना।
जीयात् ज्ञानमती माता, गणिन्यां प्रमुखा कलौ।।
जैनशासन के वर्तमान व्योम पर छिटके नक्षत्रों में दैदीप्यमान सूर्य की भाँति अपनी प्रकाश-रश्मियों को प्रकीर्णित कर रहीं पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर उठी लेखनी की अपूर्णता यद्यपि अवश्यंभावी है, तथापि आत्मकल्याण की भावना से पूज्य माताजी के श्रीचरणों में उनके दीर्घकालीन त्यागमयी जीवन के प्रति विनम्र विनयांजलिरूप मेरा यह विनीत प्रयास है।
१. जन्म, वैराग्य और दीक्षा-२२ अक्टूबर सन् १९३४, शरदपूर्णिमा के दिन टिवैâतनगर ग्राम (जि. बाराबंकी, उ.प्र.) के श्रेष्ठी श्री छोटेलाल जैन की धर्मपत्नी श्रीमती मोहिनी देवी के दांपत्य जीवन के प्रथम पुष्प के रूप में ‘मैना’ का जन्म परिवार में नवीन खुशियाँ लेकर आया था। माँ को दहेज में प्राप्त ‘पद्मनंदिपंचविंशतिका’ ग्रन्थ के नियमित स्वाध्याय एवं पूर्वजन्म से प्राप्त दृढ़ वैराग्य संस्कारों के बल पर मात्र १८ वर्ष की अल्प आयु में ही शरद पूर्णिमा के दिन मैना ने आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज से सन् १९५२ में आजन्म ब्रह्मचर्यव्रतरूप सप्तम प्रतिमा एवं गृहत्याग के नियमों को धारण कर लिया।
जैनेश्वरी दीक्षा की कामना को अपनी हर साँस में संजोये ब्र. मैना सन् १९५३ में आचार्य श्री देशभूषण जी से ही चैत्र कृष्णा एकम् को श्री महावीरजी अतिशय क्षेत्र में ‘क्षुल्लिका वीरमती’ के रूप में दीक्षित हो गईं। सन् १९५५ में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की समाधि के समय कुंथलगिरी पर एक माह तक प्राप्त उनके सान्निध्य एवं आज्ञा द्वारा ‘क्षुल्लिका वीरमतीr’ ने आचार्य श्री के प्रथम पट्टाचार्य शिष्य-वीरसागर जी महाराज से सन् १९५६ में ‘वैशाख कृष्णा दूज’ को माधोराजपुरा (जयपुर-राज.) में आर्यिका दीक्षा धारण करके ‘‘आर्यिका ज्ञानमती’’ नाम प्राप्त किया।
२. अध्ययन और अध्यापन– ज्ञानप्राप्ति की पिपासा माता ज्ञानमती जी के रोम-रोम में प्रारंभ से ही कूट-कूट कर भरी थी। दीक्षा लेते ही स्वाध्याय-मनन-चिंतन की धारा में ही उन्होंने स्वयं को निबद्ध कर लिया। ज्ञान प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ स्रोत बना-संघस्थ मुनियों, आर्यिकाओं एवं संघस्थ शिष्य-शिष्याओं को जैनागम का तलस्पर्शी अध्यापन। ‘कातंत्र रूपमाला’ रूपी बीज से पूज्य माताजी की ज्ञानसाधनारूप वृक्ष प्रस्फुटित हुआ, जिस पर जो पत्ते, फूल-फल इत्यादि लगे, उन्होंने समस्त संसार को सुवासित कर दिया। गोम्मटसार, परीक्षामुख, न्यायदीपिका, प्रमेयकमलमार्तण्ड, अष्टसहस्री, तत्त्वार्थराजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि, अनगारधर्मामृत, मूलाचार, त्रिलोकसार आदि अनेक ग्रंथों को अपनी शिष्याओं और संघस्थ साधुओं को पढ़ा-पढ़ाकर आपने अल्प समय में ही विस्तृत ज्ञानार्जन कर लिया। हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, कन्नड़, मराठी इत्यादि भाषाओं पर आपका पूर्ण अधिकार हो गया।
