त्रिशला– जीजी! आज तुमने जो आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के द्वारा किये गये समयसार के उपदेश में स्वसमय-परसमय का विवेचन सुना है, उसे हमें एक बार पुन: समझाओ?
मालती– सुनो! मैं विस्तृत विवेचन के साथ तुम्हें समझाती हूँ।
जीवो चरित्तदंसणणाणट्ठिउ तं हि ससमयंजाण।
पुग्गलकम्म पदेशट्ठियं च तं जाण परसमयं।।
अर्थ-जो जीव दर्शन, ज्ञान और चारित्र में स्थित रहा है, हे शिष्य! उसे तुम निश्चय से स्वसमय जानो और जो जीव पुद्गल कर्म के प्रदेशों में स्थित है, उसे तुम परसमय जानो।’’
तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका में श्री जयसेनाचार्य ने पहले जीव का लक्षण बतलाया है कि जो शुद्धनिश्चयनय से शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावरूप निश्चयप्राण के द्वारा उसी प्रकार अशुद्धनिश्चयनय से क्षायोपशमिक (मति, श्रुतज्ञान, चक्षु, अचक्षुदर्शनरूप) अशुद्ध भाव प्राणों के द्वारा और असद्भूतव्यवहारनय की अपेक्षा से यथासंभव द्रव्य प्राणों से जीता है, जीवेगा और भूतकाल में जीता था, वह जीव कहलाता है। इस कथन की दृष्टि से देखा जाये, तो सभी जीव शुद्धनिश्चयनय से शुद्ध, बुद्ध एक चैतन्यस्वरूप ही हैं। चाहे वे एकेन्द्रिय हों या अभव्यजीव हों।
त्रिशला-तो क्या मेरी आत्मा भी शुद्ध है?
मालती–हाँ! अवश्य, हमारी-तुम्हारी सभी की आत्माएँ शुद्ध निश्चयनय से शुद्ध ही हैं, इसमें कोई भी संदेह नहीं है।
यही जीव जब मुनि अवस्था में पहुँचकर ध्यान में स्थित होता है, उस समय विशुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वभाव वाले अपनी परमात्मा में जो रुचि है, वह सम्यग्दर्शन है, उसी निज परमात्मा में जो रागादि स्वसंवेदन ज्ञान है, वही सम्यग्ज्ञान है, तथैव उसी निज परमात्मा में निश्चल अनुभूतिरूप जो अवस्था है, वही वीतराग चारित्र है। इन उपर्युक्त लक्षण वाले निश्चयरत्नत्रय अथवा अभेदरत्नत्रय के द्वारा परिणत हुए जीव पदार्थ को हे शिष्य! तुम स्वसमय जानो और जो कर्मोदय से जनित नर-नारकादि अवस्थाएँ हैं, पूर्वोक्त निश्चयरत्नत्रय के अभाव से जब जीव उसमें स्थित रहता है, तब उसे परसमय जानो। इसका निष्कर्ष यह निकला कि चतुर्थ, पंचम और छठे गुणस्थानवर्ती मुनि भी निश्चयरत्नत्रय में स्थित नहीं हैं अत: वे परसमय ही हैं किन्तु सातवें गुणस्थान से लेकर आगे के जीव जब वीतराग निर्विकल्प ध्यान में स्थित होते हैं, तभी वे स्वसमयरूप कहलाते हैं।
श्री अमृतचन्द्रसूरि ने भी अपनी आत्मख्याति नाम की टीका में कहा है कि ‘जब यह जीव केवलज्ञान को उत्पन्न करने वाली भेदज्ञान ज्योति के उदित होने से परद्रव्यों से पृथक् होकर दर्शन-ज्ञान स्वभाव में निश्चित प्रवृत्ति करता है, तब दर्शन, ज्ञान, चारित्र में स्थिर होने में अपने स्वरूप को एकत्वरूप से एक काल में जानता हुआ परिणमन करता हुआ स्वसमय कहलाता है और जब अनादि-अविद्यारूप मोह के उदय के अनुसार प्रवृत्ति की आधीनता से दर्शन, ज्ञान स्वभाव में निश्चित वृत्तिरूप आत्मस्वरूप से छूटकर परद्रव्य के निमित्त से उत्पन्न हुए मोह, राग, द्वेषादि भावों में एकरूप हो प्रवृत्त होता है, तब पुद्गल के कार्मण प्रदेशों में स्थित होने से परद्रव्य को अपने से अभिन्नरूप एक काल में जानता है तथा रागादिरूप परिणमन करता है, तब वह परसमय कहलाता है।
