स्वाध्याय
द्वारा -आर्यिका सुदृष्टिमति माताजी
प्र .४४१ : स्वाध्याय को परमतप क्यों कहा गया है?
उत्तर: स्वाध्याय परमतप है क्कयोकि स्वाध्याय करते समय मन समीचीन अर्रथ के विचार करने में लग जाता है |वचन पाठ करने में नेत्नेर वर्णों को देखने में और कर्ण शब्दों को सुनने में लीन हो जाते हैं। तथा सर्व इन्द्रिया निष्क्रिय हो जाती है। इसलिये स्वाध्याय में पूर्ण एकाग्रता होती है अतएव स्वाध्याय परमतप है।
प्र .४४२: सामायिक शब्द किसे कहते हैं?
उत्तर: सर्व द्रव्य में रति-अरति का भाव सम है और अपने में प्रवृत्ति का नाम जप है। उसी राग-द्वेष रहित प्रकृति का नाम समता व सामयिक है।
प्र. ४४३: स्वध्याय करने से क्या लाभ बतलाइये?
उत्तर: एक मूढ़ व्यक्ति भी ज्ञानी हो जाता है, (२) चंचल मन की एकाग्रता होती है, (३) समय का लघुपयोग होता है. ।४) चार प्रकार की डिक्रयाओं से हटकर धर्म कथा, आत्मचर्चा में उपयोग लगता है. बालक युवा वृद्ध महिलायें सभी को क्या त्याने योग्य है व क्या ग्रहण करने योग्य है, इस बात का ज्ञान मिलता है. (इ) स्वाध्याय के माध्यम से आत्मा में ज्ञान प्रकट होता है, (७) अतिशय पुण्य का बंध होता है. (८) अनेक कनों की निर्जरा होती है, (९) दर्पण के सदृश्य यथार्थ जानकारी होती है, (१०) अहत भगवान के स्वरूप की जानकारी होती है. (११) द्रव्य, गुण और पर्याय का ज्ञान होता है, (१२) निरन्तर अभ्यास से मिध्यात्व कर्म व अनंतानुबंधी कषाय का उपशम हो कर सम्यक्दर्शन हो जाता है, (१३) पंचेन्द्रिय के विषय सेवन से प्रवृत्ति हटती है, (१४) मोक्ष प्राप्ति का उपाय करता है, (१५) संसार के पदार्थों से ममत्व कम होता है, (१६) स्वयं को भूत हो जाने पर भूल स्वीकार कर भी लेता है पुनः यथार्थ मार्ग पर आ जाता है, (१७) सप्त व्यसन सेवन करने व अनर्गल अनंतानुबंधी कषाय बांध नहीं रखता है. (१८) समता भाव में जागृति होती हैं. (१९) किसी से बैर भाव व अनंतानुबंधी कषाय बंध नहीं रखता है, (२०) स्वार्थसिद्धि के देव ३३ सागर तक मात्र तत्वचर्चा ही करते हैं तथा एक बार जो चर्चा करने में आ गई वह पुनः नहीं आती। लगन व उत्कंठापूर्वक चर्चा करने का महत्व या फल यह होता है कि के एक भव अवतारी होते हैं, (२१) जितने भी भव्य जीव मोक्ष पधारे हैं, वर्तमान में विदेहक्षेत्र से जा रहे है तथा भविष्य में जायेंगे यह सब स्वाध्याय अर्थात् आत्मध्यान का ही माहात्म्य है, (२२) खोटी संगति से हटकर सत्संगति, मृनुनुओं से चर्चा, वार्ता करने की उत्सुकता रहती है। स्वाध्याय आत्मज्ञान के सम्मुख होता है, (२२) यह पर्याय पूर्ण होने पर भी, आगामी पर्याय में ये संस्कार बहुत लाभप्रद होते हैं व अतिशीघ्र धर्मध्यान में प्रवृत्त करते हैं, (२५) लोक में यश की प्राप्ति होती है तथा (२५) महान पुरुषों के चरित्र की प्राप्ति होती है।
प्र. ४४४ : स्वाध्याय किसे कहते हैं?
उत्तर: शास्त्र पढ़ना स्वाध्याय हैं। धर्म और मोक्ष के स्वरूप प्रतिपादन करने वाले परम अध्यात्म आगमों का प्रौढ़ रूप से अभ्यास करना स्वाध्याय कहलाता है और यह अंतरंग तप की कोटि में गिना जाता हैं। इससे स्वर्ग तथा मोक्ष की सिद्धि होती हैं।
प्र. ४४५ : अस्वाध्याय किसे कहते हैं?
उत्तर: लौकिक शास्त्र, जैसे अर्थशास्त्र, कामशास्त्र आदि शास्त्रों का अभ्यास करना अस्वाध्याय है। इसके अध्ययन का परिणाम कार्यकारी न होकर निंद्य होता है। मुनिगण तो स्वाध्याय का ही आचरण करते हैं।
प्र. ४४६ : शास्त्र स्वाध्याय में अंतराय करने का क्या फल है?
उत्तर: हकलाना, तोतला होना, गूंगा होना, स्पष्ट न बोलना ये सभी शास्त्र स्वाध्याय में अंतराय डालने का फल है, रात-दिन अध्ययन करने पर भी ज्ञान की वृद्धि नहीं होना, रात-दिन रटने पर भी पाठ याद नहीं होना, ज्ञान की अल्पता के कारण सर्वत्र निरादर होना, यह सब शास्त्र स्वाध्याय में अंतराय डालने का फल है।
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