३. लेखनी का प्रारंभीकरण संस्कृत भाषा से-भगवान महावीर के पश्चात् २५०० वर्ष के जिस इतिहास में जैन साध्वियों के द्वारा शास्त्र लेखन की कोई मिसाल दृष्टिगोचर नहीं होती थी, वह इतिहास जागृत हो उठा जब क्षुल्लिका वीरमती जी ने सन् १९५४ में सहस्रनाम के १००८ मंत्रों से अपनी लेखनी का प्रारंभ किया। यही मंत्र सरस्वती माता का वरदहस्त बनकर पूज्य माताजी की लेखनी को ऊँचाइयों की सीमा तक ले गये। सन् १९६९-७० में न्याय के सर्वोच्च ग्रंथ ‘अष्टसहस्री’ के हिन्दी अनुवाद ने उनकी अद्वितीय विद्वत्ता को संसार के सामने उजागर कर दिया। कितने ही ग्रंथों की संंस्कृत टीका, कितनी ही टीकाओं के हिंदी अनुवाद, संस्कृत एवं हिन्दी में अनेक मौलिक ग्रंथों की रचना मिलकर आज २५० की संख्या को पार कर चुके हैं। पूज्य माताजी द्वारा लिखित समयसार, नियमसार इत्यादि की हिन्दी-संस्कृत टीकाएँ, जैनभारती, ज्ञानामृत, कातंत्र व्याकरण, त्रिलोक भास्कर, प्रवचन निर्देशिका इत्यादि स्वाध्याय ग्रंथ, प्रतिज्ञा, संस्कार, भक्ति, आदिब्रह्मा, आटे का मुर्गा, जीवनदान इत्यादि जैन उपन्यास, द्रव्यसंग्रह-रत्नकरण्डश्रावकाचार इत्यादि के हिन्दी पद्यानुवाद व अर्थ, बाल विकास, बालभारती, नारी आलोक आदि का अध्ययन किसी को भी वर्तमान में उपलब्ध जैन वाङ्गमय की विविध विधाओं का विस्तृत ज्ञान कराने में सक्षम है।
अध्यात्म, व्याकरण, न्याय, सिद्धांत, बाल साहित्य, उपन्यास चारों अनुयोगों रूप विविध विधाओं के अतिरिक्त पूज्य माताजी की लेखनी से विपुल भक्ति साहित्य उद्भूत हुआ है। इन्द्रध्वज, कल्पदु्रम, सर्वतोभद्र, तीन लोक, सिद्धचक्र, विश्वशांति महावीर विधान इत्यादि भक्ति विधानों ने देश के कोने-कोने में जिनेन्द्र भक्ति की जो धारा प्रवाहित की है, वह अतुलनीय है। पूज्य माताजी का चिंतन एवं लेखन पूर्णतया जैन आगम से संबद्ध रहता है, यह उनकी महान विशेषता है।
धन्य हैं ऐसी महान प्रतिभावान् सरस्वती माता!
४. सिद्धांत चक्रेश्वरी-इसी प्रकार पूज्य माताजी ने जैनशासन के सर्वप्रथम सिद्धांत ग्रंथ ‘षट्खण्डागम’ के सूत्रों की संस्कृत टीका ‘सिद्धांत चिंतामणि’ के लेखन को पूर्ण किया है। ८ अक्टूबर सन् १९९५ में उन्होंने इस टीका का मंगलाचरण लिखा और ४ अप्रैल २००७ को ३१०० पृष्ठों में षट्खण्डागम की सोलहों पुस्तकों की टीका लिखकर पूर्ण करके एक नूतन कीर्तिमान स्थापित किया है, जिसमें से प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय पुस्तक हिन्दी टीका सहित प्रकाशित भी हो चुकी हैं, चौथी पुस्तक शीघ्र प्रकाशनाधीन है और आगे की पुस्तकों का हिन्दी अनुवाद का कार्य सतत जारी है। आज से लगभग १००० वर्ष पूर्व आचार्य श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती ने जिस प्रकार छह खण्डरूप द्वादशांगरूप जिनवाणी को परिपूर्ण आत्मसात करके साररूप में द्रव्य-संग्रह, गोम्मटसार, लब्धिसार इत्यादि ग्रंथ अपनी लेखनी से प्रसवित किये थे, उसी प्रकार इस बीसवीं सदी की माता ज्ञानमती जी ने समस्त उपलब्ध जैनागम का गहन अध्ययन-मनन-चिंतन करके इस सिद्धांतचिंतामणिरूप संस्कृत टीका लेखन के महत्तम कार्य से ‘सिद्धांत चक्रेश्वरी’ के पद को साकार कर सम्पूर्ण जैन समाज पर महान उपकार किया है। १००० वर्ष पूर्व आचार्य श्री वीरसेन स्वामी द्वारा लिखित ‘धवलाटीका’ के पश्चात् इस महान ग्र्रंथ की सरल टीका लेखन का कार्य प्रथम बार हुआ है।