रत्नत्रय में स्थिर होकर स्वरूप को एक काल में जानना, उसरूप परिणत होना, यह अवस्था चतुर्थ, पंचम या छठे गुणस्थान में असंभव है, बल्कि वीतराग निर्विकल्प समाधिरूप ध्यान में ही संभव है। सार बात यह है कि जब यह जीव अपने स्वभाव में स्थित होता है, तब स्वसमय और जब राग-द्वेष-मोहरूप परिणत होता है, तब वह परसमय है।
इसके अतिरिक्त रयणसार में स्वयं ही भगवान श्री कुन्दकुन्ददेव ने तो स्वसमय को और भी उच्च अवस्था में घटित किया है। देखिए-
बहिरंतरप्पभेयं परसमयं भण्णये जिणिदेहिं।
परमप्पा सगसमयं तब्भेयं जाण गुणट्ठाणे।।१२८।।
मिस्सोत्ति बाहिरप्पा तरतमया तुरिय अंतरप्पा जहण्णा।
सत्तोत्तिमज्झिमंतर रवीणुत्तर परमजिणसिद्धा।।१२९।।
(रयणसार)
अर्थ-बहिरात्मा और अन्तरात्मा के जो भेद हैं, वे परसमय हैं, ऐसा श्री जिनेन्द्रदेव ने कहा है और जो परमात्मा हैं, वे स्वसमय हैं। अब इनके भेदों को गुणस्थानों में समझो।
मिथ्यात्व, सासादन और मिश्रगुणस्थानवर्ती जीव तरतमता से बहिरात्मा हैं। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती जीव जघन्य अन्तरात्मा हैं, पंचम गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक मध्यम अंतरात्मा हैं और क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थानवर्ती जीव उत्तम अंतरात्मा हैं। अरिहंत और सिद्ध अर्थात् तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीव और सिद्ध भगवान परमात्मा हैं।
इनके कथन से अरिहंत और सिद्ध परमात्मा ही स्वसमय हैं बाकी बारहवें गुणस्थान तक सभी जीव परसमय ही हैं। यही बात नियमसार में भी टीकाकार श्री पद्मप्रभमलधारी मुनिराज ने स्पष्ट की है जो कि ‘‘मार्गप्रकाश’’ ग्रंथ का उद्धरण है।
उत्तं च मार्गप्रकाशे-
वहिरात्मान्तरात्मेति स्यादन्य समयो द्विधा।
बहिरात्मानयोर्देहकरणाद्युदितात्मधी:।।
जघन्यमध्यमोत्कृष्ट भेदादविरत: सुदृक्।
प्रथम: क्षीणमोहोन्त्यो मध्यमो मध्यमस्तयो:।।
अर्थ-अन्य समय-परसमय जीव बहिरात्मा और अंतरात्मा इस प्रकार से दो प्रकार के हैं, इनमें शरीर और इन्द्रिय आदि में जिसकी आत्मबुद्धि हो रही है वह बहिरात्मा हैं। अन्तरात्मा के जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट ऐसे तीन भेद हैं। अविरत सम्यग्दृष्टि जघन्य अन्तरात्मा हैं एवं पाँचवें से ग्यारहवें तक मध्यम अन्तरात्मा हैं। सारांश यह है कि इन बहिरात्मा, अन्तरात्मा से भिन्न जो परमात्मा हैं वे स्वसमय हैं।
त्रिशला– और जो अष्टसहस्री ग्रंथ में स्वसमय-परसमय का कथन है, वह क्या है?