५. शिक्षण-प्रशिक्षण शिविर-जैन सिद्धांतों का मर्म विद्वत्वर्ग समझ सके, इस भावना से कितने ही शिक्षण-प्रशिक्षण शिविरों का आयोजन पूज्य माताजी की प्रेरणास्वरूप किया गया। सन् १९६९ में जयपुर चातुर्मास के मध्य ‘जैन ज्योतिर्लोेक’ पर प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया गया, जिसमें पूज्य माताजी द्वारा ‘जैन भूगोल एवं खगोल’ का विशेष ज्ञान विद्वत्वर्ग को कराया गया। अक्टूबर सन् १९७८ में हस्तिनापुर में पं. मक्खनलाल जी शास्त्री, पं. मोतीचंद जी कोठारी, डा. लाल बहादुर शास्त्री आदि जैन समाज के उच्चकोटि के लगभग १०० विद्वानों का विद्वत् प्रशिक्षण शिविर आयोजित किया गया, जिसमें पूज्य माताजी ने विद्वत्समुदाय को यथेष्ट मार्गदर्शन प्रदान किया। आज तक भी यह श्रृंखला बराबर चल रही है।
६. राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार-सन् १९८५ में ‘जैन गणित एवं त्रिलोक विज्ञान’ पर अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में सम्पन्न हुआ पुनः अनेक संगोष्ठियां सम्पन्न होती रहीं और सन् १९९८ में ‘भगवान ऋषभदेव राष्ट्रीय कुलपति सम्मेलन’ के भव्य आयोजन द्वारा देशभर के विश्वविद्यालयों से पधारे कुलपतियों को भगवान ऋषभदेव को भारतीय संस्कृति एवं जैनधर्म के वर्तमानयुगीन प्रणेता पुरुष के रूप में जानने का अवसर प्राप्त हुआ। ११ जून २००० को ‘जैनधर्म की प्राचीनता’ विषय पर आयोजित इतिहासकारों के सम्मेलन द्वारा पाङ्ग्य पुस्तकों में जैनधर्म संबंधी भ्रांतियों के सुधार के लिए विशेष दिशा-निर्देश ‘राष्ट्रीय शैक्षणिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद’ (र्ण्ERऊ) तक पहुंचाये गये। इनके अतिरिक्त अनेक अन्य सेमिनार भी समय-समय पर सम्पन्न हुए हैं, जिनके प्रतिफल में देश के समक्ष समय-समय पर साहित्यिक कृतियाँ प्रस्तुत हो चुकी हैं।
७. दिगम्बर समाज की साध्वी को प्रथम बार डी.लिट्. की उपाधि प्रदान कर विश्वविद्यालय भी गौरवान्वित हुआ-किसी महाविद्यालय, विश्वविद्यालय आदि में पारम्परिक डिग्रियों को प्राप्त किये बिना मात्र स्वयं के धार्मिक अध्ययन के बल पर विदुषी माताजी ने अध्ययन, अध्यापन, साहित्य निर्माण की जिन ऊँचाइयों को स्पर्श किया, उस अगाध विद्वत्ता के सम्मान हेतु अवध विश्वविद्यालय, पैâजाबाद द्वारा ५ फरवरी १९९५ को डी.लिट्. की मानद् उपाधि से पूज्य माताजी को सम्मानित करके स्वयं को गौरवान्वित अनुभव किया गया तथा दिगम्बर साधु-साध्वी परम्परा में पूज्य माताजी यह उपाधि प्राप्त करने वाली प्रथम व्यक्तित्व बन गईं।इसी प्रकार से समय-समय पर विभिन्न आचार्यों एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा पूज्य माताजी को न्याय प्रभाकर, आर्यिकारत्न, आर्यिकाशिरोमणि, गणिनीप्रमुख, वात्सल्यमूर्ति, तीर्थोद्धारिका, युगप्रवर्तिका, चारित्रचन्द्रिका, राष्ट्रगौरव, वाग्देवी इत्यादि अनेक उपाधियों से अलंकृत किया गया है, किन्तु पूज्य माताजी इन सभी उपाधियों से निस्पृह होकर अपनी आत्म साधना को प्रमुखता देते हुए निर्दोष आर्यिका चर्या में निमग्न रहने का ही अपना मुख्य लक्ष्य रखती हैं।
८. इतिहास भी परिवर्तन के लिए बाध्य हुआ-सन् १९९२ से पूज्य माताजी की दृष्टि आधुनिक शिक्षाजगत में पढ़ायी जाने वाली पाठ्य पुस्तकों में जैनधर्म संबंधी भ्रान्त विषयवस्तु पर गयी, तो ‘भगवान महावीर जैनधर्म के संस्थापक हैं’ इत्यादि भ्रांतियों को वहाँ देखकर उनका हृदय अत्यंत उद्वेलित हो उठा। फलस्वरूप प्रधानमंत्री, मानव संसाधन विकास मंत्री, निदेशक-र्ण्ERऊ इत्यादि से उनकी प्रत्यक्ष वार्ता द्वारा शिक्षाजगत तक यह संदेश पहुँचा और दस वर्षों के अथक प्रयास द्वारा पाठ््य पुस्तकों में संशोधन का क्रम प्रारंभ हो सका।
९. तीर्थ विकास की भावना-तीर्थंकर भगवन्तों की कल्याणक भूमियों एवं विशेष रूप से जन्मभूमियों के विकास की ओर पूज्य माताजी की विशेष आंतरिक रुचि सदा से रही है। पूज्य माताजी का कहना है कि हमारी संस्कृति का परिचय प्रदान करने वाली ये कल्याणक भूमियाँ हमारी महान संस्कृति की धरोहर हैं अतः इनका संरक्षण-संवर्धन-विकास अत्यंत आवश्यक है।
सर्वप्रथम भगवान शांतिनाथ, कुन्थुनाथ, अरहनाथ की जन्मभूमि ‘हस्तिनापुर’ में पूज्य माताजी की प्रेरणा से निर्मित जैन भूगोल की अद्वितीय रचना ‘जम्बूद्वीप’ आज विश्व के मानस पटल पर अांfकत हो गयी है, उ.प्र. सरकार के पर्यटन विभाग ने जम्बूद्वीप से हस्तिनापुर की पहचान बताते हुए उसे एक अतुलनीय ‘मानव निर्मित स्वर्ग’) की संज्ञा प्रदान की है। सन् १९९३ से १९९५ तक शाश्वत जन्मभूमि ‘अयोध्या’ में ‘समवसरण मंदिर’ और ‘त्रिकाल चौबीसी मंदिर’ का निर्माण करवाकर उसका विश्वव्यापी प्रचार, अकलूज (महाराष्ट्र) में नवदेवता मंदिर निर्माण की प्रेरणा, सनावद (म.प्र.) में णमोकार धाम, प्रीत विहार-दिल्ली में कमलमंदिर, मांगीतुंगी (महाराष्ट्र) में सहस्रकूट कमल मंदिर, अहिच्छत्र में ग्यारह शिखर वाला तीस चौबीसी मंदिर और भगवान ऋषभदेव की दीक्षा एवं केवलज्ञान कल्याणक भूमि-प्रयाग में ‘तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली तीर्थ’ का भव्य निर्माण पूज्य माताजी की ही प्रेरणा के सुफल हैं।