मालती – हाँ, वहाँ जो कहा है-
श्रोतव्याष्टसहस्री श्रुतै:, किमन्यै: सहस्रसंख्यानै:।
विज्ञायेत ययैव स्वसमय परसमयसद्भाव:।।
अर्थ-एक अष्टसहस्री ग्रंथ को ही सुनना चाहिए, अन्य सहस्रों शास्त्रों के सुनने के क्या प्रयोजन हैं? क्योंकि इस अष्टसहस्री ग्रंथ के द्वारा ही स्वसमय और परसमय का सद्भाव जान लिया जाता है। यहाँ पर जो स्वसमय है उसका अर्थ है जैनों का स्याद्वाद-सिद्धान्त और परसमय से नास्तिकवादी, बौद्ध, सांख्य, मीमांसक तथा नैयायिक आदि के सिद्धांत ग्रहण किये गये हैं। इन स्वसिद्धान्त और परसिद्धान्तों का भली प्रकार से ज्ञान अष्टसहस्री जैसे न्याय ग्रंथों से ही होता है और तभी सम्यक्त्व दृढ़ होता है।
त्रिशला-इस समयसार से स्वसमय को जानकर क्या करना चाहिए? जब कि आज के युग में यह अवस्था दुर्लभ है!
मालती–ऐसी बात नहीं है, इसको जानकर इस स्वसमय पर दृढ़ श्रद्धान करना चाहिए? और ‘मैं कब इस अवस्था को प्राप्त करूँगी?’ ऐसा सोचते हुए उस स्वसमयरूप परिणत हुए, ऐसे अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु इन पाँच परमेष्ठी का ध्यान, चिन्तन, मनन, पूजन, आराधन आदि करना चाहिए-
कम से कम चौबीस घंटों में से २५ मिनट भी अपने लिए निकालकर एकान्त में बैठकर चिंतवन करना चाहिए-
‘‘ज्ञानावरणकर्मरहितोऽहं, दर्शनावरणकर्मरहितोऽहं, वेदनीयकर्मरहितोऽहं, मोहकर्मरहितोऽहं, आयुकर्मरहितोऽहं, नामकर्मरहितोऽहं, गोत्रकर्मरहितोऽहं, अन्तरायकर्मरहितोऽहं, अष्टकर्मरहितोऽहं, भावकर्मरहितोऽहं, नोकर्म रहितोऽहं, परमानन्दस्वरूपोऽहं, परमाह्लादस्वरूपोऽहं, परमज्योति: स्वरूपोऽहं, परमचिन्मयोऽहं।
इत्यादि रूप से अपने शुद्धस्वरूप की भावना करते हुए क्षणभर उसमें स्थिर होने का अभ्यास करना चाहिए अथवा हृदय में एक कमल की कर्णिका पर ‘‘अ’’ ललाट में कमल की कर्णिता पर ‘‘सि’’ दाहिनी भुजा में कमल की कर्णिका पर ‘‘आ’’ शरीर के मध्य में विद्यमान नाभि में ‘‘उ’’ और बायीं भुजा की कमल की कर्णिका पर ‘‘सा’’ ऐसा चिंतवन करते हुए उस पर कुछ क्षण तक मन टिकाना चाहिए। ये ‘अ सि आ उ सा’ बीजाक्षर पंच परमेष्ठी के प्रथम-प्रथम अक्षर हैं, इनका ध्यान अथवा जाप्य महान पुण्य देने वाला है और अनन्त पापों का नाश करने वाला है।
इस प्रकार से स्वसमय में स्थित हुए की आराधना करते-करते एक दिन हमें भी वैसी योग्यता अवश्य ही प्राप्त होगी, ऐसा दृढ़ विश्वास रखना चाहिए। यही आज के उपदेश में हमने विस्तार से सुना है और ‘‘समय’’ शब्द का अर्थ तो पहले ही बताया गया था कि सम्-सम्यक् अय-ज्ञान जिसका है वह आत्मा समय कहलाता है। निश्चयनय से हमारी आत्मा पूर्ण केवलज्ञानस्वरूप है और व्यवहारनय से संसारी होने से अल्पज्ञ है किन्तु ज्ञानगुण का कुछ न कुछ अंश उसमें अवश्य है, जो कि क्षायोपशमिकरूप है।
त्रिशला–ठीक है, अब मैं स्वसमय को प्राप्त करने के लिए इन पाँचों परमेष्ठी के बीजाक्षरों का ध्यान अथवा चिंतवन अवश्य ही करूँगी।