कितने ही अन्य स्थानों पर भी अनेकानेक निर्माण पूज्य माताजी के निर्देशन द्वारा सम्पन्न हुए और हो रहे हैं। भगवान महावीर स्वामी की जन्मभूमि कुण्डलपुर (नालंदा-बिहार) के विकास हेतु भगवान महावीर स्वामी कीर्तिस्तंभ, भगवान महावीर की विशाल खड्गासन प्रतिमा सहित विश्वशांति महावीर मंदिर, नवग्रह शांति जिनमंदिर, त्रिकाल चौबीसी मंदिर एवं नंद्यावर्त महल आदि अनेक निर्माण आपकी प्रेरणा से इस क्षेत्र पर हुए हैं तथा कुण्डलपुर तीर्थ विश्वभर के लिए आकर्षण का केन्द्र बन गया है।भगवान मुनिसुव्रतनाथ की जन्मभूमि ‘राजगृही’ में ‘मुनिसुव्रतनाथजिनमंदिर’ एवं विपुलाचल पर्वत की तलहटी में मानस्तंभ रचना, भगवान महावीर की निर्वाणस्थली पावापुरी में जलमंदिर के समक्ष पाण्डुकशिला परिसर में भगवान की खड्गासन प्रतिमा सहित ‘भगवान महावीर जिनमंदिर’, गौतम गणधर स्वामी की निर्वाणस्थली गुणावां जी में गौतम स्वामी की खड्गासन प्रतिमा सहित जिनमंदिर, श्री सम्मेदशिखर जी में भगवान ऋषभदेव मंदिर इत्यादि समस्त निर्माण भी पूज्य माताजी की संप्रेरणा से ही सम्पन्न हुए हैं।वर्तमान में तीर्थंकर जन्मभूमि विकास की शृँखला में भगवान पुष्पदंतनाथ की जन्मभूमि काकंदी में ‘पुष्पदंतनाथ जिनमंदिर’ के निर्माण हेतु शिलान्यास सम्पन्न किया जा चुका है तथा शीघ्र ही निर्माणकार्य पूर्ण करके इस विस्मृत जन्मभूमि का परिचय भी विश्व को प्रदान किया जा सकेगा।
१०. विश्व में अनोखी १०८ फुट मूर्ति निर्माण की प्रेरणा- विश्व के अप्रतिम आश्चर्य के रूप में १०८ फुट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव की खड्गासन प्रतिमा के निर्माण का कार्य मांगीतुंगी (महा.) के पर्वत पर पूज्य माताजी की प्रेरणा से प्रारंभ हो चुका है। युगों-युगों तक जिनशासन की महिमा को विकसित करने वाली यह प्रतिमा जैन संस्कृति के विशाल व्यक्तित्व का परिचय भी जनमानस को प्रदान करेगी।
११. शिरडी (महाराष्ट्र) में ज्ञानतीर्थ-शिरडी (महाराष्ट्र) को जैन संस्कृति केन्द्र के रूप में स्थापित करने हेतु महाराष्ट्र के कार्यकर्ताओं द्वारा वहाँ पर ‘ज्ञानतीर्थ’ के निर्माण की योजना मूर्तरूप ले रही है, जिसमें पूज्य माताजी के निर्देशानुसार भगवान पार्श्वनाथ की विशाल प्रतिमा विराजमान करके विशेष निर्माण सम्पन्न किया जायेगा।
१२. धर्मप्रभावना के विविध आयाम-जम्बूद्वीप रचना के निर्माण का प्रमुख लक्ष्य लेकर ‘दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान’ नामक संस्था का राजधानी दिल्ली में पूज्य माताजी की प्रेरणा से सन् १९७२ में गठन किया गया। इसी संस्थान ने उपर्युक्त विविध धर्मप्रभावना के कार्यों का निष्पादन किया है। संस्थान स्थित ‘वीर ज्ञानोदय ग्रन्थमाला’ द्वारा लाखों की संख्या में ग्रंथ प्रकाशन, चारों अनुयोगों के ज्ञान से समन्वित ‘सम्यग्ज्ञान’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन, णमोकार महामंत्र बैंक इत्यादि कितनी ही कार्ययोजनाएँ जिनशासन की कीर्ति को निरंतर प्रसारित कर रही हैं।
पूज्य माताजी की प्रेरणा से सन् १९८२ में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा राजधानी दिल्ली में उद्घाटित ‘जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति’ ने तीन वर्ष तक सम्पूर्ण भारतवर्ष में जैनधर्म के सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार किया और अंत में यह ज्योति अखण्ड रूप से तत्कालीन केन्द्रीय रक्षामंत्री-श्री पी.वी. नरसिंहाराव द्वारा जम्बूद्वीप स्थल पर स्थापित कर दी गयी। इसी प्रकार अप्रैल सन् १९९८ में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘भगवान ऋषभदेव समवसरण श्रीविहार’ का राजधानी दिल्ली से प्रवर्तन किया, जो समस्त प्रांतों में प्रवर्तन के पश्चात् सन् २००२ में भगवान ऋषभदेव की दीक्षा एवं केवलज्ञानकल्याणक भूमि प्रयाग-इलाहाबाद (उ.प्र.) में ‘‘ऋषभदेव तपस्थली तीर्थ’’ पर निर्मित ‘केवलज्ञान कल्याणक मंदिर’ में स्थापित हो चुका है जो युगों-युगों तक भगवान ऋषभदेव के वास्तविक समवसरण की याद दिलाता रहेगा। भगवान महावीर जन्मभूमि-कुण्डलपुर (नालंदा) से सन् २००३ में ‘भगवान महावीर ज्योति’ का विविध प्रांतों में सफल प्रवर्तन भी इसी शृँखला की विशिष्ट कड़ी है।
जैनधर्म की प्राचीनता तथा भगवान ऋषभदेव के नाम एवं सिद्धांतों को जन-जन तक पहुँचाने के लिए पूज्य माताजी ने राजधानी दिल्ली में विशाल ‘चौबीस कल्पदु्रम महामण्डल विधान’ आयोजित कराया, साथ ही ‘भगवान ऋषभदेव जन्मजयंती वर्ष’ तथा ‘भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव वर्ष’ (तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल जी द्वारा उद्घाटित) भी उनकाr प्रेरणा द्वारा विविध धर्मप्रभावना के कार्यक्रमों सहित सम्पन्न हुए। आस्था टी.वी. चैनल द्वारा पूज्य माताजी के प्रभावक प्रवचन लम्बे समय से प्रसारित किये जा रहे हैं। पूज्य माताजी की प्रेरणा से स्थापित ‘अखिल भारतवर्षीय दिगम्बर जैन महिला संगठन’ अपनी सैकड़ों इकाईयों द्वारा दिगम्बर जैन समाज की नारी शक्ति को सृजनात्मक कार्यों हेतु संगठित किये हुए है।
इसके अतिरिक्त कितने ही अन्य धर्मप्रभावना के कार्य इन ५१ वर्षों में पूज्य माताजी ने सम्पन्न किये हैं जिनका यहाँ लेखन तो संभव नहीं है, किन्तु आज पूरा समाज उनके कार्यकलापों से परिचित होकर उन्हें कर्मठता की मूर्ति के रूप में पहचानता है।
१३. संघर्ष विजेत्री-पूज्य माताजी ने प्रारंभ से अपना प्रमुख लक्ष्य बनाया- प्रत्येक कार्य आगमानुकूल ही करना। पुनः उन कार्यों के निष्पादन में जो भी विघ्न आते हैं, उन्हें बहुत ही शांतिपूर्वक झेलकर पूरी तन्मयता के साथ उस कार्य को परिपूर्ण करना उनकी विशेषता रही है। उनका पूरा जीवन आर्षपरम्परा का संरक्षण करते हुए अपने मूलगुणों में बाधा न आने देकर जिनधर्म की अधिकाधिक प्रभावना के साथ व्यतीत हुआ है। किसी भी संस्था, तीर्थ, चंदे आदि की दानराशि को अपनी संघ व्यवस्था में समाहित न करने का उनका नियम है। निरन्तर ५५ वर्षों से इस नियम का पालन करते हुए अपने कर्तव्य पथ पर वे अडिग हैं। यही कारण है कि उन्हें लम्बी-लम्बी यात्राएं कराने में अपना कर्तव्यपालन करने वाले संघपति श्रावक भी अपना सौभाग्य समझते हैं।
१४. भगवान पार्श्वनाथ जन्मकल्याणक तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव का आयोजन-२३वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ की जन्मभूमि वाराणसी में ६ जनवरी २००५ को पूज्य माताजी की प्रेरणा एवं ससंघ सानिध्य में ‘भगवान पार्श्वनाथ जन्मकल्याणक तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव’ का उद्घाटन किया गया। भगवान की केवलज्ञान कल्याणक भूमि ‘अहिच्छत्र’, निर्वाणभूमि ‘श्री सम्मेदशिखर जी’ इत्यादि अनेकानेक तीर्थों पर विविध आयोजनों के साथ यह वर्ष मनाया गया। पुन: वर्ष २००६ को ‘‘सम्मेदशिखर वर्ष’’ के रूप में मनाने की प्रेरणा पूज्य माताजी ने प्रदान की, ताकि तन-मन-धन से दिगम्बर जैन समाज अपने महान तीर्थराज ‘श्री सम्मेदशिखर जी’ के प्रति समर्पित हो सके। इसके पश्चात् केवलज्ञानकल्याणक की भूमि ‘‘अहिच्छत्र’’ तीर्थ पर ७ दिसम्बर सन् २००७ से ४ जनवरी २००८ तक तिखाल वाले बाबा भगवान पार्श्वनाथ का सहस्राब्दि महोत्सव एवं महामस्तकाभिषेक महोत्सव करने की पुण्य प्रेरणा प्रदान कर तृतीय सहस्राब्दि महोत्सव के त्रिवर्षीय आयोजन के समापन की घोषणा की जो उनके संघ सानिध्य में सम्पन्न हो चुका है।भगवान नेमिनाथ की निर्वाणभूमि ‘श्री गिरनार जी सिद्धक्षेत्र’ की सुरक्षा हेतु भी पूज्य माताजी ने जनजागरण का शंखनाद किया है।
१५. शताब्दी का अभूतपूर्व अवसर : दीक्षा स्वर्ण जयंती-वैशाख कृष्णा दूज, वी.नि.सं. २५३२ अर्थात् १५ अप्रैल २००६ को अपनी आर्यिका दीक्षा के ५० वर्ष पूर्ण करने वाली पूज्य माताजी वर्तमान दिगम्बर जैन साधु परम्परा में सर्वाधिक प्राचीन दीक्षित होने के गौरव से युक्त होकर हम सभी के लिए अतिशयकारी प्राचीन प्रतिमा के सदृश बन गई हैं। इस अवसर पर १४ से १६ अप्रैल २००६ तक ‘गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी आर्यिका दीक्षा स्वर्ण जयंती महोत्सव’ का आयोजन करके समस्त समाज ने पूज्य माताजी के श्रीचरणों में अपनी विनम्र विनयांजलि अर्पित की।
इस महोत्सव के साथ ही दीक्षा स्वर्ण जयंती वर्ष भी धूमधाम से पूरे देश के विभिन्न दिगम्बर जैन संगठनों द्वारा मनाया गया।
१६. अमृतमय हों वर्ष तुम्हारे-जिनकी दीर्घकालिक तपस्या के वर्षों की गिनती जानकर अनेक आचार्य, मुनि, आर्यिकाएँ इत्यादि भी इस बात को कहते हुए गौरव का अनुभव करते हैं कि आज जितनी मेरी उम्र भी नहीं है उससे अधिक तो पूज्य माताजी की दीक्षा आयु है, अर्थात् १८ वर्ष की उम्र से त्याग मार्ग पर जिन्होंने कदम रखा, उन्होंने अपनी जन्मतिथि-शरदपूर्णिमा को भी त्याग से सार्थक कर लिया तथा उस त्यागमयी जीवन के ५५ वर्ष भी उन्होंने निर्विघ्नतापूर्वक पूर्ण किये हैं।महान चतुर्मुखी प्रतिभा की धनी पूज्य माताजी के चरणों में कोटिश: नमन करते हुए भगवान जिनेन्द्र से यही प्रार्थना है कि उनके इस पवित्र त्यागमयी जीवन का हमें अमृत महोत्सव भी मनाने का लाभ प्राप्त हो तथा आपके द्वारा नया-नया साहित्य जनता को प्राप्त होता रहे, यही मंगलकामना है।
अब यहाँ प्रसंगोपात पूज्य आर्यिका श्री अभयमती माताजी की जन्मदात्री माता मोहिनी देवी (आर्यिका श्री रत्नमती माताजी) का परिचय प्रस्तुत है-